चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास ( पहला अध्याय ) तेरहवाँ बयान तीन पहर रात गुजर गई, उनके सब दोस्त जो बेहोश पड़े थे वह भी होश में आये मगर अपनी हालत देख-देख हैरान थे। लोगों ने पूछा, “आप लोग कैसे बेहोश हो गये और दीवान साहब कहाँ हैं?” उन्होंने कहा, “एक गंधी इत्र बेचने आया था जिसका इत्र सूँघते-सूँघते हम लोग बेहोश हो गये, अपनी खबर न रही। क्या जाने दीवान साहब कहाँ हैं? इसी से कहते हैं कि अमीरों की दोस्ती में हमेशा जान की जोखिम रहती है। अब कान उमेठते हैं कि कभी अमीरों का संग न करेंगे!” ऐसी-ऐसी ताज्जुब भरी बातें हो रही थीं और सवेरा हुआ ही चाहता था कि सामने से दीवान हरदयालसिंह आते दिखाई पड़े जो दरअसल श्री तेजसिंह बहादुर थे। दीवान साहब को आते देख सभी ने घेर लिया और पूछने लगे कि ‘आप कहाँ गये थे?’ दोस्तों ने पूछा,“वह नालायक गंधी कहाँ गया और हम लोग बेहोश कैसे हो गये?” दीवान साहब ने कहा, “वह चोर था, मैंने पहचान लिया। अच्छी तरह से उसका इत्र नहीं सूँघा, अगर सूँघता तो तुम्हारी तरह मैं भी बेहोश हो जाता। मैंने उसको पहचान कर पकड़ने का इरादा किया तो वह भागा, मैं भी गुस्से में उसके पीछे चला गया लेकिन वह निकल ही गया, अफसोस….!” इतने में लौंडी ने अर्ज किया, “कुछ भोजन कर लीजिए, सब-के-सब घर में भूखे बैठे हैं, इस वक्त तक सभी को रोते ही गुजरा!” दीवान साहब ने कहा, “अब तो सवेरा हो गया, भोजन क्या करूँ? मैं थक भी गया हूँ, सोने को जी चाहता है।” यह कह कर पलंग पर जा लेटे, उनके दोस्त भी अपने घर चले गये। सवेरे मामूल के मुताबिक वक्त पर दरबारी पोशाक पहन गुप्त रीति से ऐयारी का बटुआ कमर में बाँध दरबार की तरफ चले। दीवान साहब को देख रास्ते में बराबर दोपट्टी लोगों में हाथ उठने लगे, वह भी जरा-जरा सिर हिला सभी के सलामों का जवाब देते हुए कचहरी में पहुँचे। महाराज अब नहीं आये थे, तेजसिंह हरदयालसिंह की खसलत से वाकिफ थे। उन्हीं के मामूल के मुताबिक वह भी दरबार में दीवान की जगह बैठ काम करने लगे, थोड़ी देर में महाराज भी आ गये। दरबार में मौका पाकर हरदयालसिंह धीरे-धीरे अर्ज करने लगे, “महाराजाधिराज, ताबेदार को पक्की खबर मिली है कि चुनार के राजा शिवदत्तसिंह ने क्रूरसिंह की मदद की है और पाँच ऐयार साथ करके सरकार से बेअदबी करने के लिए इधर रवाना किया है, बल्कि यह भी कहा है कि पीछे हम भी लश्कर लेकर आयेंगे। इस वक्त बड़े तरद्दुद का सामना है क्योंकि सरकार में आजकल कोई ऐयार नहीं, नाजिम और अहमद थे सो वे भी क्रूर के साथ हैं, बल्कि सरकार के यहाँ वाले मुसलमान भी उसी तरफ मिले हुए हैं। आजकल वे ऐयार जरूर सूरत बदलकर शहर में घूमते और बदमाशी की फिक्र करते होंगे।” महाराज जयसिंह ने कहा, “ठीक है, मुसलमानों का रंग हम भी बेढब