चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास ( चौथा अध्याय ) चौथा बयान राजा सुरेन्द्रसिंह के सिपाहियों ने महाराज शिवदत्त और उनकी रानी को नौगढ़ पहुँचाया। जीतसिंह की राय से उन दोनों को रहने के लिए सुंदर मकान दिया गया। उनकी हथकड़ी-बेड़ी खोल दी गयी, मगर हिफाजत के लिए मकान के चारों तरफ सख्त पहरा मुकर्रर कर दिया गया। दूसरे दिन राजा सुरेन्द्रसिंह और जीतसिंह आपस में कुछ राय कर के पण्डित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल – इन चारों कैदी ऐयारों को साथ ले उस मकान में गये जिसमें महाराज शिवदत्त और उनकी महारानी को रखा था। राजा सुरेन्द्रसिंह के आने की खबर सुनकर महाराज शिवदत्त अपनी रानी को साथ लेकर दरवाजे तक इस्तकबाल (अगवानी) के लिए आए और मकान में ले जाकर आदर के साथ बैठाया। इसके बाद खुद दोनों आदमी सामने बैठे। हथकड़ी और बेड़ी पहिरे ऐयार भी एक तरफ बैठाये गये। महाराज शिवदत्त ने पूछा, “इस वक्त आपने किसलिए तकलीफ की?” राजा सुरेन्द्रसिंह ने इसके जवाब में कहा, “आज तक आपके जी में जो कुछ आया किया, क्रूरसिंह के बहकाने से हम लोगों को तकलीफ देने के लिए बहुत कुछ उपाय किया, धोखा दिया, लड़ाई ठानी, मगर अभी तक परमेश्वर ने हम लोगों की रक्षा की। क्रूरसिंह, नाज़िम और अहमद भी अपनी सजा को पहुँच गये और हम लोगों की बुराई सोचते-सोचते ही मर गये। अब आपका क्या इरादा है? इसी तरह कैद में पड़े रहना मंजूर है या और कुछ सोचा है?” महाराज शिवदत्त ने कहा, “आपकी और कुँअर वीरेन्द्रसिंह की बहादुरी में कोई शक नहीं, जहाँ तक तारीफ की जाय थोड़ी है। परमेश्वर आपको खुश रखे और पोते का सुख दिखलावे, उसे गोद में लेकर आप खिलावें और मैंने जो कुछ किया उसे आप माफ करें। मुझे राज्य की अब बिल्कुल अभिलाषा नहीं है। चुनार को आपने जिस तरह फतह किया और वहाँ जो कुछ हुआ मुझे मालूम है। मैं अब सिर्फ एक बात चाहता हूँ, परमेश्वर के लिए तथा अपनी जवाँमर्दी और बहादुरी की तरफ ख्याल करके मेरी इच्छा पूरी कीजिए।” इतना कह हाथ जोड़कर सामने खड़े हो गये। राजा सुरेन्द्र – जो कुछ आपके जी में हो कहिए, जहाँ तक हो सकेगा मैं उसे पूरा करूंगा। शिव – जो कुछ मैं चाहता हूँ आप सुन लीजिए। मेरे आगे कोई लड़का नहीं है जिसकी मुझे फिक्र हो, हाँ चुनार के किले में मेरे रिश्तेदारों की कई बेवाएँ हैं जिनकी परवरिश मेरे ही सबब से होती थी, उनके लिए आप कोई ऐसा बंदोबस्त कर दें जिससे उन बेचारियों की जिंदगी आराम से गुजरे। और भी रिश्ते के कई आदमी हैं, लेकिन मैं उनके लिए सिफारिश न करूँगा बल्कि उनका नाम भी न बतलाऊँगा, क्योंकि वे मर्द हैं, हर तरह से कमा-खा सकते हैं, और हमको अब आप कैद से छुट्टी दीजिए। अपनी स्त्री को साथ ले जंगल में चला जाऊँगा, किसी जगह बैठकर ईश्वर का नाम लूँगा, अब मुँह किसी