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चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास

( पहला अध्याय )

पन्द्रहवाँ बयान

      हम पहले यह लिख चुके हैं कि महाराज शिवदत्त के यहाँ जितने ऐयार हैं सभी को तेजसिंह पहचानते हैं। अब तेजसिंह को यह जानने की फिक्र हुई कि उनमें से कौन-कौन चार आये हैं, इसलिए दूसरे दिन शाम के वक्त उन्होंने अपनी सूरत भगवानदत्त की बनाई जिसको तहखाने में बन्द कर आये थे और शहर से निकल जंगल-में इधर-उधर घूमने लगे, पर कहीं कुछ पता न लगा। बरसात का दिन आ चुका था, रात अंधेरी और बदली छाई थी, आखिर तेजसिंह ने एक टीले पर खड़े होकर जफील बजाई।

      थोड़ी देर में तीनों ऐयार मय पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषी के उसी जगह पहुंचे और भगवानदत्त को खड़े देखकर बोले,“क्यों जी, तुम नौगढ़ गये थे ना? क्या किया, खाली क्यों चले आये?”

      तेजसिंह ने सबों को पहचानने के बाद जवाब दिया, “वहाँ तेजसिंह की बदौलत कोई कार्रवाई न चली, तुम लोगों में से कोई एक आदमी मेरे साथ चले तो काम बने!”

      पन्ना – अच्छा कल हम तुम्हारे साथ चलेंगे, आज चलो महल में कोई कार्रवाई करें।

      तेजसिंह – अच्छा चलो, मगर मुझको इस वक्त भूख बड़े जोर की लगी है, कुछ खा लूँ तो काम में जी लगे। तुम लोगों के पास कुछ हो तो लाओ।

      जगन्नाथ – पास में तो जो कुछ है बेहोशी मिला है, बाजार से जाकर कुछ लाओ तो सब कोई खा-पीकर छुट्टी करें।

      भगवान – अच्छा एक आदमी मेरे साथ चलो।

      पन्नालाल साथ हुए, दोनों शहर की तरफ चले। रास्ते में पन्नालाल ने कहा, “हम लोगों को अपनी सूरत बदल लेना चाहिए क्योंकि तेजसिंह कल से इसी शहर में आया है और हम सबों को पहचानता भी है, शायद घूमता-फिरता कहीं मिल जाये।”

      भगवानदत्त ने यह सोचकर कि सूरत बदलेंगे तो रोगन लगाते वक्त शायद यह पहचान ले, जवाब दिया, “कोई जरूर नहीं, कौन रात को मिलता है?”

      भगवानदत्त के इनकार करने से पन्नालाल को शक हो गया और गौर से इनकी सूरत देखने लगा, मगर रात अंधेरी थी पहचान न सका, आखिर को जोर से जफील बजाई। शहर के पास आ चुके थे, ऐयार लोग दूर थे जफील सुन न सके; तेजसिंह भी समझ गये कि इसको शक हो गया, अब देर करने की कुछ जरूरत नहीं, झट उसके गले में हाथ डाल दिया, पन्नालाल ने भी खंजर निकाल लिया, दोनों में खूब जोर की भिड़न्त हो गई। आखिर को तेजसिंह ने पन्ना को उठा के दे मारा और मुश्कें कस बेहोश कर गठरी बांध ली तथा पीठ पर लाद शहर की तरफ रवाना हुए। असली सूरत बनाये डेरे पर पहुंचे। एक कोठरी में पन्नालाल को बन्द कर दिया और पहरे वालों को सख्त ताकीद कर आप उसी कोठरी के दरवाजे पर पलंग बिछवा सो रहे, सवेरे पन्नालाल को साथ ले दरबार की तरफ चले।

      इधर रामनारायण, बद्रीनाथ और ज्योतिषीजी राह देख रहे थे कि अब दोनों आदमी खाने का सामाना लाते होंगे, मगर कुछ नहीं, यहाँ तो मामला ही दूसरा था। उन लोगों को शक हो गया कि कहीं दोनों गिरफ्तार न हो गये हों, मगर यह खयाल में न आया कि भगवानदत्त असल में दूसरे ही कृपानिधान थे।

      उस रात को कुछ न कर सके पर सवेरे सूरत बदल कर खोज में निकले। पहले महाराज जयसिंह के दरबार की तरफ चले, देखा कि तेजसिंह दरबार में जा रहे हैं और उसके पीछे-पीछे दस-पन्द्रह सिपाही कैदी की तरह पन्नालाल को लिये चल रहे हैं। उन ऐयारों ने भी साथ-ही-साथ दरबार का रास्ता पकड़ा।