देखते हैं। फिर तुमने क्या बन्दोबस्त किया?” धीरे-धीरे महाराज और दीवान की बातें हो रही थीं कि इतने में दीवान साहब की निगाह एक चोबदार पर पड़ी जो दरबार में खड़ा छिपी निगाहों से चारों तरफ देख रहा था। वे गौर से उसकी तरफ देखने लगे। दीवान साहब को गौर से देखते हुए-पा वह चोबदार चौकन्ना हो गया और कुछ सम्हल गया। बात छोड़ कड़क के दीवान साहब ने कहा, “पकड़ो उस चोबदार को!” हुक्म पाते ही लोग उसकी तरफ बढ़े, लेकिन वह सिर पर पैर रखकर ऐसा भागा कि किसी के हाथ न लगा। तेजसिंह चाहते तो उस ऐयार को जो चोबदार बनके आया था पकड़ लेते, मगर इनको तो सब काम बल्कि उठना-बैठना भी उसी तरह से करना था जैसा हरदयालसिंह करते थे, इसलिए वह अपनी जगह से न उठे। वह ऐयार भाग गया जो चोबदार बना हुआ था, जो लोग पकड़ने गये थे वापस आ गये। दीवान साहब ने कहा, “महाराज देखिए, जो मैंने अर्ज किया था औऱ जिस बात का मुझको डर था वह ठीक निकली।’ महाराज को यह तमाशा देखकर खौफ हुआ, जल्दी दरबार बर्खास्त कर दीवान को साथ ले तखलिए में चले गये। जब बैठे तो हरदयालसिंह से पूछा, “क्यों जी अब क्या करना चाहिए? उस दुष्ट क्रूर ने तो एक बड़े भारी को हमारा दुश्मन बनाकर उभारा है। महाराज शिवदत्त की बराबरी हम किसी तरह भी नहीं कर सकते।” दीवान साहब ने कहा, “महाराज, मैं फिर अर्ज करता हूँ कि हमारे सरकार में इस समय कोई ऐयार नहीं, नाजिम और अहमद थे सो क्रूर ही की तरफ जा मिले, ऐयारों का जवाब बिना ऐयार के कोई नहीं दे सकता। वे लोग बड़े चालाक और फसादी होते हैं, हजार-पाँच सौ की जान ले लेना उन लोगों के आगे कोई बात नहीं है, इसलिए जरूर कोई ईमानदार ऐयार मुकर्रर करना चाहिए, पर यह भी एकाएक नहीं हो सकता। सुना है राजा सुरेन्द्रसिंह के दीवान का लड़का तेजसिंह बड़ा भारी ऐयार निकला है, मैं उम्मीद करता हूँ कि अगर महाराज चाहेंगे और तेजसिंह को मदद के लिए माँगेंगे तो राजा सुरेन्द्रसिंह को देने में कोई उज्र न होगा क्योंकि वे महाराज को दिल से चाहते हैं। क्या हुआ अगर महाराज ने वीरेन्द्रसिंह का आना-जाना बन्द कर दिया, अब भी राजा सुरेन्द्रसिंह का दिल महाराज की तरफ से वैसा ही है जैसा पहले था।” हरदयालसिंह की बात सुन के थोड़ी देर महाराज गौर करते रहे फिर बोले, “तुम्हारा कहना ठीक है, सुरेन्द्रसिंह और उनका लड़का वीरेन्द्रसिंह दोनों बड़े लायक है। इसमें कुछ शक नहीं कि वीरेन्द्रसिंह वीर है और राजनीति भी अच्छी तरह जानता है, हजार सेना लेकर दस हजार से लड़ने वाला है और तेजसिंह की चालाकी में भी कोई शक नहीं, जैसा तुम कहते हो वैसा ही है। मगर मुझसे उन लोगों के साथ बड़ी ही बेमुरव्वती हो गई है जिसके लिए मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ, मुझे उसने मदद माँगते शर्म मालूम होती है, इसके अलावा