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महाभारत - 10

शिशुपाल-वध

      शिशुपाल महाभारत कालीन चेदि राज्य का स्वामी था। महाभारत में वर्णन है कि विदर्भराज के रुक्म, रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेस तथा रुक्ममाली नामक पाँच पुत्र और एक पुत्री रुक्मणी थी। रुक्मणी सर्वगुण सम्पन्न तथा अति सुन्दरी थी। उसके माता-पिता उसका विवाह कृष्ण के साथ करना चाहते थे किन्तु रुक्म (रुक्मणी का बड़ा भाई) चाहता था कि उसकी बहन का विवाह चेदिराज शिशुपाल के साथ हो। अतः उसने रुक्मणी का टीका शिशुपाल के यहाँ भिजवा दिया। रुक्मणी कृष्ण पर आसक्त थी इसलिये उसने कृष्ण को एक ब्राह्मण के हाथों संदेशा भेजा।

      कृष्ण ने संदेश लाने वाले ब्राह्मण से कहा, “हे ब्राह्मण देवता! जैसा रुक्मणी मुझसे प्रेम करती हैं वैसे ही मैं भी उन्हीं से प्रेम करता हूँ। मैं जानता हूँ कि रुक्मणी के माता-पिता रुक्मणी का विवाह मुझसे ही करना चाहते हैं परन्तु उनका बड़ा भाई रुक्म मुझ से शत्रुता रखने के कारण उन्हें ऐसा करने से रोक रहा है। तुम जाकर राजकुमारी रुक्मणी से कह दो कि मैं अवश्य ही उनको ब्याह कर लाउँगा।”

      कृष्ण ने रुक्मणी से विवाह किया पर चेदिराज शिशुपाल ने इसे अपमान समझा और वह कृष्ण को अपना दुश्मन समझने लगा।

       युधिष्ठिर ने सभी प्रमुख राजाओं को राजसूय यज्ञ में आने का निमंत्रण दिया जिसमें चेदिराज शिशुपाल भी था। जब धर्मराज युधिष्ठिर ने शास्त्रोक्त विधि से भगवान श्रीकृष्ण का पूजन आरम्भ किया। तब चेदिराज शिशुपाल अपने आसन पर बैठा हुआ यह सब दृश्य देख रहा था। सहदेव के द्वारा प्रस्तावित तथा भीष्म के द्वारा समर्थित श्री कृष्ण की अग्र पूजा को वह सहन न कर सका और उसका हृदय क्रोध से भर उठा।

      वह उठ कर खड़ा हो गया और बोला, “हे सभासदों! मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कालवश सभी की मति मारी गई है। क्या इस बालक सहदेव से अधिक बुद्धिमान व्यक्ति इस सभा में नहीं है जो इस बालक की हाँ में हाँ मिला कर अयोग्य व्यक्ति की पूजा स्वीकार कर ली गई है? क्या इस कृष्ण से आयु, बल तथा बुद्धि में कोई भी बड़ा नहीं है? बड़े-बड़े त्रिकालदर्शी ऋषि-महर्षि यहा पधारे हुये हैं। बड़े-बड़े राजा-महाराजा यहाँ पर उपस्थित हैं। क्या इस गाय चराने वाल ग्वाले के समान कोई और यहाँ नहीं है? क्या कौआ हविश्यान्न ले सकता है? क्या गीदड़ सिंह का भाग प्राप्त कर सकता है? न इसका कोई कुल है न जाति, न ही इसका कोई वर्ण है। राजा ययाति के शाप के कारण राजवंशियों ने इस यदुवंश को वैसे ही बहिष्कृत कर रखा है। यह जरासंघ के डर से मथुरा त्याग कर समुद्र में जा छिपा था। भला यह किस प्रकार अग्रपूजा पाने का अधिकारी है?” इस प्रकार शिशुपाल जगत के स्वामी श्री कृष्ण को गाली देने लगा।

