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सुमन – वेदप्रकाश शर्मा का उपन्यास

सुमन

1
      संध्या का आगमन होते ही सूर्य अपनी समस्त किरणों को समेटकर धरती के आंचल में मुखड़ा छिपाने की तैयारी करने लगा। रजनी अपने आंचल से नग्न वातावरण को ढांपने लगी। ये क्रिया प्रतिदिन होती थी... प्रकृति का यह अनुपम रूप प्रतिदिन सामने आता था... और इसके साथ ही गिरीश के हृदय की पीड़ाएं भयानक रूप धारण करने लगतीं।

      उसके सीने में दफन गमों का धुआं मानो आग की लपटें बनकर लपलपाने लगता था। उसके मन में एक टीस-सी उठती... यह एक ठंडी आह भरके रह जाता...। ये नई बात नहीं थी, प्रतिदिन ऐसा ही होता...।

      जैसे ही संध्या के आगमन पर सूर्य अपनी किरणें समेटता... जैसे ही किरणें सूर्य में समाती जातीं वैसे ही उसके गम, उसके दुख उसकी आत्मा को धिक्कारने लगते, उसके हाल पर कहकहे लगाने लगते। प्रतिदिन की भांति आज भी उसने बहुत चाहा... खुद को बहुत रोका किंतु वह नहीं रुक सका... इधर सूर्य अपनी लालिमा लिए धरती के आंचल की ओर बढ़ा, उधर गिरीश के कदम स्वयं ही बंध गए... उसके कदमों में एक ठहराव था मानो वह गिरीश न होकर उसका मृत जिस्म हो। भावानाओ के मध्य झूलता... गमों के सागर में डूबता... वह सीधा अपने घर की छत पर पहुँचा और फिर मानो उसे शेष संसार का कोई भान न रहा।

      उसकी दृष्टि अपनी छत से दूर एक दूसरी छत पर स्थिर होकर रह गई थी। यह छत उसके मकान से दो-तीन छतें छोड़कर थी। उस मकान की एक मुंडेर को बस वह उसी मुंडेर को निहारे जा रहा था... मुंडेर पर लम्बे समय से पुताई न होने के कारण काई-सी जम गई थी। वह एकटक उसी छत को तकता रहा। इस रिक्त छत पर न जाने वह क्या देख रहा था। छत को निहारते-निहारते उसके नेत्रों से मोती छलकने लगे। फिर भी वह छत को निहारता ही रहा... निहारता ही चला गया।... यहां तक कि सूर्य पूर्णतया धरती के आंचल में समा गया। रात्रि ने अपना आंचल वातावरण को सौंपा... वह छत... वह मुंडेर सभी कुछ अंधकार में विलुप्त-सी हो गई किंतु गिरीश मानो अब भी कुछ देख रहा था, उसे वातावरण का कोई आभास न था।

      सहसा वह चौंका... किसी का हाथ उसके कंधे पर आकर टिका... वह घूमा... सामने उसका दोस्त शिव खड़ा था... शिव ने उसकी आंखों से ढुलकते आंसुओं को देखा, धीमे से वह बोला–‘‘अब वहां क्या देख रहे हो? वहां अब कुछ नहीं है दोस्त... वह एक स्वप्न था गिरीश जो प्रातः के साथ छिन्न-छिन्न हो गया... भूल जाओ सब कुछ... कब तक उन गमों को गले लगाए रहोगे?’’

      ‘‘शिव, मेरे अच्छे दोस्त।’’ गिरीश शिव से लिपट गया–‘‘न जाने क्यों मुझे अमृत के जहर बनने पर भी उसमें से अमृत की खुशबू आती है।’’

      ‘‘आओ गिरीश मेरे साथ आओ।’’ शिव ने कहा और उसका हाथ पकड़कर छत से नीचे की ओर चल दिया।

      शिव गिरीश का एक अच्छा दोस्त था। शायद वह गिरीश की बदनसीबी की कहानी से परिचित था तभी तो उसे गिरीश से सहानुभूति थी, वह गिरीश के गम बांटना चाहता था। अतः वह उसका दिल बहलाने हेतु उसे पास ही बने एक पार्क में ले गया। अंधेरा चारों ओर फैल चुका था, पार्क में कहीं-कहीं लैम्प रोशन थे। वे दोनों पार्क के अंधेरे कोने में पहुँचकर भीगी घास पर लेट गए। गिरीश ने सिगरेट सुलगा ली। धुआं उसके चेहरे के चारों ओर मंडराने लगा। साथ ही वह अतीत की परछाइयों में घिरने लगा। शिव जानता था कि इस समय उसका चुप रहना ही श्रेयकर है।

      ‘‘मैं तुमसे प्यार करती हूं भवनेश, सिर्फ तुमसे।’’ एकाएक उनके पास की झाड़ियों के पीछे से एक नारी स्वर उनके कानों के पर्दों से आ टकराया।

      ‘‘लेकिन मुझे डर है सीमा कि मैं तुम्हें पा न सकूंगा... तुम्हारे पिता ने तुम्हारे लिए जिस वर को चुना है वह कोई गरीब कलाकार नहीं बल्कि किसी रियासत का वारिश है।’’ वह पुरुष स्वर था।

      ‘‘भवनेश!’’ नारी का ऐसा स्वर मानो पुरुष की बात ने उसे तड़पा दिया हो–‘‘ये तुम कैसी बातें करते हो? मैं तुम्हारे लिए सारी दुनिया को ठुकरा दूंगी। मैं तुम्हारी कसम खाती हूं, मेरी शादी तुम्हीं से होगी, मैं वादा करती हूं, मैं तुम्हारी हूं और हमेशा तुम्हारी ही रहूंगी, भवनेश! मैं तुमसे प्यार करती हूं, सत्य प्रेम।’’

      झाड़ियों के पीछे छुपे इस प्रेमी जोड़े के वार्तालाप का एक-एक शब्द वे दोनों सुन रहे थे। न जाने क्यों सुनते-सुनते गिरीश के नथुने फूलने लगे, उसकी आँखें खून उगलने लगीं, क्रोध से वह कांपने लगा और उस समय तो शिव भी बुरी तरह उछल पड़ा जब गिरीश किसी जिन्न की भांति सिगरेट फेंककर फुर्ती के साथ झाड़ियों के पीछे लपका। वह प्रेमी जोड़ा चौंककर खड़ा हो गया।

      इससे पूर्व कि कोई भी कुछ समझ सके। चटाक...। एक जोरदार आवाज के साथ गिरीश का हाथ लड़की के गाल से टकराया। सीमा, भवनेश और शिव तो मानो भौंचक्के ही रह गए। तभी गिरीश मानो पागल हो गया था। अनगिनत थप्पड़ों से उसने सीमा को थपेड़ दिया और साथ ही पागलों की भांति चीखा। ‘‘कमीनी, कुतिया, तेरे वादे झूठे हैं। तू बेवफा है, तू भवनेश को छल रही है। तू अपना दिल बहलाने के लिए झूठे वादे कर रही है। नारी बेवफाई की पुतली है। भाग जा यहां से और कभी भवनेश से मत मिलना। मिली तो मैं तेरा खून पी जाऊंगा।’’ भौंचक्के-से रह गए सब। सीमा सिसकने लगी।

      शिव ने शक्ति के साथ गिरीश को पकड़ा और लगभग घसीटता हुआ वहाँ से दूर ले गया। सिसकती हुई सीमा एक वृक्ष के तने के पीछे विलुप्त हो गई। भवनेश वहीं खड़ा न जाने क्या सोच रहा था।

      गिरीश अब भी सीमा को अपशब्द कहे जा रहा था, शिव ने उसे संगमरमर की एक बेंच पर बिठाया और बोला–‘‘गिरीश, यह क्या बदतमीजी है?’’

      ‘‘शिव, मेरे दोस्त! वह लड़की बेवफा है। भवनेश को उस डायन से बचाओ। वह भवनेश का जीवन बर्बाद कर देगी। उस चुडैल को मार दो।’’ तभी भवनेश नामक वह युवक उनके करीब आया। वह युवक क्रोध में लगता था। गिरीश का गिरेबान पकड़कर वह चीखा–‘‘कौन हो तुम? क्या लगते हो सीमा के?’’

      ‘‘मैं! मैं उस कमीनी का कुछ नहीं लगता दोस्त लेकिन मुझे तुमसे हमदर्दी है। नारी बेवफा है। तुम उसकी कसमों पर विश्वास करके अपना जीवन बर्बाद कर लोगे। उसके वादों को सच्चा जानकर अपनी जिन्दगी में जहर घोल लोगे। मान लो दोस्त, मेरी बात मान लो।’’

      ‘‘मि...!’’

      अभी युवक कुछ कहना ही चाहता था कि शिव उसे पकड़कर एक ओर ले गया और धीमे-से बोला–‘‘मिस्टर भवनेश, उसके मुंह मत लगो... वह एक पागल है।’’

      काफी प्रयासों के बाद शिव भवनेश नामक युवक के दिमाग में यह बात बैठाने में सफल हो गया कि गिरीश पागल है और वास्तव में गिरीश इस समय लग भी पागल जैसा ही रहा था। अंत में बड़ी कठिनाई से शिव ने वह विवाद समाप्त किया और गिरीश को लेकर घर की ओर बढ़ा।

      रास्ते में शिव ने पूछा–‘‘गिरीश... क्या तुम उन दोनों में से किसी को जानते हो?’’

      ‘‘नहीं... मुझे नहीं मालूम वे कौन हैं? लेकिन शिव, जब भी कोई लड़की इस तरह के वादे करती है तो न जाने क्यों मैं पागल-सा हो जाता हूं... न जाने क्या हो जाता है मुझे?’’

      ‘‘विचित्र आदमी हो यार... आज तो तुमने मरवा ही दिया था।’’ शिव ने कहा और वे घर आ गए।

      अंदर प्रवेश करते ही नौकर ने गिरीश के हाथों में तार थमाकर कहा–‘‘साब... ये अभी-अभी आया है।’’

      गिरीश ने नौकर के हाथ से तार लिया और खोलकर पढ़ा।

      ‘गिरीश! ७ अप्रैल को मेरी शादी में नहीं पहुँचे तो शादी नहीं होगी।
      –तुम्हारा दोस्त
       शेखर।’

      पढ़कर स्तब्ध सा रह गया गिरीश। शेखर... उसका प्यारा मित्र... उसके बचपन का साथी, अभी एक वर्ष पूर्व ही तो वह उससे अलग हुआ है... वह जाएगा... उसकी शादी में अवश्य जाएगा लेकिन पांच तारीख तो आज हो ही गई है... अगर वह अभी चल दे तब कहीं सात की सुबह तक उसके पास पहुंचेगा। उसने तुरंत टेलीफोन द्वारा अगली ट्रेन का टिकट बुक कराया और फिर अपना सूटकेस ठीक करके स्टेशन की ओर रवाना हो गया।

      कुछ समय पश्चात वह ट्रेन में बैठा चला जा रहा था... क्षण-प्रतिक्षण अपने प्रिय दोस्त शेखर के निकट। उसकी उंगलियों के बीच एक सिगरेट थी। सिगरेट के कश लगाता हुआ वह फिर अतीत की यादों में घिरता जा रहा था, उसके मानव-पटल पर कुछ दृश्य उभर आए थे... उसके गमगीन अतीत की कुछ परछाइयां। उसकी आंखों के सामने एक मुखड़ा नाच उठा... चांद जैसा हंसता-मुस्कराता प्यारा-प्यारा मुखड़ा। यह सुमन थी।

      उसके अतीत का गम... बेवफाई की पुतली... सुमन। वह मुस्करा रही थी... मानो गिरीश की बेबसी पर अत्यंत प्रसन्न हो। सुमन हंसती रही... मुस्कराती रही... गिरीश की आंखों के सामने फिर उसका अतीत दृश्यों के रूप में तैरने लगा... हां सुमन इसी तरह मुस्कराती हुई तो मिली थी... सुमन ने उसे भी हंसाया था... किंतु... किंतु... अंत में... अंत में... उफ। क्या यही प्यार है... इसी को प्रेम कहते हैं।

2

      पौधे के शीर्ष पर एक पुष्प होता है... हंसता, खिलता, मुस्कराता हुआ। एक फूल... जो खुशियों का प्रतीक है, प्रसन्नताओं का खजाना है... किंतु फूल के नीचे... जितने नीचे चलते चले जाते हैं वहां कांटों का साम्राज्य होता है। जो अगर चुभ जाएं तो एक सिसकारी निकलती है... दर्द भरी सिसकारी।

      जब कोई बच्चा हंसता है, तो बुजर्ग कहते हैं कि अधिक मत हंसाओ वरना उतना ही रोना पड़ेगा। क्या मतलब है इस बात का? ये उनका कैसा अनुभव है? क्या वास्तव में हंसने के बाद रोना पड़ता है? ठीक इसी प्रकार बुजुर्गों का अनुभव शायद ठीक ही है... प्रत्येक खुशी गम का संदेश लाती है... प्रत्येक प्रसन्नता के पीछे कष्ट छुपे रहते हैं। कुछ ऐसा ही अनुभव गिरीश का भी था।

      उसके जीवन में सुमन आई... हजारों खुशियां समेटकर... इतने सुख लेकर कि गिरीश के संभाले न संभले। उसने गिरीश को धरती से उठाकर अम्बर तक पहुंचा दिया। गिरीश जिसे स्वप्न में भी ख्याल न था कि वह किसी देवी के हृदय का देवता भी बन सकता है।

      पहली मुलाकात...।

      उफ! उन्हें क्या मालूम था कि इतनी साधारण-सी मुलाकात उनके जीवन की प्रत्येक खुशी और गम बन जाएंगे उन्हें इतना निकट ला देगी। वे एक-दूसरे के हृदयों में इस कदर बस जाएंगे? एक-दूसरे से प्यारा उन्हें कोई रहेगा ही नहीं।

      अभी तक तो वह बाहर पढ़ता था... इस शहर से बहुत दूर। वह लगभग बचपन से ही अपने चचा के साथ पढ़ने गुरुकुल चला गया था, जब वह पढ़ाई समाप्त करके घर वापस आया तो पहली बार उसने अपना वास्तविक घर देखा। जब वह अपने ही घर में आया तो एक अनजान की भांति उसके आने के समाचार से घर में हलचल हो गई। वह अंदर आया, मां ने वर्षों बाद अपने पुत्र को देखा तो गले से लगा लिया, बहन ने एक मिनट में हजार बार भैया... भैया कहकर उसके दिल को खुश कर दिया।

      खुशी और प्रसन्नताओं के बाद– उसकी निगाह एक अन्य लड़की पर पड़ी जो अनुपम रमणी-सी लगती थी... उसने बड़े संकोच और लाज वाले भाव से दोनों हाथ जोड़कर जब नमस्ते की तो न जाने क्यों उसका दिल तेजी से धड़कने लगा... वह उसकी प्यारी आंखों में खो गया था। उसकी नमस्ते का उत्तर भी वह न दे सका। रमणी ने लाज से पलकें झुका लीं। किंतु गिरीश तो न जाने कौन-सी दुनिया में खो गया था।

      यूं तो गिरीश ने एक-से-एक सुंदरी देखी थी लेकिन न जाने क्यों उस समय उसका दिल उनके प्रति क्रोध से भर जाता था जब वह देखता कि वे आधुनिक फैशन के कपड़े पहनकर अपने सौंदर्य की नुमायश करती हुई एक विशेष अंदाज में मटक-मटककर सड़क पर निकलतीं। न जाने क्यों गिरीश को जब उनके सौंदर्य से नफरत-सी हो जाती, मुँह फेर लेता वह घृणा से। किंतु ये लड़की... सौंदर्य की ये प्रतिमा उसे अपने विचारों की साकार मूर्ति-सी लगी। उसे लगा जैसे उसकी कल्पना उसके समक्ष खड़ी है।

      वह उसे उन सभी लड़कियों से सुंदर लगी जो अपने सौंदर्य की नुमायश सड़कों पर करती फिरती थीं। वह चरित्र का उपासक था... सौंदर्य का नहीं।

      वह जानता था–न जाने कितने नौजवान, युवक-युवतियां एक-दूसरे के सौंदर्य से... कपड़ों से... तथा अन्य ऊपरी चमक-दमक से प्रभावित होकर अपनी जवानी के जोश को प्यार का नाम देने लगते हैं। किंतु जब उन्हें पता लगता है कि इस सौंदर्य के पीछे जिसका एक उपासक था, एक घिनौना चरित्र छुपा है... यह सौंदर्य उसका नहीं बल्कि सभी का है। कोई भी इस सौंदर्य को अपनी बाहों में कस सकता है तो उसके दिल को एक ठेस लगती है... उसका जीवन बर्बाद हो जाता है। तभी तो गिरीश सौंदर्य का उपासक नहीं है, वह उपासक है चरित्र का। उसकी निगाहों में नारी का सर्वोत्तम गहना चरित्र ही है–उसका सौंदर्य नहीं। उसे कितनी बार प्यार मिला किंतु वह जानता था कि वह प्यार के नाम को बदनाम करने वाले सौंदर्य के उपासक हैं। कुछ जवानियां हैं जो अपना बोझ नहीं संभाल पा रही हैं।

      किंतु आज... आज उसके सामने एक देवी बैठी थी... हां पहली नजर में वह उसे देवी जैसी ही लगी थी। उसके जिस्म पर साधारण-सा कुर्ता और पजमियां... वक्ष-स्थल पर ठीक प्रकार से पड़ी हुई एक चुनरी... सबसे अधिक पसंद आई थी उसे उसकी सादगी।

      ‘‘क्या बात है, भैया... क्या देख रहे हो?’’ उसकी बहन ने उसे चौंकाया।

      ‘‘अ...अ...क...कुछ नहीं... कुछ नहीं।’’ गिरीश थोड़ा झेंपकर बोला।

      ‘‘लगता है भैया तुम मेरी सहेली को एक ही मुलाकात में दिल दे बैठे हो। इसका नाम सुमन है।’’

      और सुमन...।

      सुनकर वह तो एक पल भी वहां न ठहर सकी... तेजी से भाग गई वह। भागते-भागते उसने गिरीश की ये आवाज अवश्य सुनी– ‘‘क्या बकती हो, अनीता?’’ गिरीश ने झेंप मिटाने के लिए यह कहा तो अवश्य था किंतु वास्तव में उसे लग रहा था जैसे अनीता ठीक ही कहती है।

      सुमन... कितना प्यारा नाम है। वास्तव में सुमन जैसी ही कोमल थी वह। बस... यह थी... उसकी पहली मुलाकात... सिर्फ क्षण-मात्र की। इस मुलाकात में गिरीश को तो वह अपनी भावनाओं की साकार मूर्ति लगी थी किंतु सुमन न जान सकी थी कि गिरीश की आंखों में झांकते ही उसका मन धक् से क्यों रह गया।

      उसके बाद– वे लगभग प्रतिदिन मिलते... अनेकों बार। दोनों के कदम एक-दूसरे को देखकर ठिठक जाते... नयन स्थिर हो जाते... दिल धड़कने लगता किंतु फिर शीघ्र ही सुमन उसके सामने से भाग जाती।

      क्रम उसी प्रकार चलता रहा... किंतु बोला कोई कुछ नहीं... मानो आंखें ही सब कुछ कह देतीं। वक्त गुजरता रहा... आंखों के टकराव के साथ ही साथ उसके अधर मुस्कराने लगे।

      वक्त फिर आगे बढ़ा... मुस्कान हंसी में बदली... बोलता कोई कुछ न था किंतु बातें हो जातीं... प्रेमियों की भाषा तो प्रेमी ही जानें... दोनों ही दिल की बात अधरों पर लाना चाहते किंतु एक दूसरे की प्रतीक्षा थी।

      दिन बीतते गए। सुमन पूरी तरह से उसके मन-मंदिर की देवी बन गई। किंतु अधरों की दीवार अभी बनी हुई थी। कहते हैं सब कुछ वक्त के साथ होता है... एक ही मुलाकात में कोई किसी के मन में तो उतर सकता है किंतु प्रेम का स्थान ग्रहण नहीं कर सकता, प्रेम के लिए समय चाहिए... अवसर चाहिए... ये दोनों ही वस्तुएं सुमन और गिरीश के पास थीं अर्थात पहले लाज का पर्दा हटा... आमने-सामने आकर मुस्कराने लगे... धीरे-धीरे दूर से ही संकेत होने लगे।

      देखते-ही-देखते दोनों प्यार करने लगे। किंतु शाब्दिक दीवार अभी तक बनी हुई थी। अंत में इस दीवार को भी गिरीश ने ही तोड़ा। साहस करके उसने एक पत्र में दिल की भावनाएं लिख दीं। उत्तर तुंरत मिला–आग की तपिश दोनों ओर बराबर थी। फिर क्या था... बांध टूट चुका था... दीवार हट चुकी थी... पत्रों के माध्यम से बातें होने लगीं। एक दूसरे के पत्र का बेबसी से इंतजार करने लगे। पहले जमाने की बातें हुईं... फिर प्यार की बातों से पत्र भरे जाने लगे... धीरे-धीरे मिलन की लालसा जाग्रत हुई। पत्रों में ही मिलन के प्रोगाम बने–फिर मिलन भी जैसे उनके लिए साधारण बात हो गई। वे मिलते, प्यार की बातें करते, एक-दूसरे की आंखों में खो जाते... और बस...।

3

      ‘‘नहीं गिरीश नहीं... मैं किसी और की नहीं हो सकती, मेरी शादी तुम्हीं से होगी, सिर्फ तुमसे।’’ सुमन ने गिरीश के गले में अपनी बांहे डालते हुए कहा।

      ‘‘ये समाज बहुत धोखों से भरा है सुमन। विश्वास के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता, न जाने कब क्या हो जाए?’’ गिरीश गंभीर स्वर में बोला। इस समय वे अपने घर के निकट वाले पार्क के अंधेरे कोने में बैठे बातें कर रहे थे। वे अक्सर यहीं मिला करते थे।

      ‘‘तुम तो पागल हो गिरीश...।’’ सुमन बोली–‘‘मैं तो कहती हूं कि तुम्हें लड़की होना चाहिए था और मुझे लड़का... जब मैं तुमसे कह रही हूं कि तुम्हीं से शादी होगी तो तुम क्यों नहीं मेरा साहस बढ़ाते।’’

      ‘‘सुमन... अगर तुम्हारे घर वाले तैयार नहीं हुए तो?’’

      ‘‘पहली बात तो ऐसा होगा नहीं और अगर हो भी गया तो देख लेना तुम अपनी सुमन को, वह घर वालों का साथ छोड़कर तुम्हारे साथ होगी।’’

      ‘‘क्या तुम होने वाली बदनामी को सहन कर सकोगी?’’

      ‘‘गिरीश... मेरा ख्याल है कि तुम प्यार ही नहीं करते। प्यार करने वाले कभी बदनामी की चिंता नहीं किया करते।’’

      ‘‘सुमन–यह सब उपन्यास अथवा फिल्मों की बातें हैं–यथार्थ उनसे बहुत अलग होता है।’’

      ‘‘गिरीश!’’ सुमन के लबों से एक आह टपकी–‘‘यही तो तुम्हारी गलतफहमी है। अन्य साधारण व्यक्तियों की भांति तुमने भी कह दिया कि ये उपन्यास की बातें हैं। क्या तुम नहीं जानते कि लेखक भी समाज का ही एक अंग होता है। उसकी चलती हुई लेखनी वही लिखती है जो वह समाज में देखता है। क्या कभी तुम्हारे साथ ऐसा नहीं हुआ कि कोई उपन्यास पढ़ते-पढ़ते तुम उसके किसी पात्र के रूप में स्वयं को देखने लगे हो। हुआ है गिरीश हुआ है–कभी-कभी कोई पात्र हम जैसा भी होता है–मालूम है वह पात्र कहां से आता है–लेखक की लेखनी उसे हम ही लोगों के बीच से प्रस्तुत करती है। जब लेखक किसी पात्र के माध्यम से इतना साहस प्रस्तुत करता है, जितना तुम में नहीं है तो उसे यथार्थ से हटकर कहने लगते हो–लेखक तुम्हें प्रेरणा देता है कि अगर प्यार करते हो तो सीना तानकर समाज के सामने खड़े हो जाओ। लाख परेशानियों के बाद भी अपने प्रिय को अपनाकर समाज के मुँह पर तमाचा मारो। जिन बातों को तुम सिर्फ उपन्यासों की बात कहकर टाल जाते हो उसकी गंभीरता को देखो–उसकी सच्चाई में झांको।’’ सुमन कहती ही चली गई मानो पागल हो गई हो।

      ‘‘वाह–वाह देवी जी।’’ गिरीश हंसता हुआ बोला–‘‘लेडीज नेताओं में इंदिरा के बाद तुम्हारा ही नम्बर है–काफी अच्छा भाषण झाड़ लेती हो।’’

      ‘‘ओफ्फो–बड़े वो हो तुम!’’ सुमन कातर निगाहों से उसे देखकर बोली–‘‘मुझे जोश दिलाकर न जाने क्या-क्या बकवा गए। अब मैं तुमसे बात नहीं करूंगी।’’ कृत्रिम रूठने के साथ उसने मुंह फेर लिया।

      ‘‘अबे ओ मोटे।’’ जब सुमन रूठ जाती तो गिरीश का संबोधन यही होता था–‘‘रूठता क्यों है हमसे, चल इधर देख–नहीं तो अभी एक पप्पी की सजा दे देंगे।’’ सुमन लजा गई–तभी गिरीश ने उसके कोमल बदन को बाहों में ले लिया और उसके अधरों पर एक चुम्बन अंकित करके बोला–‘‘इससे आगे का बांध... सुहाग रात को तोड़ूँगा देवी जी।’’ उसके इस वाक्य पर तो सुमन पानी-पानी हो गई... लाज से मुंह फेरकर उसने भाग जाना चाहा किंतु गिरीश के घेरे सख्त थे। अतः उसने गिरीश के सीने में ही मुखड़ा छुपा लिया।

      इस प्रकार–कुछ प्रेम वार्तालाप के पश्चात अचानक सुमन बोली–‘‘अच्छा... गिरीश, अब मैं चलूं।’’

      ‘‘क्यों?’’

      ‘‘सब इंतजार कर रहे होंगे।’’

      ‘‘कौन सब?’’