      तेजसिंह पन्नालाल को लिए दरबारमें पहुँचे, देखा कचहरी खूब लगी हुई है, महाराज बैठे हैं, वह भी सलाम कर अपनी कुर्सी पर जा बैठे, कैदी को सामने खड़ा कर दिया।

      महाराज ने पूछा, “क्यों तेजसिंह किसको लाये हो?” तेजसिंह ने जवाब दिया, “महाराज, उन पाँचों ऐयारों में से जो चुनार से आये हैं एक गिरफ्तार हुआ है, इसको सरकार में लाया हूँ। जो इसके लिए मुनासिब हो, हुक्म किया जाये।”

      महाराज गौर के साथ खुशी भरी निगाहो से उसकी तरफ देखने लगे और पूछा, “तेरा नाम क्या है?” उसने कहा, “मक्कारखां उर्फ ऐयारखां।”

      महाराज उसकी ढिठाई और बात पर हँस पड़े, हुक्म दिया, “बस इससे ज्यादा पूछने की कोई जरूरत नहीं, सीधे कैदखाने में ले जाकर इसको बन्द करो और सख्त पहरे बैठा दो।”

      हुक्म पाते ही प्यादों ने उस ऐयार के हाथों में हथकड़ी और पैरों में बेड़ी डाल दी और कैदखाने की तरफ ले गये। महाराज ने खुश होकर तेजसिंह को सौ अशर्फी इनाम में दीं। तेजसिंह ने खड़े होकर महाराज को सलाम किया और अशर्फियाँ बटुए में रख लीं।

      रामनारायण, बद्रीनाथ और ज्योतिषीजी भेष बदले हुए दरबारमें खड़े यह सब तमाशा देख रहे थे जब पन्नालाल को कैदखाने का हुक्म हुआ, वे लोग भी बाहर चले आये और आपस में सलाह कर भारी चालाकी की। किनारे जाकर बद्रीनाथ ने तो तेजसिंह की सूरत बनाई और रामनारायण और ज्योतिषीजी प्यादे बनकर तेजी के साथ उन सिपाहियों के साथ चले जो पन्नालाल को कैदखाने की तरफ लिये जा रहे थे। पास पहुँच कर बोले, “ठहरो, ठहरो, इस नालायक ऐयार के लिए महाराज ने दूसरा हुक्म दिया है, क्योंकि मैंने अर्ज किया था कि कैदखाने में इसके संगी-साथी इसको किसी-न-किसी तरह छुड़ा ले जायेंगे, अगर मैं इसको अपनी हिफाजत में रखूंगा तो बेहतर होगा क्योंकि मैंने ही इसे पकड़ा है, मेरी हिफाजत में यह रह भी सकेगा, सो तुम लोग इसको मेरे हवाले करो।”

      प्यादे तो जानते ही थे कि इसको तेजसिंह ने पकड़ा है, कुछ इनकार न किया और उसे उनके हवाले कर दिया। नकली तेजसिंह ने पन्नालाल को ले जंगल का रास्ता लिया। उसके चले जाने पर उसका हाल अर्ज करने के लिए प्यादे फिर दरबार में लौट आये। दरबार उसी तरह लगा हुआ था, तेजसिंह भी अपनी जगह बैठे थे। उनको देख प्यादों के होश उड़ गये और अर्ज करते-करते रुक गये।

      तेजसिंह ने इनकी तरफ देखकर पूछा, “क्यों? क्या बात है, उस ऐयार को कैद कर आये?” प्यादों ने डरते-डरते कहा, “जी उसको तो आप ही ने हम लोगों से ले लिया।”

      तेजसिंह उनकी बात सुनकर चौंक पड़े और बोले, “मैंने क्या किया है? मैं तो तब से इसी जगह बैठा हूँ!”

      प्यादों की जान डर और ताज्जुब से सूख गई, कुछ जवाब न दे सके, पत्थर की तस्वीर की तरह जैसे-के-तैसे खड़े रहे। महाराज ने तेजसिंह की तरफ देखकर पूछा, “क्यों? क्या हुआ?”

      तेजसिंह ने कहा, “ऐयार चालाकी खेल गये, मेरी सूरत बना उसी कैदी को इन लोगों से छुड़ा ले गये!”