      उसके इन कटु वचनों की निन्दा करते हुये अर्जुन और भीमसेन अनेक राजाओं के साथ उसे मारने के लिये उद्यत हो गये किन्तु श्री कृष्णचन्द्र ने उन सभी को रोक दिया। श्री कृष्ण के अनेक भक्त सभा छोड़ कर चले गये क्योंकि वे श्री कृष्ण की निन्दा नहीं सुन सकते थे।

      जब शिशुपाल श्री कृष्ण को एक सौ गाली दे चुका तब श्री कृष्ण ने गरज कर कहा, “बस शिशुपाल! अब मेरे विषय में तेरे मुख से एक भी अपशब्द निकला तो तेरे प्राण नहीं बचेंगे। मैंने तेरे एक सौ अपशब्दों को क्षमा करने की प्रतिज्ञा की थी इसीलिये अब तक तेरे प्राण बचे रहे।”

      श्री कृष्ण के इन वचनों को सुन कर सभा में उपस्थित शिशुपाल के सारे समर्थक भय से थर्रा गये किन्तु शिशुपाल का विनाश समीप था। अतः उसने काल के वश होकर अपनी तलवार निकालते हुये श्री कृष्ण को फिर से गाली दी। शिशुपाल के मुख से अपशब्द के निकलते ही श्री कृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र चला दिया और पलक झपकते ही शिशुपाल का सिर कट कर गिर गया। उसके शरीर से एक ज्योति निकल कर भगवान श्री कृष्णचन्द्र के भीतर समा गई और वह पापी शिशुपाल, जो तीन जन्मों से भगवान से बैर भाव रखते आ रहा था, परमगति को प्राप्त हो गया।

      यह भगवान विष्णु का वही द्वारपाल था जिसे कि सनकादि मुनियों ने शाप दिया था। वे जय और विजय अपने पहले जन्म में हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्ष, दूसरे जन्म में रावण और कुम्भकर्ण तथा अंतिम तीसरे जन्म में कंस और शिशुपाल बने एवं श्रीकृष्ण के हाथों अपने परमगति को प्राप्त होकर पुनः विष्णुलोक लौट गये। शिशुपाल के पुत्र को चेदि राज्य की गद्दी सौंप दी गई। युधिष्ठिर का यज्ञ संपूर्ण हुआ।


द्रौपदी द्वारा दुर्योधन का अपमान

      दुर्योधन शकुनि के साथ युधिष्ठिर के अद्भुत सभा-भवन को देख रहा था। मयनिर्मित सभाभवन में अनेक वैचित्र्य थे। दुर्योधन जब वहां घूम रहा था तब उसको अनेक बार स्थल पर जल की, जल पर स्थल की, दीवार में दरवाजे की और दरवाजे में दीवार की भ्रांति हुई। कहीं वह सीढ़ी में समतल की भ्रांति होने के कारण गिर गया । वह एक ऐसे स्थान पर पहुँचा जहाँ स्थल भी जलमय लगता था। दुर्योधन अपने कपड़े समेटने लगा। द्रौपदी को यह देखकर हँसी आ गई और उसने कह दिया कि 'अन्धों के अन्धे ही होते हैं।' दुर्योधन को द्रौपदी के कहे गये वचन चुभ गये। कुछ दूरी पर पारदर्शी शीशा लगा हुआ था। दुर्योधन का सिर आईने से टकरा गया। वहाँ खड़े भीम को यह देखकर हँसी आ गई। कुछ दूर आगे जल भरा था, पर दुर्योधन ने फर्श समझा और चलता गया। उसके कपड़े भीग गए। युधिष्ठिर के अतिरिक्त शेष चारों पांडव हंसने लगे। दुर्योधन को परिहास पसन्द नहीं था। अत: ईर्ष्या, लज्जा आदि से जल उठा।

