चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास ( चौथा अध्याय ) बीसवाँ बयान महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह के पूछने पर सिद्धनाथ बाबा ने इस दिलचस्प पहाड़ी और कुमारी चन्द्रकान्ता का हाल कहना शुरू किया। बाबाजी – मुझे मालूम था कि यह पहाड़ी एक छोटा सा तिलिस्म है और चुनार के इलाके में भी कोई तिलिस्म है। जिसके हाथ से वह तिलिस्म टूटेगा उसकी शादी जिसके साथ होगी उसी के दहेज के सामान पर यह तिलिस्म बँधा है और शादी होने के पहले ही वह इसकी मालिक होगी। सुरेन्द्र – पहले यह बताइए कि तिलिस्म किसे कहते हैं और वह कैसे बनाया जाता है? बाबा – तिलिस्म वही शख्स तैयार कराता है जिसके पास बहुत माल-खजाना हो और वारिस न हो। तब वह अच्छे-अच्छे ज्योतिषी और नजूमियों से दरियाफ्त करता है कि उसके या उसके भाइयों के खानदान में कभी कोई प्रतापी या लायक पैदा होगा या नहीं? आखिर ज्योतिषी या नजूमी इस बात का पता देते हैं कि इतने दिनों के बाद आपके खानदान में एक लड़का प्रतापी होगा, बल्कि उसकी एक जन्मपत्री लिखकर तैयार कर देते हैं। उसी के नाम से खजाना और अच्छी-अच्छी कीमती चीजों को रखकर उस पर तिलिस्म बाँधते हैं। आजकल तो तिलिस्म बाँधने का यह कायदा है कि थोड़ा-बहुत खजाना रखकर उसकी हिफाजत के लिए दो-एक बलि दे देते हैं, वह प्रेत या साँप होकर उसकी हिफाजत करता है और कहे हुए आदमी के सिवाय दूसरे को एक पैसा लेने नहीं देता, मगर पहले यह कायदा नहीं था। पुराने जमाने के राजाओं को जब तिलिस्म बाँधने की जरूरत पड़ती थी तो बड़े-बड़े ज्योतिषी, नजूमी, वैद्य, कारीगर और तांत्रिक लोग इकट्ठे किए जाते थे। उन्हीं लोगों के कहे मुताबिक तिलिस्म बाँधने के लिए जमीन खोदी जाती थी, उसी जमीन के अंदर खजाना रखकर ऊपर तिलिस्मी इमारत बनायी जाती थी। उसमें ज्योतिषी, नजूमी, वैद्य, कारीगर और तांत्रिक लोग अपनी ताकत के मुताबिक उसके छिपाने की बंदिश करते थे मगर साथ ही इसके उस आदमी के नक्षत्र और ग्रहों का भी ख्याल रखते थे जिसके लिए वह खजाना रखा जाता था। कुँअर वीरेन्द्रसिंह ने एक छोटा सा तिलिस्म तोड़ा है, उनकी जुबानी आप वहाँ का हाल सुनिए और हर एक बात को खूब गौर से सोचिए तो आप ही मालूम हो जायगा कि ज्योतिषी, नजूमी, कारीगर और दर्शन-शास्त्र के जानने वाले क्या काम कर सकते थे। जयसिंह – खैर इसका हाल कुछ-कुछ मालूम हो गया, बाकी कुमार की जुबानी तिलिस्म का हाल सुनने और गौर करने से मालूम हो जायेगा। अब आप इस पहाड़ी और मेरी लड़की का हाल कहिए और यह भी कहिए कि महाराज शिवदत्त इस खोह से क्योंकर निकल भागे और फिर क्योंकर कैद हो गये? बाबा – सुनिए मैं बिल्कुल हाल आपसे कहता हूँ। जब कुमारी चन्द्रकान्ता चुनार के तिलिस्म में फँसकर इस खोह में आईं तो दो दिनों तक तो इस बेचारी ने तकलीफ से काटा। तीसरे रोज खबर लगने पर मैं यहाँ पहुँचा और कुमारी को उस जगह से छुड़ाया जहाँ वह फँसी हुई थी और जिसको मैं आप लोगों को दिखाऊँगा। सुरेन्द्र – सुनते हैं तिलिस्म तोड़ने में ताकत की भी जरूरत पड़ती है? बाबा – यह ठीक है, मगर इस तिलिस्म में कुमारी को कुछ भी