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सिंहासन बत्तीसी

      सिंहासन बत्तीसी (संस्कृत : सिंहासन द्वात्रिंशिका, विक्रमचरित) एक लोककथा संग्रह है। प्रजावत्सल, जननायक, प्रयोगवादी एवं दूरदर्शी महाराजा विक्रमादित्य भारतीय लोक कथाओं के एक बहुत ही चर्चित पात्र रहे हैं। प्राचीनकाल से ही उनके गुणों पर प्रकाश डालने वाली कथाओं की बहुत ही समृद्ध परम्परा रही है। सिंहासन बत्तीसी भी ३२ कथाओं का संग्रह है जिसमें ३२ पुतलियाँ विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का कथा के रूप में वर्णन करती हैं।

कथाओँ की भूमिका

      इन कथाओं की भूमिका भी कथा ही है जो राजा भोज की कथा कहती है। ३२ कथाएँ ३२ पुतलियों के मुख से कही गई हैं जो एक सिंहासन में लगी हुई हैं। यह सिंहासन राजा भोज को विचित्र परिस्थिति में प्राप्त होता है।

      एक दिन राजा भोज को मालूम होता है कि एक साधारण-सा चरवाहा अपनी न्यायप्रियता के लिए विख्यात है, जबकि वह बिल्कुल अनपढ़ है तथा पुश्तैनी रुप से उनके ही राज्य के कुम्हारों की गायें, भैंसे तथा बकरियाँ चराता है। जब राजा भोज ने तहक़ीक़ात कराई तो पता चला कि वह चरवाहा सारे फ़ैसले एक टीले पर चढ़कर करता है।

      राजा भोज की जिज्ञासा बढ़ी और उन्होंने खुद भेष बदलकर उस चरवाहे को एक जटिल मामले में फैसला करते देखा। उसके फैसले और आत्मविश्वास से भोज इतना अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने उससे उसकी इस अद्वितीय क्षमता के बारे में जानना चाहा। जब चरवाहे ने जिसका नाम चन्द्रभान था बताया कि उसमें यह शक्ति टीले पर बैठने के बाद स्वत: चली आती है, भोज ने सोच विचार कर टीले को खुदवाकर देखने का फैसला किया। जब खुदाई सम्पन्न हुई तो एक राजसिंहासन मिट्टी में दबा दिखा।

      यह सिंहासन कारीगरी का अभूतपूर्व रुप प्रस्तुत करता था। इसमें बत्तीस पुतलियाँ लगी थीं तथा कीमती रत्न जड़े हुए थे। जब धूल-मिट्टी की सफ़ाई हुई तो सिंहासन की सुन्दरता देखते बनती थी। उसे उठाकर महल लाया गया तथा शुभ मुहूर्त में राजा का बैठना निश्चित किया गया। ज्यों ही राजा ने बैठने का प्रयास किया सारी पुतलियाँ राजा का उपहास करने लगीं। खिलखिलाने का कारण पूछने पर सारी पुतलियाँ एक-एक कर विक्रमादित्य की कहानी सुनाने लगीं तथा बोली कि इस सिंहासन जो कि राजा विक्रमादित्य का है, पर बैठने वाला उसकी तरह योग्य, पराक्रमी, दानवीर तथा विवेकशील होना चाहिए।

      ये कथाएँ इतनी लोकप्रिय हैं कि कई संकलनकर्त्ताओं ने इन्हें अपनी-अपनी तरह से प्रस्तुत किया है। सभी संकलनों में पुतलियों के नाम दिए गए हैं पर हर संकलन में कथाओं में कथाओं के क्रम में तथा नामों में और उनके क्रम में भिन्नता पाई जाती है।

बत्तीस पुतलियों के नाम

      एक संकलन में (जो कि प्रामाणिक नहीं है) नामों का क्रम इस प्रकार है–
• रत्नमंजरी • चित्रलेखा • चन्द्रकला • कामकंदला • लीलावती • रविभामा • कौमुदी • पुष्पवती • मधुमालती • प्रभावती • त्रिलोचना • पद्मावती • कीर्तिमती • सुनयना • सुन्दरवती • सत्यवती • विद्यावती • तारावती • रुपरेखा • ज्ञानवती • चन्द्रज्योति • अनुरोधवती • धर्मवती • करुणावती • त्रिनेत्री • मृगनयनी • मलयवती • वैदेही • मानवती • जयलक्ष्मी • कौशल्या • रानी रुपवती
1. रत्नमञ्जरी

      यह सिंहासन बत्तीसी की पहली पुतली थी। उसने राजा विक्रम के जन्म तथा इस सिंहासन प्राप्ति की कथा सुनायी।

       आर्याव्रत में एक राज्य था जिसका नाम था अम्बावती। वहाँ के राजा गंधर्वसेन ने चारों वर्णोँ की स्त्रियों से चार विवाह किये थे। ब्राह्मणी के पुत्र का नाम ब्रह्मवीत था। क्षत्राणी के तीन पुत्र हुए- शंख, विक्रम तथा भर्तृहरि। वैश्य पत्नी ने चन्द्र नामक पुत्र को जन्म दिया तथा शूद्र पत्नी ने धन्वन्तरि नामक पुत्र को। ब्रह्मणीत को गंधर्वसेन ने अपना दीवान बनाया, पर वह अपनी जिम्मेवारी अच्छी तरह नहीं निभा सका और राज्य से पलायन कर गया। कुछ समय भटकने के बाद धारानगरी में ऊँचा ओहदा प्राप्त किया तथा एक दिन राजा का वध करके ख़ुद राजा बन गया। काफी दिनों के बाद उसने उज्जैन लौटने का विचार किया, लेकिन उज्जैन आते ही उसकी मृत्यु हो गई।

       क्षत्राणी के बड़े पुत्र शंख को शंका हुई कि उसके पिता विक्रम को योग्य समझकर उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर सकते हैं और उसने एक दिन सोए हुए पिता का वध करके स्वयं को राजा घोषित कर दिया। हत्या का समाचार दावानल की तरह फैला और उसके सभी भाई प्राण रक्षा के लिए भाग निकले। विक्रम को छोड़कर बाकी सभी भाइयों का पता उसे चल गया और वे सभी मार डाले गए। बहुत प्रयास के बाद शंख को पता चला कि घने जंगल में सरोवर के बगल में एक कुटिया में विक्रम रह रहा है तथा कंदमूल खाकर घनघोर तपस्या में रत है। वह उसे मारने की योजना बनाने लगा और एक तांत्रिक को उसने अपने षडयंत्र में शामिल कर लिया।

