शब्द–संरचना का आशय नये शब्दोँ का निर्माण, शब्दोँ की बनावट और शब्द–गठन से है। हिन्दी मेँ दो प्रकार के शब्द होते हैँ—रूढ और यौगिक। शब्द रचना की दृष्टि से केवल यौगिक शब्दों का अध्ययन किया जाता है। यौगिक शब्दोँ मेँ ही उपसर्ग और प्रत्यय का प्रयोग करके नये शब्दोँ की रचना होती है।
शब्द–रचना प्रायः चार प्रकार से होती है–
(1) व्युत्पत्ति पद्धति – इस पद्धति मेँ मूल शब्द मेँ उपसर्ग और प्रत्यय जोड़कर नये शब्दोँ की रचना की जाती है। जैसे—‘लिख्’ मूल धातु मेँ ‘अक’ प्रत्यय लगाने से ‘लेखक’ शब्द और ‘सु’ उपसर्ग लगाने से ‘सुलेख’ शब्द बनता है। इसी प्रकार ‘हार’ शब्द मेँ ‘सम्’ उपसर्ग लगाने से ‘संहार’ और ‘ई’ प्रत्यय लगाने से ‘संहारी’ शब्द बनता है।
उपसर्ग व प्रत्यय दोनोँ एक साथ प्रयोग करके भी नया शब्द बनता है। जैसे—प्राक्+इतिहास+इक = प्रागैतिहासिक। हिन्दी मेँ इस पद्धति से हजारोँ शब्दोँ की रचना होती है।
(2) संधि व समास पद्धति – इस पद्धति मेँ दो या दो से अधिक शब्दोँ को मिलाकर एक नया शब्द बनाया जाता है। जैसे—पद से च्युत = पदच्युत, शक्ति के अनुसार = यथाशक्ति, रात और दिन = रातदिन आदि शब्द इसी प्रकार बनते हैँ।
शब्दोँ मेँ संधि करने से भी इसी प्रकार शब्द–रचना होती है। जैसे—विद्या+आलय = विद्यालय, प्रति+उपकार = प्रत्युपकार, मनः+हर = मनोहर आदि।
(3) शब्दावृत्ति पद्धति – कभी–कभी शब्दोँ की आवृत्ति करने या वास्तविक या कल्पित ध्वनि का अनुकरण करने से भी नये शब्द बनते हैँ। जैसे—रातोँरात, हाथोँहाथ, दिनोँदिन, खटखट, फटाफट, गड़गड़ाहट, सरसराहट आदि।
(4) वर्ण-विपर्यय पद्धति – वर्णोँ या अक्षरोँ का उलट–फेर प्रयोग करने से भी नये शब्द बन जाते हैँ। जैसे—जानवर से जिनावर, अँगुली से उँगली, पागल से पगला आदि।
उपसर्ग
जो शब्दांश किसी मूल शब्द के पहले जुड़कर उसके अर्थ मेँ परिवर्तन या विशेषता उत्पन्न कर देते हैँ, उन शब्दांशोँ को उपसर्ग कहते हैँ। जैसे – ‘हार’ एक शब्द है। इस शब्द के पहले यदि 'सम्, वि, प्र', उपसर्ग जोड़ दये जायेँ, तो– सम्+हार = संहार, वि+हार = विहार, प्र+हार = प्रहार तथा उप+हार = उपहार शब्द बनेँगे। यहाँ उपसर्ग जुड़कर बने सभी शब्दोँ का अर्थ ‘हार’ शब्द से भिन्न है।
उपसर्गोँ का अपना स्वतंत्र अर्थ नहीँ होता, मूल शब्द के साथ जुड़कर ये नया अर्थ देते हैँ। इनका स्वतंत्र प्रयोग नहीँ होता। जब किसी मूल शब्द के साथ कोई उपसर्ग जुड़ता है तो उनमेँ सन्धि के नियम भी लागू होते हैँ। संस्कृत उपसर्गोँ का अर्थ कहीँ–कहीँ नहीँ भी निकलता है। जैसे – ‘आरम्भ’ का अर्थ है– शुरुआत। इसमेँ ‘प्र’ उपसर्ग जोड़ने पर नया शब्द ‘प्रारम्भ’ बनता है जिसका अर्थ भी ‘शुरुआत’ ही निकलता है।
♦ विशेष— यह जरूरी नहीँ है कि एक शब्द के साथ एक ही उपसर्ग जुड़े। कभी–कभी एक शब्द के साथ एक से अधिक उपसर्ग जुड़ सकते हैँ। जैसे– • सम्+आ+लोचन = समालोचन। • सु+आ+गत = स्वागत। • प्रति+उप+कार = प्रत्युपकार। • सु+प्र+स्थान = सुप्रस्थान। • सत्+आ+चार = सदाचार। • अन्+आ+गत = अनागत। • अन्+आ+चार = अनाचार। • अ+परा+जय = अपराजय।
♦ उपसर्ग के भेद – हिन्दी भाषा मेँ चार प्रकार के उपसर्ग प्रयुक्त होते हैँ— (1) संस्कृत के उपसर्ग, (2) देशी अर्थात् हिन्दी के उपसर्ग, (3) विदेशी अर्थात् उर्दू, अंग्रेजी, फारसी आदि भाषाओँ के उपसर्ग, (4) अव्यय शब्द, जो उपसर्ग की तरह प्रयुक्त होते हैँ।
जो शब्दांश किसी मूल शब्द के पीछे या अन्त मेँ जुड़कर नवीन शब्द का निर्माण करके पहले शब्द के अर्थ मेँ परिवर्तन या विशेषता उत्पन्न कर देते हैँ, उन्हेँ प्रत्यय कहते हैँ। कभी–कभी प्रत्यय लगाने पर भी शब्द के अर्थ मेँ कोई परिवर्तन नहीँ होता है। जैसे— बाल–बालक, मृदु–मृदुल।
प्रत्यय लगने पर शब्द एवं शब्दांश मेँ संधि नहीँ होती बल्कि शब्द के अन्तिम वर्ण मेँ मिलने वाले प्रत्यय के स्वर की मात्रा लग जाती है, व्यंजन होने पर वह यथावत रहता है। जैसे— लोहा+आर = लुहार, नाटक+कार = नाटककार।
शब्द–रचना मेँ प्रत्यय कहीँ पर अपूर्ण क्रिया, कहीँ पर सम्बन्धवाचक और कहीँ पर भाववाचक के लिये प्रयुक्त होते हैँ। जैसे— मानव+ईय = मानवीय। लघु+ता = लघुता। बूढ़ा+आपा = बुढ़ापा।
हिन्दी मेँ प्रत्यय तीन प्रकार के होते हैँ— (1) संस्कृत के प्रत्यय, (2) हिन्दी के प्रत्यय तथा (3) विदेशी भाषा के प्रत्यय।
1. संस्कृत के प्रत्यय
संस्कृत व्याकरण मेँ शब्दोँ और मूल धातुओँ से जो प्रत्यय जुड़ते हैँ, वे प्रत्यय दो प्रकार के होते हैँ – 1. कृदन्त प्रत्यय – जो प्रत्यय मूल धातुओँ अर्थात् क्रिया पद के मूल स्वरूप के अन्त मेँ जुड़कर नये शब्द का निर्माण करते हैँ, उन्हेँ कृदन्त या कृत् प्रत्यय कहते हैँ। धातु या क्रिया के अन्त मेँ जुड़ने से बनने वाले शब्द संज्ञा या विशेषण होते हैँ। कृदन्त प्रत्यय के निम्नलिखित तीन भेद होते हैँ – (1) कर्त्तृवाचक कृदन्त – वे प्रत्यय जो कर्तावाचक शब्द बनाते हैँ, कर्त्तृवाचक कृदन्त कहलाते हैँ। जैसे – प्रत्यय – शब्द–रूप • तृ (ता) – कर्त्ता, नेता, भ्राता, पिता, कृत, दाता, ध्याता, ज्ञाता। • अक – पाठक, लेखक, पालक, विचारक, गायक। (2) विशेषणवाचक कृदन्त – जो प्रत्यय क्रियापद से विशेषण शब्द की रचना करते हैँ, विशेषणवाचक प्रत्यय कहलाते हैँ। जैसे – • त – आगत, विगत, विश्रुत, कृत। • तव्य – कर्तव्य, गन्तव्य, ध्यातव्य। • य – नृत्य, पूज्य, स्तुत्य, खाद्य। • अनीय – पठनीय, पूजनीय, स्मरणीय, उल्लेखनीय, शोचनीय। (3) भाववाचक कृदन्त – वे प्रत्यय जो क्रिया से भाववाचक संज्ञा का निर्माण करते हैँ, भाववाचक कृदन्त कहलाते हैँ। जैसे – • अन – लेखन, पठन, हवन, गमन। • ति – गति, मति, रति। • अ – जय, लाभ, लेख, विचार।
2. तद्धित प्रत्यय – जो प्रत्यय क्रिया पदोँ (धातुओँ) के अतिरिक्त मूल संज्ञा, सर्वनाम या विशेषण शब्दोँ के अन्त मेँ जुड़कर नया शब्द बनाते हैँ, उन्हेँ तद्धित प्रत्यय कहते हैँ। जैसे— गुरु, मनुष्य, चतुर, कवि शब्दोँ मेँ क्रमशः त्व, ता, तर, ता प्रत्यय जोड़ने पर गुरुत्व, मनुष्यता, चतुरतर, कविता शब्द बनते हैँ।
तद्धित प्रत्यय के छः भेद हैँ – (1) भाववाचक तद्धित प्रत्यय – भाववाचक दद्धित से भाव प्रकट होता है। इसमेँ प्रत्यय लगने पर कहीँ–कहीँ पर आदि–स्वर की वृद्धि हो जाती है। जैसे – प्रत्यय — शब्द–रूप • अव – लाघव, गौरव, पाटव। • त्व – महत्त्व, गुरुत्व, लघुत्व। • ता – लघुता, गुरुता, मनुष्यता, समता, कविता। • इमा – महिमा, गरिमा, लघिमा, लालिमा। • य – पांडित्य, धैर्य, चातुर्य, माधुर्य, सौन्दर्य। (2) सम्बन्धवाचक तद्धित प्रत्यय – सम्बन्धवाचक तद्धित प्रत्यय से सम्बन्ध का बोध होता है। इसमेँ भी कहीँ–कहीँ पर आदि–स्वर की वृद्धि हो जाती है। जैसे – • अ – शैव, वैष्णव, तैल, पार्थिव। • इक – लौकिक, धार्मिक, वार्षिक, ऐतिहासिक। • इत – पीड़ित, प्रचलित, दुःखित, मोहित। • इम – स्वर्णिम, अन्तिम, रक्तिम। • इल – जटिल, फेनिल, बोझिल, पंकिल। • ईय – भारतीय, प्रान्तीय, नाटकीय, भवदीय। • य – ग्राम्य, काम्य, हास्य, भव्य। (3) अपत्यवाचक तद्धित प्रत्यय – इनसे अपत्य अर्थात् सन्तान या वंश मेँ उत्पन्न हुए व्यक्ति का बोध होता है। अपत्यवाचक तद्धित प्रत्यय मेँ भी कहीँ–कहीँ पर आदि–स्वर की वृद्धि हो जाती है। जैसे – • अ – पार्थ, पाण्डव, माधव, राघव, भार्गव। • इ – दाशरथि, मारुति, सौमित्र। • य – गालव्य, पौलस्त्य, शाक्य, गार्ग्य। • एय – वार्ष्णेय, कौन्तेय, गांगेय, राधेय। (4) पूर्णतावाचक तद्धित प्रत्यय – इसमेँ संख्या की पूर्णता का बोध होता है। जैसे – • म – प्रथम, पंचम, सप्तम, नवम, दशम। • थ/ठ – चतुर्थ, षष्ठ। • तीय – द्वितीय, तृतीय। (5) तारतम्यवाचक तद्धित प्रत्यय – दो या दो से अधिक वस्तुओँ मेँ श्रेष्ठता बतलाने के लिए तारतम्यवाचक तद्धित प्रत्यय लगता है। जैसे – • तर – अधिकतर, गुरुतर, लघुतर। • तम – सुन्दरतम, अधिकतम, लघुतम। • ईय – गरीय, वरीय, लघीय। • इष्ठ – गरिष्ठ, वरिष्ठ, कनिष्ठ। (6) गुणवाचक तद्धित प्रत्यय – गुणवाचक तद्धित प्रत्यय से संज्ञा शब्द गुणवाची बन जाते हैँ। जैसे – • वान् – धनवान्, विद्वान्, बलवान्। • मान् – बुद्धिमान्, शक्तिमान्, गतिमान्, आयुष्मान्। • त्य – पाश्चात्य, पौर्वात्य, दक्षिणात्य। • आलु – कृपालु, दयालु, शंकालु। • ई – विद्यार्थी, क्रोधी, धनी, लोभी, गुणी।