तकलीफ न हुई और न ताकत की जरूरत पड़ी, क्योंकि इसका लगाव उस तिलिस्म से था जिसे कुमार ने तोड़ा है। वह तिलिस्म या उसके कुछ हिस्से अगर न टूटते तो यह तिलिस्म भी न खुलता। कुमार – (सिद्धनाथ की तरफ देखकर) आपने यह तो कहा ही नहीं कि कुमारी के पास किस राह से पहुँचे? हम लोग जब इस खोह में आए थे और कुमारी को बेबस देखा था तब बहुत सोचने पर भी कोई तरकीब ऐसी न मिली थी जिससे कुमारी के पास पहुँचकर इन्हें उस बला से छुड़ाते। बाबा – सिर्फ सोचने से तिलिस्म का हाल नहीं मालूम हो सकता है। मैं भी सुन चुका था कि इस खोह में कुमारी चन्द्रकान्ता फँसी पड़ी है और आप छुड़ाने की फिक्र कर रहे हैं मगर कुछ बन नहीं पड़ता। मैं यहाँ पहुँचकर कुमारी को छुड़ा सकता था लेकिन यह मुझे मंजूर न था, मैं चाहता था कि यहाँ का माल-असबाब कुमारी के हाथ लगे। कुमार – आप योगी हैं, योगबल से इस जगह पहुँच सकते हैं, मगर मैं क्या कर सकता था। बाबा – आप लोग इस बात को बिल्कुल मत सोचिए कि मैं योगी हूँ, जो काम आदमी के या ऐयारों के किए नहीं हो सकता उसे मैं भी नहीं कर सकता। मैं जिस राह से कुमारी के पास पहुँचा और जो-जो किया सो कहता हूँ, सुनिए। *–*–* इक्कीसवाँ बयान सिद्धनाथ योगी ने कहा, “पहले इस खोह का दरवाजा खोल मैं इसके अंदर पहुँचा और पहाड़ी के ऊपर एक दर्रे में बेचारी चन्द्रकान्ता को बेबस पड़े हुए देखा। अपने गुरु से मैं सुन चुका था कि इस खोह में कई छोटे-छोटे बाग हैं जिनका रास्ता उस चश्मे में से है जो खोह में बह रहा है, खोह के अंदर आने पर आप लोगों ने उसे जरूर देखा होगा, क्योंकि खोह हमें उस चश्मे की खूबसूरती भी देखने के काबिल है।” सिद्धनाथ की इतनी बात सुनकर सभी ने ‘हूँ हूँ’ कह के सिर हिलाया। इसके बाद सिद्धनाथ योगी कहने लगे - सिद्ध – मैं लंगोटी बाँधकर चश्मे में उतर गया और इधर से उधर और उधर से इधर घूमने लगा। यकायक पूरब तरफ जल के अंदर एक छोटा सा दरवाजा मालूम हुआ, गोता लगाकर उसके अंदर घुसा। आठ-दस हाथ तक बराबर जल मिला इसके बाद धीरे-धीरे जल कम होने लगा, यहाँ तक कि कमर तक जल हुआ। तब मालूम पड़ा कि यह कोई सुरंग है जिसमें चढ़ाई के तौर पर ऊँचे की तरफ चला जा रहा हूँ। आधा घंटा चलने के बाद मैंने अपने को इस बाग में (जिसमें आप बैठे हैं) पश्चिम और उत्तर के कोण में पाया और घूमता-फिरता इस कमरे में पहुँचा, (हाथ से इशारा करके) यह देखिए दीवार में जो अलमारी है, असल में वह अलमारी नहीं दरवाजा है, लात मारने से खुल जाता है। मैंने लात मारकर यह दरवाजा खोला और इसके अंदर घुसा। भीतर बिल्कुल अंधकार था, लगभग दो सौ कदम जाने के बाद दीवार मिली। इसी तरह यहाँ भी लात मारकर दरवाजा खोला और ठीक उसी जगह पहुँचा जहाँ कुमारी चन्द्रकान्ता और चपला बेबस पड़ी रो रही थीं। मेरे बगल से ही एक दूसरा रास्ता उस चुनारगढ़ वाले तिलिस्म को गया था, जिसके एक टुकड़े को कुमार ने तोड़ा है। मुझे देखते ही ये दोनों घबरा गईं। मैंने कहा, “तुम लोग डरो मत, मैं तुम दोनों को छुड़ाने आया हूँ।” यह कहकर जिस राह से मैं गया था, उसी राह से कुमारी चन्द्रकान्ता और चपला को साथ ले इस बाग में लौट