को दिखाना नहीं चाहता, बस और कोई आरजू नहीं है। सुरेन्द्र – आपके रिश्ते की जितनी औरतें चुनार में हैं सभी की अच्छी तरह से परवरिश होगी, उनके लिए आपको कुछ कहने की जरूरत नहीं, मगर आपको छोड़ देने में कई बातों का ख्याल है। शिव – कुछ नहीं, (जनेऊ हाथ में लेकर) मैं धर्म की कसम खाता हूँ अब जी में किसी तरह की बुराई नहीं है, कभी आपकी बुराई न सोचूंगा। सुरेन्द्र – अभी आपकी उम्र भी इस लायक नहीं हुई है कि आप तपस्या करें। शिव – जो हो, अगर आप बहादुर हैं तो मुझे छोड़ दीजिये। सुरेन्द्र – आपकी कसम का तो मुझे कोई भरोसा नहीं, मगर आप जो यह कहते हैं कि अगर आप बहादुर हैं तो मुझे छोड़ दें तो मैं छोड़ देता हूँ, जहाँ जी चाहे जाइये और जो कुछ आपको खर्च के लिए चाहिए ले लीजिए। शिव – मुझे खर्च की कोई जरूरत नहीं, बल्कि रानी के बदन पर जो कुछ जेवर हैं वह भी उतार के दिये जाता हूँ। यह कहकर रानी की तरफ देखा, उस बेचारी ने फौरन अपने बदन के बिलकुल गहने उतार दिये। सुरेन्द्र – रानी के बदन से गहने उतरवा दिये यह अच्छा नहीं किया। शिव – जब हम लोग जंगल में ही रहा चाहते हैं तो यह हत्या क्यों लिए जाये? क्या चोरों और डकैतों के हाथों से तकलीफ उठाने के लिए और रात भर सुख की नींद न सोने के लिए? सुरेन्द्र – (उदासी से) देखो शिवदत्तसिंह, तुम हाल ही तक चुनार की गद्दी के मालिक थे, आज तुम्हारा इस तरह से जाना मुझे बुरा मालूम होता है। चाहे तुम हमारे दुश्मन थे तो भी मुझको इस बेचारी तुम्हारी रानी पर दया आती है। मैंने तो तुम्हें छोड़ दिया, चाहे जहाँ जाओ, मगर एक दफे फिर कहता हूँ, अगर तुम यहाँ रहना कबूल करो तो मेरे राज्य का कोई काम जो चाहो मैं खुशी से तुमको दूँ, तुम यहीं रहो। शिव – नहीं, अब यहाँ न रहूँगा, मुझे छुट्टी दे दीजिए। इस मकान के चारों तरफ से पहरा हटा लीजिए, रात को जब मेरा जी चाहेगा चला जाऊँगा। सुरेन्द्र – अच्छा जैसी तुम्हारी मर्जी! महाराज शिवदत्त के चारों ऐयार चुपचाप बैठे सब बातें सुन रहे थे। बात खतम होने पर दोनों राजाओं के चुप हो जाने पर महाराज शिवदत्त की तरफ देखकर पण्डित बद्रीनाथ ने कहा, “आप तो अब तपस्या करने जाते हैं, हम लोगों के लिए क्या हुक्म होता है?” शिव – जो तुम लोगों के जी में आवे करो, जहाँ चाहो जाओ, हमने अपनी तरफ से तुम लोगों को छुट्टी दे दी, बल्कि अच्छी बात हो कि तुम लोग कुँअर वीरेन्द्रसिंह के साथ रहना पसंद करो, क्योंकि ऐसा बहादुर और धार्मिक राजा तुम लोगों को न मिलेगा। बद्री – ईश्वर आपको कुशल से रखे, आज से हम लोग कुँअर वीरेन्द्रसिंह के हुए, आप अपने हाथों हम लोगों की हथकड़ी-बेड़ी खोल दीजिए। महाराज शिवदत्त ने अपने हाथों से चारों ऐयारों की हथकड़ी-बेड़ी खोल दी, राजा सुरेन्द्रसिंह और जीतसिंह ने कुछ भी न कहा कि आप इनकी बेड़ी क्यों खोलते हैं। हथकड़ी-बेड़ी