      ‘‘मम्मी, पापा, जीजी, जीजाजी–सभी।’’

      ‘‘एक बात कहूं... सुमन, बुरा-तो नहीं मानोगी?’’ कुछ साहस करके बोला गिरीश।

      ‘‘तुम्हारी बात का मैं और बुरा मानूंगी... मुझे तो दुख है कि तुमने ऐसा सोचा भी कैसे?’’ कितना आत्म-विश्वास था सुमन के शब्दों में।

      ‘‘न जाने क्यों मुझे तुम्हारे संजय जीजाजी अच्छे नहीं लगते।’’

      न जाने क्यों गिरीश के मुख से उपरोक्त वाक्य सुनकर सुमन को एक धक्का लगा उसके मुखड़े पर एक विचित्र-सी घबराहट उत्पन्न हो गई। वह घबराहट को छुपाने का प्रयास करती हुई बोली–‘‘क्यों भला? तुमसे तो अच्छे ही हैं... लेकिन बस अच्छे नहीं लगते।’’

      ‘‘सच... बताऊं तो गिरीश... मुझे भी नफरत है।’’ सुमन कुछ गंभीर होकर बोली।

      ‘‘क्यों, तुम्हें क्यों...?’’ गिरीश थोड़ा चौंका।

      ‘‘ये मैं भी नहीं जानती।’’ सुमन बात हमेशा ही इस प्रकार गोल करती थी।

      ‘‘विचित्र हो तुम भी।’’ गिरीश हंसकर बोला।

      ‘‘अच्छा अब मैं चलूं गिरीश!’’ सुमन गंभीर स्वर में बोली।

      गिरीश महसूस कर रहा था कि जब से उसने सुमन से संजय के विषय में कुछ कहा है तभी से सुमन कुछ गंभीर हो गई है। उसने कई बार प्रयास किया कि सुमन की इस गंभीरता का कारण जाने, किंतु वह सफल न हो सका। उसके लाख प्रयास करने पर भी सुमन एक बार भी नहीं हंसी। न जाने क्या हो गया था उसे?... गिरीश न जान सका।

      इसी तरह उदास-उदास-सी वह विदाई लेकर चली गई। किंतु गिरीश स्वयं को ही गाली देने लगा कि क्यों उसने बेकार में संजय की बात छेड़ी? किंतु यह गुत्थी भी एक रहस्य थी कि सुमन संजय के लिए उसके मुख से एक शब्द सुनकर इतनी गभीर क्यों हो गई? क्या गिरीश ने ऐसा कहकर सुमन की निगाहों में भूल की। गिरीश विचित्र-सी गुत्थी में उलझ गया। लेकिन एक लम्बे समय तक यह गुत्थी गुत्थी ही रही।

4
      प्रेम... एक ऐसी अनुभति जो वक्त के साथ आगे बढ़ती ही जाती है। वक्त जितना बीतता है प्रेम के बंधन उतने ही सख्त होते चले जाते हैं। प्रेम के ये दो हमजोली वक्त के साथ आगे बढ़ते रहे। सुमन गिरीश की पूजा करती... उसने उसकी सूरत अपने मन-मंदिर में संजो दी। सुमन उसके गले में बांहे डाल देती तो वह उसके गुलाबी अधरों पर चुम्बन अंकित कर देता। समय बीतता रहा। वे मिलते रहे, हंसी-खुशी... वक्त कटने लगा। दोनों मिलते, प्रेम की मधुर-मधुर बातें करते–एक-दूसरे की आंखों में खोकर... समस्त संसार को भूल जाते। सुमन को याद रहता गिरीश। गिरीश को याद रहती सिर्फ सुमन...।

      वे प्रेम करते थे... अनन्त प्रेम... और गंगाजल से भी कहीं अधिक सच्चा। प्रेम के बांध को तोड़कर वे उस ओर कभी नहीं बढ़े जहां इस रिश्ते को पाप की संज्ञा में रख दिया जाता है। वे तो मिलते... और बस न मिलते तो दोनों तड़पते रहते। किंतु उस दिन की गुत्थी एक कांटा-सा बनकर गिरीश के हृदय में चुभ रही थी। उसने कई बार सुमन से भी पूछा किंतु प्रत्येक बार वह सिर्फ उदास होकर रह जाती। अतः अब गिरीश ने सुमन से संजय के विषय में बातें करनी ही समाप्त कर दीं। किंतु दिल-ही-दिल में वह कांटा नासूर बनता जा रहा था।...जहरीला कांटा।

      गिरीश न जान सका कि रहस्य क्या है। लेकिन अब कभी वह सुमन के सामने कुछ नहीं कहता। सब बातों को भुलाकर वे हंसते, मिलते, प्रेम करते और एक-दूसरे की बांहों में समा जाते। जब सुमन गिरीश से बातें करती तो गिरीश उसके साहस पर आश्चर्यचकित रह जाता। वह हमेशा यही कहती कि वह उसके लिए समस्त संसार से टकरा जाएगी। शाम को तब जबकि सूर्य अपनी किरणों को समेटकर धरती के आंचल में समाने हेतु जाता उस समय वे किन्हीं कारणों से मिल नहीं पाते थे। ऐसे ही एक समय जब गिरीश अपनी छत पर था और सुमन के उस मकान की छत को देख रहा था जिसकी दीवार पुताई न होने के कारण काली पड़ गई थी। वह उसी छत को निहार रहा था कि चौंक पड़ा... प्रसन्नता से वह झूम उठा... क्योंकि छत पर उसे सुमन नजर आईं और बस फिर वे एक-दूसरे को देखते रहे। सूर्य अस्त हो गया... रजनी का स्याह दामन फैल गया... वे एक-दूसरे को सिर्फ धुंधले साए के रूप में देख सकते थे किंतु देख रहे थे। हटने का नाम कोई लेता ही नहीं था। अंत में गिरीश ने संकेत किया कि पार्क में मिलो तो वे पार्क में मिले। उस दिन के बाद ऊपर आना मानो उनकी कोई विशेष ड्यूटी हो। सूर्य अस्त होने जाता तो बरबस ही दोनों के कदम स्वयमेव ही ऊपर चल देते। फिर रात तक वहीं संकेत करते और फिर बाग में मिलते।

      सुख... प्रसन्नताएं... खुशियां, इन्हीं के बीच से वक्त गुजरता रहा, लेकिन क्या प्रेम करना इतना ही सरल होता है? क्या प्रेम में सिर्फ फूल हैं? नहीं... अब अगर वो फूलों से गुजर रहे थे तो राह में कांटे उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे।... दुख उन्हें खोज रहे थे।

      एक दिन...। तब जबकि प्रतिदिन की भांति वे दोनों पार्क में मिले... मिलते ही सुमन ने कहा–‘‘गिरीश... बताओं तो कल क्या है?’’

      ‘‘अरे ये भी कोई पूछने वाली बात है... कल शुक्रवार है।’’

      ‘‘शुक्रवार के साथ और भी बहुत कुछ है?’’

      ‘‘क्या?’’

      ‘‘मेरी वर्षगांठ।’’

      ‘‘अरे... सच...!’’

      गिरीश प्रसन्नता से उछल पड़ा।

      ‘‘जी हां जनाब, कल तुम्हें आना है, घर तो घर वाले स्वयं ही कार्ड पहुँचा देंगे किंतु तुमसे मैं विशेष रूप से कह रही हूं। आना अवश्य।’’

      ‘‘ये कैसे हो सकता है कि देवी का बर्थ डे हो और भक्त न आएं?’’

      ‘‘धत्।’’

      देवी शब्द पर सदा की भांति लजाकर सुमन बोली–‘‘तुमने फिर देवी कहा।’’

      ‘‘देवी को देवी ही कहा जाएगा।’’

      सुमन फिर लाज से दोहरी हो गई। गिरीश ने उसे बांहों में समेट लिया।

      सुमन की वर्षगांठ– घर मानो आज सज-संवरकर दुल्हन बन गया था। चारों ओर खुशियां–प्रसन्नताएं बच्चों की किलकारियां और मेहमानोँ के कहकहे। समस्त मेहमान घर में सजे-संवरे हॉल में एकत्रित हुए थे। उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने ढंग से सुमन को मुबारकबाद देता, सुमन मधुर मुस्कान के साथ उसे स्वीकार करती किंतु इस मुस्कान में हल्कापन होता–हंसी में चमक होती भी कैसे?... इस चमक का वारिस तो अभी आया ही नहीं था। जिसका इस मुस्कान पर अधिकार है।... हां... सुमन को प्रत्येक क्षण गिरीश की प्रतीक्षा थी जो अभी तक नहीं आया था। रह-रहकर सुमन की निगाहें दरवाज़े की ओर उठ जातीं किंतु अपने मन-मंदिर के भगवान को अनुपस्थित पाकर वह निराश हो जाती।

      सब लोग तो प्रसन्न थे... यूं प्रत्यक्ष में वह भी प्रसन्न थी किंतु अप्रत्यक्ष रूप में वह बहुत परेशान थी। उसके हृदय में भांति-भांति की शंकाओं का उत्थान-पतन हो रहा था। ‘‘अरे सुमन...!’’ एकाएक उसकी मीना दीदी बोली।

      ‘‘यस दीदी।’’

      ‘‘चलो केक काटो... समय हो गया है।’’

      सुमन का हृदय धक् से रह गया। केक काटे... किंतु कैसे...?...गिरीश तो अभी आया ही नहीं... नहीं वह गिरीश की अनुपस्थिति में केक नहीं काटेगी–अतः वह संभलकर बोली–‘‘अभी आती हूं, दीदी।’’

      ‘‘अब किसकी प्रतीक्षा है हमारी प्यारी साली जी को?’’ एकाएक संजय बीच में बोला।

      ‘‘आप मुझसे ऐसी बातें न किया कीजिए जीजाजी।’’ सुमन के लहजे में हल्की-सी झुंझलाहट थी जिसे मीना ने भी महसूस किया।

      ‘‘ये क्या बदतमीजी है सुमन–क्या इसी तरह बात होती है बड़े जीजा से?’’ मीना का लहजा सख्त था। सुमन उत्तर में चुप रह गई–कुछ नहीं बोली वह। सिर्फ गर्दन झुकाकर रह गई। संजय भी थोड़ा-सा गंभीर हो गया था। अचानक मीना फिर बोली–‘‘चलो–समय होने वाला है।’’

      ‘‘अभी मेरी एक सहेली आने वाली है।’’

      इससे पूर्व कि मीना कुछ कहे दरवाजे से उसकी सहेली प्रविष्ट हुई, मीना तुरन्त स्वागत हेतु आगे बढ़ गई। संजय सुमन के पास ही खड़ा था। वह सुमन से बोला–‘‘क्यों सुमन–क्या हमसे नाराज हो?’’

      ‘‘नहीं तो–ऐसी कोई बात नहीं है।’’ सुमन गर्दन उठाकर बोली।

      ‘‘तो फिर हमसे तुम प्यार से बातें नहीं करतीं–क्या हमने तुम्हें वह उचित प्यार नहीं दिया जो एक जीजा साली को हो सकता है?’’ संजय प्यार-भरे स्वर में बोला।

      ‘‘आप तो बेकार की बातें करते हैं, जीजाजी।’’ सुमन अभी इतना ही कह पाई थी कि उसकी आंखों में एकदम चमक उत्पन्न हो गई। दरवाजे पर उसे गिरीश नजर आया–उसके साथ अनीता भी थी। वह संजय को वहीं छोड़कर तेजी के साथ उस ओर बढ़ी और अनीता का स्वागत करती हुई बोली–‘‘आओ अनीता–बहुत देर लगाई। कितनी देर से प्रतीक्षा कर रही हूं।’’ शब्द कहते-कहते उसने एक तीखी निगाह गिरीश पर भी डाली। गिरीश को लगा जैसे ये शब्द उसी के लिए कहे जा रहे हो। तभी वहां संजय भी आ गया, संजय को देखकर गिरीश ने अपने दोनों हाथ जोड़कर कहा–‘‘नमस्कार भाई साहब।’’

      ‘‘नमस्कार भई गिरीश। लगता है सुमन तुम्हीं लोगों की प्रतीक्षा कर रही थी।’’ संजय के शब्दों में छिपे व्यंग्य को समझकर एक बार को तो सुमन और गिरीश स्तब्ध रह गए, किंतु मुखड़े के भावों से उन्होंने यह प्रकट न होने दिया, तुरंत संभलकर गिरीश बोला–‘‘ये तो हमारा सौभाग्य है संजय जी कि यहां हमारी प्रतीक्षा हो रही है।’’

      फिर सुमन अनीता को साथ लेकर एक ओर को चली गई–संजय और गिरीश एक अन्य दिशा में चल दिए। सुमन ने संजय की उपस्थिति में गिरीश से अधिक बातें करना उपयुक्त न समझा था, किंतु इस बात से वह अत्यंत प्रसन्न थी कि गिरीश आ चुका था। पार्टी चलती रही।

      इतनी भीड़ में भी गिरीश और सुमन के नयन समय-समय पर मिलकर दिल में प्रेम जाग्रत करते जबकि संजय पूरी तरह उनकी आंखों में एक दूसरे के प्रति छलकता प्रेम देख रहा था और अपने संदेह को विश्वास में बदलने का प्रयास कर रहा था। अन्य प्रत्येक व्यक्ति अपने में व्यस्त था। समा यूं ही रंगीन चलता रहा–कहकहे लगते रहे–बच्चों की किलकारियों से वातावरण गूंजता रहा। सुमन और गिरीश के नयन अवसर प्राप्त होते ही मिलते रहे। अंत में– तब जबकि मीना ने समस्त मेहमानो में यह घोषणा की कि अब सुमन केक काटेगी तो सबने तालियां बजाकर उसका स्वागत किया।

      गिरीश को एक विचित्र-सी अनुभूति का अहसास हुआ। सुमन आगे बढ़ी और मेज पर रखे केक के निकट पहुंच गई। उसके दाएं-बाएं उसके मम्मी-डैडी खड़े थे। पीछे मीना और संजय–उसके ठीक सामने गिरीश था। उसने मोमबत्तियां बुझाईं और छुरी से केक काटने लगी–पहले हॉल तालियों की गड़हड़ाहट से गूंज उठा और फिर हैप्पी बर्थ डे के शब्दों से वातावरण गुंजायमान हो उठा।

      इधर तालियां बज रही थीं–सुमन को शुभकामनाएं दी जा रही थीं–समस्त और खुशियां, प्रत्येक व्यक्ति खुश। खुशी-ही-खुशी–खुशी और सिर्फ खुशी–किंतु तभी ताली बजाता हुआ गिरीश चौंक पड़ा। ताली बजाते हुए उसके हाथ जहां के तहां थम गए। उसकी निगाह सुमन पर टिकी हुई थी। उसे महसूस हुआ जैसे सुमन को कै आ रही हो–छुरी छोड़कर सुमन ने सीने पर हाथ रखा और उल्टी करनी चाही–कैसे अवसर पर उसकी तबीयत बिगड़ गई थी।

      अगले ही पल सबका ध्यान उसकी ओर आकर्षित हो गया। क्षण-मात्र में वहां सन्नाटा छा गया। सभी की निगाहें सुमन पर टिकी हुई थीं। सभी थोड़े गंभीर-से हो गए थे।

      सुमन अभी तक इस प्रकार की क्रियाएं कर रही थी मानो उल्टी करना चाहती हो। तभी उसके बराबर में खड़े उसके पिता ने उसको संभाला–मेहमान उधर लपके। मेहमानो में एक पोपली-सी बुढ़िया भी उस ओर लपकी और भीड़ को चीरती हुई सुमन तक पहुंची।

      ‘‘अरे! डॉक्टर माथुर, देखना सुमन को क्या हो गया?’’ एकाएक सुमन के पिता चीखे। उसके दोस्त। डॉक्टर माथुर, जो मेहमानो में ही उपस्थित थे उसी ओर लपके। इससे पूर्व कि माथुर वहां तक पहुँचे... पोपली-सी बुढ़िया भली प्रकार से सुमन का निरीक्षण कर चुकी थी। एक ही पल में बुढ़िया की आँखें आश्चर्य से उबल पड़ीं। अपनी उंगली बूढ़े अधरों पर रखकर तपाक से आश्चर्यपूर्ण मुद्रा में बोली–‘‘हाय दैया... ये तो मां बनने वाली है।’’

      ‘‘क्या...ऽ...ऽ...?’’ एक साथ अनेक आवाजें। एक ऐसा रहस्योद्घाटन जिससे सभी स्तब्ध रह गए... प्रत्येक इंसान सन्न रह गया, एक दूसरे की ओर देखा मानो पूछ रहे हो... इसका क्या मतलब है? सुमन तो अविवाहित है... फिर वह मां कैसे बनने लगी...? हॉल में मौत जैसी शान्ति छा गई।

      और गिरीश! उसके हदय पर मानो सांप ही लोट गया था। उसे लगा जैसे समस्त हॉल घूम रहा है... सब घूम रहे हैं। उसकी आत्माएं उसी के हाल पर कहकहे लगा रही है... उसका दिमाग चकरा गया। उसे विश्वास कैसे हो...? ये सब क्या है...? सुमन मां बनने वाली है किंतु क्यों? कैसा अनर्थ है ये? ये कैसा रूप है सुमन का...? आखिर ये सब कैसे हो गया? सुमन के पेट में बच्चा किसका...? उसे लगा जैसे ये समाज उसके प्यार पर कहकहे लगा रहा है।उसे धिक्कार रहा है। उसे लगा जैसे वह अभी चकराकर गिर जाएगा... किंतु नहीं... वह नहीं गिरा... उसने स्वंय को संभाला... उसका गिरना इस समय उचित न था।

      सुमन के माता-पिता, बहन और संजय सभी उस पोपली बुढ़िया की सूरत देखते रहे... क्या कभी, उनका इससे अधिक अपमान हो सकता था? नहीं कभी नहीं... इतने मेहमानों के सामने-इतना बड़ा अपमान... भला कैसे सहन करें वे? ये क्या किया सुमन ने? सुमन ने समाज में उसके जीने के रास्ते ही बन्द कर दिए।

      एक क्षण के लिए समस्त हॉल आश्चर्य के सागर में गोते लगाता रहा। सबको इस पोपली-सी बुढ़िया का विश्वास था क्योंकि वह शहर की मशहूर दाई थी। नारी को एक ही नजर में देखकर वह बता देती थी कि यह कब तक मां बन जाएगी।

      माथुर के कदम भी अपने स्थान पर स्थिर हो गए। सुमन को भी बुढ़िया के वाक्य से एक झटका-सा लगा। भय से वह कांप गई, मन की चोट से भयभीत हो गई... उल्टी मानो एकदम ही बंद हो गई। तभी उसके पिता ने उसे एक तीव्र धक्का दिया और चीखे– ‘‘ये तूने क्या किया?’’ सुमन धड़ाम से फर्श पर गिरी।

      गिरीश का हृदय मानो तड़प उठा। सभी मूर्तिवत खड़े थे। सुमन फूट-फूटकर रोने लगी। सुमन के पिता की आँखें शोले उगलने लगीं। पिता तो मानो क्रोध में पागल ही हुए जा रहे थे। क्रोध से थर-थर कांप रहे थे। आंखें आग उगल रही थीं, वे सुमन की ओर बढ़े और चीखे– ‘‘तू मेरी बेटी नहीं हो सकती कमीनी।’’

      सुमन की सिसकारियां क्षण-प्रतिक्षण तीव्र होती जा रही थी। गिरीश तो शून्य में निहारे जा रहा था मानो वह खड़ा-खड़ा पत्थर का बुत बन गया हो, उसे जैसे कुछ ज्ञान ही न हो, मानो उसका शव खड़ा हो।

      ‘‘कमीनी... जलील... कुल्टा... कुतिया।’’ आवेश में सुमन के पिता जोर से चीखे–‘‘बोल किसका है ये पाप? कौन है वो कमीना जिसके साथ तूने मुंह काला किया?’’ साथ ही उन्होंने सुमन के बाल पकड़कर ऊपर उठाया।

      उफ! कैसा जलालत से भरा हुआ चेहरा था सुमन का। लाल... आंसुओं से भरा–क्या यह वही सुमन थी जिसे गिरीश देवी कहता था? जिसकी वह पूजा करता था। क्या यही रूप है आधुनिक देवी का? कैसा कठोर सत्य है यह? कैसा मासूम मुखड़ा? और ऐसा जघन्म पाप... देखने में लगती देवी... किंतु कार्य में वेश्या। सूरत कितनी गोरी... किंतु दिल कितना काला? क्या यही रूप है आज की भारतीय नारी का? ऐसे जघन्य अपराध के बाद भला किसे उससे प्यार होगा? कौन उसे सहानुभूति की दृष्टि से देखेगा? नहीं–किसी ने उसका साथ नहीं दिया।

      तड़ाक– उसके पिता ने उसके गाल पर एक तमाचा मारा। उसके बाल पकड़कर जोर से झंझोड़ा और चीखे–‘‘किसका है ये पाप–बता–वर्ना मैं तेरे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा।’’ लेकिन सुमन कुछ नहीं बोली। उसकी विचित्र-सी स्थिति थी। और फिर मानो उसके पिता पागल हो गए–खून उनकी आंखों में उतर आया–राक्षसी ढंग से उन्होंने सुमन को बेइन्तहा मारा–कोई कुछ न बोला–सब मूर्तिवत-से खड़े रहे–अचानक उसके पिता के दोनों पंजे उसकी गर्दन पर जम गए तथा वे चीखकर बोले–‘‘अंतिम बार पूछता हूं जलील लड़की... बता ये पाप किसका है?’’

      किंतु सुमन का उत्तर फिर मौनता ही थी–उसके पिता क्रोध से पागल हुए जा रहे थे। सुमन किसी प्रकार का प्रतिरोध भी नहीं कर रही थी, फिर सुमन की गर्दन पर उसके पिता की पकड़ सख्त होती चली गई, सुमन की सांस रुकने लगी, मुखड़ा लाल हो गया, नसों में तनाव आ गया। उसके पिता का गुस्सा सातवें आसमान पर था, वे एक बार फिर दांत भींचकर बोले–‘‘अब भी बता दे कौन है वो–किसका है यह पाप?’’

      ‘‘मेरा!’’ एकाएक सबने चौंककर गिरीश की ओर देखा... वह आगे बोला–‘‘हां... मेरा है ये बच्चा। जिसको आप पाप कह रहे हैं–मैं उसका पिता हूं।’’ ये शब्द कहते समय गिरीश का चेहरा भाव रहित था। पत्थर की भांति सपाट और सख्त। सभी चौंके थे–सबने गिरीश की ओर देखा, मुंह आश्चर्य से खुले के खुले रह गए।

      अनीता अपने भाई को देखती ही रह गई–कैसा भावरहित सख्त चेहरा।

      सुमन ने स्वयं चौंककर गिरीश की ओर देखा–उसे लगा ये गिरीश वह गिरीश नहीं है–पत्थर का गिरीश है। उसके वाक्य के साथ ही सुमन के पिता की पकड़ सुमन के गले से ढीली पड़ गई–खूनी निगाहों से उन्होंने गिरीश की ओर देखा, गिरीश मानो अडिग चट्टान था।

      खूनी राक्षस की भांति वे सुमन को छोड़कर गिरीश की ओर बढ़े किंतु गिरीश ने पलक भी नहीं झपकाई, तभी मानो सुमन में बिजली भर गई, वह तेजी से लपकी और गिरीश के आगे जाकर खड़ी हो गई, न जाने उसमें इतना साहस कहां से आ गया कि वह चीखी– ‘‘नहीं डैडी–अब तुम इन्हें नहीं मार सकते–अब ये ही मेरे पति हैं–मेरे होने वाले बच्चे के पिता हैं, इनसे पहले तुम्हें मुझे मारना होगा।’’

      ‘‘हट जाओ–इस कमीने के सामने से।’’ वे बुरी तरह दहाड़े और साथ ही सुमन को झटके के साथ गिरीश के सामने से हटाना चाहा किंतु सुमन ने कसकर गिरीश को पकड़ लिया था।

      ‘‘हम दोनों की शादी मंदिर में हो चुकी है... हम पति-पत्नी हैं।’’ इस बार गिरीश बोला। न जाने वह किन भावनाओं के वशीभूत बोल रहा था। चेहरे पर तो कोई भाव न थे।

      ‘‘हम बालिग हैं डैडी... मुझे अपना पति चुनने का पूरा अधिकार है, मैं गिरीश को अपना पति चुनती हूं।’’

      उफ...! कैसी यातनाएं थीं ये बेटी की बाप को... क्या कोई बेटी अपने बाप को इस भरे समाज में इतना अपमानित कर सकती है। नहीं... उसके पिता इतना अपमान सहन न कर सके। उनकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। सारा वातावरण उन्हें घूमता-सा नजर आया। वे चकराए और धड़ाम से फर्श पर गिरे।

      ‘‘डैडी...ऽ...ऽ...!’’ सुमन बुरी तरह चीखी और अपने पिता की ओर लपकी।

      ‘‘ठहरो...।’’ एकाएक उसकी मम्मी चीखी... उनका चेहरा भी पत्थर की भांति सख्त था–तुम इन्हें हाथ नहीं लगाओगी। भाग जाओ यहां से।’’

      सुमन ठिठक गई इस बीच माथुर लपककर उसके पिता को देख चुके थे, वे बोले–‘‘ये बेहोश हो गए हैं... किसी कमरे में ले चलो।’’ उसके बाद...! सुमन ने लाख चाहा कि अपने पिता से मिले किंतु उसे धक्के दे-देकर उस घर से निकाल दिया। उसकी बड़ी बहन मीना ने उसे ठोकर मार-मारकर निकाल दिया, मेहमानोँ ने उसे अपमानित किया। न जाने कितनी बेइज्जती करके उसे निकाल दिया गया, सुमन सिसकती रही... फफकती रही परन्तु गिरीश पत्थर की भांति सख्त था... उसकी आंखों में वीरानी थी। वह सब कुछ चुपचाप देख रहा था... बोला कुछ नहीं था। उस घर से ठुकराई हुई सुमन को वह अपने घर ले आया।

      कैसी विडम्बना थी ये... कैसा अनर्थ...? कैसा पाप...? कैसा प्रेम? कितने रूप हैं प्रेम के...? ये गिरीश का कैसा प्यार है... आखिर सुमन का क्या रूप है?... क्या वह नारी जाति पर कलंक है...? वहा कहां तक सही है? उसके मन का भेद क्या है? सब एक रहस्य था... एक गुत्थी... एक राज।

5
      गिरीश के घर का वातावरण कुछ विचित्र-सा बन गया था। कोई किसी से कुछ कह नहीं रहा था, किंतु आँखें बहुत कुछ कह रही थीं। सुमन को गिरीश वाले कमरे में पहुंचा दिया गया था। न गिरीश ने ही सुमन से कुछ कहा था न सुमन ने ही गिरीश से। वह तो बस पलंग पर घुटनों में मुंह छुपाए सिसक रही थी, फफक रही थी। उसके पास उसे सांत्वना देने वाला भी कोई न था। वह सिसकती रही...सिसकती ही चली गई। लेकिन ऐसा लगता था मानो जैसे वह उन सिसकियों के बीच से अपने जीवन के किसी महत्त्वपूर्ण निर्णय पर पहुँचने का प्रयास कर रही है।

      गिरीश...वास्तव में गिरीश का हृदय उस शीशे की भांति था जिसमें तार आ चुका हो। अब भला वह कब तक इस स्थिति में रहेगा...शीघ्र ही वह शीशा दो भागों में विभाजित हो जाएगा।

      घर के एक कोने में बैठा वह न जाने किन भावनाओं में विचरण कर रहा था, उसके नेत्रों के अग्रिम भाग में नीर तैर रहा था जो नन्ही-नन्ही बूंदों के रूप में उसके कपोलों से ढुलककर फर्श पर गिर जाता। वह समझ नहीं पा रहा था कि यह सब क्या है। जिस सुमन को उसने देवी समझकर पूजा, क्या वह इतनी नीच हो सकती है...क्या सुमन का वास्तविक रूप यही है? देवी रूप क्या उसे दिखाने के लिए बनाया गया था? क्या इसी दम पर हमेशा यार की कसमें खाया करती थी सुमन...? क्या इसी आधार पर थे सारे वादे...? क्या रूप है आज की भारतीय नारी का...? नारी!

      उफ्! वास्तव में नारी की प्रवृत्ति को आज तक कोई भी समझ नहीं सका है। नारी देवी भी होती है और वेश्या भी। नारी खुशी भी होती है और गम भी। नारी तलवार भी होती है और ढाल भी। नारी बेवफा भी होती है और वफा भी। सुमन भी तो एक नारी है...किंतु कैसी नारी...? देवी अथवा वेश्या? खुशी अथवा गम? ढाल अथवा तलवार? क्या है सुमन? उसका रूप क्या है?–क्या है वह?