      राजसूय यज्ञ में राजा अनेक प्रकार की भेंट लेकर आये थे। द्विजों में प्रधान कुणिंद ने धर्मराज को भेंट में एक शंख दिया, जो अन्नदान करने पर स्वयं बज उठता था। उसकी ध्वनि से वहां उपस्थित सभी राजा तेजोहीन तथा मूर्च्छित हो गये, मात्र धृष्टद्युम्न, पांडव, सात्यकि तथा आठवें श्रीकृष्ण धैर्यपूर्वक खड़े रहे। दुर्योधन आदि के मूर्च्छित होने पर पांडव आदि जोर-जोर से हँसने लगे तथा अर्जुन ने अत्यंत प्रसन्न होकर एक ब्राह्मण को पांच सौ बैल समर्पित किये। युधिष्ठिर ने वह शंख अर्जुन को भेंटस्वरूप दे दिया।
इस प्रकार दुर्योधन अपने अपमान पर जल-भुन गया तथा दुर्योधन से विदा माँगकर हस्तिनापुर आ गया।


द्यूत-क्रीड़ा (जुआ खेलना) तथा द्रौपदी चीर हरण

      दुर्योधन पांडवों से अपने अपमान का बदला लेना चाहता था अत: हस्तिनापुर जाते हुए उसने मामा शकुनि से पांडवों को हराकर उनका वैभव हस्तगत करने की बात कही । शकुनि ने दुर्योधन से कहा, “भाँजे! इन्द्रप्रस्थ के सभा भवन में तुम्हारा जो अपमान हुआ है उससे मुझे अत्यन्त दुःख हुआ है। तुम यदि अपने इस अपमान का प्रतिशोध लेना चाहते हो तो अपने पिता धृतराष्ट्र से अनुमति ले कर युधिष्ठिर को द्यूत-क्रीड़ा (जुआ खेलने) के लिये आमन्त्रित कर लो। युधिष्ठिर द्यूत-क्रीड़ा का प्रेमी है, अतएव वह तुम्हारे निमन्त्रण पर वह अवश्य ही आयेगा और तुम तो जानते ही हो कि पासे के खेल में मुझ पर विजय पाने वाला त्रिलोक में भी कोई नहीं है। पासे के दाँव में हम पाण्डवों का सब कुछ जीत कर उन्हें पुनः दरिद्र बना देंगे।”

       हस्तिनापुर पहुँच कर दुर्योधन सीधे अपने पिता धृतराष्ट्र के पास गया और उन्हें अपने अपमानों के विषय में विस्तारपूर्वक बताकर अपनी तथा मामा शकुनि की योजना के विषय में भी बताया और युधिष्ठिर को द्यूत-क्रीड़ा के लिये आमन्त्रित करने की अनुमति माँगी। थोड़ा-बहुत आनाकनी करने के पश्चात् धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को अपनी अनुमति दे दी। शकुनि के कहने पर हस्तिनापुर में भी एक सभा-भवन बनवाया गया ।

      शकुनि द्यूतक्रीड़ा में निपुण था-युधिष्ठिर को शौक अवश्य था किंतु खेलना नहीं आता था। अत: उन सबने मिलकर धृतराष्ट्र को मना लिया। विदुर के विरोध करने पर भी धृतराष्ट्र ने उसी को इन्द्रप्रस्थ जाकर युधिष्ठिर को आमन्त्रित करने के लिए कहा, साथ ही यह भी कहा कि वह पांडवों को उनकी योजना के विषय में कुछ न बताये। विदुर उनका संदेश लेकर पांडवों को आमन्त्रित कर आये। युधिष्ठिर को उनके भाइयों तथा द्रौपदी के साथ हस्तिनापुर बुलवा लिया गया। अवसर पाकर दुर्योधन ने युधिष्ठिर के साथ द्यूत-क्रीड़ा का प्रस्ताव रखा जिसे युधिष्ठिर ने स्वीकार कर लिया।

       पासे का खेल आरम्भ हुआ। दुर्योधन की ओर से मामा शकुनि पासे फेंकने लगे। युधिष्ठिर जो कुछ भी दाँव पर लगाते थे उसे हारजाते थे। अपना समस्त राज्य तक को हार जाने के बाद युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को भी दाँव पर लगा दिया और शकुनि धूर्तता करके इस दाँव को भी जीत गया। यह देख कर भीष्म, द्रोण, विदुर आदि ने इस जुए का बन्द कराने का प्रयास किया किन्तु असफल रहे। अब युधिष्ठिर ने स्वयं अपने आप को दाँव पर लगा दिया और शकुनि की धूर्तता से फिर हार गये।