क्या जाने उनको मेरी तरफ से रंज हो गया हो, हाँ, तुम जाओ और उनसे मिलो। अगर मेरी तरफ से कुछ मलाल उनके दिल में हो तो उसे मिटा दो और तेजसिंह को लाओ तो काम चले।” हरदयालसिंह ने कहा, “बहुत अच्छा महाराज, मैं खुद ही जाउँगा और इस काम को करूँगा।” महाराज ने अपनी मोहर लगाकर एक मुख्तसर चिट्ठी अपने हाथ से लिखी और अंगूठी की मोहर लगाकर उनके हवाले किया।” हरदयालसिंह महाराज से विदा हो अपने घर आये और अन्दर जनाने में न जाकर बाहर ही रहे, खाने को वहाँ ही मँगवाया। खा-पीकर बैठे और सोचने लगे कि चपला से मिल के सब हाल कह लें तो जायें। थोड़ा दिन बाकी था जब चपला आई। एकान्त में ले जाकर हरदयालसिंह ने सब हाल कहा और वह चिट्ठी भी दिखाई जो महाराज ने लिख दी थी। चपला बहुत ही खुश हुई और बोली, “हरदयालसिंह तुम्हारे मेल में आ जायेगा, वह बहुत ही लायक है। अब तुम जाओ, इस काम को जल्दी करो।” चपला तेजसिंह की चालाकी की तारीफ करने लगी, अब वीरेन्द्रसिंह से मुलाकात होगी यह उम्मीद दिल में हुई। नकली हरदयालसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए, रास्ते में अपनी सूरत असली बना ली। *–*–* चौदहवाँ बयान नौगढ़ और विजयगढ़ का राज पहाड़ी है, जंगल भी बहुत भारी और घना है, नदियाँ चन्द्रप्रभा और कर्मनाशा घूमती हुईं इन पहाड़ों पर बहती हैं। जा-बजा खोह और दर्रे पहाड़ों में बड़े खूबसूरत कुदरती बने हुए हैं। पेड़ों में साखू, तेंदू, विजयसार, सनई, कोरया, गो, खाजा, पेयार, जिगना, आसन आदि के पेड़ हैं। इसके अलावा पारिजात के पेड़ भी हैं। मील-भर इधर-उधर जाइए तो घने जंगल में फँस जाइएगा! कहीं रास्ता न मालूम होगा कि कहाँ से आये और किधर जाएंगे। बरसात के मौसम में तो अजब ही कैफियत रहती है, कोस भर जाइए, रास्ते में दस नाले मिलेंगे। जंगली जानवरों में बारहसिंघा, चीता, भालू, तेंदुआ, चिकारा, लंगूर, बन्दर वगैरह के अलावा कभी-कभी शेर भी दिखाई देते हैं मगर बरसात में नहीं, क्योंकि नदी नालों में पानी ज्यादा हो जाने से उनके रहने की जगह खराब हो जाती है, और तब वे ऊँची पहाड़ियों पर चले जाते हैं। इन पहाड़ों पर हिरन नहीं होते मगर पहाड़ के नीचे बहुत से दीख पड़ते हैं। परिन्दों में तीतर, बटेर, आदि की अपेक्षा मोर ज्यादा होते हैं। गरज कि ये सुहावने पहाड़ अभी तक लिखे मुताबिक मौजूद हैं और हर तरह से देखने के काबिल हैं। उन ऐयारों ने जो चुनार से क्रूर और नाजिम के संग आये थे, शहर में न आकर इसी दिलचस्प जंगल में मय क्रूर के अपना डेरा जमाया, और आपस में यह राय हो गई कि सब अलग-अलग जाकर ऐयारी करें। बद्रीनाथ ने जो इन ऐयारों में सबसे ज्यादा चालाक और होशियार था यह राय निकाली कि एक दफे सब कोई अलग-अलग भेष बदलकर शहर में घुस दरबार और महल के सब आदमियों तथा लौंडियों बल्कि रानी तक