महाभारत - 19 युद्ध की शुरुआत व भीष्म वध युधिष्ठिर और दुर्योधन की सेनाएँ कुरुक्षेत्र के मैदान में जा डटीं। अपने विपक्ष में पितामह भीष्म तथा आचार्य द्रोण आदि गुरुजनों को देखकर अर्जुन युद्ध से विरत हो गये, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा- “पार्थ! भीष्म आदि गुरुजन शोक के योग्य नहीं हैं। मनुष्य का शरीर विनाशशील है, किंतु आत्मा का कभी नाश नहीं होता। यह आत्मा ही परब्रह्म है। ‘मैं ब्रह्म हूँ’- इस प्रकार तुम उस आत्मा को समझो। कार्य की सिद्धि और असिद्धि में समान भाव से रहकर कर्मयोग का आश्रय ले क्षात्रधर्म का पालन करो।” श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन रथारूढ़ हो युद्ध में प्रवृत्त हुए। उन्होंने शंखध्वनि की। दुर्योधन की सेना में सबसे पहले पितामह भीष्म सेनापति हुए। पाण्डवों के सेनापति शिखण्डी थे। इन दोनों में भारी युद्ध छिड़ गया। भीष्म सहित कौरव पक्ष के योद्धा उस युद्ध में पाण्डव-पक्ष के सैनिकों पर प्रहार करने लगे और शिखण्डी आदि पाण्डव - पक्ष के वीर कौरव-सैनिकों को अपने बाणोंका निशाना बनाने लगे। कौरव और पाण्डव-सेना का वह युद्ध, देवासुर-संग्राम के समान जान पड़ता था। आकाश में खड़े होकर देखने वाले देवताओं को वह युद्ध बड़ा आनन्ददायक प्रतीत होरहा था। भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया। दसवें दिन अर्जुन ने वीरवर भीष्म पर बाणों की बड़ी भारी वृष्टि की। इधर द्रुपद की प्रेरणा से शिखण्डी ने भी पानी बरसाने वाले मेघ की भाँति भीष्म पर बाणों की झड़ी लगा दी। दोनों ओर के हाथीसवार, घुड़सवार, रथी और पैदल एक-दूसरे के बाणों से मारे गये। भीष्म की मृत्यु उनकी इच्छा के अधीन थी। जब पांडवों को ये समझ में आ गया की भीष्म के रहते वो इस युद्ध को नहीं जीत सकते तो श्रीकृष्ण के सुझाव पर उन्होंने भीष्म पितामह से ही उनकी मृत्यु का उपाय पूछा। उन्होंने कहा कि जब तक मेरे हाथ में शस्त्र है तब तक महादेव के अतिरिक्त मुझे कोई नहीं हरा सकता। उन्होंने ने ही पांडवों को सुझाव दिया कि शिखंडी को सामने करके युद्ध लड़ेँ। वो जानते थे कि शिखंडी पूर्व जन्म में अम्बा थी इसलिए वो उसे कन्या ही मानते थे। दसवेँ दिन के युद्ध में अर्जुन ने शिखंडी को आगे अपने रथ पर बिठाया। शिखंडी को आगे देख कर भीष्म ने अपना धनुष त्याग दिया। उनके शस्त्र त्यागने के बाद अर्जुन ने उन्हें बाणोँ की शय्या पर सुला दिया। वे उत्तरायण की प्रतीक्षा में भगवान् विष्णु का ध्यान और स्तवन करते हुए समय व्यतीत करने लगे। द्रोणाचार्य के सेनापतित्व में अगले पाँच दिन के युद्ध का निर्णय पितामह भीष्म के आहत होने पर आचार्य द्रोण को सेनापति बनाया गया। सेनापति बनने के बाद द्रोण ने प्रतिज्ञा की कि मैं भीष्म की तरह ही कौरव-सेना की रक्षा तथा पांडव-सेना का संहार करूँगा। मुझे केवल धृष्टद्युम्न की चिंता है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति ही मेरी मृत्यु के लिए हुई है। दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से प्रार्थना की कि यदि आप केवल युधिष्ठिर को पकड़ लें। तो युद्ध भी रुक जाएगा और जनसंहार भी न होगा। द्रोणाचार्य