       राज-पाट तथा भाइयों सहित स्वयं को भी हार जाने पर युधिष्ठिर कान्तिहीन होकर उठने लगे तो शकुनि ने कहा, “युधिष्ठिर! अभी भी तुम अपना सब कुछ वापस जीत सकते हो। अभी द्रौपदी तुम्हारे पास दाँव में लगाने के लिये शेष है। यदि तुम द्रौपदी को दाँव में लगा कर जीत गये तो मैं तुम्हारा हारा हुआ सब कुछ तुम्हें लौटा दूँगा।” सभी तरह से निराश युधिष्ठिर ने अब द्रौपदी को भी दाँव में लगा दिया और उसे भी हार गये।

      अपनी इस विजय को देख कर दुर्योधन उन्मत्त हो उठा और विदुर से बोला, “द्रौपदी अब हमारी दासी है, आप उसे तत्काल यहाँ ले आइये।” नीच दुर्योधन के वचन सुन कर विदुर तिलमिला कर बोले, “दुष्ट! धर्मराज युधिष्ठिर की पत्नी दासी बने, ऐसा कभी सम्भव नहीं हो सकता। ऐसा प्रतीत होता है कि तेरा काल निकट है इसीलिये तेरे मुख से ऐसे वचन निकल रहे हैं।” परन्तु दुष्ट दुर्योधन ने विदुर की बातों की ओर कुछ भी ध्यान नहीं दिया और द्रौपदी को सभा में लाने के लिये अपने एक सेवक को भेजा।

      वह सेवक द्रौपदी के महल में जाकर बोला, “महारानी! धर्मराज युधिष्ठिर कौरवों से जुआ खेलते हुये सब कुछ हार गये हैं। वे अपने भाइयों को भी आपके सहित हार चुके हैं, इस कारण दुर्योधन ने तत्काल आपको सभा भवन में बुलवाया है।”

      द्रौपदी ने कहा, “सेवक! तुम जाकर सभा भवन में उपस्थित गुरुजनों से पूछो कि ऐसी स्थिति में मुझे क्या करना चाहिये?”

      सेवक ने लौट कर सभा में द्रौपदी के प्रश्न को रख दिया। उस प्रश्न को सुन कर भीष्म, द्रोण आदि वृद्ध एवं गुरुजन सिर झुकाये मौन बैठे रहे। यह देख कर दुर्योधन ने दुःशासन को आज्ञा दी, “दुःशासन! तुम जाकर द्रौपदी को यहाँ ले आओ।” दुर्योधन की आज्ञा पाकर दुःशासन द्रौपदी के पास पहुँचा और बोला, “द्रौपदी! तुम्हें हमारे महाराज दुर्योधन ने जुए में जीत लिया है। मैं उनकी आज्ञा से तुम्हें बुलाने आया हूँ।”

      यह सुन कर द्रौपदी ने धीरे से कहा, “दुःशासन! मैं रजस्वला हूँ, सभा में जाने योग्य नहीं हूँ क्योंकि इस समय मेरे शरीर पर एक ही वस्त्र है।”

       दुःशासन बोला, “तुम रजस्वला हो या वस्त्रहीन, मुझे इससे कोई प्रयोजन नहीं है। तुम्हें महाराज दुर्योधन की आज्ञा का पालन करना ही होगा।”

      उसके वचनों को सुन कर द्रौपदी स्वयं को वचाने के लिये गांधारी के महल की ओर भागने लगी, किन्तु दुःशासन ने झपट कर उसके घुँघराले केशों को पकड़ लिया और सभा भवन की ओर घसीटने लगा। सभा भवन तक पहुँचते-पहुँचते द्रौपदी के सारे केश बिखर गये और उसके आधे शरीर से वस्त्र भी हट गये। अपनी यह दुर्दशा देख कर द्रौपदी ने क्रोध में भर कर उच्च स्वरों में कहा, “रे दुष्ट! सभा में बैठे हुये इन प्रतिष्ठित गुरुजनों की लज्जा तो कर। एक अबला नारी के ऊपर यह अत्याचार करते हुये तुझे तनिक भी लज्जा नहीं आती? धिक्कार है तुझ पर और तेरे भरतवंश पर!”