2. हिन्दी के प्रत्यय
संस्कृत की तरह ही हिन्दी के भी अनेक प्रत्यय प्रयुक्त होते हैँ। ये प्रत्यय यद्यपि कृदन्त और तद्धित की तरह जुड़ते हैँ, परन्तु मूल शब्द हिन्दी के तद्भव या देशज होते हैँ। हिन्दी के सभी प्रत्ययोँ कोँ निम्न वर्गोँ मेँ सम्मिलित किया जाता है— (1) कर्त्तृवाचक – जिनसे किसी कार्य के करने वाले का बोध होता है, वे कर्त्तृवाचक प्रत्यय कहलाते हैँ। जैसे – प्रत्यय — शब्द–रूप • आर – सुनार, लोहार, चमार, कुम्हार। • ओरा – चटोरा, खदोरा, नदोरा। • इया – दुखिया, सुखिया, रसिया, गडरिया। • इयल – मरियल, सड़ियल, दढ़ियल। • एरा – सपेरा, लुटेरा, कसेरा, लखेरा। • वाला – घरवाला, ताँगेवाला, झाड़ूवाला, मोटरवाला। • वैया (ऐया) – गवैया, नचैया, रखवैया, खिवैया। • हारा – लकड़हारा, पनिहारा। • हार – राखनहार, चाखनहार। • अक्कड़ – भुलक्कड़, घुमक्कड़, पियक्कड़। • आकू – लड़ाकू। • आड़ी – खिलाड़ी। • ओड़ा – भगोड़ा। (2) भाववाचक – जिनसे किसी भाव का बोध होता है, भाववाचक प्रत्यय कहलाते हैँ। जैसे – • आ – प्यासा, भूखा, रुखा, लेखा। • आई – मिठाई, रंगाई, सिलाई, भलाई। • आका – धमाका, धड़ाका, भड़ाका। • आपा – मुटापा, बुढ़ापा, रण्डापा। • आहट – चिकनाहट, कड़वाहट, घबड़ाहट, गरमाहट। • आस – मिठास, खटास, भड़ास। • ई – गर्मी, सर्दी, मजदूरी, पहाड़ी, गरीबी, खेती। • पन – लड़कपन, बचपन, गँवारपन। (3) सम्बन्धवाचक – जिनसे सम्बन्ध का भाव व्यक्त होता है, वे सम्बन्धवाचक प्रत्यय कहलाते हैँ। जैसे – • आई – बहनोई, ननदोई, रसोई। • आड़ी – खिलाड़ी, पहाड़ी, अनाड़ी। • एरा – चचेरा, ममेरा, मौसेरा, फुफेरा। • एड़ी – भँगेड़ी, गँजेड़ी, नशेड़ी। • आरी – लुहारी, सुनारी, मनिहारी। • आल – ननिहाल, ससुराल। (4) लघुतावाचक – जिनसे लघुता या न्यूनता का बोध होता है, वे लघुतावाचक प्रत्यय कहलाते हैँ। जैसे – • ई – रस्सी, कटोरी, टोकरी, ढोलकी। • इया – खटिया, लुटिया, चुटिया, डिबिया, पुड़िया। • ड़ा – मुखड़ा, दुखड़ा, चमड़ा। • ड़ी – टुकड़ी, पगड़ी, बछड़ी। • ओला – खटोला, मझोला, सँपोला। (5) गणनावाचक प्रत्यय – जिनसे गणनावाचक संख्या का बोध है, वे गणनावाचक प्रत्यय कहलाते हैँ। जैसे – • था – चौथा। • रा – दूसरा, तीसरा। • ला – पहला। • वाँ – पाँचवाँ, दसवाँ, सातवाँ। • हरा – इकहरा, दुहरा, तिहरा। (6) सादृश्यवाचक प्रत्यय – जिनसे सादृश्य या समता का बोध होता है, उन्हेँ सादृश्यवाचक प्रत्यय कहते हैँ। जैसे – • सा – मुझ–सा, तुझ–सा, नीला–सा, चाँद–सा, गुलाब–सा। • हरा – दुहरा, तिहरा, चौहरा। • हला – सुनहला, रूपहला। (7) गुणवाचक प्रत्यय – जिनसे किसी गुण का बोध होता है, वे गुणवाचक प्रत्यय कहलाते हैँ। जैसे – • आ – मीठा, ठंडा, प्यासा, भूखा, प्यारा। • ईला – लचीला, गँठीला, सजीला, रंगीला, चमकीला, रसीला। • ऐला – मटमैला, कषैला, विषैला। • आऊ – बटाऊ, पंडिताऊ, नामधराऊ, खटाऊ। • वन्त – कलावन्त, कुलवन्त, दयावन्त। • ता – मूर्खता, लघुता, कठोरता, मृदुता। (8) स्थानवाचक – जिनसे स्थान का बोध होता है, वे स्थानवाचक प्रत्यय कहलाते हैँ। जैसे – • ई – पंजाबी, गुजराती, मराठी, अजमेरी, बीकानेरी, बनारसी, जयपुरी। • इया – अमृतसरिया, भोजपुरिया, जयपुरिया, जालिमपुरिया। • आना – हरियाना, राजपूताना, तेलंगाना। • वी – हरियाणवी, देहलवी।
3. विदेशी प्रत्यय
हिन्दी मेँ उर्दू के ऐसे प्रत्यय प्रयुक्त होते हैँ, जो मूल रूप से अरबी और फारसी भाषा से अपनाये गये हैँ। जैसे – • आबाद – अहमदाबाद, इलाहाबाद। • खाना – दवाखाना, छापाखाना। • गर – जादूगर, बाजीगर, शोरगर। • ईचा – बगीचा, गलीचा। • ची – खजानची, मशालची, तोपची। • दार – मालदार, दूकानदार, जमीँदार। • दान – कलमदान, पीकदान, पायदान। • वान – कोचवान, बागवान। • बाज – नशेबाज, दगाबाज। • मन्द – अक्लमन्द, भरोसेमन्द। • नाक – दर्दनाक, शर्मनाक। • गीर – राहगीर, जहाँगीर। • गी – दीवानगी, ताजगी। • गार – यादगार, रोजगार।
हिन्दी मेँ प्रयुक्त प्रमुख प्रत्यय व उनसे बने प्रमुख शब्द :–
संधि का अर्थ है– मिलना। दो वर्णोँ या अक्षरोँ के परस्पर मेल से उत्पन्न विकार को 'संधि' कहते हैँ। जैसे– विद्या+आलय = विद्यालय। यहाँ विद्या शब्द का ‘आ’ वर्ण और आलय शब्द के ‘आ’ वर्ण मेँ संधि होकर ‘आ’ बना है। संधि–विच्छेद: संधि शब्दोँ को अलग–अलग करके संधि से पहले की स्थिति मेँ लाना ही संधि विच्छेद कहलाता है। संधि का विच्छेद करने पर उन वर्णोँ का वास्तविक रूप प्रकट हो जाता है। जैसे– हिमालय = हिम+आलय। परस्पर मिलने वाले वर्ण स्वर, व्यंजन और विसर्ग होते हैँ, अतः इनके आधार पर ही संधि तीन प्रकार की होती है– (1) स्वर संधि, (2) व्यंजन संधि, (3) विसर्ग संधि।
1. स्वर संधि
जहाँ दो स्वरोँ का परस्पर मेल हो, उसे स्वर संधि कहते हैँ। दो स्वरोँ का परस्पर मेल संस्कृत व्याकरण के अनुसार प्रायः पाँच प्रकार से होता है– (1) अ वर्ग = अ, आ (2) इ वर्ग = इ, ई (3) उ वर्ग = उ, ऊ (4) ए वर्ग = ए, ऐ (5) ओ वर्ग = ओ, औ। इन्हीँ स्वर–वर्गोँ के आधार पर स्वर–संधि के पाँच प्रकार होते हैँ– 1.दीर्घ संधि– जब दो समान स्वर या सवर्ण मिल जाते हैँ, चाहे वे ह्रस्व होँ या दीर्घ, या एक ह्रस्व हो और दूसरा दीर्घ, तो उनके स्थान पर एक दीर्घ स्वर हो जाता है, इसी को सवर्ण दीर्घ स्वर संधि कहते हैँ। जैसे–
3. वृद्धि संधि– अ या आ के बाद यदि ए, ऐ होँ तो इनके स्थान पर ‘ऐ’ तथा अ, आ के बाद ओ, औ होँ तो इनके स्थान पर ‘औ’ हो जाता है। ‘ऐ’ तथा ‘औ’ स्वर ‘वृद्धि स्वर’ कहलाते हैँ अतः इस संधि को वृद्धि संधि कहते हैँ। जैसे– अ/आ+ए/ऐ = ऐ एक+एक = एकैक मत+ऐक्य = मतैक्य सदा+एव = सदैव स्व+ऐच्छिक = स्वैच्छिक लोक+एषणा = लोकैषणा महा+ऐश्वर्य = महैश्वर्य पुत्र+ऐषणा = पुत्रैषणा वसुधा+ऐव = वसुधैव तथा+एव = तथैव महा+ऐन्द्रजालिक = महैन्द्रजालिक हित+एषी = हितैषी वित्त+एषणा = वित्तैषणा अ/आ+ओ/औ = औ वन+ओषध = वनौषध परम+ओज = परमौज महा+औघ = महौघ महा+औदार्य = महौदार्य परम+औदार्य = परमौदार्य जल+ओध = जलौध महा+औषधि = महौषधि प्र+औद्योगिकी = प्रौद्योगिकी दंत+ओष्ठ = दंतोष्ठ (अपवाद)
4. यण संधि– जब हृस्व इ, उ, ऋ या दीर्घ ई, ऊ, ॠ के बाद कोई असमान स्वर आये, तो इ, ई के स्थान पर ‘य्’ तथा उ, ऊ के स्थान पर ‘व्’ और ऋ, ॠ के स्थान पर ‘र्’ हो जाता है। इसे यण् संधि कहते हैँ। यहाँ यह ध्यातव्य है कि इ/ई या उ/ऊ स्वर तो 'य्' या 'व्' मेँ बदल जाते हैँ किँतु जिस व्यंजन के ये स्वर लगे होते हैँ, वह संधि होने पर स्वर–रहित हो जाता है। जैसे– अभि+अर्थी = अभ्यार्थी, तनु+अंगी = तन्वंगी। यहाँ अभ्यर्थी मेँ ‘य्’ के पहले 'भ्' तथा तन्वंगी मेँ ‘व्’ के पहले 'न्' स्वर–रहित हैँ। प्रायः य्, व्, र् से पहले स्वर–रहित व्यंजन का होना यण् संधि की पहचान है। जैसे– इ/ई+अ = य यदि+अपि = यद्यपि परि+अटन = पर्यटन नि+अस्त = न्यस्त वि+अस्त = व्यस्त वि+अय = व्यय वि+अग्र = व्यग्र परि+अंक = पर्यँक परि+अवेक्षक = पर्यवेक्षक वि+अष्टि = व्यष्टि वि+अंजन = व्यंजन वि+अवहार = व्यवहार वि+अभिचार = व्यभिचार वि+अक्ति = व्यक्ति वि+अवस्था = व्यवस्था वि+अवसाय = व्यवसाय प्रति+अय = प्रत्यय नदी+अर्पण = नद्यर्पण अभि+अर्थी = अभ्यर्थी परि+अंत = पर्यँत अभि+उदय = अभ्युदय देवी+अर्पण = देव्यर्पण प्रति+अर्पण = प्रत्यर्पण प्रति+अक्ष = प्रत्यक्ष वि+अंग्य = व्यंग्य इ/ई+आ = या वि+आप्त = व्याप्त अधि+आय = अध्याय इति+आदि = इत्यादि परि+आवरण = पर्यावरण अभि+आगत = अभ्यागत वि+आस = व्यास वि+आयाम = व्यायाम अधि+आदेश = अध्यादेश वि+आख्यान = व्याख्यान प्रति+आशी = प्रत्याशी अधि+आपक = अध्यापक वि+आकुल = व्याकुल अधि+आत्म = अध्यात्म प्रति+आवर्तन = प्रत्यावर्तन प्रति+आशित = प्रत्याशित प्रति+आभूति = प्रत्याभूति प्रति+आरोपण = प्रत्यारोपण वि+आवृत्त = व्यावृत्त वि+आधि = व्याधि वि+आहत = व्याहत प्रति+आहार = प्रत्याहार अभि+आस = अभ्यास सखी+आगमन = सख्यागमन मही+आधार = मह्याधार इ/ई+उ/ऊ = यु/यू परि+उषण = पर्युषण