खुलने के बाद चारों ऐयार राजा सुरेन्द्रसिंह के पीछे जा खड़े हुए। जीतसिंह ने कहा, “अभी एक दफे आप लोग चारों ऐयार, मेरे सामने आइये फिर वहाँ जाकर खड़े होइये, पहले अपनी मामूली रस्म तो अदा कर लीजिए।” मुस्कुराते हुए पं. बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल जीतसिंह के सामने आये और बिना कहे जनेऊ और ऐयारी का बटुआ हाथ में लेकर कसम खाकर बोले, “आज से मैं राजा सुरेन्द्रसिंह और उनके खानदान का नौकर हुआ। ईमानदारी और मेहनत से अपना काम किया करूँगा। तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी को अपना भाई समझूँगा। बस अब तो रस्म पूरी हो गयी?” “बस और कुछ बाकी नहीं।” इतना कहकर जीतसिंह ने चारों को गले से लगा लिया, फिर ये चारों ऐयार राजा सुरेन्द्रसिंह के पीछे जा खड़े हुए। राजा सुरेन्द्रसिंह ने महाराज शिवदत्त से कहा, “अच्छा अब मैं बिदा होता हूँ। पहरा अभी उठाता हूँ, रात को जब जी चाहे चले जाना, मगर आओ गले तो मिल लें।” शिव – (हाथ जोड़कर) नहीं मैं इस लायक नहीं रहा कि आपसे गले मिलूँ। “नहीं जरूर ऐसा करना होगा!” कहकर सुरेन्द्रसिंह ने शिवदत्त को जबरदस्ती गले लगा लिया और उदास मुख से बिदा हो अपने महल की तरफ रवाना हुए। मकान के चारों तरफ से पहरा उठाते गये। जीतसिंह, बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को साथ लिए राजा सुरेन्द्रसिंह अपने दीवानखाने में जाकर बैठे। घंटों तक महाराज शिवदत्त के बारे में अफसोस भरी बातचीत होती रही। मौका पाकर जीतसिंह ने अर्ज किया, “अब तो हमारे दरबार में और चार ऐयार हो गये हैं जिसकी बहुत ही खुशी है। अगर ताबेदार को पंद्रह दिन की छुट्टी मिल जाती तो अच्छी बात थी, यहाँ से दूर बेरादरी में कुछ काम है, जाना जरूरी है।” सुरेन्द्र – इधर एक-एक दो-दो रोज की कई दफे तुम छुट्टी ले चुके हो। जीत – जी हाँ, घर ही में कुछ काम था, मगर अबकी तो दूर जाना है इस लिए पंद्रह दिन की छुट्टी माँगता हूँ। मेरी जगह पर पं. बद्रीनाथजी काम करेंगे, किसी बात का हर्ज न होगा। सुरेन्द्र – अच्छा जाओ, लेकिन जहाँ तक हो सके जल्द आना। राजा सुरेन्द्रसिंह से बिदा हो जीतसिंह अपने घर गये और बद्रीनाथ वगैरह चारों ऐयारों को भी कुछ समझाने-बुझाने के लिए साथ लेते गये। *–*–* पाँचवाँ बयान कुँअर वीरेन्द्रसिंह तीनों ऐयारों के साथ खोह के अंदर घूमने लगे। तेजसिंह ने इधर-उधर के कई निशानों को देखकर कुमार से कहा, “बेशक यहाँ का छोटा तिलिस्म तोड़ कोई खजाना ले गया। जरूर कुमारी चन्द्रकान्ता को भी उसी ने कैद किया होगा। मैंने अपने ओस्ताद की जुबानी सुना था कि इस खोह में कई इमारतें और बाग देखने बल्कि रहने लायक हैं। शायद वह चोर इन्हीं में कहीं मिल भी जाय तो ताज्जुब नहीं।” कुमार – तब जहाँ तक हो सके काम में जल्दी करनी चाहिए। तेज – बस