      यह सब सुन कर भी दुर्योधन ने द्रौपदी को दासी कह कर सम्बोधित किया। द्रौपदी पुनः बोली, “क्या वयोवृद्ध भीष्म, द्रोण, धृतराष्ट्र, विदुर इस अत्याचार को देख नहीं रहे हैं? कहाँ हैं मेरे बलवान पति? उनके समक्ष एक गीदड़ मुझे अपमानित कर रहा है।” द्रौपदी के वचनों से पाण्डवों को अत्यन्त क्लेश हुआ किन्तु वे मौन भाव से सिर नीचा किये हुये बैठे रहे।

      द्रौपदी फिर बोली, “सभासदों! मैं आपसे पूछना चाहती हूँ कि धर्मराज को मुझे दाँव पर लगाने का क्या अधिकार था?”

      द्रौपदी की बात सुन कर विकर्ण उठकर कहने लगा, “देवी द्रौपदी का कथन सत्य है। युधिष्ठिर को अपने भाई और स्वयं के हार जाने के पश्चात् द्रौपदी को दाँव पर लगाने का कोई अधिकार नहीं था क्योंकि वह पाँचों भाई की पत्नी है अकेले युधिष्ठिर की नहीं। और फिर युधिष्ठिर ने शकुनि के उकसाने पर द्रौपदी को दाँव पर लगाया था, स्वेच्छा से नहीं। अतएव कौरवों को द्रौपदी को दासी कहने का कोई अधिकार नहीं है।”

       विकर्ण के नीतियुक्त वचनों को सुनकर दुर्योधन के परम मित्र कर्ण ने कहा, “विकर्ण! तुम अभी कल के बालक हो। यहाँ उपस्थित भीष्म, द्रोण, विदुर, धृतराष्ट्र जैसे गुरुजन भी कुछ नहीं कह पाये, क्योंकि उन्हें ज्ञात है कि द्रौपदी को हमने दाँव में जीता है। क्या तुम इन सब से भी अधिक ज्ञानी हो? स्मरण रखो कि गुरुजनों के समक्ष तुम्हें कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है।”

      कर्ण की बातों से उत्साहित होकर दुर्योधन ने दुःशासन से कहा, “दुःशासन! तुम द्रौपदी के वस्त्र उतार कर उसे निर्वसना करो।”

       इतना सुनते ही दुःशासन ने द्रौपदी की साड़ी को खींचना आरम्भ कर दिया। द्रौपदी अपनी पूरी शक्ति से अपनी साड़ी को खिंचने से बचाती हुई वहाँ पर उपस्थित जनों से विनती करने लगी, “आप लोगों के समक्ष मुझे निर्वसन किया जा रहा है किन्तु मुझे इस संकट से उबारने वाला कोई नहीं है। धिक्कार है आप लोगों के कुल और आत्मबल को। मेरे पति जो मेरी इस दुर्दशा को देख कर भी चुप हैं उन्हें भी धिक्कार है।”

      द्रौपदी की दुर्दशा देख कर विदुर से रहा न गया, वे बोल उठे, “दादा भीष्म! एक निरीह अबला पर इस तरह अत्याचार हो रहा है और आप उसे देख कर भी चुप हैं। क्या हुआ आपके तपोबल को? इस समय दुरात्मा धृतराष्ट्र भी चुप है। वह जानता नहीं कि इस अबला पर होने वाला अत्याचार उसके कुल का नाश कर देगा। एक सीता के अपमान से रावण का समस्त कुल नष्ट हो गया था।” विदुर ने जब देखा कि उनके नीतियुक्त वचनों का किसी पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है तो वे सबको धिक्कारते हुये वहाँ से उठ कर चले गये।