      तेजसिंह ने अर्ज किया, “महाराज इन लोगों का कसूर नहीं, ऐयार लोग ऐसे ही होते हैं, बड़े-बड़ों को धोखा दे जाते हैं, इन लोगों की क्या हकीकत है।”

      तेजसिंह के कहने से महाराज ने उन प्यादों का कसूर माफ किया, मगर उस ऐयार के निकल जाने का रंज देर तक रहा।

      बद्रीनाथ वगैरह पन्नालाल को लिए हुए जंगल में पहुँचे, एक पेड़ के नीचे बैठकर उसका हाल पूछा, उसने सब हाल कहा। अब इन लोगों को मालूम हुआ कि भगवानदत्त को भी तेजसिंह ने पकड़ के कहीं छिपाया है, यह सोच सभी ने पण्डित जगन्नाथ से कहा, “आप रमल के जरिए दरियाफ्त कीजिए कि भगवानदत्त कहाँ है?”

      ज्योतिषीजी ने रमल फेंका और कुछ गिन-गिनाकर कहा, “बेशक भगवानदत्त को भी तेजसिंह ने ही पकड़ा है और यहाँ से दो कोस दूर उत्तर की तरफ एक खोह में कैद कर रक्खा है।”

      यह सुन सभी ने उस खोह का रास्ता लिया। ज्योतिषीजी बार-बार रमल फेंकते और विचार करते हुए उस खोह तक पहुँचे और अन्दर गये, जब उजाला नजर आया तो देखा, सामने एक फाटक है मगर यह नहीं मालूम होता था कि किस तरह खुलेगा। ज्योतिषीजी ने फिर रमल फेंका और सोचकर कहा, “यह दरवाजा एक तिलिस्म के साथ मिला हुआ है और रमल तिलिस्म में कुछ काम नहीं कर सकता, इसके खोलने की कोई तरकीब निकाली जाय तो काम चले।”

      लाचार वे सब उस खोह के बाहर निकल आये और ऐयारी की फिक्र करने लगे।

*–*–*

सोलहवाँ बयान

      एक दिन तेजसिंह बालादवी के लिए विजयगढ़ के बाहर निकले। पहर दिन बाकी था जब घूमते-फिरते बहुत दूर निकल गये। देखा कि एक पेड़ के नीचे कुँवर वीरेन्द्रसिंह बैठे हैं। उनकी सवारी का घोड़ा पेड़ से बँधा हुआ है, सामने एक बारहसिंघा मरा पड़ा है, उसके एक तरफ आग सुलग रही है, और पास जाने पर देखा कि कुमार के सामने पत्तों पर कुछ टुकड़े गोश्त के भी पड़े हैं।

      तेजसिंह को देखकर कुमार ने जोर से कहा, “आओ भाई तेजिसिंह, तुम तो विजयगढ़ ऐसा गये कि फिर खबर भी न ली, क्या हमको एक दम ही भूल गये?”

      तेजसिंह – (हँसकर) विजयगढ़ में मैं आप ही का काम कर रहा हूँ कि अपने बाप का?

वीरेन्द्रसिंह – अपने बाप का।

      यह कहकर हँस पड़े। तेजसिंह ने इस बात का कुछ भी जवाब न दिया और हंसते हुए पास जा बैठे। कुमार ने पूछा, “कहो चन्द्रकान्ता से मुलाकात हुई थी?”

      तेजसिंह ने जवाब दिया, “इधर जब से मैं गया हूँ इसी बीच में एक ऐयार को पकड़ा था। महाराज ने उसको कैद करने का हुक्म दिया मगर कैदखाने तक पहुँचने न पाया था कि रास्ते ही में मेरी सूरत बना उसके साथी ऐयारों ने उसे छुड़ा लिया, फिर अभी तक कोई गिरफ्तार न हुआ।”

कुमार – वे लोग भी बड़े शैतान हैं!

तेजसिंह – और तो जो हैं, बद्रीनाथ भी चुनार से इन लोगों के साथ आया है, वह बड़ा भारी चालाक है। मुझको अगर खौफ रहता है तो उसी का! खैर, देखा जायेगा, क्या हर्ज है। यह तो बताइए, आप यहाँ क्या कर रहे हैं? कोई आदमी भी साथ नहीं है।

