चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास ( दूसरा अध्याय ) सत्रहवाँ बयान एक बहुत बड़े नाले में जिसके चारों तरफ बहुत ही घना जंगल था, पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी के साथ तेजसिंह बैठे हैं। बगल में साधारण-सी डोली रखी हुई है, पर्दा उठा हुआ है, एक औरत उसमें बैठी तेजसिंह से बातें कर रही है। यह औरत चुनार के महाराज शिवदत्त की रानी कलावती कुँअर है। पीछे की तरफ एक हाथ डोली पर रखे चंपा भी खड़ी है। महारानी - मैं चुनार जाने में राजी नहीं हूँ, मुझको राज्य नहीं चाहिए, महाराज के पास रहना मेरे लिए स्वर्ग है। अगर वे कैद हैं तो मेरे पैर में भी बेड़ी डाल दो मगर उन्हीं के चरणों में रखो। तेज - नहीं, मैं यह नहीं कहता कि जरूर आप भी उसी कैदखाने में जाइये जिसमें महाराज हैं। आपकी खुशी हो तो चुनार जाइये, हम लोग बड़ी हिफाजत से पहुँचा देंगे। कोई जरूरत आपको यहाँ लाने की नहीं थी, ज्योतिषीजी ने कई दफे आपके पतिव्रत धर्म की तारीफ की थी और कहा था कि महाराज की जुदाई में महारानी को बड़ा ही दुख होता होगा, यह जान हम लोग आपको ले आये थे नहीं तो खाली चंपा को ही छुड़ाने गये थे। अब आप कहिए तो चुनार पहुँचा दें नहीं तो महाराज के पास ले जायँ क्योंकि सिवाय मेरे और किसी के जरिये आप महाराज के पास नहीं पहुँच सकतीं, और फिर महाराज क्या जाने कब तक कैद रहें। महारानी - तुम लोगों ने मेरे ऊपर बड़ी कृपा की, सचमुच मुझे महाराज से इतनी जल्दी मिलाने वाला और कोई नहीं जितनी जल्दी तुम मिला सकते हो। अभी मुझको उनके पास पहुँचाओ, देर मत करो, मैं तुम लोगों का बड़ा जस मानूँगी! तेज - तो इस तरह डोली में आप नहीं जा सकतीं, मैं बहोश करके आपको ले जा सकता हूँ। महारानी - मुझको यह भी मंजूर है, किसी तरह वहाँ पहुँचाओ। तेज - अच्छा तब लीजिए इस शीशी को सूँघिये। महारानी को अपने पति के साथ बड़ी ही मुहब्बत थी, अगर तेजसिंह उनको कहते कि तुम अपना सिर दे दो तब महाराज से मुलाकात होगी तो वह उसको भी कबूल कर लेतीं। महारानी बेखटके शीशी सूँघकर बेहोश हो गईं। ज्योतिषीजी ने कहा, “अब इनको ले जाइये उसी तहखाने में छोड़ आइए। जब तक आप न आवेंगे मैं इसी जगह में रहूँगा। चंपा को भी चाहिए कि विजयगढ़ जाये, हम लोग तो कुमारी चन्द्रकान्ता की खोज में घूम ही रहे हैं, ये क्यों दुख उठाती है! तेजसिंह ने कहा, “चंपा, ज्योतिषीजी ठीक कहते हैं, तुम जाओ, कहीं ऐसा न हो कि फिर किसी आफत में फँस जाओ।” चंपा ने कहा, “जब तक कुमारी का पता न लगेगा मैं विजयगढ़ कभी न जाऊँगी। अगर मैं इन बर्देफरोशों के हाथ फँसी तो अपनी ही चालाकी से छूट भी गई, आप लोगों को मेरे लिए कोई तकलीफ न करनी पड़ी।” तेजसिंह ने कहा, “तुम्हारा कहना ठीक है, हम यह नहीं कहते कि हम लोगों ने तुमको छुड़ाया। हम लोग तो कुमारी चन्द्रकान्ता को ढूँढते हुए यहाँ तक पहुँच गये और उन्हीं की उम्मीद में बर्देफराशों के डेरे देख डाले। उनको तो न पाया मगर महारानी और तुम फँसी हुई दिखाई दीं, छुड़ाने की फिक्र हुई। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को महारानी को छुड़ाने के लिए कोशिश करते देख हम लोग यह समझकर अलग हो गए कि मेहनत वे लोग करें, मौके में मौका हम लोगों को भी काम करने का मिल ही जायगा। सो ऐसा ही हुआ भी, तुम अपनी ही चालाकी से छूटकर बाहर निकल गईं, हमने महारानी को गायब किया। खैर इन सब बातों को जाने दो, तुम यह बताओ कि घर न जाओगी तो क्या करोगी? कहाँ ढूंढोगी? कहीं ऐसा न हो कि हम लोग तो कुमारी को खोजकर विजयगढ़ ले जायँ और तुम महीनों तक मारी-मारी फिरो।” चंपा ने कहा, “मैं एकदम से ऐसी बेवकूफ नहीं, आप बेफिक्र रहें।” तेजसिंह को लाचार होकर चंपा को उसकी मर्जी पर छोड़ना पड़ा और ज्योतिषीजी को भी उसी जंगल में छोड़ महारानी की गठरी बाँधा कैदखाने वाले खोह की तरफ रवाना हुए जिसमें महाराज बंद थे। चंपा भी एक तरफ को रवाना हो गई। *–*–* अठारहवाँ बयान तेजसिंह के जाने के बाद ज्योतिषीजी अकेले पड़ गये, सोचने लगे कि रमल के जरिये पता लगाना चाहिए कि चन्द्रकान्ता और चपला कहाँ हैं। बस्ता खोल पटिया निकाल रमल फेंक गिनने लगे। घड़ी भर तक खूब गौर किया। यकायक ज्योतिषीजी के चेहरे पर खुशी झलकने लगी और होंठों पर हंसी आ गई, झटपट रमल और पटिया बाँधा उसी तहखाने की तरफ दौड़े जहाँ तेजसिंह महारानी को लिये जा रहे थे। ऐयार तो थे ही, दौड़ने में कसर न की, जहाँ तक बन पड़ा तेजी से दौड़े। तेजसिंह कदम-कदम झपटे हुए चले जा रहे थे। लगभग पांच कोस गये होंगे कि पीछे से आवाज आई, “ठहरो-ठहरो!” फिर के देखा तो ज्योतिषी जगन्नाथजी बड़ी तेजी से चले आ रहे हैं, ठहर गये, जी में खुटका हुआ कि यह क्यों दौड़े आ रहे हैं। जब पास पहुँचे इनके चेहरे पर कुछ हँसी देख तेजसिंह का जी ठिकाने हुआ। पूछा, “क्यों क्या है जो आप दौड़े आये हैं?” ज्योतिषी - है क्या, बस हम भी आपके साथ उसी तहखाने में चलेंगे। तेज - सो क्यों? ज्योतिषी - इसका हाल भी वहीं मालूम होगा, यहाँ न कहेंगे। तेज - तो वहाँ दरवाजे पर पट्टी भी बँधानी पड़ेगी, क्योंकि पहले वाले ताले का हाल जब से कुमार को धोखा देकर बद्रीनाथ ने मालूम कर लिया तब से एक और ताला हमने उसमें लगाया है जो पहले ही से बना हुआ था मगर आसकत से उसको काम में नहीं लाते थे क्योंकि खोलने और बंद करने में जरा देर लगती है। हम यह निश्चय कर चुके हैं कि इस ताले का भेद किसी को न बतावेंगे। ज्योतिषी - मैं तो अपनी आँखों पर पट्टी न बँधाऊंगा और उस तहखाने में भी जरूर जाऊँगा। तुम झख मारोगे और ले चलोगे। तेज - वाह क्या खूब! भला कुछ हाल तो मालूम हो! ज्योतिषी - हाल क्या, बस पौ बारह है! कुमारी चन्द्रकान्ता को वहीं दिखा दूँगा! तेज - हाँ? सच कहो!! ज्योतिषी - अगर झूठ निकले तो उसी तहखाने में मुझको हलाल करके मार डालना। तेज - खूब कही, तुम्हें मार डालूँगा तो तुम्हारा क्या बिगड़ेगा, बह्महत्या तो मेरे सिर चढ़ेगी! ज्योतिषी - इसका भी ढंग मैं बता देता हूँ जिसमें तुम्हारे ऊपर ब्रह्महत्या न चढ़े। तेज - वह क्या? ज्योतिषी - कुछ मुश्किल नहीं है, पहले मुसलमान कर डालना तब हलाल करना। ज्योतिषीजी की बात पर तेजसिंह हँस पड़े और बोले, “अच्छा भाई चलो, क्या करें, आपका