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महाभारत - 24

धृतराष्ट्र का वनगमन

      पांडवों ने विजयी होने के उपरांत धृतराष्ट्र तथा गांधारी की पूर्ण तन्मयता से सेवा की। पांडवों में से भीमसेन ऐसे थे जो सबकी चोरी से धृतराष्ट्र को अप्रिय लगने वाले काम करते रहते थे, कभी-कभी सेवकों से भी धृष्टतापूर्ण मंत्रणाएँ करवाते थे। धृतराष्ट्र धीरे-धीरे दो दिन या चार दिन में एक बार भोजन करने लगे। पंद्रह वर्ष बाद उन्हें इतना वैराग्य हुआ कि वे वन जाने के लिए छटपटाने लगे। वे और गांधारी युधिष्ठिर तथा व्यास मुनि से आज्ञा लेकर वन में चले गये। चलते समय जयद्रथ तथा पुत्रों का श्राद्ध करने के लिए वे धन लेना चाहते थे। भीम देना नहीं चाहता था तथापि युधिष्ठिर आदि भीमेतर पांडवों ने उन्हें दान-दक्षिणा के लिए यथेच्छ धन ले लेने के लिए कहा। धृतराष्ट्र और गांधारी ने वन के लिए प्रस्थान किया तो कुंती भी उनके साथ हो ली। पांडवों के कितनी ही प्रकार के अनुरोध को टालकर उसने गांधारी का हाथ पकड़ लिया। कुंती ने पांडवों से कहा कि वह अपने पति के युग में पर्याप्त भोग कर चुकी है, वन में जाकर तप करना ही उसके लिए श्रेयस्कर है। पांडवों को चाहिए कि वे उदारता तथा धर्म के साथ राज्य का पालन करें।

       वे तीनों कुरुक्षेत्र स्थित मर्हिष शतयूप के आश्रम में पहुँचे। शतयूप केकय का राज्य-सिंहासन अपने पुत्र को सौपंकर वन में रहने लगे थे। तदनंतर व्यास से वनवास की दीक्षा लेकर धृतराष्ट्र आदि शतयूप के आश्रम में रहने लगे। घूमते हुए नारद उस आश्रम में पहुँचे। उन्होंने बताया कि इंद्रलोक की चर्चा थी कि धृतराष्ट्र के जीवन के तीन वर्ष शेष रह गये हैं। तदुपरांत वे कुबेर के लोक में जायेगें।

       सपरिवार पांडव उनके दर्शन करने वन में पहुँचे। वे लोग धृतराष्ट्र के आश्रम पर एक मास तक रहें इसी मध्य विदुर ने शरीर त्याग दिया तथा एक रात व्यास मुनि सबको गंगा के तट पर ले गये। गंगा में प्रवेश कर उन्होंने महाभारत के समस्त मृत सैनिकों का आवाहन किया। उन सबके दर्शन करने के लिए व्यास ने धृतराष्ट्र को दिव्य नेत्र प्रदान किये। जो नारियाँ अपने मृत पति का लोक प्राप्त करना चाहती थीं, उन्होंने गंगा में गोता लगाया तथा वे शरीर त्याग उनके साथ ही चली गयीं। प्रात:काल से पूर्व ही आहूत वीर अंतर्धान हो गये।

      पांडवों के लौटने के उपरांत धृतराष्ट्र आदि हरिद्वार चले गये। धृतराष्ट्र मुँह में पत्थर का टुकड़ा रखकर केवल वायु का आहार करने लगे, गांधारी मात्र जल लेती थी, कुंती माह में एक बार और संजय दो दिन बाद तीसरे दिन एक बार भोजन करते थे। एक दिन वे चारों गंगा में स्नान करके चुके थे कि चारों ओर वन में दावाग्नि का प्रकोप फैल गया। धृतराष्ट्र ने संजय को वहाँ से भाग जाने का आदेश दिया तथा स्वयं गांधारी तथा कुंती के साथ पूर्वाभिमुख होकर बैठ गये। वे तीनों योगयुक्त होकर अग्नि में भस्म हो गये। संजय तापसों को इस दुर्घटना का समाचार देकर हिमालय की ओर चले गये। पांडवों ने उनकी हड्डियाँ चुनकर नदी में प्रवाहित की तथा उनका श्राद्ध किया।