       योजनानुसार तांत्रिक विक्रम को भगवती आराधना के लिए राज़ी करता तथा भगवती के आगे विक्रम के सर झुकाते ही शंख तलवार से वार करके उसकी गर्दन काट डालता। मगर विक्रम ने खतरे को भाँप लिया और तांत्रिक को सर झुकाने की विधि दिखाने को कहा। शंख मन्दिर में छिपा हुआ था। उसने विक्रम के धोखे में तांत्रिक की हत्या कर दी। विक्रम ने झपट कर शंख की तलवार छीन कर उसका सर धड़ से अलग कर दिया। शंख की मृत्यु के बाद उसका राज्यारोहण हुआ।

      एक दिन शिकार के लिए विक्रम जंगल गए। मृग का पीछा करते-करते सबसे बिछुड़ कर बहुत दूर चले आए। उन्हें एक महल दिखा और पास आकर पता चला कि वह महल तूतवरण का है जो कि राजा बाहुबल का दीवान है। तूतवरण ने बात ही बात में कहा कि विक्रम बड़े ही यशस्वी राजा बन सकते हैं, यदि राजा बाहुबल उनका राजतिलक करें। और उसने यह भी बताया कि भगवान शिव द्वारा प्रदत्त अपना स्वर्ण सिंहासन अगर बाहुबल विक्रम को दे दें तो विक्रम चक्रवर्ती सम्राट बन जांएगे। बाहुबल ने विक्रम का न केवल राजतिलक किया, बल्कि खुशी-खुशी उन्हें स्वर्ण सिंहासन भी भेंट कर दिया। कालांतर में विक्रमादित्य चक्रवर्ती सम्राट बन गए और उनकी कीर्तिपताका सर्वत्र लहरा उठी।


2. चित्रलेखा

      यह सिंहासन बत्तीसी की दूसरी पुतली थी। उसके द्वारा सुनायी गई कथा इस प्रकार है–

      एक दिन राजा विक्रमादित्य शिकार खेलते-खेलते एक ऊँचे पहाड़ पर आए। वहाँ उन्होंने देखा एक साधु तपस्या कर रहा है। साधु की तपस्या में विघ्न नहीं पड़े यह सोचकर वे उसे श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके लौटने लगे। उनके मुड़ते ही साधु ने आवाज़ दी और उन्हें रुकने को कहा। विक्रमादित्य रुक गए और साधु ने उनसे प्रसन्न होकर उन्हें एक फल दिया। उसने कहा, “जो भी इस फल कोखाएगा तेजस्वी और यशस्वी पुत्र प्राप्त करेगा।” फल प्राप्त कर जब वे लौट रहे थे, तो उनकी नज़र एक तेज़ी से दौड़ती महिला पर पड़ी। दौड़ते-दौड़ते एक कुँए के पास आई और छलांग लगाने को उद्यत हुई। विक्रम ने उसे थाम लिया और इस प्रकार आत्महत्या करने का कारण जानना चाहा। महिला ने बताया कि उसकी कई लड़कियाँ हैं पर पुत्र एक भी नहीं। चूँकि हर बार लड़की ही जनती है, इसलिए उसका पति उससे नाराज है और गाली-गलौज तथा मार-पीट करता है। वह इस दुर्दशा से तंग होकर आत्महत्या करने जा रही थी। राजा विक्रमादित्य ने साधु वाला फल उसे दे दिया तथा आश्वासन दिया कि अगर उसका पति फल खाएगा, तो इस बार उसे पुत्र ही होगा। कुछ दिन बीत गए।

      एक दिन एक ब्राह्मण विक्रम के पास आया और उसने वही फल उसे भेँट किया। विक्रम स्त्री की चरित्रहीनता से बहुत दुखी हुए। ब्राह्मण को विदा करने के बाद वे फल लेकर अपनी पत्नी के पास आए और उसे वह फल दे दिया। विक्रम की पत्नी भी चरित्रहीन थी और नगर के कोतवाल से प्रेम करती थी। उसने वह फल नगर कोतवाल को दिया ताकि उसके घर यशस्वी पुत्र जन्म ले। नगर कोतवाल एक वेश्या के प्रेम में पागल था और उसने वह फल उस वेश्या को दे दिया। वेश्या ने सोचा कि वेश्या का पुत्र लाख यशस्वी हो तो भी उसे सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त हो सकती है। उसने काफी सोचने के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि इस फल को खाने का असली अधिकारी राजा विक्रमादित्य ही है। उसका पुत्र उसी की तरह योग्य और सामर्थ्यवान होगा तो प्रजा की देख-रेख अच्छी तरहा होगी और सभी खुश रहेगे। यही सोचकर उसने विक्रमादित्य को वह फल भेंट कर दिया। फल को देखकर विक्रमादित्य ठगे-से रह गए। उन्होंने पड़ताल कराई तो नगर कोतवाल और रानी के अवैध सम्बन्ध का पता चल गया। वे इतने दुखी और खिन्न हो गए कि राज्य को ज्यों का त्यों छोड़कर वन चले गए और कठिन तपस्या करने लगे।

       चूँकि विक्रमादित्य देवताओं और मनुष्यों को समान रुप से प्रिय थे, देवराज इन्द्र ने उनकी अनुपस्थिति में राज्य की रक्ष के लिए एक शक्तिशाली देव भेज दिया। वह देव नृपविहीन राज्य की बड़ी मुस्तैदी से रक्षा तथा पहरेदारी करने लगा। कुछ दिनों के बाद विक्रमादित्य का मन अपनी प्रजा को देखने को करने लगा। जब उन्होंने अपने राज्य में प्रवेश करने की चेष्टा की तो देव सामने आ खड़ा हुआ। उसे अपनी वास्तविक पहचान देने के लिए विक्रम ने उससे युद्ध किया और पराजित किया। पराजित देव मान गया कि उसे हराने वाले विक्रमादित्य ही हैं और उसने उन्हें बताया कि उनका एक पिछले जन्म का शत्रु यहाँ आ पहुँचा है और सिद्धि कर रहा है। वह उन्हें खत्म करने का हर सम्भव प्रयास करेगा। यदि विक्रम ने उसका वध कर दिया तो लम्बे समय तक वे निर्विघ्न राज्य करेंगे। योगी के बारे में सब कुछ बताकर उस देव ने राजा से अनुमति ली और चला गया।