हुक्म मानना भी जरूरी है।” दूसरे दिन शाम को ये लोग उस तहखाने के पास पहुँचे। ज्योतिषीजी के सामने ही तेजसिंह ताला खोलने लगे। पहले उस शेर के मुँह में हाथ डाल के उसकी जुबान बाहर निकाली, इसके बाद दूसरा ताला खोलने लगे। दरवाजे के दोनों तरफ दो पत्थर संगमर्मर के दीवार के साथ जड़े थे। दाहिनी तरफ के संगमर्मर वाले पत्थर पर तेजसिंह ने जोर से लात मारी, साथ ही एक आवाज हुई और वह पत्थर दीवार के अंदर घुसकर जमीन के साथ सट गया। छोटे से हाथ भर के चबूतरे पर एक साँप चक्कर मारे बैठा देखा जिसकी गर्दन पकड़कर कई दफे पेच की तरह घुमाया, दरवाजा खुल गया। महारानी की गठरी लिए तेजसिंह और ज्योतिषीजी अंदर गये, भीतर से दरवाजा बंद कर लिया। भीतर दरवाजे के बाएं तरफ की दीवार में एक सूराख हाथ जाने लायक था, उसमें हाथ डाल के तेजसिंह ने कुछ किया जिसका हाल ज्योतिषीजी को मालूम न हो सका। ज्योतिषीजी ने पूछा, “इसमें क्या है?” तेजसिंह ने जवाब दिया, “इसके भीतर एक किल्ली है जिसके घुमाने से वह पत्थर बंद हो जाता है जिस पर बाहर मैंने लात मारी और जिसके अंदर साँप दिखाई पड़ा था। इस सुराख से सिर्फ उस पत्थर के बंद करने का काम चलता है खुल नहीं सकता, खोलते समय इधर भी वही तरकीब करनी पड़ेगी जो दरवाजे के बाहर की गई थी।” दरवाजा बंद कर ये लोग आगे बढ़े। मैदान में जाकर महारानी की गठरी खोल उन्हें होश में लाये और कहा, “हमारे साथ-साथ चली आइए, आपको महाराज के पास पहुँचा दें।” महरानी इन लोगों के साथ-साथ आगे बढ़ीं। तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से पूछा, “बताइए चन्द्रकान्ता कहाँ हैं?” ज्योतिषीजी ने कहा, “मैं पहले कभी इसके अंदर आया नहीं जो सब जगहें मेरी देखी हों, आप आगे चलिए, महाराज शिवदत्त को ढूंढिए, चन्द्रकान्ता भी दिखाई दे जायगी।” घूमते-फिरते महाराज शिवदत्त को ढूंढ़ते ये लोग उस नाले के पास पहुँचे जिसका हाल पहले भाग में लिख चुके हैं। यकायक सबों की निगाह महाराज शिवदत्त पर पड़ी जो नाले के उस पार एक पत्थर के ढोके पर खड़े ऊपर की तरफ मुँह किए कुछ देख रहे थे। महारानी तो महाराज को देख दीवानी-सी हो गईं, किसी से कुछ न पूछा कि इस नाले में कितना पानी है या उस पार कैसे जाना होगा, झट कूद पड़ीं। पानी थोड़ा ही था, पार हो गईं और दौड़कर रोती महाराज शिवदत्त के पैरों पर गिर पड़ीं। महाराज ने उठाकर गले से लगा लिया, तब तक तेजसिंह और ज्योतिषीजी भी नाले के पार हो महाराज शिवदत्त के पास पहुँचे। ज्योतिषीजी को देखते ही महाराज ने पूछा, “क्यों जी, तुम यहाँ कैसे आये? क्या तुम भी तेजसिंह के हाथ फँस गये।” ज्योतिषीजी ने कहा, “नहीं तेजसिंह के हाथ क्यों फँसेंगे, हाँ उन्होंने कृपा करके मुझे अपनी मंडली में मिला लिया है, अब हम वीरेन्द्रसिंह की तरफ हैं आपसे कुछ वास्ता नहीं।” ज्योतिषीजी की बात सुनकर महाराज को बड़ा गुस्सा आया, लाल-लाल आँखें कर उनकी तरफ देखने लगे। ज्योतिषीजी ने कहा, “अब आप बेफायदा गुस्सा करते हैं, इससे क्या होगा? जहाँ जी में आया तहाँ रहे। जो अपनी इज्जत करे उसी के साथ रहना ठीक है। आप खुद