       दुःशासन द्रौपदी के वस्त्र को खींचने के अपने प्रयास में लगा ही हुआ था। द्रौपदी ने जब वहाँ उपस्थित सभासदों को मौन देखा तो वह द्वारिकावासी श्री कृष्ण को टेरती हुई बोली, “हे गोविन्द! हे मुरारे! हे कृष्ण! मुझे इस संसार में अब तुम्हारे अतिरिक्त और कोई मेरी लाज बचाने वाला दृष्टिगत नहीं हो रहा है। अब तुम्हीं इस कृष्णा की लाज रखो।”

       भक्तवत्सल श्री कृष्ण ने द्रौपदी की पुकार सुन ली। वे समस्त कार्य त्याग कर तत्काल अदृश्यरूप में वहाँ पधारे और आकाश में स्थिर होकर द्रौपदी की साड़ी को बढ़ाने लगे। दुःशासन द्रौपदी की साड़ी को खींचते जाता था और साड़ी थी कि समाप्त होने का नाम ही नहीं लेती थी। साड़ी को खींचते-खीचते दुःशासन शिथिल होकर पसीने-पसीने हो गया किन्तु अपने कार्य में सफल न हो सका। अन्त में लज्जित होकर उस चुपचाप बैठ जाना पड़ा। अब साड़ीके उस पर्वत के समान ऊँचे ढेर को देख कर वहाँ बैठे समस्त सभाजन द्रौपदी के पातिव्रत की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने लगे और दुःशासन को धिक्कारने लगे।

      द्रौपदी के इस अपमान को देख कर भीमसेन का सारा शरीर क्रोध से जला जा रहा था। उन्होंने घोषणा की, “जिस दुष्ट के हाथों ने द्रौपदी के केश खींचे हैं, यदि मैं उन हाथों को अपनी गदा से नष्ट न कर दूँ तो मुझे सद्गति ही न मिले। यदि मैं उसकी छाती को चीर कर उसका रक्तपान न कर सकूँ तो मैं कोटि जन्मों तक नरक की वेदना भुगतता रहूँ। मैं अपने भ्राता धर्मराज युधिष्ठिर के वश में हूँ अन्यथा इस समस्त कौरवों को मच्छर की भाँति मसल कर नष्ट कर दूँ। यदि आज मै स्वामी होता तो द्रौपदी को स्पर्श करने वाले को तत्काल यमलोक पहुँचा देता।”

      भीमसेन के वचनों को सुन कर भी अन्य पाण्डवों तथा सभासदों को मौन देख कर दुर्योधन और अधिक उत्साहित होकर बोला, “द्रौपदी! मैं तुम्हें अपनी महारानी बना रहा हूँ। आओ, तुम मेरी बाँयीं जंघा पर बैठ जाओ। इन पुंसत्वहीन पाण्डवों का साथ छोड़ दो।”

      यह सुनते ही भीम अपनी दुर्योधन के साथ युद्ध करने के लिये उठ खड़े हुये, किन्तु अर्जुन ने उनका हाथ पकड़कर उन्हें रोक लिया। इस पर भीम पुनः दुर्योधन से बोले, “दुरात्मा! मैं भरी सभा में शपथ ले कर कहता हूँ कि युद्ध में तेरी जाँघ को चीर कर न रख दूँ तो मेरा नाम भीम नहीं।”

      इसी समय सभा में भयंकर अपशकुन होता दिखाई पड़ा। गीदड़-कुत्तों के रुदन से पूरा वातावरण भर उठा। इस उत्पात को देखकर धृतराष्ट्र और अधिक मौन न रह सके और बोले उठे, “दुर्योधन! तू दुर्बुद्धि हो गया है। आखिर कुछ भी हो, द्रौपदी मेरी पुत्र वधू है। उसे तू भरी सभा में निर्वसना कर रहा है।” इसके पश्चात् उन्होंने द्रौपदी से कहा, “पुत्री! तुम सचमुच पतिव्रता हो। तुम इस समय मुझसे जो वर चाहो माँग सकती हो।”