      विक्रम की चरित्रहीन पत्नी तब तक ग्लानि से विष खाकर मर चुकी थी। विक्रम ने आकर अपना राजपाट सम्भाल लिया और राज्य का सभी काम सुचारुपूर्वक चलने लगा। कुछ दिनों के बाद उनके दरबार में वह योगी आ पहुँचा। उसने विक्रम को एक ऐसा फल दिया जिसे काटने पर एक कीमती लाल निकला। पारितोषिक के बदले उसने विक्रम से उनकी सहायता की कामना की। विक्रम सहर्ष तैयार हो गए और उसके साथ चल पड़े। वे दोनों श्मशान पहुँचे तो योगी ने बताया कि एक पेड़ पर बेताल लटक रहा है और एक सिद्धि के लिए उसे बेताल की आवश्यकता है। उसने विक्रम से अनुरोध किया कि वे बेताल को उतार कर उसके पास ले आएँ।

       विक्रम उस पेड़ से बेताल को उतार कर कंधे पर लादकर लाने की कोशिश करने लगे। बेताल बार-बार उनकी असावधानी का फायदा उठा कर उड़ जाता और पेड़ पर लटक जाता। ऐसा चौबीस बार हुआ। हर बार बेताल रास्ते में विक्रम को एक कहानी सुनाता। पच्चीसवीं बार बेताल ने विक्रम को बताया कि जिस योगी ने उसे लाने भेजा है वह दुष्ट और धोखेबाज़ है। उसकी तांत्रिक सिद्धी की आज समाप्ति है तथा आज वह विक्रम की बलि दे देगा जब विक्रम देवी के सामने सर झुकाएगा। राजा की बलि से ही उसकी सिद्धि पूरी हो सकती है।

       विक्रम को तुरन्त इन्द्र के देवकी चेतावनी याद आई। उन्होंने बेताल को धन्यवाद दिया और उसे लादकर योगी के पास आए। योगी उसे देखकर अत्यन्त हर्षित हुआ और विक्रम से देवी के चरणों में सर झुकाने को कहा। विक्रम ने योगी को सर झुकाकर सर झुकाने की विधि बतलाने को कहा। ज्यों ही योगी ने अपना सर देवी चरणों में झुकाया कि विक्रम ने तलवार से उसकी गर्दन काट दी। देवी बलि पाकर प्रसन्न हुईं और उन्होंने विक्रम को दो बेताल सेवक दिए। उन्होंने कहा कि स्मरण करते ही ये दोनों बेताल विक्रम की सेवा में उपस्थित हो जाएँगे। विक्रम देवी का आशिष पाकर आनन्दपूर्वक वापस महल लौटे।


3.चन्द्रकला

      तीसरी पुतली चन्द्रकला ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है–

       एक बार पुरुषार्थ और भाग्य में इस बात पर ठन गई कि कौन बड़ा है। पुरुषार्थ कहता कि बगैर मेहनत के कुछ भी सम्भव नहीं है जबकि भाग्य का मानना था कि जिसको जो भी मिलता है भाग्य से मिलता है परिश्रम की कोई भूमिका नहीं होती है। उनके विवाद ने ऐसा उग्र रुप ग्रहण कर लिया कि दोनों को देवराज इन्द्र के पास जाना पड़ा।

      झगड़ा बहुत ही पेचीदा था इसलिए इन्द्र भी चकरा गए। पुरुषार्थ को वे नहीं मानते जिन्हें भाग्य से ही सब कुछ प्राप्त हो चुका था। दूसरी तरफ अगर भाग्य को बड़ा बताते तो पुरुषार्थ उनका उदाहरण प्रस्तुत करता जिन्होंने मेहनत से सब कुछ अर्जित किया था। इन्द्र असमंजस में पड़ गए और किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचे। काफी सोचने के बाद उन्हें विक्रमादित्य की याद आई। उन्हें लगा सारे विश्व में इस झगड़े का समाधान सिर्फ वही कर सकते है। उन्होंने पुरुषार्थ और भाग्य को विक्रमादित्य के पास जाने के लिए कहा। पुरुषार्थ और भाग्य मानव भेष में विक्रम के पास चल पड़े।

      विक्रम के पास आकर उन्होंने अपने झगड़े की बात रखी। विक्रमादित्य को भी तुरन्त कोई समाधान नहीं सूझा। उन्होंने दोनों से छ: महीने की मोहलत मांगी और उनसे छ: महीने के बाद आने को कहा। जब वे चले गए तो विक्रमादित्य ने काफी सोचा। किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके तो उन्होंने सामान्य जनता के बीच भेष बदलकर घूमना शुरु किया। काफी घूमने के बाद भी जब कोई संतोषजनक हल नहीं खोज पाए तो दूसरे राज्यों में भी घूमने का निर्णय किया। काफी भटकने के बाद भी जब कोई समाधान नहीं निकला तो उन्होंने एक व्यापारी के यहाँ नौकरी कर ली। व्यापारी ने उन्हें नौकरी उनके यह कहने पर कि जो काम दूसरे नहीं कर सकते हैं वे कर देंगे, दी।

       कुछ दिनों बाद वह व्यापारी जहाज पर अपना माल लादकर दूसरे देशों में व्यापार करने के लिए समुद्री रास्ते से चल पड़ा। अन्य नौकरों के अलावा उसके साथ विक्रमादित्य भी थे। जहाज कुछ ही दूर गया होगा कि भयानक तूफान आ गया। जहाज पर सवार लोगों में भय और हताशा की लहर दौड़ गई। किसी तरह जहाज एक टापू के पास आया और वहाँ लंगर डाल दिया गया। जब तूफान समाप्त हुआ तो लंगर उठाया जाने लगा। मगर लंगर किसी के उठाए न उठा। अब व्यापारी को याद आया कि विक्रमादित्य ने यह कहकर नौकरी ली थी कि जो कोई न कर सकेगा वे कर देंगे। उसने विक्रम से लंगर उठाने को कहा। लंगर उनसे आसानी से उठ गया। लंगर उठते ही जहाज ऐसी गति से बढ़ गया कि टापू पर विक्रम छूट गए।