आया। इतना हाल, इतनी कैफियत, इतना रास्ता तो मैं जानता था, इससे ज्यादे इस खोह का हाल मुझे कुछ भी मालूम न था। कुमारी और चपला को खोह के बाहर कर देना या घर पहुँचा देना मेरे लिए कोई बड़ी बात न थी, मगर मुझको यह मंजूर था कि यह छोटा सा तिलिस्म कुमारी के हाथ से टूटे और यहाँ का माल-असबाब इनके हाथ लगे। मैं क्या सभी कोई इस बात को जानते होंगे और सबोँ को यकीन होगा कि कुमारी चन्द्रकान्ता को इस कैद से छुड़ाने के लिए ही कुमार चुनारगढ़ वाले तिलिस्म को तोड़ रहे थे, माल-खजाने की इनको लालच नहीँ था। अगर मैं कुमारी को यहाँ से निकालकर आपके पास पहुँचा देता तो कुमार उस तिलिस्म को तोड़ना बंद कर देते और वहाँ का खजाना भी यों ही रह जाता। मैं आप लोगों की बढ़ती चाहने वाला हूँ। मुझे यह कब मंजूर हो सकता था कि इतना माल-असबाब बरबाद जावे और कुमार या कुमारी चन्द्रकान्ता को न मिले। मैंने अपने जी का हाल कुमारी और चपला से कहा और यह भी कहा कि अगर मेरी बात न मानोगी तो तुम्हें इसी बाग में छोड़कर मैं चला जाऊँगा। आखिर लाचार होकर कुमारी ने मेरी बात मंजूर की और कसम खाई कि मेरे कहने के खिलाफ कोई काम न करेगी। मुझे यह तो मालूम ही न था कि यहाँ का माल-असबाब क्यों कर हाथ लगेगा, और इस खजाने की ताली कहाँ है, मगर यह यकीन हो गया कि कुमारी जरूर इस तिलिस्म की मालिक होगी। इसी फिक्र में दो रोज तक परेशान रहा। इन बागीचों की हालत बिल्कुल खराब थी, मगर दो-चार फलों के पेड़ ऐसे थे कि हम तीनों ने तकलीफ न पाई। तीसरे दिन पूर्णिमा थी। मैं उस बावली के किनारे बैठा कुछ सोच रहा था, कुमारी और चपला इधर-उधर टहल रही थीं, इतने में चपला दौड़ी हुई मेरे पास आई और बोली, “जल्दी चलिए, इस बाग में एक ताज्जुब की बात दिखाई पड़ी है।” मैं सुनते ही खड़ा हुआ और चपला के साथ वहाँ गया जहाँ कुमारी चन्द्रकान्ता पूरब की दीवार तले खड़ी गौर से कुछ देख रही थी। मुझे देखते ही कुमारी ने कहा, “बाबाजी, देखिए इस दीवार की जड़ में एक सूराख है जिसमें से सफेद रंग की बड़ी-बड़ी चिउँटियाँ निकल रही हैं! यह क्या मामला है?” मैंने अपने ओस्ताद से सुना था कि सफेद चिउँटियाँ जहाँ नजर पड़ें समझना कि वहाँ जरूर कोई खजाना या खजाने की ताली है। यह ख्याल करके मैंने अपनी कमर से खंजर निकाल कुमारी के हाथ में दे दिया और कहा कि तुम इस जमीन को खोदो। अस्तु मेरे कहे मुताबिक कुमारी ने उस जमीन को खोदा। हाथ ही भर के बाद काँच की छोटी सी हाँडी निकली जिसका मुँह बंद था। कुमारी के ही हाथ से वह हाँडी मैंने तोड़वाई। उसके भीतर किसी किस्म का तेल भरा हुआ था जो हाँडी टूटते ही बह गया और ताली का एक गुच्छा उसके अंदर से मिला जिसे पाकर मैं बहुत खुश हुआ। दूसरे दिन कुमारी चन्द्रकान्ता के हाथ में ताली का गुच्छा देकर मैंने कहा, “चारों तरफ घूम-घूमकर देखो, जहाँ ताला नजर पड़े, इन तालियों में से किसी ताली को लगाकर खोलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ।” मुख्तसर ही में बयान करके इस बात को खत्म करता हूँ। उस गुच्छे में तीस तालियाँ थीं, कई दिनों में खोजकर हम लोगों ने तीसों ताले खोले। तीन दरवाजे