ने वचन दिया कि मैं पूरी शक्ति से युधिष्ठिर को बंदी बनाने की कोशिश करूँगा पर इसके लिए अर्जुन को युधिष्ठिर के पास से हटाना होगा। इस पर त्रिगर्त देश के राजा सुशर्मा तथा संसप्तकों ने विश्वास दिलाया कि युद्ध के लिए अर्जुन को चुनौती देंगे और लड़ते-लड़ते अर्जुन को दूर ले जाएँगे। उधर पांडवों को कृष्ण ने कहा कि कल कर्ण भी युद्ध में भाग लेगा। अतः अब युद्ध छल-प्रधान होगा, इसलिए युधिष्ठिर की रक्षा का पूरा प्रबंध होना चाहिए। इस प्रकार ग्याहरवें दिन प्रातः काल दोनों सेनाएँ आमने-सामने आ डटीं। ग्याहरवें दिन के युद्ध में आचार्य द्रोणाचार्य सेनापति थे। इन्हीं के साथ दुर्योधन, दुशासन, जयप्रथ, कृतवर्मा, कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कर्ण भी थे। पांडव-सेना में सबसे आगे अर्जुन थे। अर्जुन को देखकर त्रिगर्तराज सुशर्मा आगे बढ़े। अर्जुन ने सात्यकि को बुलाकर कहा कि आचार्य द्रोण की पूर्व रचना युधिष्ठिर को पकड़ने के लिए की गई है। तुम सावधान रहना। हमारी सेना का सेनापतित्व धृष्टद्युम्न कर रहे हैं, इससे आचार्य द्रोण डरे हुए हैं। सुशर्मा और संसप्तकों ने तेज़ी से आगे बढ़कर अर्जुन को चुनौती दी। अर्जुन ने आचार्य द्रोण को नमस्कार करने के लिए दो तीर छोड़े। आचार्य ने अपने शिष्य को आशीर्वाद दिया। सुशर्मा अर्जुन को लड़ते-लड़ते काफ़ी दूर ले गए। शल्य ने भीम को रोका, कर्ण सात्यकि से जूझ पड़े तथा शकुनि ने सहदेव को ललकारा। युधिष्ठिर के साथ केवल नकुल रह गए। तभी यह अफवाह उड़ गई कि युधिष्ठिर पकड़े गए। धर्मराज के पकड़े जाने की खबर सुनकर अर्जुन तेज़ी से युधिष्ठिर के पास पहुँचे, अर्जुन ने देखा युधिष्ठिर सुरक्षित हैं। अर्जुन के आते ही आचार्य द्रोण ने युधिष्ठिर को पकड़ने की आशा छोड़ दी। बारहवें दिन के युद्ध मेँ फिर त्रिगर्तों ने अर्जुन को ललकारा और लड़ते-लड़ते उन्हें दूर ले गए। जब अर्जुन लड़ते-लड़ते उन्हें दूर ले गए। जब अर्जुन युधिष्ठिर की ओर लौटने लगे तो रास्ते में राजा भगदत्त ने हाथी पर सवार होकर अर्जुन का रास्ता रोक लिया और अपशब्द भी कहे। भगदत्त को मार डाला। इधर द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को पकड़ने की बहुत कोशिश की। सत्यजित युधिष्ठिर के रक्षक थे। सत्यजित ने द्रोणाचार्य के घोड़े मार दिए तथा रथ के पहिए काट दिए। द्रोणाचार्य ने अर्धचंद्र बाण से सत्यजित का सिर काट दिया। सत्यजित के मरने पर युधिष्ठिर रण-क्षेत्र से लौट आए। रात को दुर्योधन ने द्रोण से कहा कि आपकी प्रतिज्ञा पूरी नहीं हुई। लगता है पांडवों के प्रति आपका स्नेह है, नहीं तो युधिष्ठिर को पकड़ लेना आपके लिए कोई बड़ी बात नहीं। दुर्योधन की बात से द्रोणाचार्य क्षोभ से भर उठे। उन्होंने कहा कि हमने कोई कसर नहीं उठा रखी, पर अर्जुन अजेय है। कल हम चक्रव्यूह की रचना करेंगे। यदि अर्जुन को दूर ले जाया जाए तो युधिष्ठिर को पकड़ा जा सकता है, क्योंकि चक्रव्यूह का भेद केवल अर्जुन को ही पता है। अभिमन्यु का वध युद्ध के तेरहवेँ दिन फिर त्रिगर्तों और संसप्तकों ने अर्जुन को ललकारा। अर्जुन उनका पीछा करते हुए बहुत दूर चले गए। उसी समय कौरवों के दूत ने युधिष्ठिर