       उनकी समझ में नहीं आया क्या किया जाए। द्वीप पर घूमने-फिरने चल पड़े। नगर के द्वार पर एक पट्टिका टंगी थी जिस पर लिखा था कि वहाँ की राजकुमारी का विवाह विक्रमादित्य से होगा। वे चलते-चलते महल तक पहुँचे। राजकुमारी उनका परिचय पाकर खुश हुई और दोनों का विवाह हो गया। कुछ समय बाद वे कुछ सेवकों को साथ ले अपने राज्य की ओर चल पड़े। रास्ते में विश्राम के लिए जहाँ डेरा डाला वहीं एक सन्यासी से उनकी भेंट हुई। सन्यासी ने उन्हें एक माला और एक छड़ी दी। उस माला की दो विशेषताएँ थीं- उसे पहनने वाला अदृश्य होकर सब कुछ देख सकता था तथा गले में माला रहने पर उसका हर कार्य सिद्ध हो जाता। छड़ी से उसका मालिक सोने के पूर्व कोई भी आभूषण मांग सकता था।

       सन्यासी को धन्यवाद देकर विक्रम अपने राज्य लौटे। एक उद्यान में ठहरकर संग आए सेवकों को वापस भेज दिया तथा अपनी पत्नी को संदेश भिजवाया कि शीघ्र ही वे उसे अपने राज्य बुलवा लेंगे। उद्यान में ही उनकी भेंट एक ब्राह्मण और एक भाट से हुई। वे दोनों काफी समय से उस उद्यान की देखभाल कर रहे थे। उन्हें आशा थी कि उनके राजा कभी उनकी सुध लेंगे तथा उनकी विपन्नता को दूर करेंगे। विक्रम पसीज गए। उन्होंने सन्यासी वाली माला भाट को तथा छड़ी ब्राह्मण को दे दी। ऐसी अमूल्य चीजें पाकर दोनों धन्य हुए और विक्रम का गुणगान करते हुए चले गए।

       विक्रम राज दरबार में पहुँचकर अपने कार्य में संलग्न हो गए। छ: मास की अवधि पूरी हुई तो पुरुषार्थ तथा भाग्य अपने फैसले के लिए उनके पास आए। विक्रम ने उन्हें बताया कि वे एक-दूसरे के पूरक हैं। उन्हें छड़ी और माला का उदाहरण याद आया। जो छड़ी और माला उन्हें भाग्य से सन्यासी से प्राप्त हुई थीं उन्हें ब्राह्मण और भाट ने पुरुषार्थ से प्राप्त किया। पुरुषार्थ और भाग्य पूरी तरह संतुष्ट होकर वहाँ से चले गए।


4.कामकन्दला

      चौथी पुतली कामकंदला की कथा से भी विक्रमादित्य की दानवीरता तथा त्याग की भावना का पता चलता है। वह इस प्रकार है-

       एक दिन राजा विक्रमादित्य दरबार को सम्बोधित कर रहे थे तभी किसी ने सूचना दी कि एक ब्राह्मण उनसे मिलना चाहता है। विक्रमादित्य ने कहा कि ब्राह्मण को अन्दर लाया जाए। जब ब्राह्मण उनसे मिला तो विक्रम ने उसके आने का प्रयोजन पूछा। ब्राह्मण ने कहा कि वह किसी दान की इच्छा से नहीं आया है, बल्कि उन्हें कुछ बतलाने आया है। उसने बतलाया कि मानसरोवर में सूर्योदय होते ही एक खम्भा प्रकट होता है जो सूर्य का प्रकाश ज्यों-ज्यों फैलता है ऊपर उठता चला जाता है और जब सूर्य की गर्मी अपनी पराकाष्ठा पर होती है तो सूर्य को स्पर्श करता है। ज्यों-ज्यों सूर्य की गर्मी घटती है छोटा होता जाता है तथा सूर्यास्त होते ही जल में विलीन हो जाता है। विक्रम के मन में जिज्ञासा हुई कि ब्राह्मण का इससे अभिप्राय क्या है। ब्राह्मण उनकी जिज्ञासा को भाँप गया और उसने बतलाया कि भगवान इन्द्र का दूत बनकर वह आया है ताकि उनके आत्मविश्वास की रक्षा विक्रम कर सकें। उसने कहा कि सूर्य देवता को घमण्ड है कि समुद्र देवता को छोड़कर पूरे ब्रह्माण्ड में कोई भी उनकी गर्मी को सहन नहीं कर सकता।

       देवराज इन्द्र उनकी इस बात से सहमत नहीं हैं। उनका मानना हे कि उनकी अनुकम्पा प्राप्त मृत्युलोक का एक राजा सूर्य की गर्मी की परवाह न करके उनके निकट जा सकता है। वह राजा आप हैं। राजा विक्रमादित्य को अब सारी बात समझ में आ गई। उन्होंने सोच लिया कि प्राणोत्सर्ग करके भी सूर्य भगवान को समीप से जाकर नमस्कार करेंगे तथा देवराज के आत्मविश्वास की रक्षा करेंगे। उन्होंने ब्राह्मण को समुचित दान-दक्षिणा देकर विदा किया तथा अपनी योजना को कार्य-रुप देने का उपाय सोचने लगे। उन्हें इस बात की खुशी थी कि देवतागण भी उन्हें योग्य समझते हैं।

      भोर होने पर दूसरे दिन वे अपना राज्य छोड़कर चल पड़े। एकान्त में उन्होंने माँ काली द्वारा प्रदत्त दोनों बेतालों का स्मरण किया। दोनों बेताल तत्क्षण उपस्थित हो गए। विक्रम को उन्होंने बताया कि उन्हें उस खम्भे के बारे में सब कुछ पता है। दोनों बेताल उन्हें मानसरोवर के तट पर लाए। रात उन्होंने हरियाली से भरी जगह पर काटी और भोर होते ही उस जगह पर नज़र टिका दी जहाँ से खम्भा प्रकट होता। सूर्य की किरणों ने ज्यों ही मानसरोवर के जल को छुआ कि एक खम्भा प्रकट हुआ। विक्रम तुरन्त तैरकर उस खम्भे तक पहुँचे। खम्भे पर ज्यों ही विक्रम चढ़े जल में हलचल हुई और लहरें उठकर विक्रम के पाँव छूने लगीं। ज्यों-ज्यों सूर्य की गर्मी बढी, खम्भा बढ़ता रहा। दोपहर आते-आते खम्भा सूर्य के बिल्कुल करीब आ गया। तब तक विक्रम का शरीर जलकर बिल्कुल राख हो गया था।