नारी+उचित = नार्युचित उपरि+उक्त = उपर्युक्त स्त्री+उपयोगी = स्त्र्युपयोगी अभि+उदय = अभ्युदय अति+उक्ति = अत्युक्ति प्रति+उत्तर = प्रत्युत्तर अभि+उत्थान = अभ्युत्थान आदि+उपांत = आद्युपांत अति+उत्तम = अत्युत्तम स्त्री+उचित = स्त्र्युचित प्रति+उत्पन्न = प्रत्युत्पन्न प्रति+उपकार = प्रत्युपकार वि+उत्पत्ति = व्युत्पत्ति वि+उपदेश = व्युपदेश नि+ऊन = न्यून प्रति+ऊह = प्रत्यूह वि+ऊह = व्यूह अभि+ऊह = अभ्यूह इ/ई+ए/ओ/औ = ये/यो/यौ प्रति+एक = प्रत्येक वि+ओम = व्योम वाणी+औचित्य = वाण्यौचित्य उ/ऊ+अ/आ = व/वा तनु+अंगी = तन्वंगी अनु+अय = अन्वय मधु+अरि = मध्वरि सु+अल्प = स्वल्प समनु+अय = समन्वय सु+अस्ति = स्वस्ति परमाणु+अस्त्र = परमाण्वस्त्र सु+आगत = स्वागत साधु+आचार = साध्वाचार गुरु+आदेश = गुर्वादेश मधु+आचार्य = मध्वाचार्य वधू+आगमन = वध्वागमन ऋतु+आगमन = ऋत्वागमन सु+आभास = स्वाभास सु+आगम = स्वागम उ/ऊ+इ/ई/ए = वि/वी/वे अनु+इति = अन्विति धातु+इक = धात्विक अनु+इष्ट = अन्विष्ट पू+इत्र = पवित्र अनु+ईक्षा = अन्वीक्षा अनु+ईक्षण = अन्वीक्षण तनु+ई = तन्वी धातु+ईय = धात्वीय अनु+एषण = अन्वेषण अनु+एषक = अन्वेषक अनु+एक्षक = अन्वेक्षक ऋ+अ/आ/इ/उ = र/रा/रि/रु मातृ+अर्थ = मात्रर्थ पितृ+अनुमति = पित्रनुमति मातृ+आनन्द = मात्रानन्द पितृ+आज्ञा = पित्राज्ञा मातृ+आज्ञा = मात्राज्ञा पितृ+आदेश = पित्रादेश मातृ+आदेश = मात्रादेश मातृ+इच्छा = मात्रिच्छा पितृ+इच्छा = पित्रिच्छा मातृ+उपदेश = मात्रुपदेश पितृ+उपदेश = पित्रुपदेश
5. अयादि संधि– ए, ऐ, ओ, औ के बाद यदि कोई असमान स्वर हो, तो ‘ए’ का ‘अय्’, ‘ऐ’ का ‘आय्’, ‘ओ’ का ‘अव्’ तथा ‘औ’ का ‘आव्’ हो जाता है। इसे अयादि संधि कहते हैँ। जैसे– ए/ऐ+अ/इ = अय/आय/आयि ने+अन = नयन शे+अन = शयन चे+अन = चयन संचे+अ = संचय चै+अ = चाय गै+अक = गायक गै+अन् = गायन नै+अक = नायक दै+अक = दायक शै+अर = शायर विधै+अक = विधायक विनै+अक = विनायक नै+इका = नायिका गै+इका = गायिका दै+इनी = दायिनी विधै+इका = विधायिका ओ/औ+अ = अव/आव भो+अन् = भवन पो+अन् = पवन भो+अति = भवति हो+अन् = हवन पौ+अन् = पावन धौ+अक = धावक पौ+अक = पावक शौ+अक = शावक भौ+अ = भाव श्रौ+अन = श्रावण रौ+अन = रावण स्रौ+अ = स्राव प्रस्तौ+अ = प्रस्ताव गव+अक्ष = गवाक्ष (अपवाद) ओ/औ+इ/ई/उ = अवि/अवी/आवु रो+इ = रवि भो+इष्य = भविष्य गौ+ईश = गवीश नौ+इक = नाविक प्रभौ+इति = प्रभावित प्रस्तौ+इत = प्रस्तावित भौ+उक = भावुक
2. व्यंजन संधि
व्यंजन के साथ स्वर या व्यंजन के मेल को व्यंजन संधि कहते हैँ। व्यंजन संधि मेँ एक स्वर और एक व्यंजन या दोनोँ वर्ण व्यंजन होते हैँ। इसके अनेक भेद होते हैँ। व्यंजन संधि के प्रमुख नियम इस प्रकार हैँ– 1. यदि किसी वर्ग के प्रथम वर्ण के बाद कोई स्वर, किसी भी वर्ग का तीसरा या चौथा वर्ण या य, र, ल, व, ह मेँ से कोई वर्ण आये तो प्रथम वर्ण के स्थान पर उसी वर्ग का तीसरा वर्ण हो जाता है। जैसे– 'क्' का 'ग्' होना दिक्+अम्बर = दिगम्बर दिक्+दर्शन = दिग्दर्शन वाक्+जाल = वाग्जाल वाक्+ईश = वागीश दिक्+अंत = दिगंत दिक्+गज = दिग्गज ऋक्+वेद = ऋग्वेद दृक्+अंचल = दृगंचल वाक्+ईश्वरी = वागीश्वरी प्राक्+ऐतिहासिक = प्रागैतिहासिक दिक्+गयंद = दिग्गयंद वाक्+जड़ता = वाग्जड़ता सम्यक्+ज्ञान = सम्यग्ज्ञान वाक्+दान = वाग्दान दिक्+भ्रम = दिग्भ्रम वाक्+दत्ता = वाग्दत्ता दिक्+वधू = दिग्वधू दिक्+हस्ती = दिग्हस्ती वाक्+व्यापार = वाग्व्यापार वाक्+हरि = वाग्हरि ‘च्’ का ‘ज्’ अच्+अन्त = अजन्त अच्+आदि = अजादि णिच्+अंत = णिजंत ‘ट्’ का ‘ड्’ षट्+आनन = षडानन षट्+दर्शन = षड्दर्शन षट्+रिपु = षड्रिपु षट्+अक्षर = षडक्षर षट्+अभिज्ञ = षडभिज्ञ षट्+गुण = षड्गुण षट्+भुजा = षड्भुजा षट्+यंत्र = षड्यंत्र षट्+रस = षड्रस षट्+राग = षड्राग ‘त्’ का ‘द्’ सत्+विचार = सद्विचार जगत्+अम्बा = जगदम्बा सत्+धर्म = सद्धर्म तत्+भव = तद्भव उत्+घाटन = उद्घाटन सत्+आशय = सदाशय जगत्+आत्मा = जगदात्मा सत्+आचार = सदाचार जगत्+ईश = जगदीश तत्+अनुसार = तदनुसार तत्+रूप = तद्रूप सत्+उपयोग = सदुपयोग भगवत्+गीता = भगवद्गीता सत्+गति = सद्गति उत्+गम = उद्गम उत्+आहरण = उदाहरण इस नियम का अपवाद भी है जो इस प्रकार है– त्+ड/ढ = त् के स्थान पर ड् त्+ज/झ = त् के स्थान पर ज् त्+ल् = त् के स्थान पर ल् जैसे– उत्+डयन = उड्डयन सत्+जन = सज्जन उत्+लंघन = उल्लंघन उत्+लेख = उल्लेख तत्+जन्य = तज्जन्य उत्+ज्वल = उज्ज्वल विपत्+जाल = विपत्जाल उत्+लास = उल्लास तत्+लीन = तल्लीन जगत्+जननी = जगज्जननी
2.यदि किसी वर्ग के प्रथम या तृतीय वर्ण के बाद किसी वर्ग का पंचम वर्ण (ङ, ञ, ण, न, म) हो तो पहला या तीसरा वर्ण भी पाँचवाँ वर्ण हो जाता है। जैसे– प्रथम/तृतीय वर्ण+पंचम वर्ण = पंचम वर्ण वाक्+मय = वाङ्मय दिक्+नाग = दिङ्नाग सत्+नारी = सन्नारी जगत्+नाथ = जगन्नाथ सत्+मार्ग = सन्मार्ग चित्+मय = चिन्मय सत्+मति = सन्मति उत्+नायक = उन्नायक उत्+मूलन = उन्मूलन अप्+मय = अम्मय सत्+मान = सन्मान उत्+माद = उन्माद उत्+नत = उन्नत वाक्+निपुण = वाङ्निपुण जगत्+माता = जगन्माता उत्+मत्त = उन्मत्त उत्+मेष = उन्मेष तत्+नाम = तन्नाम उत्+नयन = उन्नयन षट्+मुख = षण्मुख उत्+मुख = उन्मुख श्रीमत्+नारायण = श्रीमन्नारायण षट्+मूर्ति = षण्मूर्ति उत्+मोचन = उन्मोचन भवत्+निष्ठ = भवन्निष्ठ तत्+मय = तन्मय षट्+मास = षण्मास सत्+नियम = सन्नियम दिक्+नाथ = दिङ्नाथ वृहत्+माला = वृहन्माला वृहत्+नला = वृहन्नला
3. ‘त्’ या ‘द्’ के बाद च या छ हो तो ‘त्/द्’ के स्थान पर ‘च्’, ‘ज्’ या ‘झ’ हो तो ‘ज्’, ‘ट्’ या ‘ठ्’ हो तो ‘ट्’, ‘ड्’ या ‘ढ’ हो तो ‘ड्’ और ‘ल’ हो तो ‘ल्’ हो जाता है। जैसे– त्+च/छ = च्च/च्छ सत्+छात्र = सच्छात्र सत्+चरित्र = सच्चरित्र समुत्+चय = समुच्चय उत्+चरित = उच्चरित सत्+चित = सच्चित जगत्+छाया = जगच्छाया उत्+छेद = उच्छेद उत्+चाटन = उच्चाटन उत्+चारण = उच्चारण शरत्+चन्द्र = शरच्चन्द्र उत्+छिन = उच्छिन सत्+चिदानन्द = सच्चिदानन्द उत्+छादन = उच्छादन त्/द्+ज्/झ् = ज्ज/ज्झ सत्+जन = सज्जन तत्+जन्य = तज्जन्य उत्+ज्वल = उज्ज्वल जगत्+जननी = जगज्जननी त्+ट/ठ = ट्ट/ट्ठ तत्+टीका = तट्टीका वृहत्+टीका = वृहट्टीका त्+ड/ढ = ड्ड/ड्ढ उत्+डयन = उड्डयन जलत्+डमरु = जलड्डमरु भवत्+डमरु = भवड्डमरु महत्+ढाल = महड्ढाल त्+ल = ल्ल उत्+लेख = उल्लेख उत्+लास = उल्लास तत्+लीन = तल्लीन उत्+लंघन = उल्लंघन
4. यदि ‘त्’ या ‘द्’ के बाद ‘ह’ आये तो उनके स्थान पर ‘द्ध’ हो जाता है। जैसे– उत्+हार = उद्धार तत्+हित = तद्धित उत्+हरण = उद्धरण उत्+हत = उद्धत पत्+हति = पद्धति पत्+हरि = पद्धरि उपर्युक्त संधियाँ का दूसरा रूप इस प्रकार प्रचलित है– उद्+हार = उद्धार तद्+हित = तद्धित उद्+हरण = उद्धरण उद्+हत = उद्धत पद्+हति = पद्धति ये संधियाँ दोनोँ प्रकार से मान्य हैँ।
5. यदि ‘त्’ या ‘द्’ के बाद ‘श्’ हो तो ‘त् या द्’ का ‘च्’ और ‘श्’ का ‘छ्’ हो जाता है। जैसे– त्/द्+श् = च्छ उत्+श्वास = उच्छ्वास तत्+शिव = तच्छिव उत्+शिष्ट = उच्छिष्ट मृद्+शकटिक = मृच्छकटिक सत्+शास्त्र = सच्छास्त्र तत्+शंकर = तच्छंकर उत्+शृंखल = उच्छृंखल
6. यदि किसी भी स्वर वर्ण के बाद ‘छ’ हो तो वह ‘च्छ’ हो जाता है। जैसे– कोई स्वर+छ = च्छ अनु+छेद = अनुच्छेद परि+छेद = परिच्छेद वि+छेद = विच्छेद तरु+छाया = तरुच्छाया स्व+छन्द = स्वच्छन्द आ+छादन = आच्छादन वृक्ष+छाया = वृक्षच्छाया
7. यदि ‘त्’ के बाद ‘स्’ (हलन्त) हो तो ‘स्’ का लोप हो जाता है। जैसे– उत्+स्थान = उत्थान उत्+स्थित = उत्थित