तो ऐसे मिले, जिनसे हम लोग ऊपर-ऊपर इस तिलिस्म के बाहर हो जायँ। चार बाग और तेईस कोठरियाँ असबाब और खजाने की निकलीं जिसमें हर एक किस्म का अमीरी का सामान और बेहद खजाना मौजूद था। जब ऊपर ही ऊपर तिलिस्म से बाहर हो जाने का रास्ता मिला, तब मैं अपने घर गया और कई लौंडियाँ और जरूरी चीजें कुमारी के वास्ते लेकर फिर यहाँ आया। कई दिनों में यहाँ के सब ताले खोले गये, तब तक यहाँ रहते-रहते कुमारी की तबीयत घबरा गई, मुझसे कई दफे उन्होंने कहा कि “मैं इस तिलिस्म के बाहर घूमा-फिरा चाहती हूँ।” बहुत जिद करने पर मैंने इस बात को मंजूर किया। अपनी कारीगरी से इन लोगों की सूरत बदली और दो-तीन घोड़े भी ला दिये जिन पर सवार होकर ये लोग कभी-कभी तिलिस्म के बाहर घूमने जाया करतीं। इस बात की ताकीद कर दी थी कि अपने को छिपाये रहें जिससे कोई पहचानने न पावे। इन्होंने भी मेरी बात पूरे तौर पर मानी और जहाँ तक हो सका अपने को छिपाया। इस बीच में धीरे-धीरे में इन बागों की भी दुरुस्ती की गई। कुँअर वीरेन्द्रसिंह ने उस तिलिस्म का खजाना हासिल किया और यहाँ का माल-असबाब जो कुछ छिपा था कुमारी को मिल गया। (जयसिंह की तरफ देखकर) आज तक यह कुमारी चन्द्रकान्ता मेरी लड़कीया मालिक थी, अब आपकी जमा आपके हवाले करता हूँ। महाराज शिवदत्त की रानी पर रहम खाकर कुमारी ने दोनों को छोड़ दिया था और इस बात की कसम खिला ली थी कि कुमार से किसी तरह की दुश्मनी न करेंगे। मगर उस दुष्ट ने न माना, पुराने साथियों से मुलाकात होने पर बदमाशी पर कमर बाँधी और कुमार के पीछे लश्कर की तबाही करने लगा। आखिर लाचार होकर मैंने उसे गिरफ्तार किया और इस खोह में उसी ठिकाने फिर ला रखा जहाँ कुमार ने उसे कैद करके डाल दिया था। अब और जो कुछ आपको पूछना हो पूछिए, मैं सब हाल कह आप लोगों की शंका मिटाऊँ। सुरेन्द्र – पूछने को तो बहुत सी बातें थीं मगर इस वक्त इतनी खुशी हुई है कि वे तमाम बातें भूल गया हूँ, क्या पूछूं? खैर फिर किसी वक्त पूछ लूँगा। कुमारी की मदद आपने क्यों की? जयसिंह – हाँ यही सवाल मेरा भी है, क्योंकि आपका हाल जब तक नहीं मालूम होता तबीयत की घबड़ाहट नहीं मिटती, तिस पर आप कई दफे कह चुके हैं कि ‘मैं योगी महात्मा नहीं हूँ’ यह सुनकर हम लोग और भी घबड़ा रहे हैं कि अगर आप वह नहीं हैं जो सूरत से जाहिर है तो फिर कौन हैं! बाबा – खैर यह भी मालूम हो जायेगा। जयसिंह – (कुमारी चन्द्रकान्ता की तरफ देखकर) बेटी, क्या तुम भी नहीं जानतीं कि यह योगी कौन हैं? चन्द्रकान्ता – (हाथ जोड़कर) मैं तो सब कुछ जानती हूँ मगर कहूँ क्यों कर! इन्होंने तो मुझसे सख्त कसम खिला ली है, इसी से मैं कुछ भी नहीं कह सकती! बाबा – आप जल्दी क्यों करते हैं! अभी थोड़ी देर में मेरा हाल भी आपको मालूम हो जायेगा, पहले चलकर उन चीजों को तो देखिए जो कुमारी चन्द्रकान्ता को इस तिलिस्म से मिली हैं। जयसिंह – जैसी आपकी मर्जी। बाबाजी उसी वक्त उठ खड़े हुए और सबोँ को साथ ले दूसरे बाग की तरफ चले। *–*–* « पीछे जायेँ | आगे पढेँ » • चन्द्रकान्ता [ होम पेज ] |
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