को चक्रव्यूह के युद्ध का संदेश पत्र दिया। युधिष्ठिर चिंतित हो गए। इसी समय अभिमन्यु ने आकर युधिष्ठिर को प्रणाम किया तथा बताया कि जब मैं माँ के गर्भ में था, पिताजी ने चक्रव्यूह के युद्ध का वर्णन किया था। मैं गर्भ से ही सुन रहाथा। छः द्वारों तक के युद्ध का वर्णन मैंने सुना। सातवें द्वारके युद्ध सुनते-सुनते माँ को नींद आ गई। मैं इस युद्ध के लिए तैयार हूँ। युधिष्ठिर ने चक्रव्यूह भेदन का निमंत्रण स्वीकार कर लिया। माता सुभद्रा ने स्वयं अपने पुत्र को अस्त्र-शस्त्रों से सजाया पर अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा ने उन्हें रण-क्षेत्र में जाने को मना किया। अभिमन्यु ने अपनी पत्नी उत्तरा को समझाया और चक्रव्यूह के द्वार पर गए। अभिमन्यु चक्रव्यूह भेदने के लिए आगे बढा। पांडवों की सेना अभिमन्यु के पीछे - पीछे चली और जहाँ से व्यूह तोड़कर अभिमन्यु अंदर घुसा था, वहीं से व्यूह के अंदर प्रवेश करने लगी। चक्रव्यूह के पहले द्वार पर जयद्रथ थे। अभिमन्यु ने जयद्रथ पर बाण चलाया तथा व्यूह को भेदकर भीतर पहुँच गया। भीम तथा अन्य पांडव वीर भीतर न जा सके। अभिमन्यु ने दूसरे द्वार पर द्रोणाचार्य को, तीसरे पर कर्ण को तथा चौथे द्वार पर अश्वत्थामा को हटाकर पाँचवें द्वार पर बढ़ गया। अभिमन्यु ने कुशलतापूर्वक चक्रव्यूह के छः चरण भेद लिए, लेकिन सातवें चरण में उसे कर्ण की सलाह पर दुर्योधन, जयद्रथ आदि सात महारथियों ने घेर लिया और उस पर टूट पड़े। सिंधु देश का पराक्रमी राजा जयद्रथ जो धृतराष्ट्र का दामाद था, अपनी सेना को लेकर पांडव-सेना पर टूट पड़ा। जयद्रथ के इस साहसपूर्ण काम और सूझ के देखकर कौरव सेना में उत्साह की लहर दौड़ गई। कौरव सेना के सभी वीर उसी जगह इकट्ठे होने लगे जंहा जयद्रथ पांडव-सेना का रास्ता रोके हुए खड़ा था। शीघ्र ही टूटे मोरचों की दरारें भर गई। जयद्रथ के रथ पर चांदी का शूकर-ध्वज फहरा रहा था। उसे देख कौरव-सेना की शक्ति बहुत बढ गई और उसमें नया उत्साह भर गया। व्यूह को भेदकर अभिमन्यु ने जहाँ से रास्ता किया था, वहाँ इतने सैनिक आकर इकट्ठे हो गये कि व्यूह फिर पहले जैसा ही मजबूत हो गया। व्यूह के द्वार पर एक तरफ युधिष्ठिर, भीमसेन और दूसरी ओर जयद्रथ युद्ध छिड़ गया। युधिष्ठिर ने जो भाला फेंककर मारा तो जयद्रथ का धनुष कटकर गिर गया। पलक मारते-मारते जयद्रथ ने दूसरा धनुष उठा लिया और दस बाण युधिष्ठिर पर छोड़े। भीमसेन ने बाणों की बौछार से जयद्रथ का धनुष काट दिया। रथ की ध्वजा और छतरी को तोड़-फोड़ दिया और रणभूमि में गिरा दिया। उस पर भी सिंधुराज नहीं घबराया। उसने फिर एक दूसरा धनुष ले लिया और बाणों से भीमसेन का धनुष काट डाला। पलभर में ही भीमसेन के रथ के घोड़े ढेर हो गये। भीमसेन को लाचार हो रथ से उतरकर सात्यकि के रथ पर चढ़ना पड़ा। जयद्रथ ने जिस कुशलता और बहादुरी से ठीक समय व्यूह की टूटी किलेबंदी को फिर से पूरा करके मजबूत बना दिया उससे पाडंव बाहर ही रह गये। अभिमन्यु व्यूह के अंदर अकेला रह गया। पर अकेले अभिमन्यु ने व्यूह के अंदर ही कौरवों की उस विशाल सेना को तहस-नहस करना शुरू कर दिया। जो भी उसके सामने आता, ख़त्म हो जाता