      नहीं–गिरीश कुछ निर्णय नहीं कर सका–उसने तो हमेशा देवी का रूप देखा था। उसने तो कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मासूम सूरत वाली भोली-भाली लड़की वेश्या भी हो सकती है। किंतु उसके पेट में पलता लावारिश पाप उसकी नीचता का गवाह था–क्या रूप है सुमन का? क्या सुमन उसके अतिरिक्त किसी अन्य से प्यार करती थी? क्या वास्तव में उसके मन-मंदिर में कोई अन्य मूरत है? क्या सुमन किसी अन्य को पूजती है? किंतु कैसे? अगर वास्तव में वह किसी अन्य को अपना देवता मानती थी तो उससे शादी की कसमें क्यों खाईं? उससे प्रेम का नाटक क्यों? उससे मिथ्या वादे क्यों? क्यों यह सब क्यों? क्यों उसके दिल से खेला गया? क्यों उसकी भावनाओं को झंझोड़ा गया? क्यों उसे इतनी यातनाएं दी गईं?

      उसके भीतर-ही-भीतर मानो आत्माएं चीख रही थीं...उसके प्यार पर मानो अट्टहास लगा रही थीं। एक शोर-सा था उसके भीतर-ही-भीतर...उसने अपनी आत्मा की आवाज सुनने का प्रयास किया...। आत्मा चीख रही थी–

      ‘क्यों हो ना तुम बुजदिल–तुम्हें तो बड़ा विश्वास था अपने प्यार पर। बड़े गुण गाते थे सुमन के। कहां है तुम्हारा वह अटूट विश्वास? कहां गई तुम्हारी देवी सुमन? सुमन ने तुम्हारे साथ इतनी बेवफाई की। किसी अन्य मूरत को अपने मंदिर में संजोए वह तुम्हें बेवकूफ बनाती रही।’

      ‘नहीं...यह गलत है।’ वह विरोध में चीखा।

      ‘हा...हा...हा!’ आत्मा ने एक अट्टहास लगाया–‘यह गलत नहीं है...बल्कि उसने तुम्हें बेवकूफ बना दिया–उसने तुम्हें इतना बेवकूफ बना दिया कि तुम उसकी बेवफाई के बाद भी उसके लिए बदनाम हो गए। उसके पेट में पलते पाप को तुमने अपना कह दिया–जबकि वह तुम्हारा नहीं है।’

      ‘नहीं वह तो मेरा प्यार है?’

       ‘‘प्यार!’ आत्मा ने कुटिल स्वर में कहा–‘अपनी बुजदिली को तुम प्यार कहते हो? तुम सुमन के द्वारा इतने बेवकूफ बनाए गए कि तुम अपनी बेवकूफी को प्यार की आड़ देकर बुजदिली को छुपाना चाहते हो। अगर तुम इसे प्यार समझते हो तो क्यों बैठे हो यहां? उठो और सुमन से पूछो कि किसका है वह पाप? अगर तुमसे प्यार करती होगी तो क्या वह तुम्हें नहीं बताएगी?’

      ‘इस समय वह स्वयं ही बहुत परेशान है।’

      ‘पागल हो गए हो तुम...अपनी बुजदिली को इस मिथ्या और खोखले प्यार की आड़ में छुपाना चाहते हो। तुमसे अब भी सुमन के सामने जाने की शक्ति नहीं। तुम बुजदिल हो–एक मर्द होकर नारी के पास जाने से डरते हो–क्या यही है तुम्हारी मर्दानगी?...क्या यह नहीं जानना चाहोगे कि वह पाप किसका है?’

      ‘नहीं...!’ उसने फिर चीखकर आत्मा की आवाज का विरोध किया–‘मैं सुमन से प्यार करता हूं–सत्य प्रेम...सिर्फ आत्मिक प्रेम...उसके शरीर से मुझे कोई सरोकार नहीं–वह पाप किसी का भी हो, मुझे इससे क्या मतलब? मैं सिर्फ ये चाहता हूं कि वह खुश रहे–मैं क्योंकि उससे प्यार करता हूं, इस गर्दिश के समय में मैं उसे सिर्फ शरण दे रहा हूं–यहां वह देवी बनकर रहेगी। जिसकी है सिर्फ उसकी ही रहेगी।’

      ‘वाह खूब–बहुत खूब–!’ उसकी आत्मा ने व्यंग्य किया–‘खोखली भावनाओं को प्यार का नाम देते हो–सुमन!’ वह सुमन जो तुम्हें बेवकूफ बनाती रही, तुम उससे प्यार करते हो।’

      ‘हां...हां...मैं उसी सुमन से प्यार करता हूं।’ आवेश में वह चीखा।

      ‘चलो मान लिया कि तुम उसे प्यार करते हो।’ उसकी आत्मिक आवाज फिर चीखी–‘जब तुम उससे प्यार करते हो और तुममें उसके प्रति त्याग की भावना है–अथवा तुम उसे खुश देखना चाहते हो तो उठो–खड़े हो जाओ और उससे पूछो कि वह बच्चा किसका है?– उसे वास्तविक खुशी तुम्हारे में नहीं मिलेगी बल्कि उसी के साथ मिलेगी जिससे उसने प्यार किया है! अगर वास्तव में तुम उसको खुश देखना चाहते हो तो उससे पूछकर कि वह किसका बच्चा है...उसे उसके प्रेमी के पास पहुंचा दो–उन दोनों को मिला दो–बोलो कर सकते हो यह सब? है तुममें इतना साहस?’

      ‘हां, मैं उन्हें मिलाऊंगा।’

      ‘तो प्रतीक्षा किस बात की कर रहे हो? उठो और पूछो सुमन से कि वह किसे चाहती है? पूछो, अथवा तुम्हारे मन में कोई खोट है!’

      ‘नहीं–नहीं–मेरे मन में कोई खोट नहीं।’

      ‘तो फिर उठते क्यों नहीं? चलो और पूछो उससे।’

      वह आत्मिक चीखों से परास्त हो गया। वह उठा और अपने कमरे की ओर सुमन के पास चल दिया, उसने निश्चय किया था कि सुमन से पूछकर वह उन्हें मिला देगा–उसका क्या है? वह तो एक बदनसीब है। एक टूटा हुआ तारा है। बदनसीबी को ही वह गले लगा लेगा। वह कमरे में प्रविष्ट हो गया–सुमन पलंग पर बैठी घुटनों में मुखड़ा छुपाए सिसक रही थी। वातावरण भी मानो सुमन के साथ ही सिसक रहा था। धीरे-धीरे चलता हुआ गिरीश उसके पलंग के करीब आया और उसने धीमे से कहा–‘‘सुमन–!’’

      किंतु सुमन ने उत्तर में न सिर उठाया और न ही कुछ बोली। अलबत्ता उसकी सिसकियां तीव्र अवश्य हो गईं। एक ओर जहां गिरीश के दिल में सुमन की बेवफाई के कारण एक टीस थी वहां दूसरी ओर उसकी स्थिति पर उसे क्षोभ भी था। वह उसके निकट पलंग पर बैठ गया और बोला–‘‘सुमन! तुमने जो मुझे छला है तुमने जो बेवफाई का खजाना मुझे अर्पित किया है उसे तो तुम्हारा गिरीश सहर्ष स्वीकार करता है किंतु गम इस बात का है कि तुम मुझसे प्रेम का नाटक क्यों करती रहीं? क्यों नहीं मुझसे साफ कह दिया कि तुम किसी अन्य को प्यार करती हो–सच मानो सुमन, अगर तुम मुझे वास्तविकता बता देतीं तो मैं तुम्हारे मार्ग से न सिर्फ हट जाता बल्कि अपनी योग्यता के अनुसार तुम्हारी सहायता भी करता।’’

      न जाने क्यों सुमन की सिसकियां उसके इन शब्दों से और भी तीव्र हो गईं। किंतु वह रुका नहीं, बोलता ही चला गया–‘‘सुमन–ये तो अच्छा हुआ कि मैंने तुम्हें–सिर्फ प्यार किया–तुम्हारे जिस्म को नहीं–वर्ना न जाने क्या अनर्थ हो जाता।’’ सुमन उसी प्रकार सिसकती रही।

      ‘‘सुमन अब तुम बता दो कि तुम किससे प्यार करती हो, ये शिशु किसका है–सच सुमन–मैं सच कहता हूं–स्वयं को दफन कर लूंगा–स्वयं तड़प लूंगा–सारे गमों को अपने सीने से लगा लूँगा–मैं तो पहले ही जानता था कि मैं इतना बदनसीब हूं कि कोई खुशी मेरे भाग्य में नहीं, किंतु तुमसे प्यार किया है। सच सुमन, तुम्हें तुम्हारी खुशी दिलाकर मैं भी थोड़ा खुश हो लूंगा–बोलो–बोलो कौन है वो?’’

      सुमन तड़प उठी–उसकी सिसकारियां अति तीव्र हो गईं–गिरीश ने महसूस किया कि वह पश्चाताप् की अग्नि में जल रही है। कोई गम उसको चोट-कचोटकर खा रहा था। किंतु सुमन बोली कुछ नहीं–सिर्फ तड़पती रही। सिसकती रही।

      गिरीश ने फिर पूछा किंतु सिर्फ सिसकियों के उत्तर कोई न मिला, उसने प्रत्येक ढंग से पूछा किंतु प्रत्येक बार सुमन की सिसकियों में वृद्धि हो गई, उत्तर कुछ न मिला। गिरीश ने यह भी पूछा कि क्या वह अब इसी घर में रहना चाहती है लेकिन उत्तर में फिर सिसकियां थीं। सिसकियां–सिसकियां और सिर्फ सिसकियां। सुमन ने किसी बात का कोई उत्तर नहीं दिया–अंत में गिरीश निराश–परेशान... बेचैनी की स्थिति में कमरे से बाहर निकल गया।

6
      गमों की भी एक सीमा होती है...दुखों का भी एक दायरा होता है। बेवफाई की भी एक थाह होती है। किंतु नहीं...गिरीश के गमों की कोई सीमा न थी। उसके दुखों का कोई दायरा न था। प्रत्येक गम को गिरीश गले लगाता रहा था–उसका प्यार उसके सामने लुट गया–सारा शहर उस पर उंगलियां उठा रहा था। किंतु वह सबको सह गया...प्रत्येक दुख को उसने सीने से लगा लिया।

      वह बदनसीब है...यह तो वह जानता था किंतु इतना ‘बदनसीब’ है, यह वह नहीं जानता था। समस्त दुख भला उसी के नसीब में थे...प्रत्येक गम को वह सहन करता रहा था किंतु– किंतु अब जो गम मिला था। उफ...! वह तड़प उठा... मचल उठा...उसका हृदय घृणा से भर गया... एक ऐसी पीड़ा से चिहुंक उठा जिसने उसको जलाकर रख दिया। नफरत करने लगा वह नारी से...समस्त नारी जाति से।

      वह सब गमों को तो सहन कर गया किंतु अब जो गम उसे मिला... वह गमों की सीमा से बाहर था। उस गम को वह हंसता-हंसता सहन कर गया... एक ऐसी यातना दी थी सुमन नेउसे कि समस्त नारी जाति से घृणा हो गई। सुमन का वास्तविक रूप उसके सामने आ गया। किंतु कितना घिनौना था वह रूप? कितना घृणित? इस बार सुमन उसके सामने आ जाए तो वह स्वयं गला दबाकर उसकी हत्या कर दे–उस चुड़ैल का खून पी जाए। उसके मांस को चील-कौओं को खिला दे... नग्न करके उसे चौराहे पर लटका दे।

      सुमन का वास्तविक रूप देखकर उसका मन घृणा से भर गया। अपने प्यार को उसने धिक्कारा... प्यार और प्रेम जैसे नामों से उसे सख्त घृणा हो गई।

      मोहब्बत शब्द उसे न सिर्फ खोखला लगने लगा बल्कि वह उसे घिनौना लगने लगा कि प्यार शब्द कहने वाले का गला घोंट दे। सिर्फ सुमन से ही नहीं बल्कि वह समस्त नारी जाति से नफरत करने लगा। वास्तव में गिरीश जैसा ‘बदनसीब’ शायद ही कोई अन्य हो। शायद ही कोई ऐसा हो जिसे इतना गम मिला हो।

      उस दिन...जिस दिन गिरीश सुमन को लाया था, वह उसी के कमरे में बैठी सिसकती रही। उसी रात गिरीश एक अन्य कमरे में पड़ा न जाने क्या-क्या सोचता रहा था।

      सुबह को– तब जबकि वह एक बार फिर सुमन वाले कमरे में पहुंचा– बस... यहीं से वह गम और घृणा की कहानी प्रारम्भ होती है... जिसने उसके हृदय में नारी के प्रति घृणा भर दी। जिस गम ने उसका सब कुछ छीन लिया।

      हां यहीं से तो प्रारम्भ होती है वह बेवफाई की दास्तान! जैसे ही गिरीश कमरे में प्रविष्ट हुआ, वह बुरी तरह चौंक पड़ा। उसके माथे पर बल पड़ गए। संदेह से उसकी आंखें सिकुड़ गईं। एक क्षण में उसका हृदय धक से रह गया। अवाक्-सा वह उस पलंग को निहारता रह गया। जिस पर सुमन को होना चाहिए था किंतु वह चौंका इसलिए था कि अब वह पलंग रिक्त हो चुका था।

      सुमन कहां चली गई? उसके जेहन में एक प्रश्नवाचक चिन्ह बना– तभी उसकी निगाह कमरे के पीछे पतली-सी गली में खुलने वाली खिड़की पर पड़ी, वह खुली हुई थी। शायद सुमन इसी खिड़की के माध्यम से कहीं चली गई थी। खुली हुई खिड़की को वह निहारता ही रह गया।

      ‘सुमन...!’ वह बड़बड़ाया–‘सुमन तुम कहां चली गईं, तुम्हें क्या दुख थां? क्या तुम्हें मेरी इतनी खुशी भी मंजूर न थी?’ तभी उसकी नजर पलंग पर पड़े लम्बे-चौड़े कागज पर पड़ी।

      एक बार फिर चौंका वह। कागज पर कुछ लिखा हुआ था। वह दूर से ही पहचान गया, लिखाई सुमन के अतिरिक्त किसी की न थी। उसने लपककर कागज उठा लिया और पढ़। पढ़ते-पढ़ते उसका हृदय घृणा से भर गया। उसकी आंखों में जहां आंसुओं की बाढ़ आई वहां खून की नदी मानो ठहाके लगा रही थी। उफ...! कितने दुख दिए उसके पत्र ने गिरीश को...। उस पत्र को न जाने कितनी बार पढ़ चुका वह। प्रत्येक बार वह तड़पकर रह जाता। उसके हृदय पर सांप लोट जाता। गम-ही-गम...। आँसुओं से भरी आंखों से उसने एक बार फिर पढ़ा। लिखा था–

      ‘प्यारे गिरीश,
जानती हूं गिरीश कि पत्र पढ़कर तुम पर क्या बीतेगी। जानती हूं कि तुम तड़पोगे। किंतु मैं वास्तविकता लिखने में अब कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। गिरीश! इस पत्र में मैं एक ऐसा कटु सत्य लिख रही हूं जिसे ये सारा संसार जानते हुए भी अनजान बनने की चेष्टा करता है। लोग उस कटु सत्य को कहने का साहस नहीं कर पाते, किंतु नहीं...आज मैं नहीं थमूंगी...मैं उस कटु सत्य से पर्दा हटाकर ही रहूंगी। तुम जैसे भावनाओं में बहकर प्रेम करने वाले नौजवानों को मैं वास्तविकता बताकर ही रहूंगी। वैसे मैं ये भी जानती हूं कि बहुत से नौजवान मेरी बात स्वीकार भी न करें। किंतु उनसे कहूंगी कि एक बार दिल पर हाथ रखकर मेरी बात को सत्यता की कसौटी पर रखें। जो दिल कहे उसे स्वीकार करें और आगे से कभी भावनाओं में बहकर प्यार न करें।

      वास्तविकता ये है गिरीश कि तुम पागल हो। उसे प्यार नहीं कहते जो तुमने किया...मैं तुमसे मिलती थी...तुमसे प्यार करती थी...तुम पर अपनी जान न्यौछावर कर सकती थी...तुमसे शादी करना चाहती थी...हां...तुम यही सब सोचते थे, यही सब भावनाएं थीं तुम्हारी...किंतु नहीं गिरीश...नहीं। ऐसा कुछ भी न था। मैंने तुमसे प्यार कभी नहीं किया...मेरी समझ में नहीं आता है कि तुम जैसे नौजवान आखिर प्यार को समझते क्या हैं। न जाने तुम्हारी नजरों में क्या था? तुम प्यार करना जानते ही नहीं थे। तुम आवश्यकता से कुछ अधिक ही भावुक और भोले थे। आज के जमाने में तुम जैसा भावुक और भोला होना ठीक नहीं। तुम प्यार का अर्थ ही नहीं समझते। तुम सुमन को ही न समझ सके गिरीश। तुम सुमन की आंखों में झांकने के बाद भी न जान सके कि सुमन के मन में क्या है? तुम सुमन की मुस्कान में निहित अभिलाषा भी न पहचान सके। क्या खाक प्रेम करते थे तुम? नहीं जान सके कि प्रेम क्या होताहै! तुम भावुक हो...तुम भोले हो। तुम जैसे युवकों के लिए प्रेम जैसा शब्द नहीं।

      ये समाज चाहे मुझे कुछ भी कहे...तुम चाहे मुझे कुछ भी समझो किंतु आज मैं वास्तविकता लिखने जा रही हूं...कटु वास्तविकता। आज का प्यार क्या है? तुम जैसा भोला और भावुक सोचेगा कि शायद चुम्बनों तक सीमित रहने वाला प्यार प्यार कहलाता है...किंतु नहीं...मैं इसको गलत नहीं कहती...और न ही इस विषय पर कोई तर्क-वितर्क करना पसंद करती हूं लेकिन मैं उस प्यार के विषय में लिख रही हूं जो आज का अधिकांश नौजवान वर्ग करता है। तुम्हें ये भी बता दूं कि मैं वही प्यार करती थी। शायद तुम चौंको...मुझसे घृणा भी करने लगो...किंतु सच मानना ये शब्द मैं अपनी आत्मा से लिख रही हूं ये कहानी मेरी नहीं बल्कि अधिकांश प्रेमियों की है। उनकी कहानी जो इस सत्यता को व्यक्त करने का साहस नहीं रखते। किंतु तुम जैसा भोला प्रेमी आगे कभी मुझ जैसी प्रेमिका के जाल में न फंसे, इसलिए इस पत्र में सब कुछ लिख रही हूं।

      बात ये है गिरीश कि प्यार क्या होता है–इसके विषय में तुम्हारी धारणा है कि वह चुम्बनों तक सीमित रहे, तुम प्यार को सिर्फ हृदय की एक मीठी अनुभति समझते हो। सिर्फ आत्मिक प्रेम समझते हो, किंतु नहीं गिरीश नहीं...समाज में ऐसा प्रेम दुर्लभ है। प्रेम शब्द का सहारा लेकर अधिकांश युवक-युवतियां अपने उस जवानी के जोश को, जिसे वे सम्हाल नहीं पाते, एक दूसरे के सहारे दूर करते हैं।...प्रेम जवानी का वह जोश है जो एक विशेष आयु पर जन्मता है। प्रेम की आड़ में होकर प्रेमी अपनी काम-वासनाओं की सन्तुष्टि करते हैं। तुम कहोगे ये गलत है...लेकिन नहीं यह गलत नहीं एकदम सही है...अगर गलत है तो क्या तुम बता सकते हो कि लोग जवानी में ही क्यों प्रेम करते हैं।...क्यों नहीं बच्चे ये प्रेम करते...? क्यों आपस में अधेड़ जोड़ा प्यार के रास्ते पर पींगें नहीं बढ़ाता...?...क्यों आदमी आदमी से और नारी नारी से वह प्रेम नहीं करती? नहीं दे सकते गिरीश तुम इन प्रश्नों का उत्तर, नहीं दे सकते।...मैं बताती हूं...बालक बालक से इसलिए प्रेम नहीं करता कि उसके मन में पाप जैसी कोई वस्तु नहीं...उसमें जवानी का जोश नहीं...उसमें काम-वासनाओं की इच्छा या अभिलाषा नहीं। बूढ़े प्यार नहीं करते क्योंकि उनमें भी जवानी का जोश नहीं। युवक युवक से नारी नारी से प्यार नहीं करती क्योंकि इससे उनके अंदर उभरने वाले जज्बातों की पूर्ति नहीं होती–नारी को तो एक पुरुष चाहिए और आदमी को चाहिए एक नारी वक्त से पूर्व वे अपनी जवानी के ज्वार-भाटे को समाप्त कर सकें।

      सोच रहे हो कितनी गंदी हूं मैं।–कितनी बेशर्म हूं–कितनी बेहया–किंतु सोचो गिरीश, ठंडे दिमाग से सोचो कि अगर प्रेम के पीछे सेक्स की भावना न होती तो युवक और युवती–प्रेमी और प्रेमिका के ही रूप में क्यों प्यार करते–क्या एक युवती के लिए भाई का प्यार सब कुछ नहीं–क्या एक युवक के लिए बहन का प्यार सब कुछ नहीं। किंतु नहीं–यह प्यार पर्याप्त नहीं। इसलिए नहीं कि इस प्यार के पीछे सेक्स नहीं है। शायद तुम्हारा मन स्वीकार कर रहा है किंतु बाहर से मुझे कितनी नीच समझ रहे होगे। खैर, अब तुम चाहे जो समझो लेकिन मैं अपनी सेक्स भावना को...अपने जीवन के कटु अनुभव को इस पत्र के माध्यम से तुम तक पहुंचा रही हूं। वास्तव में गिरीश तुम मेरी आंखों द्वारा दिए गए मौन निमंत्रण को न समझ सके। तुम मेरी इच्छाओं को न समझ सके। मुझे एक प्रेमी की आवश्यकता तो थी, किंतु तुम जैसे सच्चे–भावुक और भोले प्रेमी की नहीं बल्कि ऐसे प्रेमी की जो मुझे बांहों में कस सके। जो मेरे अधरों का रसपान कर सके, जो मेरी इस जवानी का भरपूर आनन्द उठा सके।

      तुम्हारे विचारों के अनुसार मैं कितनी घटिया और निम्नकोटि की बातें लिख रही हूं–लेकिन मेरे भोले साजन! गहनता से देखो इन सब भावनाओं को। खैर, अब तुम जो भी समझो, किंतु मैं अपनी बात पूरी अवश्य करूंगी।

      हां, तो जैसा कि मैं लिख चुकी हूं कि मुझे ऐसे प्रेमी की आवश्यकता थी जो मुझे वह सब दे सके जो कुछ मेरी जवानी मांगती थी। अपनी इन्हीं इच्छाओं की पूर्ति हेतु मैंने सबसे पहले तुम्हें अपने प्रेमी के रूप में चुना–तुमसे प्रेम किया–अपनी आंखों के माध्यम से तुम्हें निमंत्रण दिया कि तुम मुझे अपनी बाहों में कस लो–अपनी मुस्कान से तुम्हें अपने दिल के सेक्सी भाव समझाने चाहे, किंतु नहीं–तुम नहीं समझे–तुम भोले थे ना–तुम्हें ये भी बता दूं कि इस संबंध में नारी की चाहे कुछ भी अभिलाषा रही हो–वह मुँह से कभी कुछ नहीं कहा करती–उसकी आँखें कहती हैं–उसके संकेत कहते हैं। जो इन संकेतों को समझ सके वह उसके काम का है और न समझे तो नारी उसे बुद्धू समझकर त्याग दिया करती है–क्योंकि वह तुम्हारी भांति आवश्यकता से कुछ अधिक भोला होता है।

      अब देखो मेरे पास समय अधिक नहीं रहा है। अतः संक्षेप में सब कुछ लिख रही हूं–हां तो मैं कह रही थी कि तुम मेरे संकेतों को न समझ सके–अतः मैंने दूसरा प्रेमी तलाश किया, उसने मेरी वासना शांत की–प्रेमियों की कमी नहीं है गिरीश–कमी है तो सिर्फ तुम जैसे भोले प्रेमियों की।

      मैंने तुम्हारे रहते हुए ही एक प्रेमी बनाया और उसने मेरी समस्त अभिलाषाएं पूर्ण की–किंतु गिरीश, यहां मैं एक बात अवश्य लिखना चाहूंगी कि न जाने क्यों मेरा मन तुम्हारे ही पास रहता था–मुझे तुम्हारी ही याद आया करती थी। उसकी...उस नए जवां मर्द की याद तो सिर्फ तब आती जब मेरी जवानी मुझे परेशान करती।

      अब तो समझ गए ना मेरे पेट में ये किसका पाप पल रहा है? ये मेरे उसी प्रेमी का है। अब मैं साफ लिख दूं कि सचमुच न तुम मेरे काबिल थे, और न हो सकोगे। अतः मैंने तुमसे प्यार नहीं किया। जो कुछ भी तुम्हारे साथ किया गया वह सिर्फ तुम्हारा भोलापन देखकर तुम्हारे प्रति सहानुभूति थी। मुझे जैसे प्यार की खोज थी...मुझे मेरे इस प्यारे प्रेमी ने दिया और जीवन भर देता रहेगा। अतः अब इसी के साथ यहां से बहुत दूर जा रही हूं। मुझे तुम जैसा सच्चा नहीं ‘उस’ जैसा झूठा चाहिए जो मेरी इच्छाओं को पूरी कर सके। तुम भोले हो–सदा भोले ही रहोगे–किसी भी नारी की तुम्हें सहानुभूति तो प्राप्त हो सकती है किंतु प्रेम नहीं। तुमसे मैंने कभी प्रेम नहीं किया–तुमसे वे वादे सिर्फ तुम्हारे मन की शान्ति के लिए थे। वे कसमें मेरे लिए मनोरंजन का मात्र एक साधन थीं। अब न जाने तुम मुझे कुलटा–बेवफा–चुड़ैल–डायन–हवस की पुजारिन–जैसे न जाने कितने खिताब दे डालोगे किंतु अब जैसा भी तुम समझो–मैंने इस पत्र में वह कटु सत्य लिख दिया है जिसे लिखने में प्रत्येक स्त्री ही नहीं पुरुष भी घबराते हैं। मैं बेवफा तो तब होती जब मैं तुमसे प्यार करती होती। मैंने तो तुमसे कभी वह प्यार ही न पाया जो मैंने चाहा था अतः बेवफाई की कोई सूरत ही नहीं। अब भी अगर मेरा गम करो तो तुमसे बड़ा मूर्ख इस संसार में तो होगा नहीं।
अच्छा अब अलविदा...।
      –सुमन।’

      एक बार फिर पत्र पढ़ते-पढ़ते वह तड़प उठा–उसके दिल में दर्द ही दर्द बढ़ गया। उसके सीने पर सांप लोट गया। बरबस ही उसका हाथ सीने पर चला गया और सीने को मसलने लगा मानो वह उस पीड़ा को पी जाना चाहता है किंतु असफल रहा। आँसू उसकी दास्तान सुना रहे थे। इस पत्र को पढ़कर उसके हृदय में घृणा उत्पन्न हो गई। उसने तो कभी कल्पना भी न की थी कि सुमन जैसी देवी इतनी नीच–इतनी घिनौनी हो सकती है। वह जान गया कि सुमन हवस की भूखी थी प्रेम की नहीं।

      उसे मानो स्वयं से भी नफरत होती जा रही थी। नारी का ये रूप उसके लिए नया और घिनौना था। वह नहीं जानता था कि भारतीय नारी इतनी गिर सकती है–वह प्रत्येक नारी से नफरत करने लगा, प्रत्येक नारी में उसे पिशाचिनी के रूप में सुमन नजर आने लगी–अब उसके दिल में नारी के प्रति नफरत–थी। नफरत–नफरत–और सिर्फ नफरत।