8. यदि ‘म्’ के बाद ‘क्’ से ‘भ्’ तक का कोई भी स्पर्श व्यंजन हो तो ‘म्’ का अनुस्वार हो जाता है, या उसी वर्ग का पाँचवाँ अनुनासिक वर्ण बन जाता है। जैसे– म्+कोई व्यंजन = म् के स्थान पर अनुस्वार (ं ) या उसी वर्ग का पंचम वर्ण सम्+चार = संचार/सञ्चार सम्+कल्प = संकल्प/सङ्कल्प सम्+ध्या = संध्या/सन्ध्या सम्+भव = संभव/सम्भव सम्+पूर्ण = संपूर्ण/सम्पूर्ण सम्+जीवनी = संजीवनी सम्+तोष = संतोष/सन्तोष किम्+कर = किँकर/किङ्कर सम्+बन्ध = संबन्ध/सम्बन्ध सम्+धि = संधि/सन्धि सम्+गति = संगति/सङ्गति सम्+चय = संचय/सञ्चय परम्+तु = परन्तु/परंतु दम्+ड = दण्ड/दंड दिवम्+गत = दिवंगत अलम्+कार = अलंकार शुभम्+कर = शुभंकर सम्+कलन = संकलन सम्+घनन = संघनन पम्+चम् = पंचम सम्+तुष्ट = संतुष्ट/सन्तुष्ट सम्+दिग्ध = संदिग्ध/सन्दिग्ध अम्+ड = अण्ड/अंड सम्+तति = संतति सम्+क्षेप = संक्षेप अम्+क = अंक/अङ्क हृदयम्+गम = हृदयंगम सम्+गठन = संगठन/सङ्गठन सम्+जय = संजय सम्+ज्ञा = संज्ञा सम्+क्रांति = संक्रान्ति सम्+देश = संदेश/सन्देश सम्+चित = संचित/सञ्चित किम्+तु = किँतु/किन्तु वसुम्+धर = वसुन्धरा/वसुंधरा सम्+भाषण = संभाषण तीर्थँम्+कर = तीर्थँकर सम्+कर = संकर सम्+घटन = संघटन किम्+चित = किँचित धनम्+जय = धनंजय/धनञ्जय सम्+देह = सन्देह/संदेह सम्+न्यासी = संन्यासी सम्+निकट = सन्निकट
9. यदि ‘म्’ के बाद ‘म’ आये तो ‘म्’ अपरिवर्तित रहता है। जैसे– म्+म = म्म सम्+मति = सम्मति सम्+मिश्रण = सम्मिश्रण सम्+मिलित = सम्मिलित सम्+मान = सम्मान सम्+मोहन = सम्मोहन सम्+मानित = सम्मानित सम्+मुख = सम्मुख
10. यदि ‘म्’ के बाद य, र, ल, व, श, ष, स, ह मेँ से कोई वर्ण आये तो ‘म्’ के स्थान पर अनुस्वार (ं ) हो जाता है। जैसे– म्+य, र, ल, व, श, ष, स, ह = अनुस्वार (ं ) सम्+योग = संयोग सम्+वाद = संवाद सम्+हार = संहार सम्+लग्न = संलग्न सम्+रक्षण = संरक्षण सम्+शय = संशय किम्+वा = किँवा सम्+विधान = संविधान सम्+शोधन = संशोधन सम्+रक्षा = संरक्षा सम्+सार = संसार सम्+रक्षक = संरक्षक सम्+युक्त = संयुक्त सम्+स्मरण = संस्मरण स्वयम्+वर = स्वयंवर सम्+हित = संहिता
11. यदि ‘स’ से पहले अ या आ से भिन्न कोई स्वर हो तो स का ‘ष’ हो जाता है। जैसे– अ, आ से भिन्न स्वर+स = स के स्थान पर ष वि+सम = विषम नि+सेध = निषेध नि+सिद्ध = निषिद्ध अभि+सेक = अभिषेक परि+सद् = परिषद् नि+स्नात = निष्णात अभि+सिक्त = अभिषिक्त सु+सुप्ति = सुषुप्ति उपनि+सद = उपनिषद अपवाद– अनु+सरण = अनुसरण अनु+स्वार = अनुस्वार वि+स्मरण = विस्मरण वि+सर्ग = विसर्ग
12. यदि ‘ष्’ के बाद ‘त’ या ‘थ’ हो तो ‘ष्’ आधा वर्ण तथा ‘त’ के स्थान पर ‘ट’ और ‘थ’ के स्थान पर ‘ठ’ हो जाता है। जैसे– ष्+त/थ = ष्ट/ष्ठ आकृष्+त = आकृष्ट उत्कृष्+त = उत्कृष्ट तुष्+त = तुष्ट सृष्+ति = सृष्टि षष्+थ = षष्ठ पृष्+थ = पृष्ठ
13. यदि ‘द्’ के बाद क, त, थ, प या स आये तो ‘द्’ का ‘त्’ हो जाता है। जैसे– द्+क, त, थ, प, स = द् की जगह त् उद्+कोच = उत्कोच मृद्+तिका = मृत्तिका विपद्+ति = विपत्ति आपद्+ति = आपत्ति तद्+पर = तत्पर संसद्+सत्र = संसत्सत्र संसद्+सदस्य = संसत्सदस्य उपनिषद्+काल = उपनिषत्काल उद्+तर = उत्तर तद्+क्षण = तत्क्षण विपद्+काल = विपत्काल शरद्+काल = शरत्काल मृद्+पात्र = मृत्पात्र
14. यदि ‘ऋ’ और ‘द्’ के बाद ‘म’ आये तो ‘द्’ का ‘ण्’ बन जाता है। जैसे– ऋद्+म = ण्म मृद्+मय = मृण्मय मृद्+मूर्ति = मृण्मूर्ति
15. यदि इ, ऋ, र, ष के बाद स्वर, कवर्ग, पवर्ग, अनुस्वार, य, व, ह मेँ से किसी वर्ण के बाद ‘न’ आ जाये तो ‘न’ का ‘ण’ हो जाता है। जैसे– (i) इ/ऋ/र/ष+ न= न के स्थान पर ण (ii) इ/ऋ/र/ष+स्वर/क वर्ग/प वर्ग/अनुस्वार/य, व, ह+न = न के स्थान पर ण प्र+मान = प्रमाण भर+न = भरण नार+अयन = नारायण परि+मान = परिमाण परि+नाम = परिणाम प्र+यान = प्रयाण तर+न = तरण शोष्+अन् = शोषण परि+नत = परिणत पोष्+अन् = पोषण विष्+नु = विष्णु राम+अयन = रामायण भूष्+अन = भूषण ऋ+न = ऋण मर+न = मरण पुरा+न = पुराण हर+न = हरण तृष्+ना = तृष्णा तृ+न = तृण प्र+न = प्रण
16. यदि सम् के बाद कृत, कृति, करण, कार आदि मेँ से कोई शब्द आये तो म् का अनुस्वार बन जाता है एवं स् का आगमन हो जाता है। जैसे– सम्+कृत = संस्कृत सम्+कृति = संस्कृति सम्+करण = संस्करण सम्+कार = संस्कार
17. यदि परि के बाद कृत, कार, कृति, करण आदि मेँ से कोई शब्द आये तो संधि मेँ ‘परि’ के बाद ‘ष्’ का आगम हो जाता है। जैसे– परि+कार = परिष्कार परि+कृत = परिष्कृत परि+करण = परिष्करण परि+कृति = परिष्कृति
3. विसर्ग संधि
जहाँ विसर्ग (:) के बाद स्वर या व्यंजन आने पर विसर्ग का लोप हो जाता है या विसर्ग के स्थान पर कोई नया वर्ण आ जाता है, वहाँ विसर्ग संधि होती है।
विसर्ग संधि के नियम निम्न प्रकार हैँ– 1. यदि ‘अ’ के बाद विसर्ग हो और उसके बाद वर्ग का तीसरा, चौथा, पांचवाँ वर्ण या अन्तःस्थ वर्ण (य, र, ल, व) हो, तो ‘अः’ का ‘ओ’ हो जाता है। जैसे– अः+किसी वर्ग का तीसरा, चौथा, पाँचवाँ वर्ण, य, र, ल, व = अः का ओ मनः+वेग = मनोवेग मनः+अभिलाषा = मनोभिलाषा मनः+अनुभूति = मनोभूति पयः+निधि = पयोनिधि यशः+अभिलाषा = यशोभिलाषा मनः+बल = मनोबल मनः+रंजन = मनोरंजन तपः+बल = तपोबल तपः+भूमि = तपोभूमि मनः+हर = मनोहर वयः+वृद्ध = वयोवृद्ध सरः+ज = सरोज मनः+नयन = मनोनयन पयः+द = पयोद तपः+धन = तपोधन उरः+ज = उरोज शिरः+भाग = शिरोभाग मनः+व्यथा = मनोव्यथा मनः+नीत = मनोनीत तमः+गुण = तमोगुण पुरः+गामी = पुरोगामी रजः+गुण = रजोगुण मनः+विकार = मनोविकार अधः+गति = अधोगति पुरः+हित = पुरोहित यशः+दा = यशोदा यशः+गान = यशोगान मनः+ज = मनोज मनः+विज्ञान = मनोविज्ञान मनः+दशा = मनोदशा
2. यदि विसर्ग से पहले और बाद मेँ ‘अ’ हो, तो पहला ‘अ’ और विसर्ग मिलकर ‘ओऽ’ या ‘ओ’ हो जाता है तथा बाद के ‘अ’ का लोप हो जाता है। जैसे– अः+अ = ओऽ/ओ यशः+अर्थी = यशोऽर्थी/यशोर्थी मनः+अनुकूल = मनोऽनुकूल/मनोनुकूल प्रथमः+अध्याय = प्रथमोऽध्याय/प्रथमोध्याय मनः+अभिराम = मनोऽभिराम/मनोभिराम परः+अक्ष = परोक्ष
3. यदि विसर्ग से पहले ‘अ’ या ‘आ’ से भिन्न कोई स्वर तथा बाद मेँ कोई स्वर, किसी वर्ग का तीसरा, चौथा, पाँचवाँ वर्ण या य, र, ल, व मेँ से कोई वर्ण हो तो विसर्ग का ‘र्’ हो जाता है। जैसे– अ, आ से भिन्न स्वर+वर्ग का तीसरा, चौथा, पाँचवाँ वर्ण/य, र, ल, व, ह = (:) का ‘र्’ दुः+बल = दुर्बल पुनः+आगमन = पुनरागमन आशीः+वाद = आशीर्वाद निः+मल = निर्मल दुः+गुण = दुर्गुण आयुः+वेद = आयुर्वेद बहिः+रंग = बहिरंग दुः+उपयोग = दुरुपयोग निः+बल = निर्बल बहिः+मुख = बहिर्मुख दुः+ग = दुर्ग प्रादुः+भाव = प्रादुर्भाव निः+आशा = निराशा निः+अर्थक = निरर्थक निः+यात = निर्यात दुः+आशा = दुराशा निः+उत्साह = निरुत्साह आविः+भाव = आविर्भाव आशीः+वचन = आशीर्वचन निः+आहार = निराहार निः+आधार = निराधार निः+भय = निर्भय निः+आमिष = निरामिष निः+विघ्न = निर्विघ्न धनुः+धर = धनुर्धर
4. यदि विसर्ग के बाद ‘र’ हो तो विसर्ग का लोप हो जाता है और विसर्ग से पहले का स्वर दीर्घ हो जाता है। जैसे– हृस्व स्वर(:)+र = (:) का लोप व पूर्व का स्वर दीर्घ निः+रोग = नीरोग निः+रज = नीरज निः+रस = नीरस निः+रव = नीरव
5. यदि विसर्ग के बाद ‘च’ या ‘छ’ हो तो विसर्ग का ‘श्’, ‘ट’ या ‘ठ’ हो तो ‘ष्’ तथा ‘त’, ‘थ’, ‘क’, ‘स्’ हो तो ‘स्’ हो जाता है। जैसे– विसर्ग (:)+च/छ = श् निः+चय = निश्चय निः+चिन्त = निश्चिन्त दुः+चरित्र = दुश्चरित्र हयिः+चन्द्र = हरिश्चन्द्र पुरः+चरण = पुरश्चरण तपः+चर्या = तपश्चर्या कः+चित् = कश्चित् मनः+चिकित्सा = मनश्चिकित्सा निः+चल = निश्चल निः+छल = निश्छल दुः+चक्र = दुश्चक्र पुनः+चर्या = पुनश्चर्या अः+चर्य = आश्चर्य विसर्ग(:)+ट/ठ = ष् धनुः+टंकार = धनुष्टंकार निः+ठुर = निष्ठुर विसर्ग(:)+त/थ = स् मनः+ताप = मनस्ताप दुः+तर = दुस्तर निः+तेज = निस्तेज निः+तार = निस्तार नमः+ते = नमस्ते अः/आः+क = स् भाः+कर = भास्कर पुरः+कृत = पुरस्कृत नमः+कार = नमस्कार तिरः+कार = तिरस्कार
6. यदि विसर्ग से पहले ‘इ’ या ‘उ’ हो और बाद मेँ क, ख, प, फ हो तो विसर्ग का ‘ष्’ हो जाता है। जैसे– इः/उः+क/ख/प/फ = ष् निः+कपट = निष्कपट दुः+कर्म = दुष्कर्म निः+काम = निष्काम दुः+कर = दुष्कर बहिः+कृत = बहिष्कृत चतुः+कोण = चतुष्कोण निः+प्रभ = निष्प्रभ निः+फल = निष्फल निः+पाप = निष्पाप दुः+प्रकृति = दुष्प्रकृति दुः+परिणाम = दुष्परिणाम चतुः+पद = चतुष्पद