था। दुर्योधन का पुत्र लक्ष्मण अभी बालक था, पर उसमें वीरता की आभा फूट रही थी। उसको भय छू तक नहींगया था। अभिमन्यु की बाण वर्षा से व्याकुल होकर जब सभी योद्धा पीछे हटने लगे तो वीर लक्ष्मन अकेला जाकर अभिमन्यु से भिड़ पड़ा। बालक की इस निर्भयता को देख भागती हुयी कौरव सेना फिर से इकट्ठी हो गई और लक्ष्मण का साथ देकर लड़ने लगी। सबने एक साथ ही अभिमन्यु पर बाण वर्षा कर दी, पर वह अभिमन्यु पर इस प्रकार लगी जैसे पर्वत पर मेह बरसता हो। दुर्योधन पुत्र अपने अदभुत पराक्रम का परिचय देता हुआ वीरता से युद्ध करता रहा। अंत में अभिमन्यु ने उस पर एक भाला चलाया। केंचुली से निकले साँप की तरह चमकता हुआ वह भाला वीर लक्ष्मण के बड़े जोर से जा लगा। सुंदर नासिका और सुंदर भौंहो वाला, चमकीले घुंघराले केश और जगमाते कुण्डलों से विभूषित वह वीर बालक भाले की चोट से तत्काल मृत होकर गिर पड़ा। यह देख कौरव-सेना आर्त्तस्वर में हाहाकार कर उठी। “पापी अभिमन्यु का क्षण वध करो।” दुर्योधन ने चिल्लाकर कहा और द्रोण, अश्वत्थामा, वृहदबल, कृतवर्मा आदि छह महारथियों ने अभिमन्यु को चारों ओर से घेर लिया। द्रोण ने कर्ण के पास आकर कहा, “इसका कवच भेदा नहीं जा सकता। ठीक से निशाना बाँधकर इसके रथ के घोड़ों की रास काट डालो और पीछे की ओर से इस पर अस्त्र चलाओ।” अभिमन्यु ने घोर संग्राम किया, पर चारों ओर से प्रहार होने पर वह घायल हो गया, उसका सारथी मारा गया, घोड़े भी घायल होकर गिर पड़े। वह तलवार लेकर आगे बढ़ा, पर उसकी तलवार कट गई। अब वह रथ का चक्र लेकर टूट पड़ा। कौरव पक्ष के सभी महारथी युद्ध के मानदंडों को भुलाकर उस बालक पर टूट पड़े, और अभिमन्यु मृत्यु को प्राप्त हो गया। कौरवों को अभिमन्यु के वध का हर्ष तथा लक्ष्मण की मृत्यु का शोक हुआ। अभिमन्यु की मृत्यु से पांडव शोक में डूब गए। यह समाचार पाकर सुभद्रा और उत्तरा विलाप करती हुई चक्रव्यूह के सातवें द्वार पर पहुँच गईं। सुभद्रा अपने पुत्र का सिर गोद में लेकर बिलख-बिलखकर रो पड़ी। उत्तरा ने सती होने की इच्छा प्रकट की पर उसके गर्भवती होने के कारण सुभद्रा ने मना कर दिया। उस दिन के युद्ध मेँ त्रिगर्तों और संसप्तकों को पूरी तरह नष्ट करके अर्जुन लौटे तो चक्रव्यूह के युद्ध में अभिमन्यु के मारे जाने का समाचार मिला। वे अत्यंत व्याकुल हो उठे। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सांत्वना दी तथा कहा कि अभिमन्यु की मृत्यु का कारण जयद्रथ है, क्योंकि उसे शंकर से यह वरदान मिला हुआ है कि अर्जुन को छोड़कर बाकी चारों पांडव तुम्हें नहीं जीत सकते। इसीलिए उसे पहले द्वार पर रखा गया था कि भीम आदि चक्रव्यूह में प्रवेश न कर सकें। तब अर्जुन ने प्रतिज्ञा की कि कल सूर्यास्त से पहले यदि जयद्रथ का वध मैं नहीं कर सका तो अपना शरीर भी अग्नि को समर्पित कर दूँगा। अर्जुन की प्रतिज्ञा सुनकर जयद्रथ काँपने लगा। द्रोणाचार्य ने आश्वासन दिया कि वे ऐसा व्यूह बनाएँगे कि अर्जुन जयद्रथ को न देख सकेगा। वे स्वयं अर्जुन से लड़ते रहेंगे तथा व्यूह के द्वार पर स्वयं रहेंगे। « पीछे जायेँ | आगे पढेँ » |
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