      नारी के वायदे से वह चिढ़ता था–नारी की कसमों से उसके तन-बदन में आग लग जाती थी। उसे प्रत्येक नारी का वादा सुमन का वादा लगता। क्यों न करे वह नफरत? उसकी तो समस्त भावनाएं इस नारी ने छीन ली थीं। नारी ही तो उसके जीवन से खेली थी। उसके बाद– क्या-क्या नहीं सहा उसने– समाज के कहकहे–ठोकरें–जली-कटी बातें–सभी कुछ सहा उसने। सिर्फ एक नारी के लिए गुंडा–बदमाश–आवारा–बदचलन शायद ही कोई ऐसा खिताब रहा हो जो समाज ने उसे न दे डाला हो। जिधर जाता, आवाजें कसी जातीं–जहां जाता उसे तड़पाता जाता–लेकिन यह सब कुछ सहता रहा–आँसू बहाता रहा–बहाता भी क्यों नहीं–उसने प्रेम करने का पाप जो किया था। किसी को देवी जानकर अपने मन-मंदिर में बसाने की भूल जो की थी।

      सुमन का वह जलालत भरा पत्र उसने शिव के अतिरिक्त किसी को न दिखाया। शिव को ही वास्तविकता पता थी वर्ना तो सारा समाज उसके विषय में जाने क्या-क्या धारणाएं बनाता रहा था। सब कुछ सहता रहा गिरीश–प्रत्येक गम को सीने से लगाता रहा–तड़पता रहा–

      और आज– आज जबकि इन घटनाओं को लगभग एक वर्ष गुजर चुका है–सुमन के दिए घाव उसी तरह हरे भरे हैं। वह कुछ नहीं भूला है–निरंतर तड़पता रहा है–आज भी सुमन का वह पत्र उसके पास सुरक्षित है। आज भी वह उसे पढ़ने बैठता है तो न जाने क्या बात थी कि अब उसे कुछ राहत भी मिलती है। आज भी सुमन...उसकी बातें–हृदय में वास करती हैं–चाहें वह बेवफाई की पुतली के रूप में रही हो।

      उसके बाद...सुमन को फिर कभी कहीं किसी ने नहीं देखा–गिरीश ने यह जानने की कभी चेष्टा भी नहीं की। वह जानता था कि अगर अब कभी सुमन उसके सामने आ गई तो क्रोध में वह पागल हो जाएगा। वह सोचा करता–क्या नारी इतनी गिर सकती है? सुमन, वही सुमन जो उसके गले में बांहे डालकर अपने प्रेम को निभाने की कसमें खाती थी। वही सुमन जो हमेशा कहा करती थी कि उसके लिए वह सारे समाज से टकरा जाएगी। क्या...क्या वो सब गलत था? क्या ये पत्र उसी सुमन ने लिखा है? उफ्–सोचते-सोचते गिरीश कराह उठता–रोने लगता। उसके दिल को एक चोट लगी थी–बेहद करारी चोट। गिरीश एक पुरुष–पुरुष अहंकारी होता है–अपने अहंकार पर चोट बर्दाश्त नहीं करता। पुरुष सब कुछ बर्दाश्त कर सकता है लेकिन अपने पुरुषार्थ पर चोट सहन नहीं कर सकता। उसने सुमन को क्या नहीं दिया? अपना सब कुछ उसने सुमन को दिया था। अपनी आत्मा, दिल, पवित्र विचार–सुमन को उसने अपने मन-मंदिर की देवी बना लिया था। उसने वह कभी नहीं किया जो सुमन चाहती थी–केवल इसलिए कि कहीं उसका प्यार कलंकित न हो जाए। उसने अपने प्रणय को गंगाजल की भांति पवित्र बनाए रखा–वर्ना–वर्ना वो आखिर क्या नहीं कर सकता था? सुमन की ऐसी कौन-सी अभिलाषा थी जिसे वह पूर्ण नहीं कर सकता था? ये सच है कि उसने सुमन की आंखों में झांका था। किंतु उसने सुमन की आंखों में तैरते वासना के डोरे कभी नहीं देखे। फिर–फिर–यह सब क्या था? बस–यही सोचते-सोचते उसका दिल कसमसा उठता।

      उस दिन से आज तक वह जलता रहा था–तड़पता रहा था। उसके माता-पिता ने, बहन नें दोस्तों ने–सभी ने शादी के लिए कहा था मगर शादी के नाम पर ही वह भड़क उठता। शादी किससे करता– नारी से? उस नारी से जो बेवफाई के अतिरिक्त कुछ नहीं जानती।

      उसकी आँखों के सामने तैरते हुए अतीत के दृश्य समाप्त होते चले गए, मगर मस्तिष्क में अब भी विचारों का बवंडर था। उसने अपने मस्तिष्क को झटका दिया और वापस वहां लौट आया जहां वह बैठा था।

      अंधकार के सीने को चीरती हुई, पटरियों के कलेजे को रौंदती हुई ट्रेन भागी जा रही थी। ट्रेन में प्रकाश था...सिगरेट गिरीश की उंगलियों के बीच फंसी हुई थी, जिसका धुआं उसकी आंखों के आगे मंडरा रहा था और धुएं के बीच मंडरा रहे थे उसके अतीत के वे दृश्य...एक वर्ष पूर्व की वे घटनाएं...वह तड़प उठा याद करके...एक बार फिर उसकी आँखों में आँसू तैर आए। अतीत की वे परछाइयां उसका पीछा नहीं छोड़तीं।

      सुमन हंसती और हंसाती उसके जीवन में प्रविष्ट हुई और जब गई तो स्वयं की आँखों में तो आँसू थे ही, साथ ही उसे भी जीवन-भर के लिए आँसू अर्पित कर गई। उसके बाद न तो उसने सुमन को ढूंढ़ने की कोशिश ही की और न ही सुमन मिली। अब तो वह सिर्फ तड़पता था।

      सिगरेट का धुआं निरन्तर उसके चेहरे के आगे मंडरा रहा था। गिरीश का समस्त अतीत उसकी आंखों के समक्ष घूम गया था।...उसने सिर को झटका दिया...समस्त विचारों को त्याग उतने कम्पार्टमेंट का निरीक्षण किया–अधिकांश यात्री सो चुके थे। ट्रेन निरन्तर तीव्र गति के साथ बढ़ रही थी।...उसे ध्यान आया। वह तो अपने दोस्त शेखर के पास जा रहा है...उसकी शादी में...शेखर का तार आया था। उसने सोचा कि अब वह अपने दोस्त शेखर की एक खुशी में सम्मिलित होने जा रहा है। उसे वहां उदास और नीरस नहीं रहता है। किंतु अतीत की यादें तो मानो स्वयं उसकी परछाई थीं...।

7
      सात अप्रैल का प्रभात होते-होते गिरीश अपने दोस्त शेखर के पते परपहुंच गया। वहां जाकर उसने देखा कि शेखर अच्छी-खासी एक कोठी में रहता है। अर्थात आर्थिक दृष्टि से वह प्रगति कर चुका था। उस समय वह कोठी के बाहर खड़े दरबान से शेखर के विषय में बात कर रहा था कि उसकी निगाह लॉन में पड़ी हुई कुछ कुर्सियों पर गई। वहां कुछ स्त्री-पुरुष शायद प्रभात की धूप का आनन्द उठा रहे थे। उन्हीं में ही शेखर भी बैठा था किंतु शेखर का ध्यान अभी तक उसकी ओर आकर्षित नहीं हुआ था।

      दरबान ने लॉन की ओर संकेत कर दिया, गिरीश मुस्कराकर लॉन की ओर बढ़ गया। तभी शेखर की दृष्टि उस पर पड़ गई। हर्ष से वह उछल पड़ा और एकदम गिरीश की ओर लपका।

      दोनों में से कोई कुछ न बोला किंतु दोनों की आँखों में अथाह प्रेम था। दोनों के दिलों में एक अजीब-सी खुशी की लहर दौड़ गई थी।...ये उनकी बचपन की आदत थी, ये अपने प्रेम को मुँह से बहुत कम कहते थे जबकि दिलों में अथाह प्रेम होता था। गिरीश ने अपना सामान एक स्थान पर रख दिया और दोनों दौड़कर गले मिल गए। दोनों की आँखों में प्रसन्नता के आँसू छलछला गए। गिरीश की पीठ थपथपाता हुआ शेखर बोला–‘‘मुझे विश्वास था दोस्त कि तुम अवश्य आओगे।’’

      ‘‘तेरी शादी हो और मैं ना आऊं...यह कैसे हो सकता है?’’

      ‘‘आओ...।’’ शेखर उसका हाथ थामकर खींचता हुआ बोला–‘‘मेरे दोस्तों से मिलो।’’

      शेखर गिरीश को लॉन में बिछी कुर्सियों के करीब ले गया।... शिष्टाचारवश लगभग सभी खड़े हो गए। एक अधेड़ से व्यक्ति की ओर संकेत करते बोला–‘‘मिलो... ये हैं मेरी मिल के मैनेजर बाटले...और मिस्टर बाटले, ये हैं मेरे सबसे पुराने दोस्त मिस्टर गिरीश।’’ दोनों ने हाथ मिलाए।

      उसके बाद शेखर ने गिरीश का अन्य सभी दोस्तों से परिचय कराया। फिर पूर्ण औपचारिकता निभाई गई...। कुछ देर बाद शेखर के दोस्त विदाईं लेकर चले गए, वहां रह गए सिर्फ शेखर और गिरीश...जो अपने बचपन की यादों को ताजा करके ठहाके लगा रहे थे। शेखर से मिलकर गिरीश मानो सुमन को भूल-सा गया था और शायद उसी के परिणास्वरूप एक लम्बे अरसे के पश्चात् उसके चेहरे पर हंसी आई थी।

      तभी लॉन के एक ओर बनी कंकरीट की एक सड़क पर एक कार आकर थमी...दोनों का ध्यान उस ओर आकर्षित हुआ।...गिरीश ने देखा कि कार पर जगह-जगह कागज चिपके हुए थे जिन पर ‘शेखर वेडस मोनेका’ लिखा हुआ था।

      शेखर ने उस ओर देखा और ड्राइवर को संबोधित करके बोला–‘‘क्या बात है...?’’

      ‘‘पेट्रोल खत्म हो गया, सर।’’

      ‘‘मुनीम से पैसे ले लो।’’

      तत्पश्चात ड्राइवर वहां से चला गया।

      ‘‘मेरे विचार से भाभी का नाम मोनेका है।’’ गिरीश शेखर से बोला।

      ‘‘बिल्कुल ठीक समझे...!’’ शेखर मुस्कराकर बोला।

      ‘‘अच्छा हां...एक बात याद आई।’’ गिरीश इस प्रकार उछला मानो अनायास ही उसे कुछ ख्याल आ गया हो–‘‘तुम्हें याद है आज से लगभग पांच वर्ष पूर्व हमने क्या शर्त लगाई थी?’’

      ‘‘शर्त...कैसी शर्त...?’’ शेखर आश्चर्य के साथ कुछ सोचने की मुद्रा में बोला।

      ‘‘हां...बेटे अब तुम्हें वह शर्त कब याद रहेगी, तुम्हारी शादी जो पहले हो रही है।’’

      ‘‘अरे...कहीं तुम उस सुहागरात वाली शर्त की बात तो नहीं कर रहे?’’

      ‘‘बिल्कुल, उसी की बात कर रहा हूं बेटे...याद है हमने शर्त लगाई थी कि हममें से जिसकी शादी पहले हो...सुहागरात दूसरा मनाएगा।...यानी मेरी होती तो सुहागरात तुम मनाते और अब तुम्हारी है तो शर्त के अनुसार सुहागरात मुझे मनानी है। कहो क्या विचार है?’’ मुस्कराता हुआ गिरीश बोला।

      वास्तव में पक्के दोस्त होने के नाते वे मजाक-मजाक में इस प्रकार की शर्त लगा गए थे। यूं तो यह मजाक की ही बात थी। उसमें गंभीरता का तो प्रश्न ही न था।

      ‘‘विचार ही क्या है...।’’ शेखर बोला–‘‘मैं तुम्हे सुहागरात की दावत देता हूं।’’

      ‘वैरी गुड।’ गिरीश बोला–‘‘बस तो फिर जल्दी से लाओ भाभी को...।’’

      ‘‘शादी इसी शहर से है बेटे...वह आज ही आ जाएगी।’’

      ‘‘बस तो बेटा रात को तुम लालीपाप चूसना और मैं...।’’

      ‘‘बेटे गिरीश...।’’ शेखर ने कहा–‘‘तुम बहुत सुर्ता निकले...तूने प्यार भी किया लेकिन मुझे भाभी के दर्शन एक बार भी न कराए...।’’

      शेखर के वाक्य ने गिरीश के सूखते जख्मों पर मानो स्प्रिट के फाए का काम किया। उसके हदय में एक टीस-सी उठी, तड़प उठा वह! फिर कुछ नाराजगी के भाव में बोला–‘‘शेखर...तुम उस कुतिया का नाम मेरे सामने न लिया करो।’’

      शेखर गिरीश के प्रति सुमन की बेवफाई की कहानी से परिचित था। वह जानता था कि सुमन किस तरह गिरीश की जिन्दगी में अंधेरा कर गई। वह कह तो गया किंतु उसे स्वयं कहने के बाद पश्चाताप हुआ आखिर वह यहां बेवक्त सुमन का नाम क्यों ले गया।...किंतु बात को संभालता हुआ बोला–‘‘मैं जानता हूं गिरीश कि सुमन ने तुम्हें नफरत का खजाना अर्पित किया है किंतु सच मानना दोस्त, अगर मैं उसे देख लेता तो अपने हाथों से उसकी जान ले लेता।’’

      खैर...बात अधिक आगे न बढ़ सकी।...यही बस हो गई...विषय बदल गया। उसके बाद...।

      संपूर्ण रस्मों के साथ शादी हुई...मोनेका भी किसी सेठ की लड़की थी। शायद शेखर से अधिक ही धनी थे वे लोग। दहेज के रूप में इतना सब कुछ दिया गया कि देखने वाले दंग रह गए।

8
      सुहागरात...। कैसी विचित्र शर्त लगाई थी इन मित्रों ने...शादी शेखर की–पत्नी शेखर की और सुहागरात मनानी थी गिरीश को–सुहागरात का वक्त आया–गिरीश ने विचित्र से प्यार और व्यंग्य भरी दृष्टि से शेखर को देखा और बोला–‘‘कहो बेटा–क्या इरादे हैं?’’

      ‘‘सुहागरात तुम्हीं मनाओगे–लेकिन ये ध्यान रखना कि मोनेका अपने पति को पहचानती है।’’

      ‘‘उसकी तुम चिन्ता मत करो।’’

      ‘‘तो फिर मेरी ओर से तुम पूर्णतया स्वतंत्र हो।’’

      ‘‘ओके–तो बेटा–मैं चलता हूं और तुम तारे गिनो।’’ गिरीश ने कहा।

      दोनों के अधरों पर मुस्कान थी। कितना आत्मविश्वास था उन्हें एक-दूसरे पर। ठीक तभी...। जबकि गिरीश उस कमरे में प्रविष्ट हुआ जिसमें मोनेका सुहाग-सेज पर लाज की गठरी बनी अपने देवता की प्रतीक्षा कर रही थी।

      इधर शेखर कमरे का हाल देखने सीधा रोशनदान पर पहुंचा–रोशनदान से उसने देखा कि गिरीश अंदर प्रविष्ट हुआ–सबसे पहले उसने अंदर से चटकनी लगा दी। उसने रोशनदान से देखा कि आहट सुनकर मोनेका अपने आप में सिमट गई।

      शायद वह यही अनुमान लगा रही थी कि आने वाला शेखर है। गिरीश सुहाग सेज के निकट पहुंचा–सबसे पहले उसने अपना कोट उतारा। अभी तक गिरीश ने मोनेका का मुखड़ा न देखा था क्योंकि वह लाज के पर्दे में थी। और स्वयं उसने तो देखा ही न था कि आने वाला उसका पति नहीं–कोई अन्य है। शेखर रोशनदान से सब कुछ देख रहा था–उसके अधरों पर मुस्कान थी। इधर गिरीश ने कोट एक ओर सोफे पर डाला और मोनेका के अत्यंत निकट आ गया–वह और करीब आया–उधर रोशनदान में खड़े शेखर की धड़कने तीव्र हो गईं।

      अचानक गिरीश मोनेका के अत्यंत निकट पहुँचकर बोला–‘‘मुझसे इस पर्दे की जरूरत नहीं भाभी जी, मैं आपसे छोटा हूं।’’ भीतर-ही-भीतर शायद मोनेका चौंकी–किंतु प्रत्यक्ष में वह उसी प्रकार बैठी रही। आखिर लाजवान दुल्हन जो थी। गिरीश का वाक्य सुनकर शेखर के अधरों पर एक गर्वीली मुस्कान उभर आई। इधर गिरीश पलंग के नीचे–किंतु मोनेका के निकट बैठकर बोला–‘‘अभी शेखर नहीं आया है–मैं अपनी प्यारी भाभी का मुखड़ा देखूंगा तब उस नालायक को आपके पास आने की अनुमति दूँगा।’’ मोनेका उसी प्रकार गुमसुम बैठी रही।

      गिरीश ने जेब में हाथ दिया और जेब में से कुछ निकालकर बोला–‘‘भाभी...मुंह दिखाई में मैं इससे अधिक कुछ नहीं दे सकता।’’ गिरीश ने कहा और वह वस्तु शेखर के फोटो के अतिरिक्त कुछ भी न थी, मोनेका की गोद में डालकर बोला–‘‘भगवान से सिर्फ ये कामना करता हूं कि आपका सुहाग जन्म-जन्मान्तर तक चमचमाता रहे।’’ भीतर ही भीतर गिरीश के वाक्य पर मोनेका तो गद्गद हो गई साथ ही साथ रोशनदान में खड़ा शेखर भी अपने प्रति गिरीश का प्रेम देखकर प्रफुल्लित हो उठा–‘‘अब चांद के ऊपर से बादलों का यह आवरण तो हटा दो भाभी।’’ गिरीश का संकेत मोनेका के मुखड़े से था। मोनेका चुपचाप बैठी रही। तभी गिरीश ने हाथ बढ़ाया और धीमे से घूंघट हटाने लगा...मोनेका ने कोई विरोध भी नहीं किया। घूंघट हट गया, गिरीश ने चांद के दर्शन किए...मोनेका लाज से सिर झुकाए चुपचाप बैठी थी।

      किंतु...उस चांद को देखते ही...मोनेका के मुखड़े पर दृष्टि पड़ते ही, गिरीश के पैरों के तले से मानो धरती खिसक गई। वह इस बुरी तरह से चौंका मानो हजारों, लाखों बिच्छुओं ने उसे डंक मार दिया हो। एक पल के लिए तो वह अवाक्-सा रह गया...आँख फाड़े मोनेका का चेहरा देखता रहा। उसकी आँखें आश्चर्य से फैल गईं। मानो वह पत्थर का बुत बन गया था। वास्तव में उसे लगा, संसार का सर्वश्रेष्ठ आश्चर्य देख रहा हो...अचानक फिर जैसे उसे होश आया।

      उसका समस्त चेहरा क्रोधावस्था में कनपटी तक लाल हो गया। आंखें अंगारे उगलने लगीं। क्रोध से वह कांपने लगा...मानो वह भयंकर राक्षस के रूप में परिवर्तित होता जा रहा था। एकाएक वह उछलकर खड़ा हो गया। भयानक स्वर में वह चीखा–‘‘तुम! सुमन तुम यहां...डायन, कमीनी...तुम यहां। मेरे दोस्त की पत्नी। तुम यहां कैसे? तुम आखिर चाहती क्या हो?’’

      अचानक रूप-परिवर्तन पर मोनका भी चौंक पड़ी...एकदम वह समस्त लाज भुलाकर आश्चर्य के साथ गिरीश को देखने लगी...इससे पूर्व कि वह कुछ समझ सके, अचानक गिरीश ने उसकी कलाई थामकर बड़ी बेरहमी के साथ उसे झटका देकर उठाया और... चटाक– एक जोरदार थप्पड़ मोनेका के गाल से टकराया...मोनेका अवाक रह गई, कुछ न समझ सकी वह। इधर रोशनदान में उपस्थित शेखर भी बुरी तरह चौंका, वह तुरंत रोशनदान से हट गया और दौड़कर कमरे के दरवाजे पर आया...किंतु दरवाजा बंद था। अतः वह जोर से थपथपाता हुआ चीखा–‘‘खोलो...खोलो गिरीश दरवाजा खोलो।’’

      किंतु गिरीश– उफ...! गिरीश तो मानो पागल हो गया था...राक्षसी हवस उसकी आंखों से झांक रही थी। उसने मोनेका को एक थप्पड़ मारकर ही बस नहीं कर दी...उसने मोनेका को पकड़कर झंझोड़ दिया...इस समय वह खतरनाक लग रहा था–मोनेका को झंझोड़ता हुआ वह चीखा–‘‘तुमने मुझे बर्बाद कर दिया...अब मेरे दोस्त को बर्बाद करना चाहती हो। लेकिन नहीं सुमन नहीं। मैं कभी ऐसा नहीं होने दूंगा...तुम लड़की नहीं हो...गंदी नाली की गंदगी में रेंगता वह कीड़ा हो जो सिर्फ गंदगी में ही रह सकता है...तुम लड़की नहीं हो, हवस की पुजारिन हो...तुम नहीं जानती प्यार क्या होता है...तुम्हें तो अपनी काम-वासनाओं की पूर्ति चाहिए...नहीं...नहीं...अपने बाद मैं अपने दोस्त को तुम्हारे हाथों बर्बाद न होने दूंगा–न जाने किस तरह धोखा देकर तुमने यह जगह ग्रहण कर ली है–भाग जाओ सुमन–तुम अब भी चली जाओ यहां से–वर्ना मैं तुम्हारा खून कर दूंगा।’’ आवेश में वह चीखा।

      मोनेका के चेहरे पर ऐसे भाव थे मानो वह गिरीश को पहचानती ही न हो। मानो वह उसके मुख से निकलने वाले शब्दों से कुछ अनुमान लगाना चाहती हो किंतु वह किसी प्रकार का भी निर्णय निकालने में असमर्थ रही–अंत में वह धीमे से बोली–‘‘आप कौन हैं–और मुझे सुमन क्यों कह रहे हैं?’’

      ‘‘क्या कहा?’’ उसके उपरोक्त वाक्य पर तो गिरीश मानो चिहुंक उठा, उसका क्रोध सातवें आसमान पर पहुंच गया। वह बुरी तरह चीखा–‘‘क्या कहा तुमने? मैं कौन हूं? तुम सुमन नहीं हो कमीनी–जलील–जलालत की सीमा से बाहर जा रही हो तुम। तुम इतनी गिर सकती हो–तुम इतनी घिनौनी और मतलबी भी हो–ये मैंने कभी सोचा भी न था। तुम्हारा जीवित रहना न जाने कितने युवकों के लिए खतरनाक है–नहीं–मैं तुम्हें नहीं छोडूंगा–तुम्हारी जान अपने हाथों से लूंगा।’’

      मोनेका का भोला-भाला मुखड़ा यूं ही मासूम बना रहा, ऐसा लगता था जैसे वह गिरीश की किसी बात का मतलब न समझ रही हो। अभी वह कुछ समझ भी न पाई थी एकाएक वह चौंकी–गिरीश का बड़ा और शक्तिशाली पंजा उसकी पतली गर्दन पर आ जमा–पंजे का दबाव क्षण-प्रतिक्षण बढ़ता जा रहा था। मोनेका को लगा जैसे ये राक्षस वास्तव में उसकी हत्या कर डालेगा, अतः वह बुरी तरह घबराई। गिरीश के पंजे से निकलने हेतु वह छटपटाई किंतु असफल रही–गिरीश की पकड़ किसी राक्षस की तरह सख्त थी। अंत में प्रयास करके वह जोर से चीखी और फिर बचाओ-बचाओ पुकारने लगी।

      इधर शेखर निरंतर चीख-चीखकर दरवाजा पीट रहा था, किंतु दरवाजा न खुला–तभी उसने अंदर से गिरीश के चीखने के बाद मोनेका की चीख और बचाओ-बचाओ की आवाज़ें उसके कानों में पड़ीं। भयानक खतरे को वह तुरंत भांप गया, वह जान गया कि अंदर गिरीश पागल हो गया है। वह इस स्थिति में मोनेका की हत्या भी कर सकता है। किंतु उसने सोचने में अधिक समय व्यर्थ न किया–जोर-जोर की आवाजें और चीखें सुनकर कोठी में उपस्थित मेहमान और नौकर इत्यादि दौड़ आए थे। शेखर ने चीखकर उन्हें दरवाजा तोड़ देने का आदेश दिया था। अंदर गिरीश तो मानो गिरीश ही न रहा था–भयानक राक्षस बन गया था। उसने न सिर्फ मोनेका की चीखों को नजर अंदाज कर दिया बल्कि दरवाजे पर पड़ने वाली निरन्तर चोटे भी उस पर कोई प्रभाव न डाल सकीं। उसके पंजे मोनेका की गर्दन पर कसते ही चले गए। चीखने की शक्ति क्षीण पड़ गई। उसकी सांस-क्रिया थमने लगी–मुखड़ा लाल हो गया–आंखों की नसों में तनाव आ गया। गिरीश बड़ी बेहरमी के साथ गला घोंटता ही जा रहा था। वह तो शायद मोनेका की जान ही ले लेता लेकिन ठीक उस समय जब मोनेका की आंखें मिचने लगीं–कमरे का दरवाजा टूट गया, शेखर के साथ अन्य नौकर और मेहमान उस ओर झपटे। बड़ी कठिनाई से खींच-तानकर सबने गिरीश को अलग किया।

      शेखर ने लपककर मोनेका को संभाला जो चकराकर गिरने ही वाली थी। नौकर इत्यादि ने गिरीश को पकड़कर खींचा किंतु गिरीश निरन्तर अपनी सम्पूर्ण शक्ति का प्रयोग करके उनके बंधनों से निकलने का प्रयास करता हुआ जोर-जोर से चीख रहा था–‘‘छोड़ दो मुझे–मैं इसका खून कर दूंगा, ये डायन है–चुड़ैल है।’’

      ‘‘क्या बक रहे हो, गिरीश? ये क्या पागलपन है?’’ शेखर चीखा।

      ‘‘शेखर–शेखर मेरे दोस्त, खून कर दो इस कमीनी का–ये सुमन है–वही सुमन जिसने मुझे इस स्थिति तक पहुँचा दिया–अब ये तुम्हें बर्बाद कर देगी।’’

      ‘‘पागल मत बनो, गिरीश।’’ शेखर मोनेका को संभालता हुआ बोला–‘‘ये सुमन नहीं है–ध्यान से देखो इसे–ये मोनेका है–तुम्हारी सुमन भला यहां कैसे आ सकती है?’’

      ‘‘नहीं-नहीं दोस्त, मैं इस नागिन को लाखों में पहचान सकता हूं, यह सुमन है–यह वही जहरीली नागिन है जिसने मुझे डस लिया–अब ये नागिन तुम्हें डसेगी।’’

      ‘‘इसे कमरे में बंद कर दो।’’ शेखर ने नौकरों को आदेश दिया।

      इधर मोनेका का बेहोश जिस्म शेखर के हाथों में झल रहा था और उधर नौकर गिरीश को लगभग घसीटते ले जा रहे थे। किंतु गिरीश निरन्तर चीखे जा रहा था–‘‘ये सुमन है–मैं इसे पहचानता हूं–यह जहरीली नागिन है–ये सुमन है–ये सुमन है।’’ किंतु किसी ने उसकी बात पर कोई विशेष ध्यान न दिया। उसकी स्थिति पागलों जैसी हो गई थी।

9
      मोनेका के अचेत होते ही डॉक्टर दौड़ पड़े। मोनेका को होश में लाया गया। यूं तो उसकी स्थिति साधारण ही थी किंतु गिरीश की बातों से उसके मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा था। लेकिन खतरे की कोई बात न थी। उसके होश में आने पर शेखर ने उससे पूछा–‘‘क्या तुम मेरे दोस्त को पहचानती हो?’’