      सूर्य भगवान ने जब खम्भे पर एक मानव को जला हुआ पाया तो उन्हें समझते देर नहीं लगी कि विक्रम को छोड़कर कोई दूसरा नहीं होगा। उन्होंने भगवान इन्द्र के दावे को बिल्कुल सच पाया। उन्होंने अमृत की बून्दों से विक्रम को जीवित किया तथा अपने स्वर्ण कुण्डल उतारकर उन्हें भेंट कर दिए। उन कुण्डलों की विशेषता थी कि कोई भी इच्छित वस्तु वे कभी भी प्रदान कर देते। सूर्य देव ने अपना रथ अस्ताचल की दिशा में बढ़ाया तो खम्भा घटने लगा।

      सूर्यास्त होते ही खम्भा पूरी तरह घट गया और विक्रम जल पर तैरने लगे। तैरकर सरोवर के किनारे आए और दोनों बेतालों का स्मरण किया। बेताल उन्हें फिर उसी जगह लाए जहाँ से उन्हें सरोवर ले गए थे। विक्रम पैदल अपने महल की दिशा में चल पड़े। कुछ ही दूर पर एक ब्राह्मण मिला जिसने उनसे वे कुण्डल मांग लिए। विक्रम ने बेहिचक उसे दोनों कुण्डल दे दिए। उन्हें बिल्कुल मलाल नहीं हुआ।


5.लीलावती

      पाँचवीं पुतली लीलावती ने भी राजा भोज को विक्रमादित्य के बारे में जो कुछ सुनाया उससे उनकी दानवीरता ही झलकती थी। कथा इस प्रकार थी-

       हमेशा की तरह एक दिन विक्रमादित्य अपने दरबार में राजकाज निबटा रहे थे तभी एक ब्राह्मण दरबार में आकर उनसे मिला। उसने उन्हें बताया कि उनके राज्य की जनता खुशहाल हो जाएगी और उनकी भी कीर्ति चारों तरफ फैल जाएगी, अगर वे तुला लग्न में अपने लिए कोई महल बनवाएँ। विक्रम को उसकी बात जँच गई और उन्होंने एक बड़े ही भव्य महल का निर्माण करवाया। कारीगरों ने उसे राजा के निर्देश पर सोने-चाँदी, हीरे-जवाहरात और मणि-मोतियों से पूरी तरह सजा दिया।

      महल जब बनकर तैयार हुआ तो उसकी भव्यता देखते बनती थी। विक्रम अपने सगे-सम्बन्धियों तथा नौकर-चाकरों के साथ उसे देखने गए। उनके साथ वह ब्राह्मण भी था। विक्रम तो जो मंत्रमुग्ध हुए, वह ब्राह्मण मुँह खोले देखता ही रह गया। बिना सोचे उसके मुँह से निकला- “काश, इस महल का मालिक मैं होता!” विक्रमादित्य ने उसकी इच्छा जानते ही झट वह भव्य महल उसे दान में दे दिया।

       ब्राह्मण के तो मानो पाँव ही ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। वह भागता हुआ अपनी पत्नी को यह समाचार सुनाने पहुँचा। इधर ब्राह्मणी उसे खाली हाथ आते देख कुछ बोलती उससे पहले ही उसने उसे हीरे-जवाहरात और मणि-मुक्ताओं से जड़े हुए महल को दान में प्राप्त करने की बात बता दी। ब्राह्मण की पत्नी की तो खुशी की सीमा न रही। उसे एकबारगी लगा मानो उसका पति पागल हो गया और यों ही अनाप-शनाप बक रहा हों, मगर उसके बार-बार कहने पर वह उसके साथ महल देखने के लिए चलने को तैयार हो गई। महल कीशोभा देखकर उसकी आँखे खुली रह गईं। महक का कोना-कोना देखते-देखते कब शाम हो गई उन्हें पता ही नहीं चला। थके-माँदे वे एक शयन-कक्ष में जाकर निढाल हो गए। अर्द्ध रात्रि में उनकी आँखे किसी आवाज़ से खुल गई।

       सारे महल में खुशबू फैली थी और सारा महक प्रकाश मान था। उन्होंने ध्यान से सुना तो लक्ष्मी बोल रही थी। वह कह रही थी कि उनके भाग्य से वह यहाँ आई है और उनकी कोई भी इच्छा पूरी करने को तैयार है। ब्राह्मण दम्पति का डर के मारे बुरा हाल हो गया। ब्राह्मणी तो बेहोश ही हो गई। लक्ष्मी ने तीन बार अपनी बात दुहराई। लेकिन ब्राह्मण ने कुछ नहीं मांगा तो क्रुद्ध होकर चली गई। उसके जाते ही प्रकाश तथा खुशबू- दोनों गायब।

      काफी देर बाद ब्राह्मणी को होश आया तो उसने कहा- “यह महल ज़रुर भुतहा है, इसलिए दान में मिला। इससे अच्छा तो हमारा टूटा-फूटा घर है जहाँ चैन की नींद सो सकते हैं।” ब्राह्मण को पत्नी की बात जँच गई। सहमे-सहमे बाकी रात काटकर तड़के ही उन्होंने अपना सामान समेटा और पुरानी कुटिया को लौट आए।

      ब्राह्मणअपने घर से सीधा राजभवन आया और विक्रमादित्य से अनुरोध करने लगा कि वे अपना महल वापस ले लें। पर दान दी गई वस्तु को वे कैसे ग्रहण कर लेते। काफी सोचने के बाद उन्होंने महल का उचित मूल्य लगाकर उसे ख़रीद लिया। ब्राह्मण खुशी-खुशी अपने घर लौट गया।

       ब्राह्मण से महल खरीदने के बाद राजा विक्रमादित्य उसमें आकर रहने लगे। वहीं अब दरबार भी लगता था। एक दिन वे सोए हुए थे तो लक्ष्मी फिर आई। जब लक्ष्मी ने उनसे कुछ भी मांगने को कहा तो वे बोले- “आपकी कृपा से मेरे पास सब कुछ है। फिर भी आप अगर देना ही चाहती हैं तो मेरे पूरे राज्य में धन की वर्षा कर दें और मेरी प्रजा को किसी चीज़ की कमी न रहने दें।”