7. यदि विसर्ग के बाद श, ष, स हो तो विसर्ग ज्योँ के त्योँ रह जाते हैँ या विसर्ग का स्वरूप बाद वाले वर्ण जैसा हो जाता है। जैसे– विसर्ग+श/ष/स = (:) या श्श/ष्ष/स्स निः+शुल्क = निःशुल्क/निश्शुल्क दुः+शासन = दुःशासन/दुश्शासन यशः+शरीर = यशःशरीर/यश्शरीर निः+सन्देह = निःसन्देह/निस्सन्देह निः+सन्तान = निःसन्तान/निस्सन्तान निः+संकोच = निःसंकोच/निस्संकोच दुः+साहस = दुःसाहस/दुस्साहस दुः+सह = दुःसह/दुस्सह
8. यदि विसर्ग के बाद क, ख, प, फ हो तो विसर्ग मेँ कोई परिवर्तन नहीँ होता है। जैसे– अः+क/ख/प/फ = (:) का लोप नहीँ अन्तः+करण = अन्तःकरण प्रातः+काल = प्रातःकाल पयः+पान = पयःपान अधः+पतन = अधःपतन मनः+कामना = मनःकामना
9. यदि ‘अ’ के बाद विसर्ग हो और उसके बाद ‘अ’ से भिन्न कोई स्वर हो तो विसर्ग का लोप हो जाता है और पास आये स्वरोँ मेँ संधि नहीँ होती है। जैसे– अः+अ से भिन्न स्वर = विसर्ग का लोप अतः+एव = अत एव पयः+ओदन = पय ओदन रजः+उद्गम = रज उद्गम यशः+इच्छा = यश इच्छा
हिन्दी भाषा की अन्य संधियाँ
हिन्दी की कुछ विशेष सन्धियाँ भी हैँ। इनमेँ स्वरोँ का दीर्घ का हृस्व होना और हृस्व का दीर्घ हो जाना, स्वर का आगम या लोप हो जाना आदि मुख्य हैँ। इसमेँ व्यंजनोँ का परिवर्तन प्रायः अत्यल्प होता है। उपसर्ग या प्रत्ययोँ से भी इस तरह की संधियाँ हो जाती हैँ। ये अन्य संधियाँ निम्न प्रकार हैँ– 1. हृस्वीकरण– (क) आदि हृस्व– इसमेँ संधि के कारण पहला दीर्घ स्वर हृस्व हो जाता है। जैसे – घोड़ा+सवार = घुड़सवार घोड़ा+चढ़ी = घुड़चढ़ी दूध+मुँहा = दुधमुँहा कान+कटा = कनकटा काठ+फोड़ा = कठफोड़ा काठ+पुतली = कठपुतली मोटा+पा = मुटापा छोटा+भैया = छुटभैया लोटा+इया = लुटिया मूँछ+कटा = मुँछकटा आधा+खिला = अधखिला काला+मुँहा = कलमुँहा ठाकुर+आइन = ठकुराइन लकड़ी+हारा = लकड़हारा (ख) उभयपद हृस्व– दोनोँ पदोँ के दीर्घ स्वर हृस्व हो जाता है। जैसे – एक+साठ = इकसठ काट+खाना = कटखाना पानी+घाट = पनघट ऊँचा+नीचा = ऊँचनीच लेना+देना = लेनदेन
2. दीर्घीकरण– इसमेँ संधि के कारण हृस्व स्वर दीर्घ हो जाता है और पद का कोई अंश लुप्त भी हो जाता है। जैसे– दीन+नाथ = दीनानाथ ताल+मिलाना = तालमेल मूसल+धार = मूसलाधार आना+जाना = आवाजाही व्यवहार+इक = व्यावहारिक उत्तर+खंड = उत्तराखंड लिखना+पढ़ना = लिखापढ़ी हिलना+मिलना = हेलमेल मिलना+जुलना = मेलजोल प्रयोग+इक = प्रायोगिक स्वस्थ+य = स्वास्थ्य वेद+इक = वैदिक नीति+इक = नैतिक योग+इक = यौगिक भूत+इक = भौतिक कुंती+एय = कौँतेय वसुदेव+अ = वासुदेव दिति+य = दैत्य देव+इक = दैविक सुंदर+य = सौँदर्य पृथक+य = पार्थक्य
3. स्वरलोप– इसमेँ संधि के कारण कोई स्वर लुप्त हो जाता है। जैसे– बकरा+ईद = बकरीद।
4. व्यंजन लोप– इसमेँ कोई व्यंजन सन्धि के कारण लुप्त हो जाता है। (क) ‘स’ या ‘ह’ के बाद ‘ह्’ होने पर ‘ह्’ का लोप हो जाता है। जैसे– इस+ही = इसी उस+ही = उसी यह+ही = यही वह+ही = वही (ख) ‘हाँ’ के बाद ‘ह’ होने पर ‘हाँ’ का लोप हो जाता है तथा बने हुए शब्द के अन्त मेँ अनुस्वार लगता है। जैसे– यहाँ+ही = यहीँ वहाँ+ही = वहीँ कहाँ+ही = कहीँ (ग) ‘ब’ के बाद ‘ह्’ होने पर ‘ब’ का ‘भ’ हो जाता है और ‘ह्’ का लोप हो जाता है। जैसे– अब+ही = अभी तब+ही = तभी कब+ही = कभी सब+ही = सभी
5. आगम संधि– इसमेँ सन्धि के कारण कोई नया वर्ण बीच मेँ आ जुड़ता है। जैसे– खा+आ = खाया रो+आ = रोया ले+आ = लिया पी+ए = पीजिए ले+ए = लीजिए आ+ए = आइए।
‘समास’ शब्द का शाब्दिक अर्थ है– संक्षिप्त करना। सम्+आस् = ‘सम्’ का अर्थ है– अच्छी तरह पास एवं ‘आस्’ का अर्थ है– बैठना या मिलना। अर्थात् दो शब्दोँ को पास–पास मिलाना।
‘जब परस्पर सम्बन्ध रखने वाले दो या दो से अधिक शब्दोँ के बीच की विभक्ति हटाकर, उन्हेँ मिलाकर जब एक नया स्वतन्त्र शब्द बनाया जाता है, तब इस मेल को समास कहते हैँ।’
परस्पर मिले हुए शब्दोँ को समस्त–पद अर्थात् समास किया हुआ, या सामासिक शब्द कहते हैँ। जैसे– यथाशक्ति, त्रिभुवन, रामराज्य आदि।
समस्त पद के शब्दोँ (मिले हुए शब्दोँ) को अलग–अलग करने की प्रक्रिया को 'समास–विग्रह' कहते हैँ। जैसे– यथाशक्ति = शक्ति के अनुसार।
हिन्दी मेँ समास प्रायः नए शब्द–निर्माण हेतु प्रयोग मेँ लिए जाते हैँ। भाषा मेँ संक्षिप्तता, उत्कृष्टता, तीव्रता व गंभीरता लाने के लिए भी समास उपयोगी हैँ। समास प्रकरण संस्कृत साहित्य मेँ अति प्राचीन प्रतीत होता है। श्रीमद्भगवद्गीता मेँ भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है—“मैँ समासोँ मेँ द्वन्द्व समास मेँ हूँ।”
जिन दो मुख्य शब्दोँ के मेल से समास बनता है, उन शब्दोँ को खण्ड या अवयव या पद कहते हैँ। समस्त पद या सामासिक पद का विग्रह करने पर समस्त पद के दो पद बन जाते हैँ– पूर्व पद और उत्तर पद। जैसे– घनश्याम मेँ ‘घन’ पूर्व पद और ‘श्याम’ उत्तर पद है।
जिस खण्ड या पद पर अर्थ का मुख्य बल पड़ता है, उसे प्रधान पद कहते हैँ। जिस पद पर अर्थ का बल नहीँ पड़ता, उसे गौण पद कहते हैँ। इस आधार पर (संस्कृत की दृष्टि से) समास के चार भेद माने गए हैँ– 1. जिस समास मेँ पूर्व पद प्रधान होता है, वह—‘अव्ययीभाव समास’। 2. जिस समास मेँ उत्तर पद प्रधान होता है, वह—‘तत्पुरुष समास’। 3. जिस समास मेँ दोनोँ पद प्रधान होँ, वह—‘द्वन्द्व समास’ तथा 4. जिस समास मेँ दोनोँ पदोँ मेँ से कोई प्रधान न हो, वह—‘बहुब्रीहि समास’।
हिन्दी मेँ समास के छः भेद प्रचलित हैँ। जो निम्न प्रकार हैँ— 1. अव्ययीभाव समास 2. तत्पुरुष समास 3. द्वन्द्व समास 4. बहुब्रीहि समास 5. कर्मधारय समास 6. द्विगु समास।
1. अव्ययीभाव समास– जिस समस्त पद मेँ पहला पद अव्यय होता है, अर्थात् अव्यय पद के साथ दूसरे पद, जो संज्ञा या कुछ भी हो सकता है, का समास किया जाता है, उसे अव्ययीभाव समास कहते हैँ। प्रथम पद के साथ मिल जाने पर समस्त पद ही अव्यय बन जाता है। इन समस्त पदोँ का प्रयोग क्रियाविशेषण के समान होता है।
अव्यय शब्द वे हैँ जिन पर काल, वचन, पुरुष, लिँग आदि का कोई प्रभाव नहीँ पड़ता अर्थात् रूप परिवर्तन नहीँ होता। ये शब्द जहाँ भी प्रयुक्त किये जाते हैँ, वहाँ उसी रूप मेँ ही रहेँगे। जैसे– यथा, प्रति, आ, हर, बे, नि आदि।
पद के क्रिया विशेषण अव्यय की भाँति प्रयोग होने पर अव्ययीभाव समास की निम्नांकित स्थितियाँ बन सकती हैँ– (1) अव्यय+अव्यय–ऊपर-नीचे, दाएँ-बाएँ, इधर-उधर, आस-पास, जैसे-तैसे, यथा-शक्ति, यत्र-तत्र। (2) अव्ययोँ की पुनरुक्ति– धीरे-धीरे, पास-पास, जैसे-जैसे। (3) संज्ञा+संज्ञा– नगर-डगर, गाँव-शहर, घर-द्वार। (4) संज्ञाओँ की पुनरुक्ति– दिन-दिन, रात-रात, घर-घर, गाँव-गाँव, वन-वन। (5) संज्ञा+अव्यय– दिवसोपरान्त, क्रोध-वश। (6) विशेषण संज्ञा– प्रतिदिवस, यथा अवसर। (7) कृदन्त+कृदन्त– जाते-जाते, सोते-जागते। (8) अव्यय+विशेषण– भरसक, यथासम्भव।
अव्ययीभाव समास के उदाहरण: समस्त–पद — विग्रह यथारूप – रूप के अनुसार यथायोग्य – जितना योग्य हो यथाशक्ति – शक्ति के अनुसार प्रतिक्षण – प्रत्येक क्षण भरपूर – पूरा भरा हुआ अत्यन्त – अन्त से अधिक रातोँरात – रात ही रात मेँ अनुदिन – दिन पर दिन निरन्ध्र – रन्ध्र से रहित आमरण – मरने तक आजन्म – जन्म से लेकर आजीवन – जीवन पर्यन्त प्रतिशत – प्रत्येक शत (सौ) पर भरपेट – पेट भरकर प्रत्यक्ष – अक्षि (आँखोँ) के सामने दिनोँदिन – दिन पर दिन सार्थक – अर्थ सहित सप्रसंग – प्रसंग के साथ प्रत्युत्तर – उत्तर के बदले उत्तर यथार्थ – अर्थ के अनुसार आकंठ – कंठ तक घर–घर – हर घर/प्रत्येक घर यथाशीघ्र – जितना शीघ्र हो श्रद्धापूर्वक – श्रद्धा के साथ अनुरूप – जैसा रूप है वैसा अकारण – बिना कारण के हाथोँ हाथ – हाथ ही हाथ मेँ बेधड़क – बिना धड़क के प्रतिपल – हर पल नीरोग – रोग रहित यथाक्रम – जैसा क्रम है साफ–साफ – बिल्कुल स्पष्ट यथेच्छ – इच्छा के अनुसार प्रतिवर्ष – प्रत्येक वर्ष निर्विरोध – बिना विरोध के नीरव – रव (ध्वनि) रहित बेवजह – बिना वजह के प्रतिबिँब – बिँब का बिँब दानार्थ – दान के लिए उपकूल – कूल के समीप की क्रमानुसार – क्रम के अनुसार कर्मानुसार – कर्म के अनुसार अंतर्व्यथा – मन के अंदर की व्यथा यथासंभव – जहाँ तक संभव हो