      ‘‘नहीं–मैंने आज से पूर्व उन्हें कभी नहीं देखा लेकिन वे मुझे सुमन क्यों कह रहे थे? वे मुझे इतने गंदे-गंदे शब्द क्यों कह रहे थे?’’ मोनेका धीमे स्वर में बोली।

      ‘‘उसका बुरा मत मानना मोनेका–वह अनेक गमों का मारा हुआ है। सुमन नामक किसी लड़की ने उसे नफरत का खजाना अर्पित किया है। वह अत्यंत दुखी है मोनेका–शायद ही जमाने में कोई उससे अधिक ‘बदनसीब’ रहा हो–न जाने कितने दुख उठाए हैं उसने–तुम्हें उसकी बातों का बुरा नहीं मानना है मोनेका। वह प्यार का भूखा है–अपने प्यार से उसके गम को भुला दो–वह मेरा दोस्त है–बहुत प्यारा है वह। मन का बहुत साफ। तुम उसके गम को भुला दो।’’

      ‘‘क्या कहानी है उनकी?’’

      ‘‘उसकी कहानी तुम धीरे-धीरे जान जाओगी–इस समय तुम ये जान लो कि वह एक बदनसीब इंसान है–जो प्यार के अभाव में पागल-सा हो गया है। शायद वह भाभी का प्यार पाकर अपने अतीत के गमों को भूल जाए–शायद वह जीवन में कभी खुश हो सके।’’

      ‘‘लेकिन वे तो मुझे देखते ही चीखते हैं।’’

      ‘‘ये मैं भी अभी नहीं समझ सका हूं कि वह तुम्हें सुमन क्यों कह रहा है? मैं अभी उसके पास जा रहा हूं और उससे बातें करता हूं।’’ कहकर शेखर उठा।

      ‘‘पहले तो वे बहुत प्यारी-प्यारी बातें कर रहे थे, किंतु न जाने क्यों वे मेरी सूरत देखते ही चीखने लगे।’’

      ‘‘कहीं ऐसा तो नहीं मोनेका कि तुम्हारी सूरत सुमन से मिलती हो?’’

      ‘‘आप उन्हीं से बात करें!’’

      ‘‘अच्छा मैं चलता हूं।’’ कहकर शेखर, उस कमरे से बाहर निकल गया। अब उसका लक्ष्य वह कमरा था जिसमें नौकरों ने गिरीश को बंद कर दिया था। जब शेखर बाहर से दरवाजा खोलकर अंदर प्रविष्ट हुआ तो गिरीश उसकी ओर लपका जो अब तक बेचैनी के साथ कमरे में इधर-उधर टहल रहा था। वह शेखर को देखकर प्रसन्नता से झूम उठा। लपककर उसने शेखर को गले से लगा लिया और बोला–‘‘शेखर–मेरे दोस्त तुम ठीक तो हो।’’

      ‘‘क्यों–मुझे क्या हुआ था?’’

      ‘‘शेखर विश्वास करो तुम्हारी बीवी मोनेका के रूप में वह नागिन सुमन है। मैं उसे ठीक से पहचान गया हूं, मेरा विश्वास करो शेखर–वह सुमन है।’’

      ‘‘लगता है गिरीश तुम्हें बहुत बड़ा धोखा हो रहा है, वह मोनेका है, वह तुम्हें नहीं पहचानती। वह भला सुमन कैसे हो सकती है?’’

      ‘‘नहीं, शेखर नहीं–चाहे कुछ भी हो–मेरा विश्वास करो–वह सुमन ही है। न जाने कौन-सी चाल चल रही है वह नागिन–शेखर मैंने उसे पास से देखा है–मैंने कभी उस नागिन को अपनी भावनाओं से चाहा है–उसे पहचानने में मैं कभी भूल नहीं कर सकता।’’

      ‘‘तुम पागल हो गए हो–होश की दवा करो।’’

      शेखर गिरीश की बार-बार एक ही रट पर झुंझला गया था। ‘‘आखिर उस जहरीली नागिन ने तुम पर भी कर ही दिया जादू।’’

      ‘‘गिरीश!’’ इस बार शेखर कुछ कड़े लहजे में बोला–‘‘अब मोनेका मेरी पत्नी है, तुम निराधार उसको अपशब्द नहीं कह सकते।’’

      ‘‘शेखर, मेरे शेखर–अब तुम्हारा समय भी नजदीक आ गया है। अब तुम भी बर्बाद हो जाओगे–मैं फिर कहता हूं कि यह जहरीली नागिन है जिसे तुम दूध पिला रहे हो।’’

      ‘‘मेरी समझ में नहीं आता कि तुम आखिर चाहते क्या हो? क्या तुम पर कोई आधार है जिससे तुम ये सिद्ध कर सको कि मोनेका ही सुमन है?’’

      ‘‘आधार–!’’ अचानक गिरीश उछल पड़ा और वह बोला–‘‘हां–आधार है–मेरी अटैची कहां है–लाओ मेरी अटैची लाओ।’’

      गिरीश की अटैची उसी कमरे में रखी थी। शेखर ने अटैची निकालकर गिरीश के सामने डाल दी और बोला–‘‘निकालो–किसी आधार पर तुम मोनेका को सुमन कह रहे हो?’’

      गिरीश ने एक बार शेखर की ओर देखा और फिर अटैची खोलकर उसकी जेब से एक फोटो निकाला और शेखर की ओर उछाल दिया और बोला–‘‘लो देख लो–ये है सुमन।’’

      शेखर ने फोटो उठाकर देखा तो स्तब्ध रह गया–अवाक-सा वह उस फोटो को देखता रह गया। उसकी आंखों में गहन आश्चर्य उभर आया। फोटो वास्तव में सौ प्रतिशत मोनेका का ही था। कहीं भी हल्का-सा भी तो परिवर्तन नहीं था। उसकी समझ में नहीं आया कि यह सब रहस्य क्या है।

      ‘‘क्या वास्तव में ये तुम्हारी सुमन का फोटो है?’’

      ‘‘पहचान लो इस नागिन को–यही है सुमन, क्या तुम्हारी मोनेका ये नहीं है।’’

      ‘‘लेकिन गिरीश–मोनेका का भोलापन–उसकी बातें, तुम्हारे लिए कहे गए उसके शब्द मुझसे चीख-चीखकर कह रहे हैं कि वह धोखेबाज नहीं हो सकती? वह मासूम कली, भला इतनी फरेबी कैसे हो सकती है?’’ शेखर फोटो से नजरें हटाकर गिरीश की ओर देखता हुआ बोला।

      ‘‘इसी मासूम मुखड़े ने तो मेरे मनको जीता था दोस्त! इसकी इन्हीं भोली-भाली बातों ने तो मुझे अपना बना लिया था। इसकी इसी सादगी के कारण तो मैं इसकी ओर आकर्षित हुआ था। ये सब कुछ धोखा है शेखर–नारी का एक खूबसूरत धोखा। जिसमें मैं तो आ गया किंतु तुम्हें किसी भी स्थिति में नहीं आने दूंगा–ये भोलापन, ये प्यारा मुखड़ा, ये सादगी–सब कुछ धोखा है–मर्द को छलने के ढंग हैं। तुम उसे मेरे पास भेज दो–मैं अपने हाथ से उसका खून करूंगा।’’

      ‘‘तुम फिर पागलपन की सीमाओं की ओर बढ़ते जा रहे हों।’’

      ‘‘नहीं शेखर–क्या तुम्हें अब भी विश्वास नहीं कि तुम्हारी मोनेका और मेरी सुमन एक ही नागिन है। एक ऐसी जहरीली नागिन जिसने न केवल मुझे बरबाद किया बल्कि इस बीच न जाने कितनों के जीवन से खेली होगी अब वह तुम्हें डसना चाहती है। अगर वक्त पर मैं न देख लेता तो वास्तव में इस कुतिया के हाथों तुम भी बरबाद हों जाते। अब अगर तुम बच जाओगे तो हवस की पुजारिन अन्य किसी भोले युवक को अपनी हवस का शिकार बनाएगी–नहीं छोडूंगा...।’’

      ‘‘गिरीश–कभी-कभी संसार में दो सूरतें बिल्कुल एक जैसी भी पाई जाती हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि ये भी कुछ ऐसा ही चक्कर हो।’’

      न जाने क्यों शेखर को अब भी विश्वास नहीं आ रहा था कि मोनेका का भोला मुखड़ा धोखा दे सकता है। अतः वह प्रत्येक संभव ढंग से यह सोचने का प्रयास कर रहा था कि मोनेका सुमन नहीं है।

      ‘‘तुम्हारी आंखों के सामने इस समय शायद–‘डबल रोल’ वाली फिल्म अथवा उपन्यास घूम रहे हैं।’’ गिरीश व्यंग्यात्मक लहजे में बोला–‘‘मेरे दोस्त, ये सिर्फ बोगस फिल्में और उपन्यास की कल्पित बातें होती हैं–वास्तविक जीवन में ऐसा नहीं हुआ करता–वास्तविक जीवन में अगर होता है तो सिर्फ इतना कि कभी-कभी दो चेहरे एक से हो जाते हैं–उन्हें अलग-अलग देखकर तो भ्रांति हो जाती है किंतु अगर दोनों को आस-पास खड़ा कर दिया जाए तो स्पष्ट पता लगता है कि कौन क्या है?–मेरा मतलब है–कहीं न कहीं किसी न किसी बात में अंतर अवश्य होता है।’’

      ‘‘तभी तो कहता हूं–ऐसा हो सकता है कि सुमन और मोनेका की सूरत मिलती हो। हमारे पास सुमन का फोटो जो है जिससे हम मोनेका को मिला रहे हैं–जीती-जागती सुमन तो नहीं है।’’

      ‘‘पता नहीं तुम्हें क्यों विश्वास नहीं हो रहा है कि ये ही सुमन है। देखना–क्या फोटो में ये निशान ठीक वैसा नहीं है जैसा मोनेका के चेहरे पर है–क्या इस निशान में लेशमात्र भी अंतर है और वैसे भी यह चोट का निशान है–क्या दोनों के यहीं चोट लगनी थी?’’

      ‘‘पता नहीं मुझे क्यों विश्वास नहीं हो रहा है?’’ शेखर विचारता हुआ बोला। वैसे इस बार वह गिरीश की बात से प्रभावित हुआ था क्योंकि वास्तव में फोटो में और मोनेका के चेहरे में तिल-भर का भी अंतर न था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर ये सब है क्या?

      ‘‘क्या वह यह कह रही है कि वह सुमन नहीं है?’’

      ‘‘हां!’’

      ‘‘तो फिर चलो–उसी से पूछेंगे कि ये फोटो किसका है?’’

      ‘‘चलते हैं, किंतु एक शर्त पर–’’

      ‘‘क्या?’’

      ‘‘यही कि तुम मेरे संकेत के बिना कुछ नहीं कहोगे और स्वयं को होश में रखोगे।’’

      ‘‘मैं सहमत हूं–चलो।’’

      उसके बाद गिरीश ने अटैची से एक वस्तु और निकालकर जेब में डाल ली और सुमन के कमरे की ओर चल दिए। एक विचित्र-सी गुत्थी में उनका मस्तिष्क उलझ गया था। तब जबकि वे दोनों मोनेका वाले कमरे में पहुंचे तो मोनेका बिस्तर पर उठकर बैठ चुकी थी। उन दोनों को आता देख वह सचेत हो गई।

      सुमन के चेहरे पर दृष्टि पड़ते ही गिरीश के दिल ने चीखना चाहा–उसका चेहरा गिरीश को बड़ा भयानक लग रहा था–सुमन इस समय उसे कोई राक्षसी नजर आ रही थी। उसका मन कह रहा था कि आगे बढ़कर वह उस खूबसूरत नागिन का गला दबा दे किंतु नहीं–उसने कुछ न किया–उस समय उसने अपनी समस्त भावनाओं का गला घोंट दिया। स्वयं संयम किया और शेखर के साथ आगे बढ़ गया। उन दोनों की तीक्ष्ण निगाहें प्रत्येक पल उसके मुखड़े पर जमी हुई थीं। शेखर की निगाहों में तो फिर भी कुछ प्रेम था किंतु गिरीश की निगाहें तो अत्यंत क्रूर थीं...मानो वह मोनेका को आंखों ही आंखों में पी जाने का इरादा रखता हो। उसे तीव्र घृणा हो रही थी सुमन के चेहरे से किंतु अंदर की ज्वाला को उसने इतना न भड़कने दिया कि शब्दों के माध्यम से वह कुछ कहे।

      वह शांत किंतु खतरनाक दृष्टि से उसे निहार रहा था। शेखर की निगाहें भी उसी पर गड़ी थीं। वह शायद उसके चेहरे को पढ़कर सत्य-मिथ्या का पता लगाना चाहता था किंतु उसके चेहरे पर गजब की मासूमियत थी। जिसके कारण यह बात उसके कंठ से नहीं उतर रही थी कि मोनेका ही सुमन है।

      ‘‘ऐसे क्या देख रहे हैं आप दोनों?’’ बड़े धीमे से मोनेका ने निस्तब्धता भंग की। उसका लहजा अत्यंत कोमल, मासूम और मधुर था किंतु गिरीश को ठीक ऐसे लगा मानो कोई भयानक घरघराती आवाज में सुमन उसकी स्थिति पर खिल्ली उड़ा रही हो। लेकिन फिर भी वह कुछ नहीं बोला। सिर्फ खूनी निगाहों से उसे देखता रहा। उनके इस तरह देखने पर वह थोड़ा-सा घबरा गई, उसका हलक सूख गया। उसे उन दोनों से भय लगने लगा। सूखे अधरों पर वह जीभ फेरकर बोली–‘‘आप लोग इस प्रकार क्यों घूर रहे हैं–क्या चाहते हैं मुझसे?’’

      ‘‘तो तुम सुमन नहीं हो।’’ शेखर उसे बुरी तरह घूरता हुआ बोला।

      ‘‘क्या आपको भी कोई गलतफहमी हो गई है–आप तो पिछले छः महीने से मुझे जानते हैं–मुझसे प्यार करते हैं–क्या आप भी यह कहना चाहते हैं कि मैं मोनेका नहीं सुमन हूं?’’

      ‘‘अगर तुम सुमन नहीं हो तो बताओ कि ये फोटो किसका है–और गिरीश के पास कहां से गया?’’ शेखर ने कुछ कड़े स्वर में कहा और फोटो उसकी गोद में फेंक दिया। गिरीश शान्त खड़ा रहा–उसके अधरों पर ऐसी जहरीली मुस्कान थी, मानो उसने इस लड़की को कोई अपराध करते रंगे हाथों पकड़ लिया हो।

      मोनेका ने धीरे से वह फोटो उठाया और देखा–शेखर और गिरीश की तीक्ष्ण निगाहें प्रत्येक क्षण उसके मुख पर जमी हुई थीं और उन्होंने फोटो देखते समय उसके मुखड़े पर उत्पन्न होने वाले चौंकने के भावों को स्पष्ट देखा–फिर आश्चर्य से मोनेका का मुंह खुल गया। दोनों में से कोई भी यह निश्चय करने में असफल रहा कि उसके चेहरे पर उत्पन्न होने वाले ये भाव वास्तविक हैं अथवा उन्हें धोखा देने के लिए खूबसूरत और सफल अभिनय है।

      कुछ देर तक वह सुमन के फोटो को देखती रही और फिर उनकी ओर देखकर बोली–‘‘ये फोटो तो मेरा ही लगता है–किंतु...।’’

      ‘‘किंतु...क्या?’’ इस बार शेखर आवेश में बोला।

      वह शेखर के इस प्रकार चीखने से घबरा गई और बोली–‘‘किंतु मैंने इस पोज में कभी कोई फोटो नहीं खिंचवाया।’’

      ‘‘फिर यह कहां से आ गया?’’

      ‘‘मैं नहीं जानती...।’’

      ‘‘तुम वास्तव में सरासर धोखा हो।’’ शेखर चीखा–‘‘तुम्हारे ये खोखले उत्तर तुम्हारे मन में छुपे चोर को स्पष्ट कर रहे हैं–तुम्हारी बातों से पता लगता है कि तुम्हीं सुमन हो।’’

      ‘‘उफ्...! ये कैसा षड्यंत्र रचा जार हा है मेरे विरुद्ध।’’ मोनेका एकदम सिसककर बोली–‘‘सच मानो शेखर, मैं सुमन नहीं हूं–मैं तुम्हारी सौगंध खाती हूं–ये मेरे विरुद्ध कोई षड्यंत्र रचा जा रहा है–नहीं शेखर, मैं सुमन नहीं हूं–मैं मोनेका हूं–तुम्हारी मोनेका।’’

      शेखर को लगा जैसे मोनेका ठीक कह रही है–उसने मोनेका की आंखों के अग्रिम भाग में तैरते आंसू देखे तो पिघल गया–औरत के आंसू तो अंतिम और शक्तिशाली हथियार होते हैं। शेखर भी उन आंसुओं का विरोध न कर सका। उसे जैसे ये आंसू मोनेका के सच्चे होने के प्रमाण हैं। वास्तव में उसके विरुद्ध कोई षड्यंत्र रचा जा रहा है। अतः वह एकदम गिरीश की ओर घूम गया। गिरीश के होंठों पर जहरीली मुस्कान थी–बड़े व्यंग्यात्मक ढंग से शेखर को देखता हुआ बोला– ‘‘क्यों, प्रभावित हो गए ना इस नागिन के आंसू देखकर?’’ उसके ये शब्द सुनकर मोनेका की सिसकियां बंद हो गईं।

      ‘‘गिरीश, मैंने तुमसे कहा था कि कोई अपशब्द प्रयोग नहीं करोगे।’’

      ‘‘मान गया दोस्त कि वास्तव में औरत के आंसू आदमी को अंधा बना देते हैं। सभी प्रमाण इसके विरुद्ध हैं, किंतु फिर भी तुम्हें संदेह है कि ये सुमन नहीं है लेकिन दोस्त झूठ अधिक देर तक नहीं चल सकता। सत्य की किरण मिथ्या के अंधकार को ठीक इस प्रकार चीर डालेंगी जैसे रजनी के अंधेरे को प्रभात का सूर्य...। चलो एक बार को मैं भी मानता हूं कि ये लड़की सुमन नहीं लेकिन मेरे पास अंतिम वस्तु ऐसी है जिससे दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।’’

      ‘‘क्या?’’

      ‘‘वैसे तो दोस्त, ये भी नहीं हो सकता कि दो सूरते इस हद तक एक हों किंतु अगर तुम ये संभावना व्यक्त करते हो तो थोड़ी देर के लिए मान लेता हूं कि मोनेका सुमन नहीं किंतु ये तो तुम मानोगे कि एक-सी दो सूरत वालों की ‘राइटिंग, एक-सी नहीं हो सकती।’’

      ‘‘वैरी गुड–ये मानता हूं ‘राइटिंग’ एक-सी नहीं हो सकती, क्या तुम्हारे पास सुमन का कुछ लिखा हुआ है?’’

      शेखर को विश्वास हो गया कि दो इंसानों की राइटिंग एक-सी नहीं हो सकती।

      ‘‘उसका लिखा ‘प्रमाण’ तो अभी तो मेरे पास है दोस्त! जिसने मेरे हृदय में नारी के प्रति नफरत भर दी, जिसने मेरे सामने नारी को नग्न कर दिया। जो मेरे जीवन में सबसे अधिक महत्त्व रखता है।’’

      ‘‘फिर तो लिखवाओ मोनेका से कुछ।’’

      ‘‘पता नहीं आप क्यों मुझे सुमन सिद्ध करना चाहते हैं–लाइए पैन और कागज–बोलिए क्या लिखूं?’’ इस बार मोनेका सिसकती हुई बोली। उसके बाद...।

      मोनेका से एक कागज पर बहुत कुछ लिखवाया था। मोनेका के लिखे कागज को सुमन के पत्र से मिलाया गया जो गिरीश ने पहले ही अटेची से निकालकर जेब में रख लिया था। उस समय शेखर की आंखें आश्चर्य से फैल गईं जब उसने मोनेका और सुमन की राइटिंग में लेशमात्र भी अंतर नहीं पाया। ठीक उसके विपरीत गिरीश के अधरों पर विजय की गर्वीली मुस्कान थी।

      ‘‘मोनेका...ये राइटिंग सिद्ध करती है कि तुम्हीं सुमन हो।’’

      यह कहकर शेखर ने उसके लिखे कागज के साथ-साथ सुमन का पत्र भी उसकी ओर बढ़ा दिया।...मोनेका ने...जब देखा तो हैरत से उसकी आंखें भी फैल गईं...आश्चर्य के साथ वह बोली–‘‘ओह माई गॉड...ये सब क्या है...ये राइटिंग तो मेरी है लेकिन ये पत्र मैंने कभी नहीं लिखा। इस पर पड़ा हुआ ये नाम भी मेरा नहीं है...? ये सुमन कौन है जिसकी राइटिंग तक मुझसे मिलती है...कौन ये सुमन...?

      ‘‘अब अधिक चालाक बनने की कोशिश मत करो मोनेका...ये पूरी तरह सिद्ध हो चुका है कि तुम्हीं सुमन हो।...उसके विरोध में तुम्हारी दलीलें, तुम्हारे विरोध सभी खोखले हैं...एक ओर तुम ये भी स्वीकार करती हो कि ये राइटिंग तुम्हारी है लेकिन दूसरी ओर तुम सुमन होने से इंकार करती हो जिसने स्वयं ये पत्र लिखा है–अब तुम्हारा ये ढोंग समाप्त हो चुका है जलील लड़की...अच्छा ये है कि अब तुम भी ये स्वीकार कर लो कि तुम्हीं सुमन हो।...वैसे अब तुम्हारे स्वीकार अथवा अस्वीकार करने से कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि इस अंतिम परीक्षा ने संदेह की कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी है–अब तुम्हारी कोई भी चालाकी चल नहीं सकती।’’ शेखर कठोर होकर बोला।

      ‘‘अब मैं आपको कैसे समझाऊं कि मैं नहीं जानती कि यह सब क्या है? ये सुमन कौन है?’’

      ‘‘मोनेका उर्फ सुमन! ये शीशे की भांति साफ हो चुका है कि तुम्हीं सुमन हो–ये माना कि तुम एक चालाक लड़की हो किंतु समस्त सुबूत स्पष्ट हो जाने के बाद जो चालाकी तुम दिखा रही हो वह खोखली है–उसमें कोई तत्त्व नहीं रह गया है–अब तुम्हें पुलिस के हाथों में सोंपने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं है।’’ शेखर उसे धमकाता हुआ बोला।

      ‘‘पता नहीं आप लोग मुझे क्यों सुमन बनाना चाहते हैं...मुझे पुलिस-वुलिस में देने से पहले मेरे डैडी को बुला दीजिए। वे ही आपको बताएंगे कि मैं उनकी बेटी मोनेका हूं अथवा तुम्हारी सुमन।’’ वह सिसकती-सी बोली।

      तत्पश्चात–
वे दोनों लाख प्रयास करते रहे कि वह स्वयं कह दे कि वह सुमन है–उन्होंने समस्त ढंग अपनाए किंतु उसने नहीं कहा कि वह सुमन है। वह यही कहती रही कि वह मोनेका है और सुमन नाम की किसी लड़की से परिचित तक नहीं है। न जाने क्यों उसका भोला मुखड़ा देखकर शेखर के कंठ से ये बात नीचे नहीं उतर रही थी कि ये मासूम लड़की इतना बड़ी फ्रॉड हो सकती है। किंतु उसकी सूरत–उसकी राइटिंग–। उलझन...उलझन और...अधिक उलझन...।

10
      मोनेका...।
मोनेका खिलती हुई कली थी जिसमें भावनाएं होती हैं–अपने सुनहरे भविष्य के स्वप्न होते हैं। किंतु साथ ही यह वह आयु भी है जिससे अगर भावनाओं को ठेस लग जाएतो दिल टूट जाता है। हल्के से झटके से सुनहरे भविष्य के स्वप्न छिन्न-भिन्न हो जाते हैं।

      मोनेका में भी अपनी आयु के अनुसार वे सब भावनाएं विद्यमान थीं–उसे वर मिला था–शेखर के रूप में मनचाहा वर...उसके स्वप्नों का शहजादा। उसने भी दिल ही दिल में न जाने कितने अरमान सजाए थे?...सुहागरात के विषय में जब वह सोचती थी तो एक विचित्र-सी मिठास का अनुभव करती थी। कितनी बेताबी से प्रतीक्षा की थी उसने इस रात की–इस रात की कल्पना करके उसका दिल तेजी से धड़कने लगता था–किंतु–
किंतु उसकी सुहागरात–
यानी आज की रात– उसके न सिर्फ समस्त सपने, उसकी भावनाएं, उसकी कल्पनाएं ही छिन्न-भिन्न हो गईं बल्कि क्या-क्या नहीं कहा गया। उसे न सिर्फ दुख हुआ बल्कि इस बात का क्षोभ भी हुआ कि शेखर को भी उस पर विश्वास नहीं है। कुछ विचित्र-सी घटनाएं पेश आईं उसके जीवन में–

       गिरीश ने तो जब से उसकी सूरत देखी तब से क्या-क्या नहीं कहा?–किंतु वह संतुष्ट रही कि उसका देवता तो उसके पक्ष में है किंतु जब शेखर ने भी उसे एक से एक कटु वचन कहा–उसे झूठी साबित किया–उस पर से विश्वास उठा लिया तो वह तड़प उठी–सिसक उठी वह–उसका हृदय पीड़ाओं से भर गया। किंतु एक तरफ उसे इस बात पर गहन आश्चर्य भी था कि आखिर ये सुमन कौन है जिसकी न सिर्फ सूरत उससे मिलती है बल्कि राइटिंग भी ठीक वही है–लेकिन ये सोचने से अधिक वह अपना भविष्य सोच रही थी।

      जिस रात के लिए उसने इतनी मधुर-मधुर कल्पनाएं की थीं उसी रात उसकी इतनी जिल्लत–उसका इतना अपमान–नहीं–वह मासूम कली सहन न कर सकी। उसके नन्हे-मुन्ने से, प्यारे और मासूम दिल को एक ठेस लगी–अपमान की एक तीव्र ठेस।

      गिरीश और शेखर कमरे से बाहर जा चुके थे। वह फफक-फफककर रो पड़ी–आंसुओं से उसका मुखड़ा भीग गया–सुहाग सेज पर बैठी वह रोती रही। न जाने उसके दिल में कितने विचारों का उत्थान-पतन हो रहा था।

      शायद कोई भी लड़की पहली ही रात को इतना अपमान सहन नहीं कर सकती। अचानक उसके दिमाग में विचार आया कि क्यों न वह इसी समय अपने पिता के पास चली जाए–वहां जाकर उनसे सब कुछ कहे। हां तभी सब कुछ ठीक हो सकता है। एक यही रास्ता है जिससे वह शेखर को अपने सच्चे होने का विश्वास दिला सकती है, उसे लगा जैसे अगर अब वह यहां रही तो ये गिरीश नामक शेखर का दोस्त उसे सुमन समझकर उसकी हत्या कर देगा। वास्तविकता तो ये थी कि उसे गिरीश पर सबसे अधिक क्रोध आ रहा था। वह भी उसे राक्षस जैसा लगा था–न ये होता न यह सब झगड़े होते।

      अब तो शेखर को भी उस पर विश्वास न रहा था–वह भी उसे सुमन ही समझकर उससे नफरत करने लगा है–अब क्या करे वह–? अब सिर्फ एक ही रास्ता है–वह है कि उसे अब सीधे अपने पिता के घर जाना चाहिए, उन्हें समस्त घटनाओं से परिचित कराए तभी कुछ हो सकता है–उसके पिता स्वयं इन उलझनों को सुलझा लेंगे। अब उसे जाना चाहिए–अभी इसी वक्त। किंतु कैसे?–कैसे जाए वह–?