       सुबह उठकर उन्हें पता चला कि सारे राज्य में धन वर्षा हुई है और लोग वर्षा वाला धन राजा को सौंप देना चाहते हैं। विक्रमादित्य ने आदेश किया कि कोई भी किसी अन्य के हिस्से का धन नहीं समेटेगा और अपने हिस्से का धन अपनी सम्पत्ति मानेगा। जनता जय-जय कार कर उठी।


6.रविभामा

छठी पुतली रविभामा ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है-

       एक दिन विक्रमादित्य नदी के तट पर बने हुए अपने महल से प्राकृतिक सौन्दर्य को निहार रहे थे। बरसात का महीना था, इसलिए नदी उफन रही थी और अत्यन्त तेज़ी से बह रही थी। इतने में उनकी नज़र एक पुरुष, एक स्री और एक बच्चे पर पड़ी। उनके वस्र तार-तार थे और चेहरे पीले। राजा देखते ही समझ गए ये बहुत ही निर्धन हैं। सहसा वे तीनों उस नदी में छलांग लगा गए। अगले ही पल प्राणों की रक्षा के लिए चिल्लाने लगे। विक्रम ने बिना एक पल गँवाए नदी में उनकी रक्षा के लिए छलांग लगा दी। अकेले तीनों को बचाना सम्भव नहीं था, इसलिए उन्होंने दोनों बेतालों का स्मरण किया। दोनों बेतालों ने स्री और बच्चे को तथा विक्रम ने उस पुरुष को डूबने से बचा लिया । तट पर पहुँचकर उन्होंने जानना चाहा वे आत्महत्या क्यों कर रहे थे। पुरुष ने बताया कि वह उन्हीं के राज्य का एक अत्यन्त निरधन ब्राह्मण है जो अपनी दरिद्रता से तंग आकर जान देना चाहता है। वह अपनी बीवी तथा बच्चे को भूख से मरता हुआ नहीं देख सकता और आत्महत्या के सिवा अपनी समस्या का कोई अन्त नहीं नज़र आता।

      इस राज्य के लोग इतने आत्मनिर्भर हैँ कि सारा काम खुद ही करते हैं, इसलिए उसे कोई रोज़गार भी नहीं देता। विक्रम ने ब्राह्मण से कहा कि वह उनके अतिथिशाला में जब तक चाहे अपने परिवार के साथ रह सकता है तथा उसकी हर ज़रुरत पूरी की जाएगी। ब्राह्मण ने कहा कि रहने में तो कोई हर्ज नहीं है, लेकिन उसे डर है कि कुछ समय बाद आतिथ्य में कमी आ जाएगी और उसे अपमानित होकर जाना पड़ेगा। विक्रम ने उसे विश्वास दिलाया कि ऐसी कोई बात नहीं होगी और उसे भगवान समझकर उसके साथ हमेशा अच्छा बर्ताव किया जाएगा।

       विक्रम के इस तरह विश्वास दिलाने पर ब्राह्मण परिवार अतिथिशाला में आकर रहने लगा। उसकी देख-रेख के लिए नौकर-चाकर नियुक्त कर दिए गए। वे मौज से रहते, अपनी मर्ज़ी से खाते-पीते और आरामदेह पलंग पर सोते। किसी चीज़ की उन्हें कमी नहीं थी। लेकिन वे सफ़ाई पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते। जो कपड़े पहनते थे उन्हें कई दिनों तक नहीं बदलते। जहाँ सोते वहीं थूकते और मल-मूत्र त्याग भी कर देते। चारों तरफ गंदगी-ही गंदगी फैल गई। दुर्गन्ध के मारे उनका स्थान एक पल भी ठहरने लायक नहीं रहा।

      नौकर-चाकर कुछ दिनों तक तो धीरज से सब कुछ सहते रहे लेकिन कब तक ऐसा चलता? राजा के कोप की भी उन्होंने पहवाह नहीं की और भाग खड़े हुए। राजा ने कई अन्य नौकर भेजे, पर सब के सब एक ही जैसे निकले। सबके लिए यह काम असंभव साबित हुआ। तब विक्रम ने खुद ही उनकी सेवा का बीड़ा उठाया। उठते-बैठते, सोते-जगते वे ब्राह्मण परिवार की हर इच्छा पूरी करते। दुर्गन्ध के मारे माथा फटा जाता, फिर भी कभी अपशब्द का व्यवहार नहीं करते। उनके कहने पर विक्रम उनके पाँव भी दबाते। ब्राह्मण परिवार ने हर सम्भव प्रयत्न किया कि विक्रम उनके आतित्थ से तंग आकर अतिथि-सत्कार भूल जाएँ और अभद्रता से पेश आएँ, मगर उनकी कोशिश असफल रही। बड़े सब्र से विक्रम उनकी सेवा में लगे रहे। कभी उन्हें शिकायत का कोई मौका नहीं दिया।

      एक दिन ब्राह्मण ने जैसे उनकी परीक्षा लेने की ठान ली। उसने राजा को कहा कि वे उसके शरीर पर लगी विष्ठा साफ करें तथा उसे अच्छी तरह नहला-धोकर साफ़ वस्र पहनाएँ। विक्रम तुरन्त उसकी आज्ञा मानकर अपने हाथों से विष्ठा साफ करने को बढ़े। अचानक चमत्कार हुआ। ब्राह्मण के सारे गंदे वस्र गायब हो गए। उसके शरीर पर देवताओं द्वारा पहने जाने वाले वस्र आ गए। उसका मुख मण्डल तेज से प्रदीप्त हो गया। सारे शरीर से सुगन्ध निकलने लगी।

      विक्रम आश्चर्य चकित थे। तभी वह ब्राह्मण बोला कि दर असल वह वरुणहै। वरुण देव ने उनकी परीक्षा लेने के लिए यह रुप धरा था। विक्रम के अतिथि-सत्कार की प्रशंसा सुनकर वे सपरिवार यहाँ आए थे। जैसा उन्होंने सुना था वैसा ही उन्होंने पाया, इसलिए विक्रम को उन्होंने वरदान दिया कि उसके राज्य में कभी भी अनावृष्टि नहीं होगी तथा वहाँ की ज़मीन से तीन-तीन फसलें निकलेंगी। विक्रम को वरदान देकर वे सपरिवार अन्तर्धान हो गए।