हमारे साथ चलिये, अभी से काम शुरू हो जाय। यह कह तेजसिंह कुँअर वीरेन्द्रसिंह को उस पहाड़ी के नीचे ले गये जहाँ से पानी का चश्मा शुरू होता था। उस चश्मे से उत्तर को चालीस हाथ नापकर कुछ जमीन खोदी। कुमार से तेजसिंह ने कहा था कि “इस छोटे तिलिस्म के तोड़ने और खजाना पाने की तरकीब किसी धातु पत्र पर खुदी हुई यहीं जमीन में गड़ी है।” मगर इस वक्त यहाँ खोदने से उसका कुछ पता न लगा, हाँ एक खत उसमें से जरूर मिली जिसको कुमार ने निकाल कर पढ़ा। यह लिखा था : “अब क्या खोदते हो! मतलब की कोई चीज नहीं है, जो था सो निकल गया, तिलिस्म टूट गया। अब हाथ मल के पछताओ।” तेज – (कुमार की तरफ देखकर) देखिये यह पूरा सबूत तिलिस्म टूटने का मिल गया! कुमार – जब तिलिस्म टूट ही चुका है तो उसके हर एक दरवाजे भी खुले होंगे? “हाँ जरूर खुले होंगे”, यह कहकर तेजसिंह पहाड़ियों पर चढ़ाते-घुमाते-फिराते कुमार को एक गुफा के पास ले गए जिसमें सिर्फ एक आदमी के जाने लायक राह थी। तेजसिंह के कहने से एक-एक कर चारों आदमी उस गुफा में घुसे। भीतर कुछ दूर जाकर खुलासी जगह मिली, यहाँ तक कि चारों आदमी खड़े होकर चलने लगे, मगर टटोलते हुए क्योंकि बिल्कुल अंधेरा था, हाथ तक नहीं दिखाई देता था। चलते-चलते कुँअर वीरेन्द्रसिंह का हाथ एक बंद दरवाजे पर लगा जो धक्का देने से खुल गया और भीतर बखूबी रोशनी मालूम होने लगी। चारों आदमी अंदर गये, छोटा-सा बाग देखा जो चारों तरफ से साफ, कहीं तिनके का नाम-निशान नहीं, मालूम होता था अभी कोई झाड़ू देकर गया है। इस बाग में कोई इमारत न थी, सिर्फ एक फव्वारा बीच में था, मगर यह नहीं मालूम होता था कि इसका हौज कहाँ है। बाग में घूमने और इधर-उधर देखने से मालूम हुआ कि ये लोग पहाड़ी के ऊपर चले गये हैं। जब फव्वारे के पास पहुँचे तो एक बात ताज्जुब की बात दिखाई पड़ी। उस जगह जमीन पर जनाने हाथ का एक जोड़ा कंगन नजर पड़ा, जिसे देखते ही कुमार ने पहचान लिया कि कुमारी चन्द्रकान्ता के हाथ का है। झट उठा लिया, आँखों से आँसू की बूँदें टपकने लगीं, तेजसिंह से पूछा– “यह कंगन यहाँ क्योंकर पहुँचा? इसके बारे में क्या ख्याल किया जाय?” तेजसिंह कुछ जवाब दिया ही चाहते थे कि उनकी निगाह एक कागज पर जा पड़ी जो उसी जगह खत की तरह मोड़ा पड़ा हुआ था। जल्दी से उठा लिया और खोलकर पढ़ा, यह लिखा था : “बड़ी होशियारी से जाना, ऐयार लोग पीछा करेंगे, ऐसा न हो कि पता लग जाय, नहीं तो तुम्हारा और कुमार दोनों का ही बड़ा भारी नुकसान होगा। अगर मौका मिला तो कल आऊँगी – वही।” इस पुर्जे को पढ़कर तेजसिंह किसी सोच में पड़ गये, देर तक चुपचाप खड़े न जाने क्या-क्या विचार करते रहे। आखिर कुमार से न रहा गया, पूछा, “क्यों क्या सोच रहे हो? इस खत में क्या लिखा है?” तेजसिंह ने वह खत कुमार के हाथ में दे दी, वे भी