यथावत् – जैसा था, वैसा ही यथास्थान – जो स्थान निर्धारित है प्रत्युपकार – उपकार के बदले किया जाने वाला उपकार मंद–मंद – मंद के बाद मंद, बहुत ही मंद प्रतिलिपि – लिपि के समकक्ष लिपि यावज्जीवन – जब तक जीवन रहे प्रतिहिँसा – हिँसा के बदले हिँसा बीचोँ–बीच – बीच के बीच मेँ कुशलतापूर्वक – कुशलता के साथ प्रतिनियुक्ति – नियमित नियुक्ति के बदले नियुक्ति एकाएक – एक के बाद एक प्रत्याशा – आशा के बदले आशा प्रतिक्रिया – क्रिया से प्रेरित क्रिया सकुशल – कुशलता के साथ प्रतिध्वनि – ध्वनि की ध्वनि सपरिवार – परिवार के साथ दरअसल – असल मेँ अनजाने – जाने बिना अनुवंश – वंश के अनुकूल पल–पल – प्रत्येक पल चेहरे–चेहरे – हर चेहरे पर प्रतिदिन – हर दिन प्रतिक्षण – हर क्षण सशक्त – शक्ति के साथ दिनभर – पूरे दिन निडर – बिना डर के भरसक – शक्ति भर सानंद – आनंद सहित व्यर्थ – बिना अर्थ के यथामति – मति के अनुसार निर्विकार – बिना विकार के अतिवृष्टि – वृष्टि की अति नीरंध्र – रंध्र रहित यथाविधि – जैसी विधि निर्धारित है प्रतिघात – घात के बदले घात अनुदान – दान की तरह दान अनुगमन – गमन के पीछे गमन प्रत्यारोप – आरोप के बदले आरोप अभूतपूर्व – जो पूर्व मेँ नहीँ हुआ आपादमस्तक – पाद (पाँव) से लेकर मस्तक तक यथासमय – जो समय निर्धारित है घड़ी–घड़ी – घड़ी के बाद घड़ी अत्युत्तम – उत्तम से अधिक अनुसार – जैसा सार है वैसा निर्विवाद – बिना विवाद के यथेष्ट – जितना चाहिए उतना अनुकरण – करण के अनुसार करना अनुसरण – सरण के बाद सरण (जाना) अत्याधुनिक – आधुनिक से भी आधुनिक निरामिष – बिना आमिष (माँस) के घर–घर – घर ही घर बेखटके – बिना खटके यथासामर्थ्य – सामर्थ्य के अनुसार
2. तत्पुरुष समास– जिस समास मेँ दूसरा पद अर्थ की दृष्टि से प्रधान हो, उसे तत्पुरुष समास कहते हैँ। इस समास मेँ पहला पद संज्ञा अथवा विशेषण होता है इसलिए वह दूसरे पद विशेष्य पर निर्भर करता है, अर्थात् दूसरा पद प्रधान होता है। तत्पुरुष समास का लिँग–वचन अंतिम पद के अनुसार ही होता है। जैसे– जलधारा का विग्रह है– जल की धारा। ‘जल की धारा बह रही है’ इस वाक्य मेँ ‘बह रही है’ का सम्बन्ध धारा से है जल से नहीँ। धारा के कारण ‘बह रही’ क्रिया स्त्रीलिँग मेँ है। यहाँ बाद वाले शब्द ‘धारा’ की प्रधानता है अतः यह तत्पुरुष समास है।
तत्पुरुष समास मेँ प्रथम पद के साथ कर्त्ता और सम्बोधन कारकोँ को छोड़कर अन्य कारक चिह्नोँ (विभक्तियोँ) का प्रायः लोप हो जाता है। अतः पहले पद मेँ जिस कारक या विभक्ति का लोप होता है, उसी कारक या विभक्ति के नाम से इस समास का नामकरण होता है। जैसे – द्वितीया या कर्मकारक तत्पुरुष = स्वर्गप्राप्त – स्वर्ग को प्राप्त।
कारक चिह्न इस प्रकार हैँ – क्र.सं. कारक का नाम चिह्न 1— कर्ता – ने 2— कर्म – को 3— करण – से (के द्वारा) 4— सम्प्रदान – के लिए 5— अपादान – से (पृथक भाव मेँ) 6— सम्बन्ध – का, की, के, रा, री, रे 7— अधिकरण – मेँ, पर, ऊपर 8— सम्बोधन – हे!, अरे! ओ!
चूँकि तत्पुरुष समास मेँ कर्ता और संबोधन कारक–चिह्नोँ का लोप नहीँ होता अतः इसमेँ इन दोनोँ के उदाहरण नहीँ हैँ। अन्य कारक चिह्नोँ के आधार पर तत्पुरुष समास के भेद इस प्रकार हैँ – (1) कर्म तत्पुरुष – समस्त पद विग्रह हस्तगत – हाथ को गत जातिगत – जाति को गया हुआ मुँहतोड़ – मुँह को तोड़ने वाला दुःखहर – दुःख को हरने वाला यशप्राप्त – यश को प्राप्त पदप्राप्त – पद को प्राप्त ग्रामगत – ग्राम को गत स्वर्ग प्राप्त – स्वर्ग को प्राप्त देशगत – देश को गत आशातीत – आशा को अतीत(से परे) चिड़ीमार – चिड़ी को मारने वाला कठफोड़वा – काष्ठ को फोड़ने वाला दिलतोड़ – दिल को तोड़ने वाला जीतोड़ – जी को तोड़ने वाला जीभर – जी को भरकर लाभप्रद – लाभ को प्रदान करने वाला शरणागत – शरण को आया हुआ रोजगारोन्मुख – रोजगार को उन्मुख सर्वज्ञ – सर्व को जानने वाला गगनचुम्बी – गगन को चूमने वाला परलोकगमन – परलोक को गमन चित्तचोर – चित्त को चोरने वाला ख्याति प्राप्त – ख्याति को प्राप्त दिनकर – दिन को करने वाला जितेन्द्रिय – इंद्रियोँ को जीतने वाला चक्रधर – चक्र को धारण करने वाला धरणीधर – धरणी (पृथ्वी) को धारण करने वाला गिरिधर – गिरि को धारण करने वाला हलधर – हल को धारण करने वाला मरणातुर – मरने को आतुर कालातीत – काल को अतीत (परे) करके वयप्राप्त – वय (उम्र) को प्राप्त
(ख) करण तत्पुरुष – तुलसीकृत – तुलसी द्वारा कृत अकालपीड़ित – अकाल से पीड़ित श्रमसाध्य – श्रम से साध्य कष्टसाध्य – कष्ट से साध्य ईश्वरदत्त – ईश्वर द्वारा दिया गया रत्नजड़ित – रत्न से जड़ित हस्तलिखित – हस्त से लिखित अनुभव जन्य – अनुभव से जन्य रेखांकित – रेखा से अंकित गुरुदत्त – गुरु द्वारा दत्त सूरकृत – सूर द्वारा कृत दयार्द्र – दया से आर्द्र मुँहमाँगा – मुँह से माँगा मदमत्त – मद (नशे) से मत्त रोगातुर – रोग से आतुर भुखमरा – भूख से मरा हुआ कपड़छान – कपड़े से छाना हुआ स्वयंसिद्ध – स्वयं से सिद्ध शोकाकुल – शोक से आकुल मेघाच्छन्न – मेघ से आच्छन्न अश्रुपूर्ण – अश्रु से पूर्ण वचनबद्ध – वचन से बद्ध वाग्युद्ध – वाक् (वाणी) से युद्ध क्षुधातुर – क्षुधा से आतुर शल्यचिकित्सा – शल्य (चीर-फाड़) से चिकित्सा आँखोँदेखा – आँखोँ से देखा
(ग) सम्प्रदान तत्पुरुष – देशभक्ति – देश के लिए भक्ति गुरुदक्षिणा – गुरु के लिए दक्षिणा भूतबलि – भूत के लिए बलि प्रौढ़ शिक्षा – प्रौढ़ोँ के लिए शिक्षा यज्ञशाला – यज्ञ के लिए शाला शपथपत्र – शपथ के लिए पत्र स्नानागार – स्नान के लिए आगार कृष्णार्पण – कृष्ण के लिए अर्पण युद्धभूमि – युद्ध के लिए भूमि बलिपशु – बलि के लिए पशु पाठशाला – पाठ के लिए शाला रसोईघर – रसोई के लिए घर हथकड़ी – हाथ के लिए कड़ी विद्यालय – विद्या के लिए आलय विद्यामंदिर – विद्या के लिए मंदिर डाक गाड़ी – डाक के लिए गाड़ी सभाभवन – सभा के लिए भवन आवेदन पत्र – आवेदन के लिए पत्र हवन सामग्री – हवन के लिए सामग्री कारागृह – कैदियोँ के लिए गृह परीक्षा भवन – परीक्षा के लिए भवन सत्याग्रह – सत्य के लिए आग्रह छात्रावास – छात्रोँ के लिए आवास युववाणी – युवाओँ के लिए वाणी समाचार पत्र – समाचार के लिए पत्र वाचनालय – वाचन के लिए आलय चिकित्सालय – चिकित्सा के लिए आलय बंदीगृह – बंदी के लिए गृह
(घ) अपादान तत्पुरुष – रोगमुक्त – रोग से मुक्त लोकभय – लोक से भय राजद्रोह – राज से द्रोह जलरिक्त – जल से रिक्त नरकभय – नरक से भय देशनिष्कासन – देश से निष्कासन दोषमुक्त – दोष से मुक्त बंधनमुक्त – बंधन से मुक्त जातिभ्रष्ट – जाति से भ्रष्ट कर्तव्यच्युत – कर्तव्य से च्युत पदमुक्त – पद से मुक्त जन्मांध – जन्म से अंधा देशनिकाला – देश से निकाला कामचोर – काम से जी चुराने वाला जन्मरोगी – जन्म से रोगी भयभीत – भय से भीत पदच्युत – पद से च्युत धर्मविमुख – धर्म से विमुख पदाक्रान्त – पद से आक्रान्त कर्तव्यविमुख – कर्तव्य से विमुख पथभ्रष्ट – पथ से भ्रष्ट सेवामुक्त – सेवा से मुक्त गुण रहित – गुण से रहित बुद्धिहीन – बुद्धि से हीन धनहीन – धन से हीन भाग्यहीन – भाग्य से हीन
(ङ) सम्बन्ध तत्पुरुष – देवदास – देव का दास लखपति – लाखोँ का पति (मालिक) करोड़पति – करोड़ोँ का पति राष्ट्रपति – राष्ट्र का पति सूर्योदय – सूर्य का उदय राजपुत्र – राजा का पुत्र जगन्नाथ – जगत् का नाथ मंत्रिपरिषद् – मंत्रियोँ की परिषद् राजभाषा – राज्य की (शासन) भाषा राष्ट्रभाषा – राष्ट्र की भाषा जमीँदार – जमीन का दार (मालिक) भूकंप – भू का कम्पन रामचरित – राम का चरित दुःखसागर – दुःख का सागर राजप्रासाद – राजा का प्रासाद गंगाजल – गंगा का जल जीवनसाथी – जीवन का साथी देवमूर्ति – देव की मूर्ति सेनापति – सेना का पति प्रसंगानुकूल – प्रसंग के अनुकूल भारतवासी – भारत का वासी पराधीन – पर के अधीन स्वाधीन – स्व (स्वयं) के अधीन मधुमक्खी – मधु की मक्खी भारतरत्न – भारत का रत्न राजकुमार – राजा का कुमार राजकुमारी – राजा की कुमारी दशरथ सुत – दशरथ का सुत ग्रन्थावली – ग्रन्थोँ की अवली दीपावली – दीपोँ की अवली (कतार) गीतांजलि – गीतोँ की अंजलि कवितावली – कविता की अवली पदावली – पदोँ की अवली कर्माधीन – कर्म के अधीन लोकनायक – लोक का नायक रक्तदान – रक्त का दान सत्रावसान – सत्र का अवसान राष्ट्र का पिता अश्वमेध – अश्व का मेध माखनचोर – माखन का चोर नन्दलाल – नन्द का लाल दीनानाथ – दीनोँ का नाथ दीनबन्धु – दीनोँ (गरीबोँ) का बन्धु कर्मयोग – कर्म का योग ग्रामवासी – ग्राम का वासी दयासागर – दया का सागर अक्षांश – अक्ष का अंश देशान्तर – देश का अन्तर तुलादान – तुला का दान कन्यादान – कन्या का दान गोदान – गौ (गाय) का दान ग्रामोत्थान – ग्राम का उत्थान वीर कन्या – वीर की कन्या पुत्रवधू – पुत्र की वधू धरतीपुत्र – धरती का पुत्र वनवासी – वन का वासी भूतबंगला – भूतोँ का बंगला राजसिंहासन – राजा का सिँहासन