7.कौमुदी

   सातवीं पुतली कौमुदी ने जो कथा कही वह इस प्रकार है-

      एक दिन राजा विक्रमादित्य अपने शयन-कक्ष में सो रहे थे। अचानक उनकी नींद करुण-क्रन्दन सुनकर टूट गई। उन्होंने ध्यान लगाकर सुना तो रोने की आवाज नदी की तरफ से आ रही थी और कोई स्त्री रोए जा रही थी। विक्रम की समझ में नहीं आया कि कौन सा दुख उनके राज्य में किसी स्त्री को इतनी रात गए बिलख-बिलख कर रोने को विवश कर रहा है। उन्होंने तुरन्त राजपरिधान पहना और कमर में तलवार लटका कर आवाज़ की दिशा में चल पड़े।

      क्षिप्रा के तट पर आकर उन्हें पता चला कि वह आवाज़ नदी के दूसरे किनारे पर बसे जंगल से आ रही है। उन्होंने तुरन्त नदी में छलांग लगा दी तथा तैरकर दूसरे किनारे पर पहुँचे। फिर चलते-चलते उस जगह पहुँचे जहाँ से रोने की आवाज़ आ रही थी। उन्होंने देखा कि झाड़ियों में बैठी एक स्त्री रो रही है।

       उन्होंने उस स्त्री से रोने का कारण पूछा। स्त्री ने कहा कि वह कई लोगों को अपनी व्यथा सुना चुकी है, मगर कोई फायदा नहीं हुआ। राजा ने उसे विश्वास दिलाया कि वे उसकी मदद करने का हर संभव प्रयत्न करेंगे। तब स्त्री ने बताया कि वह एक चोर की पत्नी है और पकड़े जाने पर नगर कोतवाल ने उसे वृक्ष पर उलटा टँगवा दिया है। राजा ने पूछा कि क्या वह इस फैसले से खुश नहीं है? इस पर औरत ने कहा कि उसे फैसले पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन वह अपने पति को भूखा-प्यासा लटकता नहीं देख सकती। चूँकि न्याय में इस बात की चर्चा नहीं कि वह भूखा-प्यासा रहे, इसलिए वह उसे भोजन तथा पानी देना चाहती है।

       विक्रम ने पूछा कि अब तक उसने ऐसा किया क्यों नहीं? इस पर औरत बोली कि उसका पति इतनी ऊँचाई पर टँगा हुआ है कि वह बगैर किसी की सहायता के उस तक नहीं पहुँच सकती और राजा के डर से कोई भी दण्डित व्यक्ति की मदद को तैयार नहीं होता। तब विक्रम ने कहा कि वह उनके साथ चल सकती है।

       दरअसल वह औरत पिशाचिनी थी और वह लटकने वाला व्यक्ति उसका पति नहीं था। वह उसे राजा के कन्धे पर चढ़कर खाना चाहती थी। जब विक्रम उस पेड़ के पास आए तो वह उस व्यक्ति को चट कर गई। तृप्त होकर विक्रम को उसने मनचाही चीज़ मांगने को कहा।

       विक्रम ने कहा कि वह अन्नपूर्णा प्रदान करे जिससे उनकी प्रजा कभी भूखी नहीं रहे। इस पर वह पिशाचिनी बोली कि अन्नपूर्णा देना उसके बस में नहीं, लेकिन उसकी बहन प्रदान कर सकती है। विक्रम उसके साथ चलकर नदी किनारे आए जहाँ एक झोपड़ी थी। पिशाचिनी के आवाज़ देने पर उसकी बहन बाहर निकली। बहन को उसने राजा का परिचय दिया और कहा कि विक्रमादित्य अन्नपूर्णा के सच्चे अधिकारी है, अत: वह उन्हें अन्नपूर्णा प्रदान करे। उसकी बहन ने सहर्ष अन्नपूर्णा उन्हें दे दी।

       अन्नपूर्णा लेकर विक्रम अपने महल की ओर रवाना हुए। तब तक भोर हो चुकी थी। रास्ते में एक ब्राह्मण मिला। उसने राजा से भिक्षा में भोजन माँगा। विक्रम ने अन्नपूर्णा पात्र से कहा कि ब्राह्मण को पेट भर भोजन कराए। सचमुच तरह-तरह के व्यंजन ब्राह्मण कि सामने आ गए। जब ब्राह्मण ने पेट भर खाना खा लिया तो राजा ने उसे दक्षिणा देना चाहा। ब्राह्मण अपनी आँखों से अन्नपूर्णा पात्र का चमत्कार देख चुका था, इसलिए उसने कहा, “अगर आप दक्षिणा देना ही चाहते है तो मुझे दक्षिणास्वरुप यह पात्र दे दें, ताकि मुझे किसी के सामने भोजन के लिए हाथ नहीं फैलाना पड़े।” विक्रम ने बेहिचक उसी क्षण उसे वह पात्र दे दिया। ब्राह्मण राजा को आशीर्वाद देकर चला गया और वे अपने महल लौट गए।


8. पुष्पवती

   आठवीं पुतली पुष्पवती की कथा इस प्रकार है-

       राजा विक्रमादित्य अद्भुत कला-पारखी थे। उन्हें श्रेष्ठ कलाकृतियों से अपने महल को सजाने का शौक था।वे कलाकृतियों का मूल्य आँककर बेचने वाले को मुँह माँगा दाम देते थे।

      एक दिन वे अपने दरबारियों के बीच बैठे थे कि किसी ने खबर दी कि एक आदमी काठ का घोड़ा बेचना चाहता है। राजा ने देखना चाहा कि उस काठ के घोड़े की विशेषता क्या है। नौकर के साथ वह आदमी दरबार में आया। अपने साथ वह ऐसा काठ का घोड़े लाया जिसकी कारीगरी देखते बनती थी। एकदम जीवित मालूम पड़ता था। बहुत गौर से देखने पर ही पता चलता था कि लकड़ी का है। विक्रम ने उस आदमी से घोड़े की विशेषताओं के बारे में पूछा। उस आदमी ने जवाब दिया कि वह घोड़ा अति तीव्र गति से जल, थल और आकाश- तीनों में विचरण कर सकता है।