      द्रौपदी बोलीं, “यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दें कि मेरे पति दासता से मुक्ति पा जायें।”

      धृतराष्ट्र ने कहा, “देवि! मैं तुम्हें यह वर दे रहा हूँ। पाण्डवगण अब दासता मुक्त हैं। पुत्री! तुम कुछ और माँगना चाहो तो वह भी माँग लो।”

      इस पर द्रौपदी ने कहा, “हे तात! आप मेरे पतियों के दिव्य रथ एवं शस्त्रास्त्र लौटा दें।” धृतराष्ट्र ने कहा, "तथास्तु"। पाण्डवों के दिव्य रथ तथा अस्त्र-शस्त्र लौटा दिये गये। धृतराष्ट्र ने कहा, “पुत्री! कुछ और माँगो।”

      इस पर द्रौपदी बोली, “बस तात्! क्षत्राणी केवल दो वर ही माँग सकती है। इससे अधिक माँगना लोभ माना जायेगा।”

      धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर से दुर्योधन की धृष्टता को भूल जाने को कहा तथा उनका सब कुछ वापस कर दिया, साथ ही उन्हें खांडव वन में जाकर अपना राज्य भोगने की अनुमति दी।


पुनः द्यूतक्रीड़ा तथा पांडवों को तेरह वर्ष का वनवास

      धृतराष्ट्र ने उनके खांडववन जाने से पूर्व, दुर्योधन की प्रेरणा से, उन्हें एक बार फिर से जुआ खेलने की आज्ञा दी। यह तय हुआ कि एक ही दांव रखा जायेगा। पांडव अथवा धृतराष्ट्र पुत्रों में से जो भी हार जायेंगे, वे मृगचर्म धारण कर बारह वर्ष वनवास करेंगे और एक वर्ष अज्ञातवास में रहेंगे। उस एक वर्ष में यदि उन्हें पहचान लिया गया तो फिर से बारह वर्ष का वनवास भोगना होगा। भीष्म, विदुर, द्रोण आदि के रोकने पर भी द्यूतक्रीड़ा हुई । इस बार भी दुर्योधन की ओर से शकुनि ने पासा फेंका जिसमें पांडव हार गये, छली शकुनि जीत गया। शर्त के अनुसार युधिष्ठिर तेरह वर्ष वनवास जाने के लिए विवश हुए और राज्य भी उनके हाथ से जाता रहा।

      वनगमन से पूर्व पांडवों ने शपथ ली कि वे समस्त शत्रुओं का नाश करके ही चैन की सांस लेंगे। श्रीधौम्य (पुरोहित) के नेतृत्व में पांडवों ने द्रौपदी को साथ ले वन के लिए प्रस्थान किया। श्रीधौम्य साम मन्त्रों का गान करते हुए आगे की ओर बढ़े। वे कहकर गये थे कि युद्ध में कौरवों के मारे जाने पर उनके पुरोहित भी इसी प्रकार साम गान करेंगे। युधिष्ठिर ने अपना मुंह ढका हुआ था (वे अपने क्रुद्ध नेत्रों से देखकर किसी को भस्म नहीं करना चाहते थे), भीम अपने बाहु की ओर देख रहा था (अपने बाहुबल को स्मरण कर रहा था), अर्जुन रेत बिखेरता जा रहा था (ऐसे ही भावी संग्राम में वह वाणों की वर्षा करेगा), सहदेव ने मुंह पर मिट्टी मली हुई थी। (दुर्दिन में कोई पहचान न ले), नकुल ने बदन पर मिट्टी मल रखी थी (कोई नारी उसके रूप पर आसक्त न हो), द्रौपदी ने बाल खोले हुए थे,उन्हीं से मुंह ढककर विलाप कर रही थी (जिस अन्याय से उसकी वह दशा हुई थी, तेरह वर्ष बाद उसके परिणाम स्वरूप शत्रु-नारियों की भी वही दशा होगी, वे अपने सगे-संबंधियों को तिलांजलि देंगी ।


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