यदुवंश का नाश

      महाभारत के युद्ध के पश्चात् सान्त्वना देने के उद्देश्य से भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी गांधारी के पास गये। गांधारी अपने सौ पुत्रों के मृत्यु के शोक में अत्यंत व्याकुल थी। भगवान श्री कृष्णचन्द्र को देखते ही गांधारी ने क्रोधित होकर उन्हें श्राप दे दिया कि तुम्हारे कारण से जिस प्रकार से मेरे सौ पुत्रों का आपस में लड़ कर के नाश हुआ है उसी प्रकार तुम्हारे यदुवंश का भी आपस में एक दूसरे को मारने के कारण नाश हो जायेगा। भगवान श्री कृष्णचन्द्र ने माता गांधारी के उस श्राप को पूर्ण करने के लिये यादवों की मति को फेर दिया।

      एक दिन अहंकार के वश में आकर कुछ यदुवंशी बालकों ने दुर्वासा ऋषि का अपमान कर दिया। इस पर दुर्वासा ऋषि ने शाप दे दिया कि यादव वंश का नाश हो जाये। उनके शाप के प्रभाव से यदुवंशी पर्व के दिन प्रभास क्षेत्र में आये। पर्व के हर्ष में उन्होंने अति नशीली मदिरा पी ली और मतवाले हो कर आपस में लड़ने लगे। वह झगड़ा इतना बढ़ गया कि अंत में वे सामूहिक रूप से कट मरे। इस प्रकार यादवों ने गृह-युद्ध मेँ अपना अन्त कर लिया।

      प्रभास के यादवयुद्ध में चार प्रमुख व्यक्तियों ने भाग नहीँ लिया, जिससे वे बच गये। ये थे-कृष्ण, बलराम, दारुक सारथी और बभ्रु। बलराम दु:खी होकर समुद्र की ओर चले गये और वहाँ से फिर उनका पता नही चला। कृष्ण बड़े मर्माहत हुए। वे द्वारका गये और दारुक को अर्जुन के पास भेजा कि वह आकर स्त्री-बच्चों को हस्तिनापुर लिवा ले जायें। कुछ स्त्रियों ने जल कर प्राण दे दिये। अर्जुन आये और शेष स्त्री-बच्चों को लिवा कर चले। कहते हैँ मार्ग में पश्चिमी राजपूताना के जंगली आभीरों से अर्जुन को मुक़ाबला करना पड़ा। कुछ स्त्रियों को आभीरों ने लूट लिया। शेष को अर्जुन ने शाल्ब देश और कुरु देश में बसा दिया। कृष्ण शोकाकुल होकर घने वन में चले गये थे। वे चिंतित हो लेटे हुए थे कि जरा नामक एक बहेलिये ने हरिण के भ्रम से तीर मारा। वह बाण श्रीकृष्ण के पैर में लगा, जिससे शीघ्र ही उन्होंने इस संसार को छोड़ दिया। मृत्यु के समय वे संभवत: सौ वर्ष से कुछ ऊपर थे। कृष्ण के देहांत के बाद द्वापर का अंत और कलियुग का आरंभ हुआ।