सोच लीजिए और याद कीजिए कि मुझको आपने कैसी-कैसी कड़ी बातें कही थीं। उस वक्त यह भी न सोचा कि ब्राह्मण है। अब क्यों मेरी तरफ लाल-लाल आँखें करके देखते हैं!” ज्योतिषीजी की बातें सुनकर शिवदत्त ने सिर नीचा कर लिया और कुछ जवाब न दिया। इतने में एक बारीक आवाज आई, “तेजसिंह!” तेजसिंह ने सिर उठाकर उधर देखा जिधर से आवाज आई थी, चन्द्रकान्ता नजर पड़ी जिसे देखते ही इनकी आँखों से आँसू निकल पड़े। हाय, क्या सूरत हो रही है, सिर के बाल खुले हैं, गुलाब-सा मुँह कुम्हला गया, बदन पर मैल चढ़ी हुई है, कपड़े फटे हुए हैं, पहाड़ के ऊपर एक छोटी-सी गुफा के बाहर खड़ी “तेजसिंह-तेजसिंह”, पुकार रही है। तेजसिंह उस तरफ दौड़े। चाहा कि पहाड़ पर चढ़कर कुमारी के पास पहुँच जायं मगर न हो सका, कहीं रास्ता न मिला। बहुत परेशान हुए लेकिन कोई काम न चला, लाचार होकर ऊपर चढ़ने के लिए कमंद फेंकी मगर वह चौथाई दूर भी न गई, ज्योतिषीजी से कमंद लेकर अपने कमंद में जोड़कर फिर फेंकी, आधी दूर भी न पहुँची। हर तरह की तरकीबें कीं मगर कोई मतलब न निकला, लाचार होकर आवाज दी और पूछा, “कुमारी, आप यहाँ कैसे आईं?” तेजसिंह की आवाज कुमारी के कान तक बखूबी पहुँची मगर कुमारी की आवाज जो बहुत ही बारीक थी तेजसिंह के कानों तक पूरी-पूरी न आई। कुमारी ने कुछ जवाब दिया, साफ-साफ तो समझ में न आया, हाँ इतना समझ पड़ा- “किस्मत… आई… तरह… निकालो…!” हाय! - हाय! कुमारी से अच्छी तरह बात भी नहीं कर सकते। यह सोच तेजसिंह बहुत घबराए, मगर इससे क्या हो सकता था, कुमारी ने कुछ और कहा जो बिल्कुल समझ में न आया, हाँ यह मालूम हो रहा था कि कोई बोल रहा है। तेजसिंह ने फिर आवाज दी और कहा, “आप घबराइए नहीं, कोई तरकीब निकालता हूँ जिससे आप नीचे उतर आवें।” इसके जवाब में कुमारी मुँह से कुछ न बोली, उसी जगह एक जंगली पेड़ था जिसके पत्तो जरा बड़े और मोटे थे, एक पत्ता तोड़ लिया और एक छोटे नुकीले पत्थर की नोक से उस पत्ते पर कुछ लिखा, अपनी धोती में से थोड़ा-सा कपड़ा फाड़ उसमें वह पत्ता और एक छोटा-सा पत्थर बाँधा इस अंदाज से फेंका कि नाले के किनारे कुछ जल में गिरा। तेजसिंह ने उसे ढूँढकर निकाला, गिरह खोली, पत्ते पर गोर से निगाह डाली, लिखा था, “तुम जाकर पहले कुमार को यहाँ ले आओ।” तेजसिंह ने ज्योतिषीजी को वह पत्ता दिखलाया और कहा, “आप यहाँ ठहरिए मैं जाकर कुमार को बुला लाता हूँ। तब तक आप भी कोई तरकीब सोचिए जिससे कुमारी नीचे उतर सकें!” ज्योतिषीजी ने कहा, “अच्छी बात है, तुम जाओ, मैं कोई तरकीब सोचता हूँ।” इस कैफियत को महारानी ने भी बखूबी देखा मगर यह जान न सकीं कि कुमारी ने पत्ते पर क्या लिखकर फेंका और तेजसिंह कहाँ चले गये तो भी महारानी को चन्द्रकान्ता की बेबसी पर रुलाई आ गई और उसी तरफ टकटकी लगाकर देखती रहीं। तेजसिंह वहाँ से चलकर फाटक खोल खोह के बाहर हुए और फिर दोहरा ताला लगा विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए। *–*–* « पीछे जायेँ | आगे पढेँ » • चन्द्रकान्ता [ होम पेज ] |
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