       उसके दाम के बारे में पूछने पर उसने बताया कि यह उसकी जीवन भर की मेहनत का फल है, इसलिए वह एक लाख स्वर्ण मुद्राओं से कम में उसे नहीं बेचेगा। राजा को उसकी बात जँच गई और एक लाख स्वर्ण-मुद्राएँ देकर उन्होंने वह घोड़ा खरीद लिया। फिर वह आदमी खुले मैदान में आकर घोड़े को उठाकर दिखाने लगा तथा उसके कल-पुर्जा के बारे में सब कुछ बताने लगा। उसके संचालन की सारी विधि समझकर विक्रम ने घोड़ा अपने अश्वागार में रखवा दिया। एक दिन अपने आदमियों के साथ राजा शिकार को निकले तो खुद उसी घोड़े पर सवार थे। कल-पुर्जा को दबाने पर उसकी तेजी इतनी बढ़ गई कि राजा को मज़ा आ गया। वे भूल गए कि आखेट के लिए वे अकेले नहीं निकले हैं। अपनी टोली से बिछुड़ कर बहुत दूर आ गए।

      उन्होंने उसे हवा में उड़ाने के लिए दूसरे कल-पुर्जा को दबाया। उसकी गति हवा में इतनी बढ़ गई कि राजा के लिए उसे संभालना मुश्किल जान पड़ा। उन्होंने उसे ज़मीन पर उतारना चाहा तो वह उसी गति से उतरा और एक घने पेड़ की शाखाओं से टकरा कर टुकड़े-टुकड़े हो गया। अब उस निर्जन और अनजान जगह पर राजा अकेले थे। वे इधर-उधर भटक रहे थे तभी सामने एक बन्दरिया कूदी और अपने हाव-भाव से कुछ बताने की कोशिश करने लगी। राजा कुछ समझ पाते तब तक उनकी न एक कुटिया पर पड़ी।

       राजा को भूख लगी थी और वे थके भी थे। उन्होंने वृक्षों पर लदे फल तोड़े और अपनी भूख मिटाई और एक वृक्ष पर चढ़कर लेट गए। वे विश्राम कर ही रहे थे कि एक सन्यासी आया और बन्दरिया को इशारा करके अपने साथ कुटिया में रखे दो घड़ों के बीच में बन्दरिया को बैठने को कहा। उसके बाद उसने एक घड़े से चुल्लू भर पानी लेकर बन्दरिया के ऊपर छींटे मारे। बन्दरिया एक अत्यन्त रुपवती राजकुमारी बन गई।

       उसने संन्यासी के लिए भोजन पकाया तथा जब संन्यासी खा चुका तब संन्यासी के हाथ-पैर दबाए और संन्यासी आराम से सो गया। जब सुबह हुई तो संन्यासी ने दूसरे घड़े से चुल्लू भर पानी लेकर राजकुमारी पर छींटे मारे। राजकुमारी फिर से बन्दरिया बन गई। उसे लेकर संन्यासी कुटिया से बाहर आया और उसे वन में स्वतंत्र विचरने को छोड़कर वहीं चला गया।

      उसके जाने के बाद बन्दरिया को लेकर विक्रम कुटिया में आए और घड़े से पानी लेकर बन्दरिया पर छींटे डाल दिए। बन्दरिया फिर से अनिंद्य सुन्दरी बन गई। राजकुमारी बनते ही उसने राजा को बताया, “मैँ कामदेव तथा एक अप्सरा की संतान हूँ। एक बार मैंने शिकार खेलते हुए एक बाण मृग की ओर निशाना लगाकर छोड़ा। वह बाण मृग को नहीं लगकर एक साधु की बाँह को बेध गया। दर्द से कराहते हुए उस साधु ने मुझे श्राप दिया कि बन्दरिया बनकर मुझे साधु की सेवा करनी पड़ेगी। जब मैं रोई-गिड़गिड़ाई कि यह सब अनजाने में हुआ तो उसने पसीजकर श्राप से मुक्ति का रास्ता बताया। उसने कहा कि राजा विक्रमादित्य आकर तुम्हें श्राप से मुक्ति दिलाएँगे तथा तुम्हारा पत्नी के रुप में वरण करेंगे अगर वह साधु तुम्हें कोई चीज़ उपहार स्वरुप देगा। मैं आपको देखते ही पहचान गई थी। अब साधु के लौटने पर मैं उससे उपहार माँगूगी और आप मेरा पत्नी के रुप में वरण करेंगे।”

       विक्रम ने फिर पानी के छींटे डालकर उसे बन्दरिया बना दिया। साधु आया और उसने बन्दरिया से उसे राजकुमारी में बदल डाला। राजकुमारी ने उससे कोई उपहार देने को कहा। उसने हवा में हाथ लहराया तो उसके हाथ में खिला हुआ कमल आ गया। उसने कहा यह कमल हर दिन तुम्हें एक रत्न देगा। साधु ने यह भी कहा कि उसे पता है राजा विक्रमादित्य उसकी ज़िन्दगी में आ पहुँचे हैं, इसलिए वह राजकुमारी को बाकी की ज़िन्दगी सुखपूर्वक व्यतीत करने का आशीर्वाद देता है। साधु ने उसके बाद राजकुमारी को अपनी कुटिया से सहर्ष विदा किया। राजकुमारी अब पूरी तरह शाप मुक्त हो गई थी।

       विक्रम ने तब दोनों बेतालों का स्मरण किया जो उन दोनों को नगर की सीमा पर पहुँचा कर गायब हो गया। नगर में जब उन्होंने प्रवेश किया तो एक बच्चा कमल के पुष्प को प्राप्त करने को मचल उठा। विक्रम ने वह कमल का फूल बच्चे को तुरन्त देकर संतुष्ट किया। फिर महल पहुँचकर राजकाज देखने लगे।

      कुछ दिनों बाद उनके पास एक गरीब आदमी को पकड़कर लाया गया। उसे बहुमूल्य रत्न बेचने के आरोप में बन्दी बनाया गया था। राजा के पूछने पर उसने बताया कि उसके बच्चे को किसी ने एक खिला कमल दिया था, उसी कमल से ये रत्न उसे प्राप्त हुए हैं। विक्रम ने सिपाहियों को बिना कारण किसी की ईमानदारी पर शक करने के लिए डाँटा तथा वे सारे रत्न अच्छे मूल्य पर स्वयं खरीद लिए। वह आदमी राजा को दुआएँ देता हुआ संतुष्ट होकर दरबार से विदा हुआ।



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