      यह भी एक बहुत बड़ा प्रश्न था–अगर अब वह जाने के लिए शेखर से कहेगी तो शेखर उसे कभी नहीं जाने देगा। उसकी निगाहों में तो वह अब बेवफा, हवस की पुजारिन सुमन रह गई है। अब तो शेखर भी उससे घृणा कर रहा है और–और–अगर उस राक्षस गिरीश को पता लग गया कि वह अपने पिता के घर जाना चाहती है तो उसका खून ही कर देगा। वह तो उसे मार ही डालेगा–उसे याद आया उस समय का गिरीश–जब वह उसका गला घोंट रहा था–कैसी लाल-लाल आंखें, भयानक चेहरा, कितनी शक्ति से गला घोंटा था उसने? सोचते-सोचते वह भय से कांप गई। गिरीश से उसे डर-सा लगने लगा। वह भयभीत हो चुकी थी। नहीं–अगर वह जाने के लिए गिरीश से कहेगी तो वह राक्षस उसकी हत्या कर देगा–वह तो है ही उसके खून का प्यासा। तो फिर वह कैसे जाए? जाना तो उसे होगा ही। अगर न जाएगी तो ये लोग उसे सुमन ही समझते रहेंगे। लेकिन जाए तो कैसे? यही एक प्रश्न था उसके मस्तिष्क में। आखिर कैसे जाए वह? अपने गमों को भुलाकर इस समय वह सोचने में व्यस्त हो गई थी। अतः नयनों में नीर आना बंद हो गया–आंसू सूख चुके थे।

      सोचते-सोचते अचानक उसकी निगाह मेज पर पड़े पैन और एक कागज पर पड़ी। फिर जैसे उसे कुछ सूझ गया हो। उसने तुरंत दोनों वस्तुएं उठाईं और कागज पर निम्न शब्द लिखे–

      ‘मेरे प्राणनाथ शेखर! शायद ही मुझ जैसी अभागिन इस संसार में कोई अन्य हो। कैसा अभाग्य है मेरा कि इस रात जिस मुंह से मेरे लिए फूल झड़ने थे उस मुंह से कांटों की वर्षा हुई। आपका विश्वास मुझसे इतना शीघ्र उठ गया, यह मेरा अभाग्य नहीं तो क्या है? जो कदम मैं अब उठाने जारही हूं, सर्वप्रथम मैं आपके चरणों को स्पर्श करके उसके लिए क्षमा चाहती हूं।

      मेरे हृदयेश्वर, मैं आपको बिना सूचित किए और बिना आपकी आज्ञा लिए यहां से जा रही हूं। मैं जानती हूं मेरे देवता कि इससे बड़ा आपका अपमान नहीं हो सकता। किंतु यह सब करने के लिए इस समय मैं विवश हूं–न जाने क्यों आप भी मुझे सुमन समझने लगे, मैं सुमन नहीं हूं यही सिद्ध करने मुझे अपने पिता के घर जाना पड़ रहा है।

      मेरे प्राणेश्वर–ये तुच्छ विचार कदापि अपने मस्तिष्क में न लाना कि मैं पिता के घर जाकर अपना कोई बड़प्पन दिखाना चाहती हूं अथवा आपका अपमान कर रही हूं–आपके सामने मैं क्या हूं–और मेरे पिता क्या हैं? मैंतो हूं ही आपके चरणों की दासी–और मेरे पिता ने तो आपको योग्य जानकर अपनी समस्त इज्जत ही आपको सौंप दी है। अच्छा मेरे सुहाग, अब आपको मोनेका बनकर मिलूंगी।

      आपके चरणों की दासी
–मोनेका और सिर्फ मोनेका।’

      उसने शीघ्रता से यह सब लिखा और पास ही रखी मेज पर रखकर पेपरवेट से दबा दिया। फिर वह दबे पांव कमरे से बाहर आ गई। वातावरण में रात का साम्राज्य था–किंतु आज चांद भी मानो रात के सामने डट गया था। जहां रात ने अपनी स्याह चादर से वातावरण को ढांपा था वहां चांद ने अपनी चांदनी से उस अंधकार को अपनी क्षमता के अनुसार पराजित भी कर दिया था।

      वह गैलरी में आ गई। समस्त कोठी सन्नाटे में डूबी हुई थी–उसने देखा कि गैलरी के सबसे अंतिम वाले कमरे से छनता हुआ प्रकाश आ रहा था। वह जानती थी कि यह कमरा शेखर का है–उसने अनुमान लगाया कि शायद शेखर और गिरीश इस विषय पर विचार-विमर्श कर रहे हैं। किंतु इस विषय पर उसने अधिक नहीं सोचा बल्कि वह दबे पांव आगे बढ़ गई।

      उसके बाद–
इसी प्रकार सतर्कता के साथ वह सुरक्षित बाहर आ गई। बाहर आकर उसने इधर-उधर देखा और पैदल ही तेजी के साथ विधवा की सूनी मांग की भांति पड़ी सड़क पर बढ़ गई।

      रात के वीरान सन्नाटे में उसके कदमों की टक-टक दूर तक फैली चली जाती तो बड़ी रहस्यमयी-सी प्रतीत होती। अभी वह अधिक दूर नहीं चली थी कि उसने सामने से आती एक टैक्सी देखी। उसने तुरन्त संकेत से उसे रोका। टैक्सी जितनी उसके निकट आती जा रही थी उसकी गति उतनी ही धीमी होती जा रही थी।

11
      लगता था आज टैक्सी-ड्राइवर को काफी मोटा माल मिल गया था, तभी तो वह ठेके से ठर्रा न सिर्फ लगाकर आया था बल्कि आवश्यकता से अधिक चढ़ा गया था–रह-रहकर उसकी आंखें बंद होने लगतीं। यह विचार दिमाग में आते ही कि इस समय वह टैक्सी चला रहा है वह इस प्रकार चौंककर आंखें खोलता मानो अचानक उसके जबड़े पर कोई शक्तिशाली घूंसा पड़ा हो–स्टेयरिंग लड़खड़ा जाता किंतु वह फिर संभल जाता। और उस समय तो न सिर्फ उसकी आंखें खुल गईं बल्कि उसकी बांछे भी खिल गईं जब उसने मिचमिचाती आंखों से सड़क के बीचोँबीच खड़ी लाल साड़ी में लिपटी एक स्वर्गीय अप्सरा को देखा–वह उसे रुकने का संकेत कर रही थी।

      उसके अंदर की शराब बोली–‘बेटे बल्लो–आज तो मेरा यार खुदा पहलवान तुझ पर जरूरत से कुछ ज्यादा ही मेहरबान है–देख नहीं रहा सामने खड़ी अप्सरा को–यह खुदा पहलवान ने तेरे लिए ही भेजा है।’

      मोनेका के निकट पहुंचते-पहुंचतेउसने टैक्सी रोक दी और संभलकर उसने खिड़की से अपनी गर्दन निकालकर कहा– ‘‘कहां जाना है, मेम साहब?’’ उसने भरसक प्रयास किया था कि युवती यह न समझ सके कि यह नशे में है–और वास्तव में वह काफी हद तक सफल भी रहा।

      मोनेका अपने ही विचारों से खोई हुई थी, उसने ही ठीक से टैक्सी ड्राइवर का वाक्य भी न सुना बल्कि सीट पर बैठकर पता बता दिया। बल्लो ने टैक्सी वापस करके आगे बढ़ा दी। मोनेका सीट पर बैठते ही फिर विचारों के दायरे में घिर गई।

      इधर बल्लो परेशान हो गया–एक तो पहले ही शराब का नशा और ऊपर से मोनेका के सौन्दर्य का नशा। वह तो मानो अपने होशोहवास ही खोता जा रहा था। उसके दिमाग में ऊल-जलूल विचार आ रहे थे। उसे न जाने क्या सूझा कि वह एक हाथ छाती पर मारकर लड़खड़ाते स्वर में बोला–‘‘कहो मेरी जान, लाल छड़ी–यार के पास जा रही हो या आ रही हो?’’

      मोनेका एकदम चौंक गई–उसके दिमाग को एक झटका-सा लगा–वह विचारों में इतनी खोई हुई थी कि उसने सिर्फ यह अनुभव किया कि टैक्सी ड्राइवर ने कुछ कहा है–किंतु क्या कहा है यह वह न सुन सकी। अतः चौंककर वह कुछ आगे होकर बोली–‘‘क्या...?’’

      ‘‘मैंने कहा मेरी जान, कम हम भी नहीं हैं।’’ बल्लो एक हाथ से उसे पकड़ता हुआ बोला।

      मोनेका सहमी और चौंककर पीछे हट गई। उस समय गाड़ी एक मोड़ पर थी...बल्लो का सिर्फ एक हाथ स्टेयरिंग पर था...मोनेका के सौन्दर्य के नशे में वह मोड़ के दूसरी ओर से बजने वाले हॉर्न का उत्तर भी न दे सका बल्कि लड़खड़ाती-सी चाल से उस मोड़ पर मुड़ गया। तभी दूसरी ओर से आने वाली कार पर उसकी दृष्टि पड़ी।...सामने वाली कार वेग की दृष्टि से अत्यंत तीव्र थी और उसके काफी निकट भी पहुंच चुकी थी। बल्लो ने जब मौत को इतने निकट से देखा तो हड़बड़ा गया...उसने स्टेयरिंग संभालने का प्रयास किया किंतु कार लड़खड़ाकर रह गई।...सामने वाली कार को वह झलक के रूप में सिर्फ एक ही पल के लिए देख सका...अगले ही पल...।

      अगले ही पल तो तीव्र वेग से दौड़ती कार उसकी टैक्सी से आ टकराई। एक तीव्र झटका लगा...कानों के पर्दो को फाड़ देने वाला एक तीव्र धमाका हुआ?...प्रकाश की एक चिंगारी भड़की...पेट्रोल हवा में लहराया।...साथ ही आग के शोले भी।

      यह एक भयंकर एक्सीडेंट था। दोनों कारें आग की लपटों से घिरी हुई थीं। देखते-ही-देखते वह स्थान लोगों की भीड़ से भर गया। शीघ्र ही पुलिस और फायर ब्रिगेडरों ने स्थिति पर काबू पाया।

12
      लगभग सुबह के चार बजे...।
अचानक सेठ घनश्यामदास के सिरहाने रखी मेज पर फोन की घंटी घनघना उठी।...रात क्योंकि देर से सोए थे अतः वे घंटी सुनकर झुंझला गए। किंतु जब घंटी ने बंद होने का नाम ही नहीं लिया तो विवश होकर उन्हें रिसीवर उठाना ही पड़ा और आंख मींचे-ही-मींचे वे अलसाए-से स्वर में बोले–‘‘कौन है...क्या मुसीबत है...?’’

      ‘‘आप सेठ घनश्यामदास बोल रहे हैं ना।’’ दूसरी ओर से आवाज आई।

      ‘‘यस...आप कौन हैं?’’ वे उसी प्रकार आंख बंद किए बोले।

      ‘‘मैं मेडिकल हॉस्पिटल से डॉक्टरशर्मा बोल रहा हूं...।

      ‘‘ओफ्फो! यार शर्मा...ये भी कोई समय है फोन करने का।’’ सेठजी झुंझलाए।

      ‘‘घनश्याम, तुम्हारी बेटी जबरदस्त दुर्घटना का शिकार हो गई है।’’

      ‘‘क्या बकते हो?’’ सेठ घनश्याम की आंखें एक झटके के साथ खुल गईं–‘‘आज शाम तुम्हारी उपस्थिति में ही तो उसे विदा किया है।’’

      ‘‘वह तो ठीक है घनश्याम लेकिन मालूम नहीं क्यों वह इस समय वापस आ रही थी कि दुर्घटना का शिकार हो गई।...ड्राइवर की तो घटना-स्थल पर ही मृत्यु हो गई, मोनेका अभी अचेत है।’’

      ‘‘मैं अभी आया।’’ सेठजी ने फुर्ती से कहा। उनकी नींद हवा हो गई थी।उन्होंने तुरंत शेखर के नम्बर डायल किए और फोन उठाए जाने पर वे बोले–‘‘कौन बोल रहा है? जरा शेखर को बुलाओ।’’

      ‘‘जी...मैं शेखर बोल रहा हूं...मोनेका शायद वहां पहुंच गई है...मैं वहीं आ रहा हूं।’’ दूसरी ओर से शेखर का स्वर था।

      ‘‘शेखर...रास्ते में मोनेका दुर्घटना का शिकार हो गई है।’’

      ‘‘क्या...क्या...क्या कहा?’’ शेखर बुरी तरह चौंक पड़ा–‘‘कैसे?’’

      ‘‘अभी-अभी मेरे पास डॉक्टर शर्मा का फोन आया था।’’ उसके बाद सेठ घनश्यामदास ने फोन पर संक्षेप में वह सब कुछ बता दिया जो उन्हें पता था। सुनकर शेखर ने शीघ्रता से हॉस्पिटल में पहुँचने के लिए कहा और फोन रख दिया।

      संबंध विच्छेद होते ही सेठ घनश्यामदास ने ड्राइवर को जगाया और अगले ही कुछ क्षणों में उनकी कार आंधी-तूफान का रूप धारण किए हॉस्पिटल की ओर बढ़ रही थी।

      लगभग तीन मिनट पश्चात उनकी कार हॉस्पिटल के लॉन में आकर थमी।...उन्होंने लॉन में खड़ी शेखर की कार से अनुमान लगाया कि शेखर उनसे पहले यहां पहुंच चुका है। जब वे अंदर पहुंचे तो सबसे पहले उनके कदम डॉक्टर शर्मा के कमरे की ओर बढ़े...जब वे कमरे में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने देखा कि शेखर और गिरीश कुर्सियों पर बैठे बेचैनी से पहलू बदल रहे थे। गिरीश से उनका परिचय शादी के समय स्वयं शेखर ने कराया था।

      कमरे में शर्मा भी थे।...घनश्याम को देखकर तीनों उठ खड़े हुए...घनश्याम लपकते हुए बोले–‘‘कहां है मेरी बेटी?’’

      ‘‘आइए मेरे साथ।’’ शर्मा ने कहा और वे चारों कमरे से बाहर आकर तेजी के साथ लम्बी गैलरी पार करने लगे। सबसे आगे शर्मा चल रहे थे। तब जबकि वे लोग उस कमरे में पहुँचे जहां मोनेका अचेत पड़ी थी...सेठ घनश्यामजी अपनी बेटी की ओर लपके।...गिरीश और शेखर ने मोनेका के चेहरे को देखा जो इस समय पट्टियों से बंधा हुआ था। अधिकतर चोट उसके माथे और गुद्दी वाले भाग में आई थी।...यूं तो समस्त चेहरा ही चोटों से भरा था किंतु वे कोई महत्त्व न रखती थीं। विशेष चोट उसके मस्तिक वाले भाग पर थी...उसके अन्य जिस्म पर कपड़ा ढका था। अतः चेहरे के अतिरिक्त चोटें और कहां आई हैं...ये वो नहीं देख सके थे। गिरीश और शेखर ने मोनेका के चोटग्रस्त, शांत, भोले और मासूम मुखड़े को देखा और फिर एक-दूसरे की ओर देखकर रह गए।

      ‘‘डॉक्टर...अधिक चोट आई है क्या...?’’ सेठ घनश्यामदास ने प्रश्न किया।

      ‘‘भगवान का धन्यवाद अदा करो घनश्याम कि मोनेका बच गई वर्ना टैक्सी ड्राइवर और दूसरी कार में बैठे दो व्यक्तियों की तो घटना-स्थल पर ही मृत्यु हो गई।’’

      ‘‘हे भगवान, लाख-लाख शुक्र है तुम्हारा।’’ सेठजी अंतर्धान-से होकर बोले।

      ‘‘वैसे कोई विशेष तो चोट नहीं आई है...सिर्फ माथे और गुद्दी में गहरी चोट लगी है।’’ डॉक्टर शर्मा ने बताया।

      ‘‘अभी दस मिनट पूर्व नर्स ने इंजेक्शन दिया होगा...मेरे ख्यालसे दो-एक मिनट में होश आ जाना चाहिए।’’ डॉक्टर शर्मा घड़ी देखते हुए बोले।

      कुछ क्षणों के लिए कमरे में निस्तब्धता छा गई, तभी सेठ घनश्याम ने निस्तब्धता को भंग किया–‘‘शेखर, मोनेका अकेली टैक्सी में घर क्यों आ रही थी?’’

      उसके इस प्रश्न पर एक बार को तो शेखर हड़बड़ाकर रह गया। उससे पूर्व कि वह कुछ उत्तर दे, वे चारों ही चौंक पड़े।...चारों की निगाह मोनेका पर जा टिकी।...चौंकने का कारण मोनेका की कराहट थी। उसके जिस्म में हरकत होने लगी।...चारों शांति और जिज्ञासा के साथ उसकी ओर देख रहेथे।

      मोनेका कराह रही थी उसके अधर फड़फड़ाए...धीरे-धीरे उसकी पलकों में कम्पन हुआ...कम्पन के बाद धीमे-धीमे उसने पलकें खोल दीं...उसे सब कुछ धुंधला-सा नजर आया।

      ‘‘मोनेका...मेरी बेटी...आंखें खोलो, देखो मैं आ गया हूं...तुम्हारा डैडी।’’ सेठ घनश्यामदास ममता भरे हाथ उसके कपोलों पर रखते हुए बोले।

      शेखर व गिरीश शांत खड़े थे।

      ‘‘घनश्याम, उसे ठीक से होश में आने दो।’’ डॉक्टर शर्मा बोले।

      सेठ घनश्याम की आंखों से आंसू टपक पड़े। ममतामयी दृष्टि से वे उसे निहार रहे थे। इसी प्रकार कराहते हुए मोनेका ने आंखें खोल दीं...चारों ओर निहारती–सी वह बड़बड़ाई–‘‘मैं कहां हूं?’’

      ‘‘तुम हॉस्पिटल में हो मोनेका...देखो मैं तुम्हारा पिता हूं तुम ठीक हो।’’

      ‘‘मेरे पिता...।’’ उसके अधरों से धीमे कम्पन के साथ निकला–‘‘नहीं...आप मेरे पिता नहीं हैं...मैं कहां हूं...अरे तुम लोगों ने मुझे बचा क्यों लिया...मुझे मर जाने दो...मैं डायन हूं...चुड़ैल हूं, मुझे मेरे पिता मार डालेंगे।’’

      ‘‘ये क्या कह रही हो तुम मोनेका...? क्या तुम इसे भी नहीं पहचानती...?’’ उन्होंने शेखर को पास खींचते हुए कहा–‘‘ये है शेखर...तुम्हारा पति।’’

      ‘‘पति...मोनेका?’’ ऐसा लगता था जैसे वह कुछ सोचने का प्रयास कर रही है...परेशान-सी होकर वह बोली–‘‘आप लोग कौन हैं ‘और ये क्या कह रहे हैं...मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई...मेरा नाम मोनेका नहीं...मैं सुमन हूं...मुझे मर जाने दो...अब मैं जीना नहीं चाहती।’’ वह बड़बड़ाई।

      ये शब्द सभी ने सुने...सभी चौंके...बुरी तरह चौके गिरीश और शेखर, उसके शब्द सुनते ही उन्होंने फिर एक दूसरे को देखा। गिरीश तुरंत लपककर उसके पास पहुंचा और बोला–‘‘सुमन...सुमन क्या मुझे पहचानती हो?’’

      ‘‘गिरीश...गिरीश!’’ उसने आश्चर्य के साथ दो बार बुंदबुदाया और फिर उसकी गर्दन एक ओर ढुलक गई...वह दोबारा अचेत हो गई थी।

      सब एक दूसरे को देखते रह गए...सभी के चेहरों पर आश्चर्य के भाव स्पष्ट थे। ‘‘डॉक्टर शर्मा...ये सब क्या है...?’’ ‘घनश्याम ने घबराते हुए प्रश्न किया।

      ‘‘इसके दिमाग में परिवर्तन हो गया है।’’ डॉक्टर शर्मा बोले।

      सभी के मुंह आश्चर्य से फटे रह गए। डॉक्टर शर्मा गिरीश से संबोधित होकर बोले–‘‘क्या तुम इसे सुमन के नाम से जानते हो?’’

      ‘‘जी हां...उतनी ही अच्छी तरह जितना एक प्रेमी अपनी प्रेमिका को जान सकता है। लेकिन सेठजी, ये क्या रहस्य है। जब इस लड़की का नाम सुमन था तो ये मोनेका कैसे बनी?’’ गिरीश ने सेठ घनश्याम से प्रश्न किया।

      ‘‘उफ...गिरीश! अब मैं ये कहानी तुम्हें कैसे सुनाऊं?’’

      ‘‘नहीं, आपको बताना ही होगा।’’

      ‘‘इस रहस्य से डॉक्टर भी परिचित हैं, उन्हीं से पूछ लो।’’ सेठ घनश्यामदास अपना माथा पकड़कर बैठ गए।

      ‘‘क्यों डॉक्टर शर्मा?’’

      ‘‘खैर नवयुवक...!’’ डॉक्टर शर्मा बोले–‘‘यूं तो सेठ घनश्याम की पत्नी हमसे कुछ वचन लेकर इस संसार से विदा हुई थी लेकिन अब जबकि इस लड़की की खोई हुई स्मृतियां वापस आ गई हैं तो उन्हें छुपाना लगभग व्यर्थ-सा ही है।...बात आज से लगभग एक वर्ष पुरानी है जब हम यानी मैं, सेठ घनश्यामदास, उनकी पत्नी पिकनिक मनाने जंगल में नदी के किनारे गए हुए थे। उस समय मैं मछली फंसाने के लिए कांटा नदीं में डाले बैठा था कि मैंने अपने कांटे में बढ़ता हुआ भार अनुभव किया। मैंने समझा...आज बहुत बड़ी मछली फंसी है।

      काफी प्रयास के बाद मैं कांटा खींचने में सफल रहा।...इस बीच मिस्टर घनश्याम और उनकी पत्नी भी मेरी ओर आकर्षित हो चुके थे। अतः ध्यान से कांटे की ओर देख रहे थे ताकि देख सकें कि वह ऐसी कौन-सी मछली है जिसे खींचने में इतनी शक्ति लगानी पड़ रही है। लेकिन जब हमने कांटा देखा तो वहां मछली के स्थान पर एक लड़की को देखकर चौंक पड़े।...काफी प्रयासों के बाद हम लोगों ने उसे बाहर खींचा...डॉक्टर मैं था ही, तुरन्त उसकी चिकित्सा की और मैंने उसे होश में लाया। होश में आने पर लड़की ने ये कहा कि ‘मैं कहां हूं...? मैं कौन हूं...?’ उसके दूसरे वाक्य यानी ‘मैं कौन हूं’ ने मुझे सबसे अधिक चौंकाया। अतः मैंने तुरन्त पूछा–‘क्या तुम नहीं जानतीं कि तुम कौन हो?’’ उत्तर, में लड़की ने इंकार में गर्दन हिला दी।...मैं जान गया कि नदी में गिरने की दुर्घटना के कारण लड़की अपनी स्मृति गंवा बैठी है।...मैंने घनश्याम की ओर देखा और बोला–‘ये लड़की अपनी याददाश्त गंवा बैठी है।’

      ‘क्या मतलब...?’ दोनों ही चौंककर बोले थे।

      ‘मतलब ये कि अब इसे अपने पिछले जीवन के विषय में कोई जानकारी नहीं है...इसे नहीं पता कि ये कौन है?...इसका नाम क्या है...? कहां रहती है...? कौन इसके माता-पिता हैं?...सब कुछ भूल गई है ये। इसे कुछ याद नहीं आएगा...ये समझो कि ये इसका नया जीवन है।’

      ‘सच शर्मा...क्या ऐसा हो सकता है।’ सेठजी की पत्नी ने पूछा था।

      ‘हां...ऐसा हो सकता है।’ मैंने उत्तर दिया था।

      ‘डॉक्टर...हमारे पास इतनी धन-दौलत है किंतु संतान कोई नहीं...क्या संभव नहीं कि हम लोग इस लड़की को अपनी बेटी बनाकर रखें?’

      ‘इस समय तो इस लड़की को बिल्कुल ऐसी समझो जैसे बालक...इसे जो बता दो वही करेगी... इसका जो नाम बता दोगे बस वही नाम निर्धारित होकर रह जाएगा।’

      इस प्रकार हम लोगों ने इस लड़की का नाम मोनेका रखा। उसे तथा सभी मिलने वालों को ये बताया कि वह अब तक इंग्लैंड में पढ़ रही थी। उसे बता दिया गया कि उसके पिता सेठ घनश्यामदास जी हैं और मां घनश्यामदास की पत्नी।...इस रहस्य को हम तीनों के अतिरिक्त कोई नहीं जानता था। इस घटना के केवल दो महीने बाद सेठजी की पत्नी का देहावसान हो गया किंतु मृत्यु-शैय्या पर पड़ी वे हम दोनों से ये वचन ले चलीं कि हम लोग इस रहस्य को रहस्य ही बनाए रखेंगे और बड़ी धूमधाम के साथ इसका विवाह करेंगे। अभी तक हम उन्हें दिए वचन को निभा रहे थे कि वक्त ने फिर एक पलटा खाया और कार एक्सीडेंट वाली दुर्घटना से उसकी खोई स्मृतियां फिर से याद आगई हैं। मेरे विचार से अब उसे उस जीवन की कोई घटना याद न रहेगी जिसमें यह मोनेका बनकर रही है।’’

      ‘‘विचित्र बात है।’’ सारी कहानी संक्षेप में सुनकर शेखर बोला।

      ‘‘मिस्टर गिरीश!’’ शर्मा उससे संबोधित होकर बोला–‘‘क्या तुम आज से एक वर्ष पहले यानी जब ये सुमन थी, उसके प्रेमी थे?’’