पढ़कर हैरान हो गए, बोले, “इसमें जो कुछ लिखा है उस पर गौर करने से तो मालूम होता है कि हमारे और वनकन्या के मामले में ही कुछ है, मगर किसने लिखा यह पता नहीं लगता।” तेज – आपका कहना ठीक है पर मैं एक और बात सोच रहा हूँ जो इससे भी ताज्जुब की है। कुमार – वह क्या? तेज – इन हरफों को मैं कुछ-कुछ पहचानता हूँ, मगर साफ समझ में नहीं आता क्योंकि लिखने वाले ने अपना हरफ छिपाने के लिए कुछ बिगाड़कर लिखा है। कुमार – खैर इस खत को रख छोड़ो, कभी न कभी कुछ पता लग ही जायगा, अब आगे का काम करो। फिर ये लोग घूमने लगे। बाग में कोने में इन लोगों को छोटी-छोटी चार खिड़कियाँ नजर आईं जो एक के साथ एक बराबर-सी बनी हुई थीं। पहले चारों आदमी बाईं तरफ वाली खिड़की में घुसे। थोड़ी दूर जाकर एक दरवाजा मिला जिसके आगे जाने की बिल्कुल राह न थी क्योंकि नीचे बेढब खतरनाक पहाड़ी दिखाई देती थी। इधर-उधर देखने और खूब गौर करने से मालूम हुआ कि यह वही दरवाजा है जिसको इशारे से उस योगी ने तेजसिंह को दिखाया था। इस जगह से वह दालान बहुत साफ दिखाई देता था जिसमें कुमारी चन्द्रकान्ता और चपला बहुत दिनों तक बेबस पड़ी थीं। ये लोग वापस होकर फिर उसी बाग में चले आये और उसके बगल वाली दूसरी खिड़की में घुसे जो बहुत अंधेरी थी। कुछ दूर जाने पर उजाला नजर पड़ा बल्कि हद तक पहुँचने पर एक बड़ा-सा खुला फाटक मिला जिससे बाहर होकर ये चारों आदमी खड़े हो चारों ओर निगाह दौड़ाने लगे। लंबे-चौड़े मैदान के सिवाय और कुछ न नजर आया। तेजसिंह ने चाहा कि घूमकर इस मैदान का हाल मालूम करें। मगर कई सबबों से वे ऐसा न कर सके। एक तो धूप बहुत कड़ी थी दूसरे कुमार ने घूमने की राय न दी और कहा, “फिर जब मौका होगा इसको देख लेंगे। इस वक्त तीसरी व चौथी खिड़की में चलकर देखना चाहिए कि क्या है।” चारों आदमी लौट आये और तीसरी खिड़की में घुसे। एक बाग में पहुँचते ही देखा वनकन्या कई सखियों को लिए घूम रही है, लेकिन कुँअर वीरेन्द्रसिंह वगैरह को देखते ही तेजी के साथ बाग के कोने में जाकर गायब हो गई। चारों आदमियो ने उसका पीछा किया और घूम-घूमकर तलाश भी किया मगर कहीं कुछ भी पता न लगा, हाँ जिस कोने में जाकर वे सब गायब हुई थीं वहाँ जाने पर एक बंद दरवाजा जरूर देखा जिसके खोलने की बहुत तरकीब की मगर न खुला। उस बाग के एक तरफ छोटी-सी बारहदरी थी। लाचार होकर ऐयारों के साथ कुँअर वीरेन्द्रसिंह उस बारहदरी में एक ओर बैठकर सोचने लगे, “यह वनकन्या यहाँ कैसे आई? क्या उसके रहने का यही ठिकाना है? फिर हम लोगों को देखकर भाग क्यों गई? क्या अभी हमसे मिलना उसे मंजूर नहीं?” इन सब बातों को सोचते-सोचते शाम हो गई मगर किसी की अक्ल ने कुछ काम न किया। इस बाग में मेवों के दरख्त बहुत थे। और एक छोटा-सा चश्मा भी था। चारों आदमियों ने मेवों से अपना पेट भरा और