को देख के पहचान आवें तथा चाल-चलन तजबीज कर नाम भी याद कर लें जिससे वक्त पर ऐयारी करने के लिए सूरत बदलने और बातचीत करने में फर्क न पड़े। इस राय को सभी ने पसन्द किया। नाजिम ने सभी का नाम बताया और जहाँ तक हो सका पहचनवा भी दिया! वे ऐयार लोग तरह-तरह के भेष बदलकर महल में भी घुस आये और सब कुछ देख-भाल आये, मगर ऐयारी का मौका चपला की होशियारी की वजह से किसी को न मिला और उनको ऐयारी करना मंजूर भी न था जब तक कि हर तरह से देख-भाल न लेते। तेजसिंह की घुड़की सुन वीरेन्द्रसिंह तो शर्मा गये और चपला के मुँह की तरफ देखने लगे! मगर नकली चपला से न रहा गया, फँसतो चुकी ही थी, झट खंजर निकाल कर तेजसिंह की तरफ दौड़ी। वीरेन्द्रसिंह भी जान गये कि यह ऐयार है, उसको खंजर ले तेजसिंह पर दौड़ते देख लपक कर हाथ से उसकी कलाई पकड़ी जिसमें खंजर था, दूसरा हाथ कमर में डाल उठा लिया और सिर से ऊँचा करना चाहते थे कि फेंके जिससे हड्डी पसली सब चूर हो जाये कि तेजसिंह ने आवाज दी, “हाँ, हाँ, पटकना मत, मरजायेगा, ऐयार लोगों का काम ही यही है, छोड़ दो, मेरे हवाले करो।” यह सुन कुमार ने धीरे से जमीन पर पटक कर मुश्कें बाँध तेजसिंह के हवाले किया। तेजसिंह ने जबर्दस्ती उसके नाक में दवा ठूँस बेहोश किया और गठरी में बाँध किनारे रख बातें करने लगे। तेजसिंह ने कुमार को समझाया और कहा, “देखिए, जो हो गया सो हो गया, मगर अब धोखा मत खाइएगा।” कुमार बहुत शर्मिन्दा थे, इसका कुछ जवाब न दे विजयगढ़ का हाल पूछने लगे। तेजसिंह ने सब खुलासा ब्यौरा कहा और चिट्ठी भी दिखाई जो महाराज जयसिंह ने राजा सुरेन्द्रसिंह के नाम लिखी थी। कुमार यह सब सुन और चिट्ठी देख उछल पड़े, मारे खुशी के तेजसिंह को गले से लगा लिया और बोले, “अब जो कुछ करना हो जल्दी कर डालो।” तेजसिंह ने महाराज जयसिंह की चिट्ठी दिखाई, हरदयाल के कपड़े जो पहने हुए थे उनको दे दिये और अब खुलासा हाल कह कर बोले, “अब आप अपने कपड़े सहेज लीजिए और यह चिट्ठी लेकर दरबार में जाइए, राजा से मुझको माँग लीजिए जिससे मैं आपके साथ चलूँ, नहीं तो वे ऐयार जो चुनार से आये हैं विजयगढ़ को गारत कर डालेंगे और महाराज शिवदत्त अपना कब्जा विजयगढ़ पर कर लेंगे। मैं आपके संग चलकर उन ऐयारों को गिरफ्तार करूँगा। आप दो बातों का सबसे ज्यादा खयाल रखियेगा, एक यह कि जहाँ तक बने मुसलमानों को बाहर कीजिए और हिन्दुओं को रखिए, दूसरे यह कि कुँवर वीरेन्द्रसिंह का हमेशा ध्यान रखिये और महाराज से बारबर उनकी तारीफ कीजिए जिससे महाराज मदद के वास्ते उनको भी बुलावें!” हरदयालसिंह ने कसम खाकर कहा, “मैं हमेशा तुम लोगों का खैरख्वाह हूँ, जो कुछ तुमने कहा है उससे ज्यादा कर दिखाऊँगा।” तेजसिंह ने ऐयारी की गठरी खोली और एक खुलासा बेड़ी उसके पैर में डाल तथा ऐयारी का