पाण्डवोँ का स्वर्ग गमन

      श्रीकृष्णचन्द्र से मिलने के लिये तथा भविष्य का कार्यक्रम निश्चित करने के लिये अर्जुन द्वारिकापुरी गये थे। जब उन्हें गये कई महीने व्यतीत हो गये तब एक दिन धर्मराज युधिष्ठिर को विशेष चिन्ता हुई। वे भीमसेन से बोले– “हे भीमसेन! द्वारिका का समाचार लेकर भाई अर्जुन अभी तक नहीं लौटे। और इधर काल की गति देखो, सम्पूर्ण भूतों में उत्पात होने लगे हैं। नित्य अपशकुन होते हैं। आकाश में उल्कापात होने लगे हैं और पृथ्वी में भूकम्प आने लगे हैं। सूर्य का प्रकाश मध्यम सा हो गया है और चन्द्रमा के इर्द गिर्द बारम्बार मण्डल बैठते हैं। आकाश के नक्षत्र एवं तारे परस्पर टकरा कर गिर रहे हैं। पृथ्वी पर बारम्बार बिजली गिरती है। बड़े बड़े बवण्डर उठ कर अन्धकारमय भयंकर आंधी उत्पन्न करते हैं। सियारिन सूर्योदय के सम्मुख मुँह करके चिल्ला रही हैं। कुत्ते बिलाव बारम्बार रोते हैं। गधे, उल्लू, कौवे और कबूतर रात को कठोर शब्द करते हैं। गौएँ निरंतर आँसू बहाती हैं। घृत में अग्नि प्रज्जवलित करने की शक्ति नहीं रह गई है। सर्वत्र श्रीहीनता प्रतीत होती है। इन सब बातों को देख कर मेरा हृदय धड़क रहा है। न जाने ये अपशकुन किस विपत्ति की सूचना दे रहे हैं। क्या भगवान श्रीकृष्णचन्द्र इस लोक को छोड़कर चले गये या अन्य कोई दुःखदाई घटना होने वाली है?”

       उसी क्षण आतुर अवस्था में अर्जुन द्वारिका से वापस आये। उनके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे, शरीर कान्तिहीन था और गर्दन झुकी हुई थी। वे आते ही धर्मराज युधिष्ठिर के चरणों में गिर पड़े। तब युधिष्ठिर ने घबरा कर पूछा– “हे अर्जुन! द्वारिकापुरी में हमारे सम्बंधी और बन्धु-बान्धव यादव लोग तो प्रसन्न हैं न? हमारे नाना शूरसेन तथा छोटे मामा वसुदेव तो कुशल से हैं न? हमारी मामी देवकी अपनी सातों बहनों तथा पुत्र-पौत्रादि सहित प्रसन्न तो हैं न? राजा उग्रसेन और उनके छोटे भाई देवक तो कुशल से हैं न? प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, साम्ब, ऋषभ आदि तो प्रसन्न हैं न? हमारे स्वामी भगवान श्रीकृष्णचन्द्र उद्धव आदि अपने सेवकों सहित कुशल से तो हैं न? वे अपनी सुधर्मा सभा में नित्य आते हैं न? सत्यभामा, रुक्मिणी, जाम्वन्ती आदि उनकी सोलह सहस्त्र एक सौ आठ पटरानियाँ तो नित्य ठनकी सेवा में लीन रहती हैं न? हे भाई अर्जुन! तुम्हारी कान्ति क्षीण क्यों हो रही है और तुम श्री हीन क्यों हो रहे हो?”

      धर्मराज युधिष्ठिर के प्रश्नों के बौछार से अर्जुन और भी व्याकुल एवं शोकाकुल हो गये, उनका रंग फीका पड़ गया, नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी, हिचकियाँ बँध गईं, रुँधे कण्ठ से उन्होंने कहा– “हे भ्राता! हमारे प्रियतम भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने हमें ठग लिया, वे हमें त्याग कर इस लोक से चले गये। जिनकी कृपा से मेरे परम पराक्रम के सामने देवता भी सिर नहीं उठाते थे मेरे उस परम पराक्रम को भी वे अपने साथ ले गये, प्राणहीन मुर्दे जैसी गति हो गई मेरी। मैं द्वारिका से भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की पत्नियों को हस्तिनापुर ला रहा था किन्तु मार्ग में थोड़े से भीलों ने मुझे एक निर्बल की भाँति परास्त कर दिया। मैं उन अबलाओं की रक्षा नहीं कर सका। मेरी वे ही भुजाएँ हैं, वही रथ है, वही घोड़े हैं, वही गाण्डीव धनुष है और वही बाण हैं जिन से मैंने बड़े बड़े महारथियों के सिर बात की बात में उड़ा दिये थे। जिस अर्जुन ने कभी अपने जीवन में शत्रुओं से मुँह की नहीं खाई थी वही अर्जुन आज कायरों की भाँति भीलों से पराजित हो गया। उनकी सम्पूर्ण पत्नियों तथा धन आदि को भील लोग लूट ले गये और मैं निहत्थे की भाँति खड़ा देखता रह गया। उन भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के बिना मेरी सम्पूर्ण शक्ति क्षीण हो गई है।”