चश्मे का पानी पीकर उसी बारहदरी में जमीन पर ही लेट गये। यह राय ठहरी कि रात को इसी बारहदरी में गुजारा करेंगे, सवेरे जो कुछ होगा देखा जायेगा। देवीसिंह ने अपने बटुए में से सामान निकालकर चिराग जलाया, इसके बाद बैठकर आपस में बातें करने लगे। कुमार – चन्द्रकान्ता की मुहब्बत में हमारी दुर्गति हो गई, तिस पर भी अब तक कोई उम्मीद मालूम नहीं पड़ती। तेज – कुमारी सही-सलामत हैं और आपको मिलेंगी इसमें कोई शक नहीं। जितनी मेहनत से जो चीज मिलती है उसके साथ उतनी ही खुशी में जिंदगी बीतती है। कुमार – तुमने चपला के लिए कौन-सी तकलीफ उठाई? तेज – तो चपला ही ने मेरे लिए कौन-सा दुख भोगा? जो कुछ किया कुमारी चन्द्रकान्ता के लिए। ज्योतिषी – क्यों तेजसिंह, क्या यह चपला तुम्हारी ही जाति की है? तेज – इसका हाल तो कुछ मालूम नहीं कि यह कौन जात है, लेकिन जब मुहब्बत हो गई तो फिर चाहे कोई जात हो। ज्योतिषी – लेकिन क्या उसका कोई वली वारिस भी नहीं है? अगर तुम्हारी जाति की न हुई तो उसके माँ-बाप कब कबूल करेंगे? तेज – अगर कुछ ऐसा-वैसा हुआ तो उसको मार डालूँगा और अपनी भी जान दे दूँगा। कुमार – कुछ इनाम दो तो हम चपला का हाल तुम्हें बता दें। तेज – इनाम में हम चपला ही को आपके हवाले कर देंगे। कुमार – खूब याद रखना, चपला फिर हमारी हो जायगी। तेज – जी हाँ, जी हाँ, आपकी, आपकी हो जायगी, हो जायगी। कुमार – चपला हमारी ही जाति की है। इसका बाप बड़ा भारी जमींदार और पूरा ऐयार था। इसको सात दिन का छोड़कर इसकी माँ मर गयी। इसके बाप ने इसे पाला और ऐयारी सिखाई। अभी कुछ ही वर्ष गुजरे हैं कि इसका बाप भी मर गया। महाराज जयसिंह उसको बहुत मानते थे, उसने इनके बहुत बड़े-बड़े काम किये थे। मरने के वक्त अपनी बिल्कुल जमा-पूँजी और चपला को महाराज के सुपुर्द कर गया, क्योंकि उसका कोई वारिस नहीं था। महाराज जयसिंह इसको अपनी लड़की की तरह मानते हैं और महारानी भी इसे बहुत चाहती हैं। कुमारी चन्द्रकान्ता का और इसका लड़कपन ही से साथ होने के सबब दोनों में बड़ी मुहब्बत है। तेज – आज तो आपने बड़ी खुशी की बात सुनाई, बहुत दिनों से इसका खुटका लगा हुआ था पर कई बातों को सोचकर आपसे नहीं पूछा। भला यह बातें आपको मालूम कैसे हुईं? कुमार – खास चन्द्रकान्ता की जुबानी। तेज – तब तो बहुत ठीक है। तमाम रात बातचीत में गुजर गई, किसी को नींद न आई। सवेरे ही उठकर जरूरी कामों से छुट्टी पा उसी चश्मे में नहाकर संध्या-पूजा की और कुछ मेवा खा जिस राह से उस बाग में गये थे उसी राह से लौट आये और चौथी खिड़की के अंदर क्या है यह देखने के लिए उसमें घुसे। उसमें भी जाकर एक हरा-भरा बाग देखा जिसे देखते ही कुमार चौंक पड़े। *–*–* « पीछे जायेँ | आगे पढेँ » • चन्द्रकान्ता [ होम पेज ] |
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