      ‘‘निसन्देह।’’

       ‘‘तो मुझे लगता है कि इस कहानी के पीछे अपराधी तुम्हीं हो।’’

      ‘‘क्योँ...आपने ऐसा क्यों सोचा।’’ गिरीश उलझता हुआ बोला।

      ‘‘मेरे विचार से तुमने सुमन को प्यार में धोखा दिया, क्योंकि जब हमने इसे नदी से निकाला था तो यह गर्भवती थी जिसे बाद में मैंने गिरा दिया था। वैसे मोनेका के रूप में इसे पता न था कि वह एक बच्चे की मां भी बन चुकी है। मेरे ख्याल से वह बच्चा तुम्हारा ही होगा।’’

      डॉक्टर शर्मा के ये शब्द सुनकर गिरीश का हृदय फिर टीस से भर गया...सूखे घाव फिर हरे हो गए। उसके दिल में एक हूक-सी उठी...तीव्र घृणा फिर जाग्रत हुई...उसकी आंखों के सामने एक बार फिर बेवफा सुमन घूम गई...एक बार फिर वही सुमन उसके सामने आ गई थी जो नारी के नाम पर कलंक थी सुमन का वह गंदा पत्र फिर उसकी आंखों के सामने घूम गया।

      अब उसे सुमन से कोई सहानुभूति-नहीं थी...यह तो वह जान चुका था कि मोनेका के रूप में वह जो कुछ कह रही थी, जो कुछ कर रही थी, इसमें उसकी कोई गलती न थी किंतु गिरीश भला उस सुमन को कैसे भूल सकता है जिसने उसे नफरत का खजाना अर्पित किया? जिसने उसे बर्बाद कर दिया। वह उस गंदी, बेवफा और घिनौनी सुमन को कैसे भूल सकता था? उसे तो सुमन से नफरत थी...गहन नफरत।

      और आज–
आज एक वर्ष बाद भी डॉक्टर शर्मा सुमन के कारण ही कितने बड़े अपराध का अपराधी ठहरा रहा था। उसकी आंखों में क्रोध भर आया, उसका चेहरा लाल हो गया। उसका मन चाहा कि आगे बढ़कर अचेत नागिन का ही गला घोंट दे। वह आगे बढ़ा किंतु शेखर ने तुरंत उसकी कलाई थामकर दबाई...फिलहाल चुप रहने का संकेत किया। गिरीश खून का घूंट पीकर रह गया।

      डॉक्टर शर्मा के अधरों पर एक विचित्र मुस्कान उभरी...ये मुस्कान बता रही थी कि उन्होंने गिरीश की चुप्पी का मतलब अपराध स्वीकार से लगाया है। अतः वे गिरीश की ओर देखकर बोले–‘‘मिस्टर गिरीश...अपने दोस्त के पास आकर तुम सुमन से मिले किंतु विश्वास करो, मोनेका के रूप में वह तुम्हें नहीं पहचानती थी लेकिन अब जबकि वह अपनी पुरानी स्मृतियों में वापस आ गई है तो वह तुम्हारे अतिरिक्त हममें से किसी को नहीं पहचानेगी। अतः अब तुम्हें मानवता के नाते सुमन को अपनाकर उसके घावों पर फोया रखना होगा। होश में आते ही तुम उससे प्यार की बातें करोगे ताकि उसके जीवित रहने की अभिलाषा जाग्रत हो।...तुम्हें सुमन को स्वीकार करना ही होगा।’’

      गिरीश का मन चाहा कि वह चीखकर कह दे–‘प्यार की बातें...और इस डायन से, इसके होश में आते ही मैं इसकी हत्या कर दूंगा...ये नागिन है...जहरीली नागिन।’ लेकिन नहीं वह कुछ नहीं बोला। उसने अपने आंतरिक भावों को व्यक्त नहीं किया, वहीं दबा दिया...वह शान्त खड़ा रहा।

      उसके बाद...।

      तब जबकि एक इंजेक्शन देकर अचेत सुमन को फिर होश में लाया गया...उसी प्रकार कराहटों के साथ उसने आंखें खोलीं...आंखें खोलते ही वह बड़बड़ाई– ‘‘गिरीश...गिरीश...।’’

      गिरीश के मन में एक हूक-सी उठी। उसका मन चाहा कि वह चीखकर कह दे कि वह अपनी गंदी जबान से उसका नाम न ले किंतु उसने ऐसा नहीं किया बल्कि ठीक इसके विपरीत वह आगे बढ़ा और सुमन के निकट जाकर बोला–‘‘हां...हां सुमन मैं ही हूं...तुम्हारा गिरीश।’’ न जाने क्यों इस नागिन को मृत्यु-शैया पर देखकर उसका हृदय पिघल गया था। कुछ भी हो उसने तो प्यार किया ही था इस डायन को।

      गिरीश के मुख से ये शब्द सुनकर सुमन की वीरान आंखों में चमक उत्पन्न हुई...उसके अधरों में धीमा-सा कंम्पन हुआ, उसने हाथ बढ़ाकर गिरीश का स्पर्श करना चाहा किंतु तभी सब चौंक पड़े। उसका ध्यान उसी ओर था कि कमरे के दरवाजे से एक आवाज आई–‘‘एक्सक्यूज मी।’’ चौंककर सबने दरवाजे की तरफ देखा और दरवाजे पर उपस्थित इंसानों को देखकर, वे अत्यंत बुरी तरह चौंके, वहां कुछ पुलिस के सिपाही थे और सबसे आगे एक इंस्पेक्टर था। इंस्पेक्टर बढ़ता हुआ डॉक्टर शर्मा से बोला–‘‘क्षमा करना डॉक्टर शर्मा, मैंने आपके कार्य में हस्तक्षेप किया, किंतु क्या किया जाए, विवशता है। यहां एक जघन्य अपराध करने वाला अपराधी उपस्थित है।’’

      सुमन सहित सभी चौंके...चौंककर एक-दूसरे को देखा मानो पूछ रहे हों कि क्या तुमने कोई अपराध किया है? किंतु किसी भी चेहरे से ऐसा प्रगट न हुआ जैसे वह अपराध स्वीकार करता हो। सबकी नजरें आपस में मिलीं और अंत में फिर सब लोग इंस्पेक्टर को देखने लगे मानो प्रश्न कर रहे हो कि तुम क्या बक रहे हो? कैसा जघन्य अपराध? कौन है अपराधी? इंस्पेक्टर आगे बढ़ता हुआ अत्यंत रहस्यमय ढंग से बोला–‘‘अपराधी पर हत्या का अपराध है।’’

      ‘‘इंस्पेक्टर!’’ शर्मा अपना चश्मा संभालते हुए बोला–‘‘पहेलियां क्यों बुझा रहे हो...स्पष्ट क्यों नहीं कहते किसकी हत्या हुई है...हममें से हत्यारा कौन है?’’

      ‘‘हत्या देहली में...पांच तारीख की शाम को हुई है, और शाम के तुरंत बाद वाली ट्रेन से मिस्टर गिरीश यहां के लिए रवाना हो गए ताकि पुलिस उन पर किसी तरह का संदेह न कर सके।’’

      ‘‘क्या बकते हो इंस्पेक्टर?’’ गिरीश बुरी तरह चौंककर चीखा–‘‘अगर पांच तारीख की शाम को खून हुआ है और मैं संयोग से यहां आया हूं तो क्या खूनी मैं ही हूं।’’

      ‘‘मिस्टर गिरीश...पुलिस को बेवकूफ बनाना इतना सरल नहीं...खून आप ही ने किया है, इसके कुछ जरूरी प्रमाण पुलिस के पास मौजूद हैं, ये बहस अदालत में होगी...फिलहाल हमारे पास तुम्हारी गिरफ्तारी का वारन्ट है।’’ इंस्पेक्टर मुस्कराता हुआ बोला।

      ‘‘लेकिन इंस्पेक्टर खून हुआ किसका है?’’ प्रश्न शेखर ने किया।

      ‘‘इनकी ही एक पड़ोसी मिसेज संजय यानी मीना का...।’’

      ‘‘मीना का कत्ल...?’’ गिरीश का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया। और सुमन को फिर एक आघात लगा...होश में आते ही उसने सुना कि उसकी दीदी का खून हो गया है। खून करने वाला भी स्वयं गिरीश। क्या गिरीश इस नीचता पर उतर सकता है?...हां उसके द्वारा लिखे गए पत्र का प्रतिशोध गिरीश इस रूप में भी ले सकता है। भीतर-ही-भीतर उसे गिरीश से घृणा हो गई। उसने चीखना चाहा...गिरीश को भला-बुरा कहना चाहा किंतु वह सफल न हो सकी। उसकी आंखें बंद होती चली गईं और बिना एक शब्द बोले वह फिर अचेत हो गई, अचेत होते-होते उसका दिल भी गिरीश के प्रति नफरत और घृणा से भर गया।

      इधर मीना की हत्या के विषय में सुनकर गिरीश अवाक ही रह गया। सभी की निगाहें उस पर जमी हुई थीं। इंस्पेक्टर व्यंग्यात्मक लहजे में बोला–‘‘मान गए मिस्टर गिरीश कि तुम सफल अभिनेता भी हो।’’

      ‘‘इस्पेक्टर! आखिर किस आधार पर तुम मुझे इतना संगीन अपराधी ठहरा रहे हो?’’

      ‘‘ये अदालत में पता लगेगा, फिलहाल मेरे पास तुम्हारे लिए ये गहना है।’’ कहते हुए इंस्पेक्टर ने गिरीश की कलाइयों में हथकड़िया पहना दीं।

      गिरीश एकदम शेखर की ओर घूमकर बोला–‘‘शेखर...खून मैंने नहीं किया...ये मेरे विरुद्ध कोई षड्यंत्र है।’’

      शेखर चुपचाप देखता रहा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह वह क्या है? गिरीश ‘बदनसीब’ है लेकिन आखिर कितना आखिर कितने गम मिलने हैं गिरीश को? आखिर किन-किन परीक्षाओं से गुजार रहा है भगवान उसे? एक गम समाप्त नहीं होता था कि दूसरा गम उसका दामन थाम लेता था।

       शेखर सोचता रह गया और गिरीश को लेकर इंस्पेक्टर कमरे से बाहर निकल गया।

13
      शिवदत्त शर्मा,
बी.ए.एल.एल.बी.।
जी हां...यही बोर्ड लटका हुआ था, उस कमरे के बाहर जिसमें संजय प्रविष्ट हुआ। ठीक सामने मेज के पीछे एक कुर्सी पर वकीलों के लिबास में शिव बैठा हुआ था। औपचारिकता के बाद शिव ने कहा–‘‘कहिए, मैं आपके क्या काम आ सकता हूं?’’

      ‘‘आपकी काफी प्रसिद्धि सुनकर आपके पास आया हूं।’’ संजय ध्यान से उसके चेहरे को देखता हुआ बोला। ऐसा लगता था मानो वह बात कहने से पूर्व शिव की कोई परीक्षा लेनी चाहता हो।

      ‘‘ये तो मेरी खुशकिस्मती है, कहिए।’’

      ‘‘एक मर्डर केस है।’’

      ‘‘आप तो जानते ही होंगे कि मैं मर्डर केसों का ही विशेषज्ञ हूं।’’

      ‘‘जी...तभी तो आपके पास आया हूं...बात ये है कि पिछली पांच तारीख की शाम को मेरी बीवी का खून हो गया है।’’

      ‘‘पूरा विवरण बताइए।’’

      ‘‘विवरण कोई अधिक लम्बा-चौड़ा नहीं है...मेरे पुलिस लिखित बयान ये हैं कि मैं पांच तारीख की दोपहर को देहली से बाहर बिजनेस के सिलसिले में चला गया था। सुबह को जब वापस आया तो सीधा मीना यानी अपनी बीवी के कमरे की ओर बढ़ा, वहां मीना की लाश देखकर मुझ पर क्या बीती? मैं पागल-सा होकर चीख पड़ा और कुछ ही समय बाद वहां सभी एकत्रित हो गए।’’

      ‘‘हत्या किस चीज से की गई?’’

      ‘‘मीना के जिस्म में रिवॉल्वर की दो गोलियां पाई गईं।’’

      ‘‘जब तुम ये कह रहे हो कि दोपहर के गए हुए तुम दूसरे दिन सुबह को घर वापस आए तो तुम्हें कैसे मालूम कि खून शाम को हुआ था...क्या ये नहीं हो सकता कि तुम्हारे जाते ही अथवा रात के समय हत्यारे ने अपना काम किया हो।’’

      ‘‘ये मुझे पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से पता लगा...ये पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है कि हत्या शाम के पांच से सात बजे के बीच में किसी समय हुई है।’’

      ‘‘वैरी गुड...अब पूरी स्थिति बताओ क्या है?’’

      ‘‘जब पुलिस ने घटनास्थल की जांच की तो वहां कुछ ऐसे सुबूत मिले जिन्हें पुलिस अपराधी के समझ रही है...जैसे कि मीना की लाश की बंद मुट्ठी में किसी की कमीज का कपड़ा–लाश के पास पड़ी हुई एक सिगरेट का टुकड़ा और तीसरा सुबूत है अपराधी के जूतों के निशान।’’

      ‘‘जहां हत्या हुई, क्या वहां का फर्श कच्चा है?’’

      ‘‘नहीं।’’

      ‘‘तो फिर जूतों के निशान कहां और कैसे पाए गए?’’

      ‘‘पुलिस का ख्याल है कि हत्या से पूर्व मीना और हत्यारे के बीच कोई खींचतान हुई है जिसके कारण मेज पर रखे पीतल के गिलास में रखा दूध बिखर गया और वहां पर बिखरे दूध के ऊपर अपराधी के जूतों के निशान पाए गए।’’ संजय ने स्पष्ट किया।

      ‘‘क्या पुलिस ये जान चुकी है कि ये सब सुबूत किसकी ओर संकेत करते हैं?’’

      ‘‘जी हां–अपराधी पुलिस की हिरासत में है।’’

      ‘‘तो फिर तुम मेरे पास क्या लेने आए हो?’’

      ‘‘वकील साहब...! हत्यारा बहुत ही बदमाश है...मैं अपनी बीवी से बहुत प्रेम करता था। अतः हो सकता है कि वह किसी बड़े वकील की मदद से झूठा केस बनाकर निकल जाए, अतः आप ये केस मेरी ओर से लड़कर उस गुंडे को उसके अपराध की सख्त से सख्त सजा दिलाएं।’’ कहते हुए संजय ने नोटों का पुलिन्दा मेज पर रखकर शिव की ओर खिसका दिया।

      ‘‘अच्छा...जब तुम ये चाहते हो कि मैं तुम्हारा केस लडूं...तो स्पष्ट बता दो कि पुलिस को दिए गए बयान में कितना सच और कितना झूठ है?...वे बातें भी मुझे साफ-साफ बता दो जो कि तुमने पुलिस को नहीं बताई हैं और तुम्हारी जानकारी में हैं।’’ शिव ने नोटों का पुलिन्दा जेब के हवाले करते हुए कहा।

      ‘‘वकील साहब...मेरी जो जानकारी थी वह सब मैंने स्पष्ट पुलिस को बतादी है और सच पूछिए तो हत्यारा पकड़ा भी मेरी जानकारियों के कारण गया है। वर्ना वह तो इतना चालाक था कि हत्या करके ही इस शहर से दूर चला गया...। अब पुलिस उसे वहां से पकड़ कर लाई है।’’

      ‘‘जब पुलिस ने मेरे बयान में ये पूछा कि मुझे किस पर संदेह है तो मैंने गिरीश का नाम ले दिया, क्योंकि मुझे वास्तव में गिरीश पर संदेह था। आप शायद मुझे जानते नहीं हैं, मैं चरणदास जी (सुमन और मीना के पिता) का बड़ा दामाद हूं–मीना चरणदास जी की लड़की थी।’’

      संजय के इन शब्दों पर शिव चौंका–उसे अभी तक पता नहीं था कि संजय ही चरणदास का दामाद है। उसे लगा जैसे संजय किसी षड्यंत्र की रचना कर रहा है।...गिरीश का नाम आते ही वह चौंक पड़ा था। लेकिन उसे तुरंत याद आया कि पांच तारीख की शाम को तो गिरीश स्वयं उसके साथ था फिर भला उसने खून कैसे कर दिया? उसे लगा जैसे गिरीश के विरुद्ध कोई गहरा षड्यंत्र रचा जा रहा है। उसने मन ही मन गिरीश की सहायता करने का प्रयास किया किंतु चेहरे से किसी प्रकार का भाव व्यक्त न करके बोला–‘‘तुमने पुलिस को क्या-क्या जानकारियां दी जिनसे गिरीश नामक हत्यारा गिरफ्तार हुआ?’’

      ‘‘जब पुलिस ने मेरा संदेह पूछा तो मैंने गिरीश का नाम लिया, क्योंकि मीना के परिवार से उसकी शत्रुता चल रही थी। उसने किसी तरह मीना की छोटी बहन और मेरी साली सुमन को प्रेम जाल में फंसाकर उसको लूट लिया। जब वह मां बनने वाली थी तो अपने घर ले गया लेकिन उसके बाद आज तक पता नहीं लगा कि सुमन का क्या हुआ। मैंने ये ही संभावना प्रकट की थी कि शायद इसी शत्रुता के कारण गिरीश ने मेरी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर मीना की हत्या कर दी हो। मेरे बयान के आधार पर पुलिस गिरीश के घर पहुंची किंतु जब गिरीश के नौकर ने बताया कि गिरीश तो रात साढ़े आठ वाली गाड़ी से बाहर चला गया है...उसने बताया कि जाते समय वह बहुत जल्दी में था। नौकर के इन बयानों से संदेह गहरा हुआ–उसके बाद पुलिस ने उसके घर की तलाशी ली और उस समय गिरीश के हत्यारा होने में संदेह न रहा जब खून से सने कपड़े एक सुरक्षित स्थान पर रखे पाए गए। वहीं वह जूता भी था जिसके तले में दूध के निशान थे।...शायद ये दोनों चीजें गिरीश ने उस सुरक्षित स्थान पर छिपा दी थीं, किंतु पुलिस ने खोज ही निकालीं।...उस समय तो यह विश्वास पूरी तरह दृढ़ हो गया जब गिरीश के कमरे से उसी ब्रांड की सिगरेटों के पिछले भाग पाए गए जो लाश के पास पाया था।’’

      शिव को लगा ये षड्यंत्र गिरीश के चारों ओर काफी दृढ़ता से बुना जा रहा है...इतना तो यह निश्चित रूप से जानता था कि हत्यारा गिरीश तो है नहीं क्योंकि उस शाम वह स्वयं उसके साथ था। उसके सामने ही उसे शेखर का तार मिला था और स्वयं वही उसे गाड़ी में बैठाकर आया था।...लेकिन अभी तक वह यह न समझ सका था कि संजय ने जो संदेह व्यक्त किया था वह सच्ची भावनाओं से किया था अथवा उसके पीछे उसी का कोई हाथ था।...इतना भी वह समझ गया कि एकत्रित किए गए समस्त सुबूत किसी ने जान बूझकर गिरीश को फंसाने की चाल चली है, किंतु अभी वह विश्वास के साथ यह निश्चय न कर सका कि गिरीश को फंसाने वाला संजय है अथवा कोई अन्य...? और आखिर हत्यारा गिरीश को ही क्यों फंसा रहा है...? क्या हत्यारे की गिरीश से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी है...? खैर फिलाहाल उसने प्रश्न किया–‘‘वह कमरा तो बंद होगा, जिसमें मीना देवी का खून हुआ?’’

      ‘‘जी हां, उसमें पुलिस का ताला पड़ा हुआ है।’’

      ‘‘पांच तारीख की दोपहर को तुम बिजनेस के सिलसिले में बाहर कहां गए थे?’’

      ‘‘फिरोजा नगर!’’

      ‘‘वहां तक तो सिर्फ विमान सेवा है?’’

      ‘‘जी हां...!”

      शिव चेतावनी-भरे लहजेमें बोला–‘‘वकील से कभी कुछ छुपाना हानिकारक होता है। इसके अतिरिक्त तुम्हें जितनी जानकारियां हों, बता दो ताकि गिरीश को सख्त से सख्त सजा दिला सकूं।’’

      ‘‘इसके अतिरिक्त मेरे पास कोई जानकारी नहीं।’’

      ‘‘अब तुम जा सकते हो?’’ उसके बाद संजय चला गया।

14
      शिव ने संजय से पैसे तो ले लिए किंतु जब उसने जाना कि खून के केस में एक निर्दोष व्यक्ति संयोग से फंस रहा है अथवा उसे फंसाया जा रहा है...अगर बात यहीं तक सीमित रहती तो शायद वह शांत रहता किंतु जब उसे ये ज्ञान हुआ कि फंसने वाला उसी का मित्र गिरीश है तो वह सक्रिय हो उठा। सबसे पहले तो उसे यह पता लगाना था कि षड्यंत्रकारी कौन है?...संजय के बयानों को वह दोनों पहलुओं से सोच रहा था।

      संजय के बयानों का पहला पहलू तो ये था कि वास्तव में उसकी दृष्टि में उसके बयान निष्पक्ष हों...अर्थात परिस्थितियों को देखते हुए संजय का दिल कहता हो कि खून गिरीश ने ही किया हो।

      और दूसरा पहलू यह भी था कि संभव है संजय ने ही गिरीश को फंसाने के लिए एक षड्यंत्र के अंतर्गत ये बयान दिए हों...लेकिन इस स्थिति में प्रश्न ये था कि क्या संजय स्वयं मीना का खून कर सकता है...खैर सभी पहलू उसके सामने थे और वह सक्रिय हो उठा था।

      सर्वप्रथम शिव हवालात में जाकर बंद गिरीश से मिला। उससे कुछ व्यक्तिगत बातें हुईं और उसने संजय के आने का पूरा विवरण गिरीश को बताकर उससे पूछा कि संजय चरित्र का कैसा था इसके उत्तर में गिरीश ने बताया कि इस विषय में वह अधिक नहीं जानता किंतु उसने यह अनुभव अवश्य किया था कि सुमन संजय का नाम आते ही गुम-सुम हो जाया करती थी।

      जिस इंस्पेक्टर के पास ये केस था उससे मिलकर शिव ने वे सभी वस्तुएं बड़े ध्यान से देखीं जो पुलिस को तलाशी में गिरीश के घर से मिली थीं। उन वस्तुओं का उसने अपने ढंग से प्रयोगशाला में परीक्षण भी कराया। उसने कई अन्य महत्वपूर्ण कार्य भी किए।

      अदालत का पहला दिन।
वकील सिर्फ शिव ही था–संजय की ओर से भी और गिरीश को तो उसने आश्वासन दिया ही था कि वह जानता है कि यह निर्दोष है, अतः उसे मुक्त कराकर ही दम लेगा। अदालत में पहले दिन शिव अधिक कुछ नहीं बोला, सिर्फ अदालत से ये मांग की कि वह उस कमरे का निरीक्षण करना चाहता है जिसमें मीना देवी का खून हुआ। अदालत ने उसे ये परमीशन देकर अगली तारीख लगा दी।

      अगले दिन–

      जब वह उस कमरे में पहुंचा तो उसने प्रत्येक वस्तु को भली-भांति परखा...जहां दूध बिखरा हुआ था उस स्थान पर बहुत देर तक उसकी निगाह जमी रही...पीतल का गिलास अभी तक उसी स्थन पर पड़ा था। उसने अपने ढंग से पीतल के गिलास और दूध बिखरे वाले भाग के फोटो लिए। कमरा काफी बड़ा था। उसने बड़े ध्यान से कमरे का निरीक्षण किया और अपने ढंग से फोटो आदि लेता रहा। उस समय उसके साथ सिर्फ एक इंस्पेक्टर था जो आश्चर्य के साथ उसके कार्यों को देख रहा था। अचानक एक सोफे के पीछे से उसे कोई वस्तु पाई जिसे उसने बड़ी सफाई से जेब में खिसका लिया। इंस्पेक्टर को इस बात का लेशमात्र भी अहसास न हो सका। पूर्णतया निरीक्षण के बाद वह कमरे से बाहर आ गया।

      उसके बाद...।

      उसने समस्त फोटुओं के निगेटिव देखे...सोफे के पीछे पाई गई वस्तुके आधार पर कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण जानकारियां एकत्रित कीं।...रात के अंधेरे में उसे चोर भी बनना पड़ा। खैर अभिप्राय ये है कि अधिक परिश्रम करके उसने कुछ ऐसे सुबूत एकत्रित किए जिनसे वह अदालत में गिरीश को निर्दोष साबित कर सके।

      उसके बाद...अदालत की तारीख वाले दिन...। अदालत के अपराधी वाले बॉक्स में गिरीश सिर झुकाए इस प्रकार खड़ा था मानो वास्तव में हत्यारा वही हो और अब भेद स्पष्ट हो जाने पर पश्चाताप की ज्वाला में जल रहा हो। अदालत वाला कमरा भीड़ से भरा हुआ था, सबसे अग्रिम सीटों पर मीना के माता-पिता और संजय बैठा था।...भीड़ में एक सीट पर शेखर भी उपस्थित था। अपने माता-पिता से तो गिरीश आंख मिलाने का साहस ही न कर पा रहा था। उसकी बहन अनीता की शादी हो चुकी थी, वह पति के घर थी। अतः अदालत में उपस्थित न थी।

      शिव अब भी संजय के पास बैठा केस के पहलुओं पर विचार-विमर्श कर रहा था। तब जबकि न्याय की कुर्सी के ऊपर लगे घंटे ने दस घंटे बजाए...न्यायाधीश महोदय शीघ्रता से आकर न्याय की कुर्सी पर बैठ गए। उपस्थित खड़े व्यक्तियों ने उनका अभिवादन किया।

      ‘‘कार्यवाही शुरू की जाए।’’ न्यायाधीश महोदय ने इजाजत दी।

      शिव अपने स्थान से खड़ा हो गया और बोला–‘‘सबसे पहले मैं अदालत से अपील करूंगा कि मिस्टर संजय को बयानों के लिए खड़ा किया जाए।’’

      संजय उठा और बॉक्स में जाकर खड़ा हो गया और उसने अपने वे सभी बयान दोहरा दिए जो उसने पुलिस को दिए थे। उसके बयानों की समाप्ति पर शिव बोला–‘‘तो आपका मतलब ये है मिस्टर संजय कि आप खून के समय फिरोज नगर में थे?’’

      ‘‘जी हां!’’

      ‘‘क्या आप बता सकते हैं कि आपने अपना संदेह मिस्टर गिरीश पर ही क्यों किया?’’

      ‘‘सुमन के कारण हुई पारिवारिक शत्रुता के कारण।’’

      ‘‘अब आप जा सकते हैं।’’

      उसके बाद संजय की कोठी पर कार्य करने वाले एक नौकर से शिव ने प्रश्न किया–‘‘जिस समय हत्या हुई–क्या तुम उस समय कोठी में थे?’’

      ‘‘जी हां...मैं अपनी कोठरी में था, किंतु मैं ये न जान सका कि हत्या हो गई है।’’

      ‘‘मतलब ये कि तुमने किसी धमाके इत्यादि की आवाज नहीं सुनी।’’

      ‘‘जी, बिल्कुल नहीं।’’

      ‘‘साफ जाहिर है योर ऑनर कि हत्या साइलेंसर युक्त रिवॉल्वर से की गई है...।’’ शिव न्यायाधीश महोदय से संबोधित होकर बोला–‘‘लेकिन रिवॉल्वर कहां है...अभी तक कोई यह न जान सका।’’

      ‘‘तुम कहना क्या चाहते हो?’’

      ‘‘मैं ये कहना चाहता हूं कि बॉक्स में खड़ा ये (गिरीश) अपराधी निर्दोष है...इसके चारों ओर एक षड्यंत्र बुना गया...वह षड्यंत्र जो पैसे के बल पर बुना गया है।...ये आदमी जिस पर हत्या का झूठा इल्जाम लगाया जा रहा है, हत्या वाले समय स्वयं मेरे साथ था।’’

      ‘‘तुम्हारा मतलब हमारी समझ में नहीं आया–हमने सुना था कि तुम मिस्टर संजय के वकील हो लेकिन बोल बिल्कुल उल्टे रहे हो।’’

      शिव के इस प्रकार उल्टा बोलने से संजय भी चौंका था।

      ‘‘नहीं योर ऑनर...मैं संजय का वकील नहीं बल्कि मिस्टर गिरीश का वकील हूं...मैंने मिस्टर संजय से फीस अवश्य ली थी किंतु जब कुछ सत्य तथ्य मेरे सामने आए तो मैंने अदालत के सामने वास्तवकिता रखने का निश्चय किया और अब मैं मिस्टर संजय के नोटों का यह पुलिन्दा बाइज्जत उन्हें वापस करता हूं।’’

      संजय क्रोध से कांपने लगा। फिर संजय की मांग पर उस दिन भी अदालत की तारीख लग गई। अगली तारीख पर संजय की ओर से शहर के एक अन्य बड़े वकील थे।...उस दिन शिव ने अपने तथ्य कुछ इस प्रकार चीख-चीखकर रखे–

      ‘‘योर ऑनर! हकीकत ये है कि इस केस की छानबीन अधूरी है–पूरे तथ्यों को बारीकी से नहीं परखा गया है।’’

      अब बारी संजय की ओर के बड़े वकील साहब की थी। बोले–‘‘मेरे दोस्त मिस्टर शिव खामखाह इस केस को उलझाने की कोशिश कर रहे हैं। केस का हर पहलू शीशे की भांति साफ है–सारे सुबूत मुजरिम के घर में मौजूद थे।’’

      ‘‘नहीं योर ऑनर, नहीं।’’ शिव चीखा–‘‘बस, यहीं पर मेरे फाजिल दोस्त गलती कर रहे हैं–वे बार-बार क्यों भूल जाते हैं कि वह रिवॉल्वर अभी तक सामने नहीं आया जिससे खून किया गया–आखिर कहां गया वह रिवॉल्वर?’’