(च) अधिकरण तत्पुरुष – ग्रामवास – ग्राम मेँ वास आपबीती – आप पर बीती शोकमग्न – शोक मेँ मग्न जलमग्न – जल मेँ मग्न आत्मनिर्भर – आत्म पर निर्भर तीर्थाटन – तीर्थोँ मेँ अटन (भ्रमण) नरश्रेष्ठ – नरोँ मेँ श्रेष्ठ गृहप्रवेश – गृह मेँ प्रवेश घुड़सवार – घोड़े पर सवार वाक्पटु – वाक् मेँ पटु धर्मरत – धर्म मेँ रत धर्माँध – धर्म मेँ अंधा लोककेन्द्रित – लोक पर केन्द्रित काव्यनिपुण – काव्य मेँ निपुण रणवीर – रण मेँ वीर रणधीर – रण मेँ धीर रणजीत – रण मेँ जीतने वाला रणकौशल – रण मेँ कौशल आत्मविश्वास – आत्मा पर विश्वास वनवास – वन मेँ वास लोकप्रिय – लोक मेँ प्रिय नीतिनिपुण – नीति मेँ निपुण ध्यानमग्न – ध्यान मेँ मग्न सिरदर्द – सिर मेँ दर्द देशाटन – देश मेँ अटन कविपुंगव – कवियोँ मेँ पुंगव (श्रेष्ठ) पुरुषोत्तम – पुरुषोँ मेँ उत्तम रसगुल्ला – रस मेँ डूबा हुआ गुल्ला दहीबड़ा – दही मेँ डूबा हुआ बड़ा रेलगाड़ी – रेल (पटरी) पर चलने वाली गाड़ी मुनिश्रेष्ठ – मुनियोँ मेँ श्रेष्ठ नरोत्तम – नरोँ मेँ उत्तम वाग्वीर – वाक् मेँ वीर पर्वतारोहण – पर्वत पर आरोहण (चढ़ना) कर्मनिष्ठ – कर्म मेँ निष्ठ युधिष्ठिर – युद्ध मेँ स्थिर रहने वाला सर्वोत्तम – सर्व मेँ उत्तम कार्यकुशल – कार्य मेँ कुशल दानवीर – दान मेँ वीर कर्मवीर – कर्म मेँ वीर कविराज – कवियोँ मेँ राजा सत्तारुढ़ – सत्ता पर आरुढ़ शरणागत – शरण मेँ आया हुआ गजारुढ़ – गज पर आरुढ़
♦ तत्पुरुष समास के उपभेद – उपर्युक्त भेदोँ के अलावा तत्पुरुष समास के दो उपभेद होते हैँ – (i) अलुक् तत्पुरुष – इसमेँ समास करने पर पूर्वपद की विभक्ति का लोप नहीँ होता है। जैसे— युधिष्ठिर—युद्धि (युद्ध मेँ) + स्थिर = ज्येष्ठ पाण्डव मनसिज—मनसि (मन मेँ) + ज (उत्पन्न) = कामदेव खेचर—खे (आकाश) + चर (विचरने वाला) = पक्षी (ii) नञ् तत्पुरुष – इस समास मेँ द्वितीय पद प्रधान होता है किन्तु प्रथम पद संस्कृत के नकारात्मक अर्थ को देने वाले ‘अ’ और ‘अन्’ उपसर्ग से युक्त होता है। इसमेँ निषेध अर्थ मेँ ‘न’ के स्थान पर यदि बाद मेँ व्यंजन वर्ण हो तो ‘अ’ तथा बाद मेँ स्वर हो तो ‘न’ के स्थान पर ‘अन्’ हो जाता है। जैसे – अनाथ – न (अ) नाथ अन्याय – न (अ) न्याय अनाचार – न (अन्) आचार अनादर – न (अन्) आदर अजन्मा – न जन्म लेने वाला अमर – न मरने वाला अडिग – न डिगने वाला अशोच्य – नहीँ है शोचनीय जो अनभिज्ञ – न अभिज्ञ अकर्म – बिना कर्म के अनादर – आदर से रहित अधर्म – धर्म से रहित अनदेखा – न देखा हुआ अचल – न चल अछूत – न छूत अनिच्छुक – न इच्छुक अनाश्रित – न आश्रित अगोचर – न गोचर अनावृत – न आवृत नालायक – नहीँ है लायक जो अनन्त – न अन्त अनादि – न आदि असंभव – न संभव अभाव – न भाव अलौकिक – न लौकिक अनपढ़ – न पढ़ा हुआ निर्विवाद – बिना विवाद के
3. द्वन्द्व समास – जिस समस्त पद मेँ दोनोँ अथवा सभी पद प्रधान होँ तथा उनके बीच मेँ समुच्चयबोधक–‘और, या, अथवा, आदि’ का लोप हो गया हो, तो वहाँ द्वन्द्व समास होता है। जैसे – अन्नजल – अन्न और जल देश–विदेश – देश और विदेश राम–लक्ष्मण – राम और लक्ष्मण रात–दिन – रात और दिन खट्टामीठा – खट्टा और मीठा जला–भुना – जला और भुना माता–पिता – माता और पिता दूधरोटी – दूध और रोटी पढ़ा–लिखा – पढ़ा और लिखा हरि–हर – हरि और हर राधाकृष्ण – राधा और कृष्ण राधेश्याम – राधे और श्याम सीताराम – सीता और राम गौरीशंकर – गौरी और शंकर अड़सठ – आठ और साठ पच्चीस – पाँच और बीस छात्र–छात्राएँ – छात्र और छात्राएँ कन्द–मूल–फल – कन्द और मूल और फल गुरु–शिष्य – गुरु और शिष्य राग–द्वेष – राग या द्वेष एक–दो – एक या दो दस–बारह – दस या बारह लाख–दो–लाख – लाख या दो लाख पल–दो–पल – पल या दो पल आर–पार – आर या पार पाप–पुण्य – पाप या पुण्य उल्टा–सीधा – उल्टा या सीधा कर्तव्याकर्तव्य – कर्तव्य अथवा अकर्तव्य सुख–दुख – सुख अथवा दुख जीवन–मरण – जीवन अथवा मरण धर्माधर्म – धर्म अथवा अधर्म लाभ–हानि – लाभ अथवा हानि यश–अपयश – यश अथवा अपयश हाथ–पाँव – हाथ, पाँव आदि नोन–तेल – नोन, तेल आदि रुपया–पैसा – रुपया, पैसा आदि आहार–निद्रा – आहार, निद्रा आदि जलवायु – जल, वायु आदि कपड़े–लत्ते – कपड़े, लत्ते आदि बहू–बेटी – बहू, बेटी आदि पाला–पोसा – पाला, पोसा आदि साग–पात – साग, पात आदि काम–काज – काम, काज आदि खेत–खलिहान – खेत, खलिहान आदि लूट–मार – लूट, मार आदि पेड़–पौधे – पेड़, पौधे आदि भला–बुरा – भला, बुरा आदि दाल–रोटी – दाल, रोटी आदि ऊँच–नीच – ऊँच, नीच आदि धन–दौलत – धन, दौलत आदि आगा–पीछा – आगा, पीछा आदि चाय–पानी – चाय, पानी आदि भूल–चूक – भूल, चूक आदि फल–फूल – फल, फूल आदि खरी–खोटी – खरी, खोटी आदि
4. बहुव्रीहि समास – जिस समस्त पद मेँ कोई भी पद प्रधान नहीँ हो, अर्थात् समास किये गये दोनोँ पदोँ का शाब्दिक अर्थ छोड़कर तीसरा अर्थ या अन्य अर्थ लिया जावे, उसे बहुव्रीहि समास कहते हैँ। जैसे – 'लम्बोदर' का सामान्य अर्थ है– लम्बे उदर (पेट) वाला, परन्तु लम्बोदर सामास मेँ अन्य अर्थ होगा – लम्बा है उदर जिसका वह—गणेश। अजानुबाहु – जानुओँ (घुटनोँ) तक बाहुएँ हैँ जिसकी वह—विष्णु अजातशत्रु – नहीँ पैदा हुआ शत्रु जिसका—कोई व्यक्ति विशेष वज्रपाणि – वह जिसके पाणि (हाथ) मेँ वज्र है—इन्द्र मकरध्वज – जिसके मकर का ध्वज है वह—कामदेव रतिकांत – वह जो रति का कांत (पति) है—कामदेव आशुतोष – वह जो आशु (शीघ्र) तुष्ट हो जाते हैँ—शिव पंचानन – पाँच है आनन (मुँह) जिसके वह—शिव वाग्देवी – वह जो वाक् (भाषा) की देवी है—सरस्वती युधिष्ठिर – जो युद्ध मेँ स्थिर रहता है—धर्मराज (ज्येष्ठ पाण्डव) षडानन – वह जिसके छह आनन हैँ—कार्तिकेय सप्तऋषि – वे जो सात ऋषि हैँ—सात ऋषि विशेष जिनके नाम निश्चित हैँ त्रिवेणी – तीन वेणियोँ (नदियोँ) का संगमस्थल—प्रयाग पंचवटी – पाँच वटवृक्षोँ के समूह वाला स्थान—मध्य प्रदेश मेँ स्थान विशेष रामायण – राम का अयन (आश्रय)—वाल्मीकि रचित काव्य पंचामृत – पाँच प्रकार का अमृत—दूध, दही, शक्कर, गोबर, गोमूत्र का रसायन विशेष षड्दर्शन – षट् दर्शनोँ का समूह—छह विशिष्ट भारतीय दर्शन–न्याय, सांख्य, द्वैत आदि चारपाई – चार पाए होँ जिसके—खाट विषधर – विष को धारण करने वाला—साँप अष्टाध्यायी – आठ अध्यायोँ वाला—पाणिनि कृत व्याकरण चक्रधर – चक्र धारण करने वाला—श्रीकृष्ण पतझड़ – वह ऋतु जिसमेँ पत्ते झड़ते हैँ—बसंत दीर्घबाहु – दीर्घ हैँ बाहु जिसके—विष्णु