बटुआ और खंजर उसके कमर से निकालने के बाद उसे होश में लाये। उसके चेहरे को साफ किया तो मालूम हुआकि वह भगवानदत्त है। ऐयार होने के कारण चुनार के सब ऐयारों को तेजसिंह पहचानते थे और वे सब लोग भी उनको बखूबी जानते थे। तेजसिंह ने भगवानदत्त को नहर के किनारे छोड़ा और हरदयालसिंह को साथ ले खोह के बाहर चले। दरवाजे के पास आये, हरदयाल से कहा कि, “मेहरबानी करके मुझे इजाजत दें कि मैं थोड़ी देर के लिए आपको फिर बेहोश करूँ, तहखाने के बाहर होश में ले आऊंगा।” हरदयालसिंह ने कहा, “इसमें मुझको कुछ उज्र नहीं है, मैं यह नहीं चाहता कि इस तहखाने में आने का रास्ता देख लूं, यह तुम्ही लोगों के काम हैं, मैं देखकर क्या करूंगा?” तेजसिंह हरदयालसिंह को बेहोश करके बाहर लाये और होश में लाकर बोले, “अब आप कपड़े पहन लीजिए और मेरे साथ चलिए।” उन्होंने वैसा ही किया। शहर में आकर तेजसिंह के कहे मुताबिक हरदयालसिंह अलग होकर अकेले राजा सुरेन्द्रसिंह के दरबार में गये। राजा ने उनकी बड़ी खातिर की और हाल पूछा। उन्होंने बहुत कुछ कहने के बाद महाराज जयसिंह की चिट्ठी दी जिसको राजा ने इज्जत के साथ लेकर अपने वजीर जीतसिंह को पढ़ने के लिए दिया, जीतसिंह ने जोर से खत पढ़ा। राजा सुरेन्द्रसिंह चिट्ठी पढ़कर बहुत खुश हुए और हरदयालसिंह की तरफ देखकर बोले, “मेरा राज्य महाराज जयसिंह का है, जिसे चाहें बुला लें मुझे कुछ उज्र नहीं, तेजसिंह आपके साथ जायेगा।” यह कह अपने वजीर जीतसिंह को हरदयालसिंह की मेहमानी का हुक्म दिया और दरबार बर्खास्त किया। दीवान हरदयालसिंह की मेहमानी तीन दिन तक बहुत अच्छी तरह से की गई जिससे वे बहुत खुश हुए। चौथे दिन दीवान साहब ने राजा से रुखसत मांगी, राजा बहुत कुछ दौलत जवाहरात से उनकी विदाई की और तेजसिंह को बुला समझा-बुझाकर दीवान साहब के संग किया। बड़े साज-सामान के साथ ये दोनों विजयगढ़ पहुँचे और शाम को दरबार में महाराज के पास हाजिर हुए। हरदयालसिंह ने महाराज की चिट्ठी का जवाब दिया और सब हाल कह सुरेन्द्रसिंह की बड़ी तारीफ की जिससे महाराज बहुत खुश हुए और तेजसिंह को उसी वक्त खिलअत देकर हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि, “इनके रहने के लिए मकान का बन्दोबस्त कर दो और इनकी खातिरदारी और मेहमानी का बोझ अपने ऊपर समझो।” दरबार उठने पर दीवान साहब तेजसिंह को साथ ले विदा हुए और एक बहुत अच्छे कमरे में डेरा दिलवाया। नौकर और पहरे वाले तथा प्यादों का भी बहुत अच्छा इन्तजाम कर दिया जो सब हिन्दू थे। दूसरे दिन तेजसिंह महाराज के दरबार में हाजिर हुए, दीवान हरदयालसिंह के बगल में एक कुर्सी उनके वास्ते मुकर्रर की गई। *–*–* « पीछे जायेँ | आगे पढेँ » • चन्द्रकान्ता [ होम पेज ] |
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