      ‘‘योर ऑनर–वह रिवॉल्वर बिना लाइसैंस का था, मुजरिम गिरीश उसे किसी भी ऐसे स्थान पर छुपा सकते हैं जहां से वह पुलिस के हाथ न लगे।’’

      ‘‘कितनी बचकाना बात कही है मेरे फाजिल दोस्त ने...मिस्टर गिरीश रिवॉल्वर को तो ऐसे स्थान पर छुपा सकते हैं जहां वह पुलिस के हाथ न लगे किंतु जूते और कपड़े इत्यादि को ऐसी जगह छुपाएंगे जहां से वे पुलिस को प्राप्त हो जाए।’’

      ‘‘योर ऑनर–।’’ विरोधी वकील बोला–‘‘वकीले मुजरिम बेकार में छोटी-मोटी बातों को तथ्य बनाना चाहते हैं–यह तो एक संयोग है कि पुलिस को कपड़े और जूते मिल गए और रिवॉल्वर नहीं मिला।’’

      ‘‘नहीं योर ऑनर–ये संयोग नहीं है, एक सोचा-समझा षड्यंत्र है जिसमें पुलिस भी आ गई और मेरे फाजिल दोस्त भी चकरा गए। अब मैं कुछ ऐसे तथ्य सामने ला रहा हूं जिनसे साबित हो जाएगा कि वही सुबूत यानी गिरीश की कमीज, जूता और सिगरेट इत्यादि जो अभी तक गिरीश को अपराधी साबित कर रहे हैं–ये ही सुबूत अब चीख-चीखकर कहेंगे कि हत्यारा गिरीश नहीं बल्कि वह एक षड्यंत्र का शिकार है–ये सब गिरीश को फंसाने के लिए एकत्रित किए गए हैं।’’

      ‘‘मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि मिस्टर शिव आखिर कहना क्या चाहते हैं?’’

      ‘‘मैं एक बार फिर यही कहना चाहता हूं योर ऑनर कि वास्तव में इस केस के किसी पहलू को बारीकी से नहीं देखा गया है–मसलन–ये वे कमीज है जो पुलिस ने गिरीश के घर से प्राप्त की है।’’ शिव ने वह कमीज अदालत को दिखाते हुए कहा–‘‘इस पर लगे खून के निशान, जो निसंदेह मीना के खून के हैं और कमीज का ये फटा भाग मीना की लाश की मुट्ठी में पाया गया है...साबित करते हैं कि हत्या गिरीश ने ही की है लेकिन अगर बारीकी से देखा जाए तो ये सुबूत उल्टी बात कहने लगते हैं।...अब अदालत जरा बारीकी से मेरे तथ्यों पर ध्यान दें।’’

      शिव आगे बोला–‘‘सबसे पहले ये देखें कि खून रिवॉल्वर से किया गया है तो किसी भी सूरत में खून के दाग इस ढंग से कमीज पर नहीं लग सकते। इससे भी अधिक बारीक सुबूत ये है कि फिंगर प्रिंट्स विभाग कि रिपोर्ट के अनुसार ये कमीज धुली हुई है...अर्थात धुलने के पश्चात् इसे एक मिनट के लिए पहना नहीं गया है...और अगर पहना नहीं गया है तो इस पर खून के निशान कहां से आ गए। साफ जाहिर है योर ऑनर कि षड्यंत्रकारी ने यह कमीज स्वयं गिरीश के घर से चुराकर खून से रंगकर गिरीश की कोठी में छुपादी।’’ कहते हुए शिव ने फिंगर प्रिंट्स विभाग की रिपोर्ट के साथ–जिसमें साफ लिखा था कि कमीज धुली है और पहनी नहीं गई है, जज महोदय तक पहुंचा दी।

      जज ने स्वीकार किया कि वास्तव में ये कमीज कहने लगी है कि अपराधी गिरीश नहीं है। तभी विरोधी वकील चीखा–‘‘मेरे फाजिल दोस्त शायद जूते को भूल गए...क्या वे भूल गए कि दूध के ऊपर मिस्टर गिरीश के जूतों के निशान थे।’’

      ‘‘याद है योर ऑनर...वे जूते भी याद हैं।’’ शिव चीखा–‘‘सबसे पहले आप उस स्थान के फोटो के निगेटिव को देखिए जहां दूध बिखरा हुआ था। ध्यान से देखने पर आप जानेंगे कि दूध पर बना जूते का निशान कितना हल्का है...अर्थात मैं ये कहना चाहता हूं कि ये निशान उस समय नहीं बना जब जूता किसी के पैर में हो...अगर जूता पैर में होता तो उस पर एक व्यक्ति का सारा भार होता और निशान कुछ गहरा बनता जबकि निशान सिर्फ हल्का-सा है...साफ जाहिर है कि जूता बाद में ले जाकर बिखरे दूध पर निशान बना दिया गया। इससे भी अधिक मेरा दूसरा तर्क है...वह है फिंगर प्रिंट्स विभाग की रिपोर्ट...रिपोर्ट में साफ लिखा है योर ऑनर कि जूता पिछले लम्बे समय में पहना ही नहीं जा रहा है।...कारण है कि गिरीश का नया जूता खरीद लेना...ये जूता एक प्रकार से उनके लिए बेकार था...जो जूता वे उन दिनों पहनते थे उसे पहनकर तो मिस्टर गिरीश अपने दोस्त शेखर की शादी में चले गए थे।’’ कहते हुए शिव ने रिपोर्ट के साथ वह तार भी, जो शेखर ने गिरीश को लिखा था, न्यायधीश महोदय तक पहुंचा दिया–‘‘रही सिगरेट की बात...उसके विषय में कहने के लिए कोई बात रह ही नहीं गई है क्योंकि षड्यंत्रकारी इतने सुबूत बना सकता है उसके लिए ये कठिन नहीं है कि वह गिरीश वाले ब्रांड की सिगरेट लाश के पास डालदे।’’ शिव ने अन्तिम सुबूत भी फाका कर दिया।

       अदालत सन्न रह गई...गिरीश की आंखों में चमक उभर आई, संजय की आंखों में क्रोध और चिंता के भाव थे। विरोधी वकील की जबान में ताला लटक गया।

      ‘‘मिस्टर शिव!’’ एकाएक न्यायाधीश महोदय बोले–‘‘वास्तव में तुम्हारे तथ्य और तर्क काफी बारीक हैं...ये तो तुमने साबित कर दिया कि मिस्टर गिरीश सिर्फ षड्यंत्र के शिकार हैं किंतु क्या बता सकते हो कि ये षड्यंत्र किसका है और वास्तविक हत्यारा कौन है?’’

      ‘‘योर ऑनर, अब मैं हत्यारे को ही अदालत के सामने ला रहा हूं।’’ शिव ने कहना आरम्भ किया–‘‘मैं बात को अधिक लम्बी न कहकर स्पष्ट करता हूं कि हत्यारे मिस्टर संजय हैं।’’

      उसके इन शब्दों के साथ अदालत कक्ष में अजीब-सा शोर उत्पन्न हो गया–संजय खड़ा होकर एकदम विरोध में चीखने लगा। विरोधी वकील ने केस को समझने के लिए समय की मांग की...उसकी मांग स्वीकार किए जाने पर शिव ने तुरंत अदालत से संजय को हिरासत में रखने की अपील की।

      उसकी अपील भी अदालत ने स्वीकार कर ली।

15
      अदालत की अगली तारीख वाले दिन–

      ‘‘ये वो रिवॉल्वर है योर ऑनर जिससे मीना देवी का खून किया गया।’’ एक रिवॉल्वर ऊपर उठाए शिव चीख रहा था।

      अदालत में गहन सन्नाटा था।

      शिव फिर चीखा–‘‘जो गोलियां मीना देवी के जिस्म में पाई गईं ये क्योंकि थ्री बोर की हैं। अतः चीख-चीखकर कह रही हैं कि उन्हें चलाने वाला रिवॉल्वर यही है क्योंकि ये गोलियां अन्य रिवॉल्वर से नहीं चलाई जा सकतीं।’’

      ‘‘मेरे फाजिल दोस्त का ये तर्क कुछ खोखला-सा लगता है। ये कैसे मान लिया जाए कि गोलियां इसी रिवॉल्वर से चलाई गई, ये ठीक है कि ये गोलियां विशेष रिवॉल्वर से चलती हैं किंतु क्या ऐसा नहीं हो सकता कि सिर्फ एक ही रिवॉल्वर हो और फिर दूसरा प्रश्न ये भी है कि मेरे फाजिल दोस्त आखिर ये रिवॉल्वर ले कहां से आए?’’

      ‘‘सबसे पहले मैं अदालत को ये बता दूं कि ये रिवॉल्वर मिस्टर संजय की कोठी की सुरक्षित सेफ में रखा हुआ था जिसे चोर बनकर ‘मास्टर की’ द्वारा प्राप्त किया।’’

      ‘‘ये झूठ है...।’’ एकाएक संजय चीख पड़ा–‘‘ये न जाने कहां से रिवॉल्वर उठा लाए और मुझे षड्यंत्र का शिकार बनाया जा रहा है...इस रिवॉल्वर का मेरे घर में होने का कोई प्रश्न ही नहीं।’’

      ‘‘प्रश्न है मिस्टर संजय...और मेरे पास प्रमाण भी है...।’’ शिव फिर चीखकर बोला–‘‘हत्यारे ने हत्या कुछ इस तसल्ली और शांति के साथ की कि अपनी ओर से कोई चिन्ह न छोड़ा गया...मसलन हत्यारे ने सारे काम चमड़े के दस्ताने पहनकर किए...। अदालत को याद होगा कि पीतल के उस गिलास पर जिसमेँ दूध था किन्हीं विशेष दस्तानों के चिन्ह थे...ये ही चिन्ह हत्या वाले कमरे में अन्य स्थानों पर पाए हुए हैं जिसमें से हत्यारे ने गिरीश को फंसाने के लिए उसकी धुली हुई कमीज निकाली थी...और अंत में अब मैं यह कहूंगा कि इस रिवॉल्वर पर भी वे ही चिन्ह हैं...दस्ताने क्योंकि चमड़े के विशेष दस्ताने थे इसलिए अगर वे दस्ताने सामने आ जाएं तो स्पष्ट हो जाएगा कि हत्यारा कौन है?’’

      ‘‘लेकिन मिस्टर शिव, ये किस आधार पर कह रहे हैं कि हत्यारे मिस्टर संजय हैं।’’

      ‘‘सबसे पहला सुबूत ये कि मिस्टर संजय अपने बयान के अनुसार फिरोज नगर गए ही नहीं...। उसके इस कथन की पुष्टि विमान सेवा के अधिकारी ने की जिसके पास ये रिकार्ड रहता था कि कौन से विमान में कौन-कौन से यात्री थे। शिव आगे बोला–‘‘दूसरा सुबूत ये झुमका जो मुझे हत्या वाले कमरे के सोफे के पास से मिला था, इस झुमके पर शहर की मशहूर तवायफ का नाम लिखा है...इससे साफ जाहिर है कि हत्या से पूर्व वह वहां था।’’

      यह एक नया रहस्योद्घाटन था...अदालत में मौत जैसी शांति थी।

      उसके बाद शिव ने उस तवायफ को पेश किया, उसने स्पष्ट बताया कि “उस दिन संजय के उसी कमरे में (जिसमें हत्या हुई) मुजरा हो रहा था। इस बात से उसकी बीवी नाराज थी। उनका झगड़ा हुआ। इस झगड़े के बीच में ही मैं चली आई लेकिन ये झगड़ा इतना गंभीर रूप ले लेगा ये मैं नहीं जानती थी।’’

      ‘‘अदालत कोई ठोस सुबूत चाहती थी। योर ऑनर...ये बयान झूठे भी हो सकते है। मेरे पास एक अन्य ठोस सुबूत ये है।’’ कहते हुए शिव ने वे दस्ताने हवा में लहरा दिए–‘‘ये वही दस्ताने हैं योर ऑनर जो खूनी ने सारी वारदातों में पहन रखे थे...अदालत में मैं ये स्पष्ट कर दूं कि इन दस्तानों के अंदर...यानि जहां हाथ दिया जाता है...फिंगर प्रिंट्स विभाग की रिपोर्ट के अनुसार दस्ताने के अंदर पाए जाने वाले निशान मिस्टर संजय के हैं।’’

      कुछ और सख्त बहस के बाद ये सिद्ध हो गया कि हत्यारा संजय ही था। तब न्यायधीश बोले–‘‘समस्त प्रमाणों और गवाहों तथा वकीलों की बहस से अदालत इस नतीजे पर पहुंची कि हत्या मिस्टर संजय ने ही की। अतः हत्या और फैलाए गए षड्यंत्र के अपराध के दंड में...।’’

      ‘‘ठहरों...!’’ एकाएक दरवाजे से एक आवाज आई सबकी गर्दनें एकदम दरवाजे की ओर घूम गईं। गिरीश की आंखों में जैसे एकदम शोले उबल पड़े। दरवाजे पर शेखर और सुमन थे...सुमन को सामने देखकरउसके माता-पिता और संजय ने उसकी ओर जाना चाहा किंतु न्यायाधीश ने आर्डर...आर्डर...कहकर उनके इरादों पर पानी फेर दिया।...गिरीश को लगा जैसे ये नागिन अभी कुछ और जहर घोलेगी।

      वह आगे बढ़ती हुई बोली–‘‘ठहरिए जज साहब...ठहरिए। ये इस दंड के काबिल नहीं है।’’

      सारी अदालत सन्न रह गई...क्या कोई अन्य रहस्य सामने आ रहा है...? क्या हत्यारा संजय भी नहीं है।

      ‘‘अगर तुम कुछ कहना चाहती हो तो बॉक्स में आकर बोलो।’’ तभी जज साहब बोले।

      सुमन का चेहरा सख्त, संगमरमर की भांति सपाट था। वह धीरे-धीरे चलती हुई बॉक्स में पहुंची और सबसे पहला प्रश्न उसने संजय से किया–‘‘मैं आपकी क्या लगती हूं?’’

      ‘‘छोटी साली।’’ संजय का चेहरा पीला पड़ चुका था।

      ‘‘छोटी साली का दूसरा रिश्ता?’’

      ‘‘छोटी बहन...।’’

      ‘‘नही...ऽ...ऽ...।’’

      सुमन इस शक्ति के साथ चीखी कि अदालत का कमरा जैसे कांप गया। वहां बैठे लोग तो उसके इस कदर चीखने पर भयभीत हो गए।...सुमन चीखी–‘‘बहन और भाई के पवित्र रिश्ते को बदनाम मत करो...बहन के रिश्ते पर कीचड़ मत उछालो...आज तुमने इस भरी अदालत में अपनी साली को अपनी बहन क्यों कहा...? जो शब्द मुझसे अकेले में कहा करते थे वह क्यों नहीं कहा?’’

      संजय का चेहरा हल्दी की भांति पीला पड़ चुका था।...सारी अदालत में गहरा सन्नाटा था।

      जज साहब फिर बोले–‘‘तुम कहना क्या चाहती हो?’’

      ‘‘जज साहब...आज जो कुछ मैं कहना चाहती हूं...उससे ये समाज...कांप जाएगा ये दुनिया कांप जाएगी। आज मैं वे शब्द कह दूंगी जिसे कोई भी लड़की कह नहीं पाती...जज साहब...सामने खड़े हुए मिस्टर संजय मेरे जीजा हैं...वे जीजा जो छोटी साली से ये कहा करते थे–‘साली आधी पत्नी होती है।’ नहीं जज साहब, ये कहानी सिर्फ मेरी और संजय की नहीं है...ये आज के अधिकांश समाज की कहानी है...नब्बे प्रतिशत जीजा और सालियों की कहानी है।...जज साहब, मुझ जैसी भोली-भाली साली जीजा के मन के पाप को क्या जाने? मैं तो अपने जीजा से प्यार करती थी...बिल्कुल खुलकर मजाक करती थी...वे सभी ऊपरी मजाक जो एक जीजा से किए जा सकते हैं...किंतु मेरे जीजा ने मेरे प्यार को...मेरे मजाक को...एक गंदा रूप दे दिया। मुझे आधी ही नहीं बल्कि पूरी पत्नी बना लिया।’’ संजय ने सिर झुका लिया...शर्म से वह जमीन में गड़ा जा रहा था।

      ‘‘जज साहब...अब मैं इस अदालत को इस पापी की कहानी बताने जा रही हूं।’’ सुमन ने आगे कहा–‘‘बात ये है जज साहब–आज से लगभग एक-डेढ़ वर्ष पूर्व मैं मिस्टर गिरीश से प्यार करती थी। एक ऐसा पवित्र प्यार जज साहब जिसकी आज के जमाने में कल्पना भी कंठ से नीचे नहीं उतरती। मेरा ये प्रेम तो था एक तरफ...किंतु दूसरी ओर मेरे दिल में एक ऐसी पीड़ा थी जो मुझे कचोट रही थी किंतु मैं किसी पर भी वह दुख प्रकट नहीं कर सकती थी...सच जज साहब, मैं अपनी उस कसक को अपने देवता गिरीश को भी नहीं बता सकती थी।...मैं अत्यंत संक्षिप्त रूप में उन घटनाओं को अदालत के सामने रख रही हूं जो मेरे जीवन में जहर घोल रही थीं और आगे चलकर घोल ही दिया।...जज साहब, मेरी बड़ी बहन के पति मिस्टर संजय क्योंकि मेरे जीजाजी थे अतः प्रत्येक साली की भांति मैं अपने जीजा से बहुत अधिक प्यार करती थी।...मैं सच कह रही हूं जज साहब...मैं उन्हें बहुत चाहती थी।...उनके प्रत्येक मजाक खुलकर किया करती थी...घर की तरफ से भी हमें पूरी आजादी थी...आखिर मिस्टर संजय मेरे जीजाजी जो ठहरे...मेरी बहन मीना को भी कोई संदेह न था...संदेह तो मुझे भी कोई नहीं था जज साहब, मैं तो वास्तव में उनसे इस प्रकार खुल गई थी जैसे भाई बहन...लेकिन जज साहब मेरे प्यारे जीजाजी के दिल में कुछ और ही था।...वे जब भी मेरे पास अकेले में होते तो कुछ विचित्र-विचित्र-सी बातें करते...कुछ विशेष अंदाज में मुझे देखते...जब कहीं भी ये अकेले मेरे पास होते तो मैं अपने प्रति इनके संबोधन, बर्ताव, दृष्टि इत्यादि सभी बातों में भिन्नता पाती।...ये अकेले में मुझसे कहते कि साली तो आधी पत्नी होती है...इन्होंने कई बार ये भी समझाने का प्रयास किया कि प्यार करना है तो घर ही में मुझसे कर लो, अगर कहीं बाहर करोगी तो बदनामी होगी।...घर में तो किसी को पता भी न लगेगा। इतनी-गंदी-गंदी बातें ये मुझसे करते...मुझे क्रोध आता किंतु चुप रह जाती। आखिर मैं करती भी क्या? किसी से कहती भी क्या...? एक लम्बे समय तक ये मुझ पर जाल फेंके प्रतीक्षा करते रहे कि शायद मैं स्वयं जाल में फंस जाऊं लेकिन जज साहब, मैं प्रत्येक बार स्वयं को बचाती रही।...मुझे तो बताते हुए शर्म आती है योर ऑनर, लेकिन आज मैं सब स्पष्ट कहूंगी ताकि मेरी कहानी जानकर अन्य कोई लड़की अपने जीजा के जाल में न फंस सके...उन जीजाओं के जाल में जो सालियों को आधी पत्नी कहते हैं...जिनकी नजर में सत्यता नहीं गंदी वासनाएं हैं...जिन्होंने इस पवित्र रिश्ते को गंदा रिश्ता बना दिया है।...हां मैं कह रही थीकि कभी-कभी ये अकेले में मेरे गुप्तांगो को किसी बहाने से स्पर्श करके मुझे उत्तेजित करने का प्रयास किया करते थे लेकिन मैं ये नहीं कहती कि प्रत्येक साली मेरी ही तरह है...मैं ये भी मानती हूं कि शायद कुछ सालियां भी ऐसी हों जो जीजाओं को आधा पति समझती हों लेकिन जज साहब मैंने कभी ऐसा सोचा भी नहीं...मैं अपने आपको संजय से बचाती रही।

      किंतु उस रात...उफ...। मैं कैसे बयान करूं अपने जीजा की राक्षसी हवस की उस कहानी को?...हां तो जज साहब एक रात को जब सब सो रहे थे...सो मैं भी रही थी कि एकाएक चौंकी–मेरे बिस्तर पर मेरे जीजा थे मैं कांपकर रह गई। इससे पूर्व कि मेरे मुख से कोई चीख निकले इन्होंने मेरे मुंह पर हाथ रख दिया। मैं छटपटाई किंतु उस समय तो ये मानो आदमी न होकर राक्षस थे...मैंने शोर मचाना चाहा किंतु समझ में नहीं आया कि मैं क्या कहूं...क्या कहकर शोर मचाऊं...और जज साहब...उस रात गिरीश की देवी अपवित्र हो गई।...संजय की राक्षसी हवस समाप्त हो चुकी थी।...मैं बिस्तर पर पड़ी फूट-फूटकर रो रही थी कि संजय मुझे ये धौंस देकर चला गया कि अगर मैंने किसी से कहा तो मेरी बड़ी बहन मीना की जिन्दगी बरबाद हो जाएगी।...मेरे दिमाग में भी ये बात बैठ गई, अपनी बहन को बर्बादी से बचाने के लिए मैंने अपना मुंह बंद ही रखा।...मैं ये जानती थी कि अगर मीना दीदी ये जानेंगी तो वे अपने पति से घृणा करने लगेंगी...। सभी कुछ नष्ट-भ्रष्ट हो जाता। अतः जज साहब मैं उस टीस को अंदर ही अंदर सहती रही।...जब भी मेरे सामने कोई संजय का नाम लेता मेरी विचित्र-सी हालत हो जाती।...मेरी जीभ तलवों से चिपककर रह जाती...कुछ बोल भी नहीं पाती थी मैं।

      मैं नहीं जानती थी जज साहब कि उस रात का पाप इस तरह मेरे पेट में पल रहा है।...जब पार्टी में यह रहस्य खुला तो मैं भी स्तब्ध रह गई। अगर मैं वहां भी संजय का नाम लेती तो हमारा परिवार समाप्त हो जाता लेकिन मेरे देवता गिरीश ने मेरा कलंक अपने माथे ले लिया।...शायद ही कोई इतना सच्चा प्यार कर सके। गिरीश मुझे अपने घर में रखना चाहता था लेकिन नहीं जज साहब...मैं अब स्वयं को इस देवता के काबिल नहीं समझती थी...राक्षस के पैरों तले मसली गई कली भला देवता के गले का हार कैसे बनती। अतः मैंने निर्णय किया कि मैं गिरीश के जीवन से निकल जाऊंगी किंतु मैं जानती थी कि गिरीश मुझसे कितना प्यार करता है अतः मैंने उसके दिल में अपने प्रति नफरत भरने के लिए एक ऐसा गंदा और झूठा पत्र लिखा जिसे पढ़कर गिरीश मुझे बेवफा...नागिन, हवस की पुजारिन जानकर अपने दिल से निकाल फेंके।...उस पत्र को लिखते समय मेरे दिल पर क्या बीती? ये शायद गिरीश ने भी नहीं सोचा था। उस पत्र का एक-एक शब्द झूठा था। जज साहब उस पत्र में मैंने एक कल्पित प्रेमी बनाया था ताकि गिरीश ये समझे कि वास्तव में मैं हवस की पुजारिन थी...अब मैं जीवित रहना नहीं चाहती थी जजसाहब...अतः आत्महत्या करने नदी पर पहुंच गई, मैं नदीं में कूद गई किंतु जब होश आया तो ये भी मेरा सौभाग्य था कि मैंने स्वयं को एक अस्पताल में पाया और वहां भी गिरीश उपस्थित था।...मिस्टर शेखर कहते हैं कि जब मैं नदी में कूदकर बेहोश होने के बाद होश में आई तो स्वयं को भूल चुकी थी और वह जीवन मैंने मोनेका बनकर गुजारा लेकिन एक अन्य दुर्घटना में मेरी याददास्त फिर लौट आई और मैं स्वयं को सुमन बताने लगी।...लेकिन मुझे मोनेका वाले जीवन की कोई घटना याद नहीं है।’’

      सुमन के लम्बे चौड़े बयान समाप्त हुए तो अदालत में मौत जैसा सन्नाटा था। सभी दिल थामे उसकी दर्द भरी कहानी सुन रहे थे।...गिरीश तो सुमन को देखता ही रह गया। उसे लगा जैसे सुमन ‘देवी’ से भी बढ़कर है।...उसने अब तक जो सुमन को बुरा-भला कहा है उससे वह बहुत बड़ा पाप हो गया है।...उसे लगा जैसे वह सुमन के सामने बहुत तुच्छ है।...उसने स्वयं को ही ‘बदनसीब’ समझा था, लेकिन आज उसे मालूम हुआ कि सुमन भी उससे कम बदनसीब नहीं है।

      सुमन सांस लेने के लिए रुकी थी, वह फिर आगे बोली–‘‘जब मुझे मिस्टर शेखर ने ये बताया कि मेरी बहन का हत्यारा संजय ही है तो मेरी भावनाएं चीख उठीं–मैं स्वयं को संभाल न सकी–अब तो मेरी बहन भी नहीं रही थी, जिसके कारण मैंने उस आवाज–उस राज को अपने सीने में दफन किए रखा था। अतः आज आकर मैंने इस समाज को बता दिया है कि जीजा और साली के रिश्ते को जो एक प्रकार से भाई-बहन का रिश्ता है–कुछ गंदे लोगों ने कितना गंदा और घिनौना बना दिया है–मैं इस समाज–इस दुनिया से–इन नौजवानों से अपील करती हूं कि आगे से समाज में कोई भी ऐसी कहानी जन्म न ले–गंदे लोग इस पवित्र रिश्ते को घिनौना न बनाएं ताकि कोई भी साली अपने जीजा से सिर्फ प्यार करे–उससे डरे नहीं–उससे घृणा न करे–वर्ना–वर्ना अगर ये रिश्ता इसी तरह गर्त में गिरता रहा तो ना कोई जीजा होगा–ना कोई साली–ना ये समाज होगा–ना ये दुनिया–कोई साली अपने जीजा से प्यार नहीं करेगी–जीजा जीजा नहीं रहेगा...नहीं–नहीं समाज से इस पाप को दूर करो–समाज से इस कलंक को निकाल फेंको–निकाल फेंको।’’ कहते-कहते सुमन रोने लगी–और अपने बॉक्स में बैठती चली गई। अदालत में उपस्थित प्रत्येक इंसान के आंसू उमड़ आए।

      उसके बाद– संजय को उम्र कैद की सजा मिली।

      गिरीश जब सुमन के करीब पहुंचा तो सुमन उसके कदमों में गिरकर सिसकने लगी–गिरीश की आंखों में भी मानो बाढ़ आ गई थी। प्रत्येक आंख में नीर था। गिरीश ने सुमन को चरणों से उठाकर सीने से लगा लिया। सुमन ने अपना मुखड़ा उसके सीने में छुपा लिया और फूट-फूटकर रोने लगी। गिरीश प्यार से उसके सिर पर हाथ फेर रहा था।

॥ समाप्त ॥


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