       “आपने जो द्वारिका में जिन यादवों की कुशल पूछी है, वे समस्त यादव ब्राह्मणों के श्राप से दुर्बुद्धि अवस्था को प्राप्त हो गये थे और वे अति मदिरा पान कर के परस्पर एक दूसरे को मारते मारते मृत्यु को प्राप्त हो गये। यह सब उन्हीं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की लीला है।”

       अर्जुन के मुख से भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के स्वधाम गमन और सम्पूर्ण यदुवंशियों के नाश का समाचार सुन कर धर्मराज युधिष्ठिर ने तुरन्त अपना कर्तवय निश्चित कर लिया और अर्जुन से बोले– “हे अर्जुन! भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने इस लौकिक शरीर से इस पृथ्वी का भार उतार कर उसे इस प्रकार त्याग दिया जिस प्रकार कोई काँटे से काँटा निकालने के पश्चात उन कोनों काँटों को त्याग देता है। अब घोर कलियुग भी आने वाला है। अतः अब शीघ्र ही हम लोगों को स्वर्गारोहण करना चाहिये।”

       जब माता कुन्ती ने भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के स्वधाम गमन का समाचार सुना तो उन्होंने भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में अपना ध्यान लगा कर शरीर त्याग दिया।

      धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने महापराक्रमी पौत्र परीक्षित को सम्पूर्ण जम्बूद्वीप का राज्य देकर हस्तिनापुर में उसका राज्याभिषेक किया और शूरसेन देश का राजा बनाकर मथुरापुरी में अनिरुद्ध के पुत्र बज्र का राजतिलक किया। तत्पश्चात् परमज्ञानी युधिष्ठिर ने प्रजापति यज्ञ किया और भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में लीन होकर सन्यास ले लिया। उन्होंने मान, अपमान, अहंकार तथा मोह को त्याग दिया और मन तथा वाणी को वश में कर लिया। सम्पूर्ण विश्व उन्हें ब्रह्म रूप दृष्टिगोचर होने लगा। उन्होंने अपने केश खोल दिये, राजसी वस्त्राभूषण त्याग कर चीर वस्त्र धारण कर के और अन्न जल का परित्याग करके मौनव्रत धारण कर लिया। इतना करने के बाद बिना किसी की ओर दृष्टि किये घर से बाहर उत्तर दिशा की ओर चल दिये। राजा संसार की अनित्यता का विचार करके द्रौपदी तथा भाइयों को साथ ले हिमालय की तरफ महाप्रस्थान के पथ पर अग्रसर हुए। उस महापथ में क्रमश: द्रौपदी, सहदेव, नकुल, अर्जुन और भीमसेन एक-एक करके गिर पड़े। इससे राजा शोकमग्न हो गये। तदनन्तर वे इन्द्र के द्वारा लाये हुए रथ पर आरूढ़ हो (दिव्य रूप धारी) भाइयों सहित स्वर्ग को चले गये। वहाँ उन्होंने दुर्योधन आदि सभी धृतराष्ट्रपुत्रों को देखा। तदनन्तर (उन पर कृपा करने के लिये अपने धाम से पधारे हुए) भगवान् वासुदेव के भी दर्शन किए, इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुईं। यह मैंने तुम्हें महाभारत का प्रसंग सुनाया है। जो इसका पाठ करेगा, वह स्वर्गलोक में सम्मानित होगा।



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