पतिव्रता – एक पति का व्रत लेने वाली—वह स्त्री तिरंगा – तीन रंगो वाला—राष्ट्रध्वज अंशुमाली – अंशु है माला जिसकी—सूर्य महात्मा – महान् है आत्मा जिसकी—ऋषि वक्रतुण्ड – वक्र है तुण्ड जिसकी—गणेश दिगम्बर – दिशाएँ ही हैँ वस्त्र जिसके—शिव घनश्याम – जो घन के समान श्याम है—कृष्ण प्रफुल्लकमल – खिले हैँ कमल जिसमेँ—वह तालाब महावीर – महान् है जो वीर—हनुमान व भगवान महावीर लोकनायक – लोक का नायक है जो—जयप्रकाश नारायण महाकाव्य – महान् है जो काव्य—रामायण, महाभारत आदि अनंग – वह जो बिना अंग का है—कामदेव एकदन्त – एक दंत है जिसके—गणेश नीलकण्ठ – नीला है कण्ठ जिनका—शिव पीताम्बर – पीत (पीले) हैँ वस्त्र जिसके—विष्णु कपीश्वर – कपि (वानरोँ) का ईश्वर है जो—हनुमान वीणापाणि – वीणा है जिसके पाणि मेँ—सरस्वती देवराज – देवोँ का राजा है जो—इन्द्र हलधर – हल को धारण करने वाला शशिधर – शशि को धारण करने वाला—शिव दशमुख – दस हैँ मुख जिसके—रावण चक्रपाणि – चक्र है जिसके पाणि मेँ – विष्णु पंचानन – पाँच हैँ आनन जिसके—शिव पद्मासना – पद्म (कमल) है आसन जिसका—लक्ष्मी मनोज – मन से जन्म लेने वाला—कामदेव गिरिधर – गिरि को धारण करने वाला—श्रीकृष्ण वसुंधरा – वसु (धन, रत्न) को धारण करती है जो—धरती त्रिलोचन – तीन हैँ लोचन (आँखेँ) जिसके—शिव वज्रांग – वज्र के समान अंग हैँ जिसके—हनुमान शूलपाणि – शूल (त्रिशूल) है पाणि मेँ जिसके—शिव चतुर्भुज – चार हैँ भुजाएँ जिसकी—विष्णु लम्बोदर – लम्बा है उदर जिसका—गणेश चन्द्रचूड़ – चन्द्रमा है चूड़ (ललाट) पर जिसके—शिव पुण्डरीकाक्ष – पुण्डरीक (कमल) के समान अक्षि (आँखेँ) हैँ जिसकी—विष्णु रघुनन्दन – रघु का नन्दन है जो—राम सूतपुत्र – सूत (सारथी) का पुत्र है जो—कर्ण चन्द्रमौलि – चन्द्र है मौलि (मस्तक) पर जिसके—शिव चतुरानन – चार हैँ आनन (मुँह) जिसके—ब्रह्मा अंजनिनन्दन – अंजनि का नन्दन (पुत्र) है जो—हनुमान पंकज – पंक् (कीचड़) मेँ जन्म लेता है जो—कमल निशाचर – निशा (रात्रि) मेँ चर (विचरण) करता है जो—राक्षस मीनकेतु – मीन के समान केतु हैँ जिसके—विष्णु नाभिज – नाभि से जन्मा (उत्पन्न) है जो—ब्रह्मा वीणावादिनी – वीणा बजाती है जो—सरस्वती नगराज – नग (पहाड़ोँ) का राजा है जो—हिमालय वज्रदन्ती – वज्र के समान दाँत हैँ जिसके—हाथी मारुतिनंदन – मारुति (पवन) का नंदन है जो—हनुमान शचिपति – शचि का पति है जो—इन्द्र वसन्तदूत – वसन्त का दूत है जो—कोयल गजानन – गज (हाथी) जैसा मुख है जिसका—गणेश गजवदन – गज जैसा वदन (मुख) है जिसका—गणेश ब्रह्मपुत्र – ब्रह्मा का पुत्र है जो—नारद भूतनाथ – भूतोँ का नाथ है जो—शिव षटपद – छह पैर हैँ जिसके—भौँरा लंकेश – लंका का ईश (स्वामी) है जो—रावण सिन्धुजा – सिन्धु मेँ जन्मी है जो—लक्ष्मी दिनकर – दिन को करता है जो—सूर्य
5. कर्मधारय समास – जिस समास मेँ उत्तरपद प्रधान हो तथा पहला पद विशेषण अथवा उपमान (जिसके द्वारा उपमा दी जाए) हो और दूसरा पद विशेष्य अथवा उपमेय (जिसके द्वारा तुलना की जाए) हो, उसे कर्मधारय समास कहते हैँ। इस समास के दो रूप हैँ– (i) विशेषता वाचक कर्मधारय– इसमेँ प्रथम पद द्वितीय पद की विशेषता बताता है। जैसे – महाराज – महान् है जो राजा महापुरुष – महान् है जो पुरुष नीलाकाश – नीला है जो आकाश महाकवि – महान् है जो कवि नीलोत्पल – नील है जो उत्पल (कमल) महापुरुष – महान् है जो पुरुष महर्षि – महान् है जो ऋषि महासंयोग – महान् है जो संयोग शुभागमन – शुभ है जो आगमन सज्जन – सत् है जो जन महात्मा – महान् है जो आत्मा सद्बुद्धि – सत् है जो बुद्धि मंदबुद्धि – मंद है जिसकी बुद्धि मंदाग्नि – मंद है जो अग्नि बहुमूल्य – बहुत है जिसका मूल्य पूर्णाँक – पूर्ण है जो अंक भ्रष्टाचार – भ्रष्ट है जो आचार शिष्टाचार – शिष्ट है जो आचार अरुणाचल – अरुण है जो अचल शीतोष्ण – जो शीत है जो उष्ण है देवर्षि – देव है जो ऋषि है परमात्मा – परम है जो आत्मा अंधविश्वास – अंधा है जो विश्वास कृतार्थ – कृत (पूर्ण) हो गया है जिसका अर्थ (उद्देश्य) दृढ़प्रतिज्ञ – दृढ़ है जिसकी प्रतिज्ञा राजर्षि – राजा है जो ऋषि है अंधकूप – अंधा है जो कूप कृष्ण सर्प – कृष्ण (काला) है जो सर्प नीलगाय – नीली है जो गाय नीलकमल – नीला है जो कमल महाजन – महान् है जो जन महादेव – महान् है जो देव श्वेताम्बर – श्वेत है जो अम्बर पीताम्बर – पीत है जो अम्बर अधपका – आधा है जो पका अधखिला – आधा है जो खिला लाल टोपी – लाल है जो टोपी सद्धर्म – सत् है जो धर्म कालीमिर्च – काली है जो मिर्च महाविद्यालय – महान् है जो विद्यालय परमानन्द – परम है जो आनन्द दुरात्मा – दुर् (बुरी) है जो आत्मा भलमानुष – भला है जो मनुष्य महासागर – महान् है जो सागर महाकाल – महान् है जो काल महाद्वीप – महान् है जो द्वीप कापुरुष – कायर है जो पुरुष बड़भागी – बड़ा है भाग्य जिसका कलमुँहा – काला है मुँह जिसका नकटा – नाक कटा है जो जवाँ मर्द – जवान है जो मर्द दीर्घायु – दीर्घ है जिसकी आयु अधमरा – आधा मरा हुआ निर्विवाद – विवाद से निवृत्त महाप्रज्ञ – महान् है जिसकी प्रज्ञा नलकूप – नल से बना है जो कूप परकटा – पर हैँ कटे जिसके दुमकटा – दुम है कटी जिसकी प्राणप्रिय – प्रिय है जो प्राणोँ को अल्पसंख्यक – अल्प हैँ जो संख्या मेँ पुच्छलतारा – पूँछ है जिस तारे की नवागन्तुक – नया है जो आगन्तुक वक्रतुण्ड – वक्र (टेढ़ी) है जो तुण्ड चौसिँगा – चार हैँ जिसके सीँग अधजला – आधा है जो जला अतिवृष्टि – अति है जो वृष्टि महारानी – महान् है जो रानी नराधम – नर है जो अधम (पापी) नवदम्पत्ति – नया है जो दम्पत्ति
(ii) उपमान वाचक कर्मधारय– इसमेँ एक पद उपमान तथा द्वितीय पद उपमेय होता है। जैसे – बाहुदण्ड – बाहु है दण्ड समान चंद्रवदन – चंद्रमा के समान वदन (मुख) कमलनयन – कमल के समान नयन मुखारविँद – अरविँद रूपी मुख मृगनयनी – मृग के समान नयनोँ वाली मीनाक्षी – मीन के समान आँखोँ वाली चन्द्रमुखी – चन्द्रमा के समान मुख वाली चन्द्रमुख – चन्द्र के समान मुख नरसिँह – सिँह रूपी नर चरणकमल – कमल रूपी चरण क्रोधाग्नि – अग्नि के समान क्रोध कुसुमकोमल – कुसुम के समान कोमल ग्रन्थरत्न – रत्न रूपी ग्रन्थ पाषाण हृदय – पाषाण के समान हृदय देहलता – देह रूपी लता कनकलता – कनक के समान लता करकमल – कमल रूपी कर वचनामृत – अमृत रूपी वचन अमृतवाणी – अमृत रूपी वाणी विद्याधन – विद्या रूपी धन वज्रदेह – वज्र के समान देह संसार सागर – संसार रूपी सागर
6. द्विगु समास – जिस समस्त पद मेँ पूर्व पद संख्यावाचक हो और पूरा पद समाहार (समूह) या समुदाय का बोध कराए उसे द्विगु समास कहते हैँ। संस्कृत व्याकरण के अनुसार इसे कर्मधारय का ही एक भेद माना जाता है। इसमेँ पूर्व पद संख्यावाचक विशेषण तथा उत्तर पद संज्ञा होता है। स्वयं 'द्विगु' मेँ भी द्विगु समास है। जैसे – एकलिंग – एक ही लिँग दोराहा – दो राहोँ का समाहार तिराहा – तीन राहोँ का समाहार चौराहा – चार राहोँ का समाहार पंचतत्त्व – पाँच तत्त्वोँ का समूह शताब्दी – शत (सौ) अब्दोँ (वर्षोँ) का समूह पंचवटी – पाँच वटोँ (वृक्षोँ) का समूह नवरत्न – नौ रत्नोँ का समाहार त्रिफला – तीन फलोँ का समाहार त्रिभुवन – तीन भुवनोँ का समाहार त्रिलोक – तीन लोकोँ का समाहार त्रिशूल – तीन शूलोँ का समाहार त्रिवेणी – तीन वेणियोँ का संगम त्रिवेदी – तीन वेदोँ का ज्ञाता द्विवेदी – दो वेदोँ का ज्ञाता चतुर्वेदी – चार वेदोँ का ज्ञाता तिबारा – तीन हैँ जिसके द्वार सप्ताह – सात दिनोँ का समूह चवन्नी – चार आनोँ का समाहार अठवारा – आठवेँ दिन को लगने वाला बाजार पंचामृत – पाँच अमृतोँ का समाहार त्रिलोकी – तीन लोकोँ का सतसई – सात सई (सौ) (पदोँ) का समूह एकांकी – एक अंक है जिसका एकतरफा – एक है जो तरफ इकलौता – एक है जो चतुर्वर्ग – चार हैँ जो वर्ग चतुर्भुज – चार भुजाओँ वाली आकृति त्रिभुज – तीन भुजाओँ वाली आकृति पन्सेरी – पाँच सेर वाला बाट द्विगु – दो गायोँ का समाहार चौपड़ – चार फड़ोँ का समूह षट्कोण – छः कोण वाली बंद आकृति दुपहिया – दो पहियोँ वाला त्रिमूर्ति – तीन मूर्तियोँ का समूह दशाब्दी – दस वर्षोँ का समूह पंचतंत्र – पाँच तंत्रोँ का समूह नवरात्र – नौ रातोँ का समूह सप्तर्षि – सात ऋषियोँ का समूह दुनाली – दो नालोँ वाली चौपाया – चार पायोँ (पैरोँ) वाला षट्पद – छः पैरोँ वाला चौमासा – चार मासोँ का समाहार इकतीस – एक व तीस का समूह सप्तसिन्धु – सात सिन्धुओँ का समूह त्रिकाल – तीन कालोँ का समाहार अष्टधातु – आठ धातुओँ का समूह
संधि व समास
असमानता – 1. संधि मेँ दो ध्वनियोँ या वर्णोँ का योग है जबकि समास मेँ दो शब्दोँ या पदोँ का मेल होता है। 2. संधि मेँ ध्वनी विकार आवश्यक है जबकि समास मेँ ध्वनि विकार तभी होता है जब सामासिक पद मेँ संधि की स्थिति हो अन्यथा नहीँ। समानता – 1. दोनोँ ही नवीन शब्द–सृजन मेँ सहायक हैँ। 2. दोनोँ ही शब्दोँ को संक्षिप्त करने मेँ सहायक हैँ। 3. दोनोँ ही कम शब्दोँ मेँ अधिक भाव प्रकट करने की ‘समास–शैली–निर्माण’ मेँ सहायक हैँ।