कुमार – आज मैं कई आदमियों को ले सवेरे ही शिकार खेलने के लिए निकला, दोपहर तक तो हैरान रहा, कुछ हाथ न लगा, आखिर को यह बारहसिंघा सामने से निकला और मैंने उसके पीछे घोड़ा फेंका। इसने मुझको बहुत हैरान किया, संग के सब साथी छूट गये, अब इस समय तीर खाकर गिरा है। मुझको भूख बड़ी जोर की लगी थी इससे जी में आया कि कुछ गोश्त भून के खाऊँ! इसी फिक्र में बैठा था कि सामने से तुम दिखाई पड़े, अब लो तुम ही इसको भूनो। मेरे पास कुछ मसाला था उसको मैंने धो-धाकर इन टुकड़ों में लगा दिया है, अब तैयार करो, तुम भी खाओ मैं भी खाऊँ, मगर जल्दी करो, आज दिन भर से कुछ नहीं खाया।

      तेजसिंह ने बहुत जल्द गोश्त तैयार किया और एक सोते के किनारे जहाँ साफ पानी निकल रहा था बैठकर दोनों खाने लगे। वीरेन्द्रसिंह मसाला पोंछ-पोछकर खाते थे, तेजसिंह ने पूछा, “आप मसाला क्यों पोंछ रहे हैं?”

      कुमार ने जवाब दिया, “फीका अच्छा मालूम होता है।”

      दो-तीन टुकड़े खाकर वीरेन्द्रसिंह ने सोते में से चुल्लू-भर के खूब पानी पिया और कहा, “बस भाई, मेरी तबीयत भर गई, दिन भर भूखे रहने पर कुछ खाया नहीं जाता।”

      तेजसिंह ने कहा, “आप खाइए चाहे न खाइये मैं तो छोड़ता नहीं, बड़े मजे का बन पड़ा है।”

      आखिर जहाँ तक बन पड़ा खूब खाया और तब हाथ-मुँह धोकर बोले, “चलिए, अब आपको नौगढ़ पहुंचा कर फिर फिरेंगे।”

      वीरेन्द्रसिंह 'चलो' कहकर घोड़े पर सवार हुए और तेजसिंह पैदल साथ चले।

      थोड़ी दूर जाकर तेजसिंह बोले, “न मालूम क्यों मेरा सिर घूमता है।”

      कुमार ने कहा, “तुम मांस ज्यादा खा गये हो, उसने गर्मी की है।”

      थोड़ी दूर गये थे कि तेजसिंह चक्कर खाकर जमीन पर गिर पड़े। वीरेन्द्रसिंह ने झट घोड़े पर से कूदकर उनके हाथ-पैर खूब कसके गठरी में बाँध पीठ पर लाद लिया और घोड़े की बाग थाम विजयगढ़ का रास्ता लिया। थोड़ी दूर जाकर जोर से जफील (सीटी) बजाई जिसकी आवाज जंगल में दूर-दूर तक गूँज गई। थोड़ी देर में क्रूरसिंह, पन्नालाल, रामनारायण और ज्योतिषीजी आ पहुँचे।

      पन्नालाल ने खुश होकर कहा, “वाह जी बद्रीनाथ, तुमने तो बड़ा भारी काम किया। बड़े जबर्दस्त को फाँसा! अब क्या है, ले लिया!!”

      क्रूरसिंह मारे खुशी के उछल पड़ा। बद्रनीथ ने, जो अभी तक कुँवर वीरेन्द्रसिंह बना हुआ था गठरी पीठ से उतार कर जमीन पर रख दी और रामनारायण से कहा, “तुम इस घोड़े को नौगढ़ पहुँचा दो, जिस अस्तबल से चुरा लाये थे उसी के पास छोड़ आओ, आप ही लोग बाँध लेंगे।”

      यह सुनकर रामनारायण घोड़े पर सवार हो नौगढ़ चला गया। बद्रीनाथ ने तेजसिंह की गठरी अपनी पीठ पर लादी और ऐयारों को कुछ समझा-बुझाकर चुनार का रास्ता लिया।

      तेजसिंह को मामूल था कि रोज महाराज जयसिंह के दरबार में जाते और सलाम करके कुर्सी पर बैठ जाते। दो-एक दिन महाराज ने तेजसिंह की कुर्सी खाली देखी, हरदयालसिंह से पूछा कि ‘आजकल तेजसिंह नजर नहीं आते, क्या तुमसे मुलाकात हुई थी?

      दीवान साहब ने अर्ज किया, “नहीं, मुझसे भी मुलाकात नहीं हुई, आज दरियाफ्त करके अर्ज करूंगा।”

      दरबार बर्खास्त होने के बाद दीवान साहब तेजसिंह के डेरे पर गये, मुलाकात ने होने पर नौकरों से दरियाफ्त किया। सभी ने कहा, “कई दिन से वे यहाँ नहीं है, हम लोगों ने बहुत खोज की मगर पता न लगा।”

      दीवान हरदयालसिंह यह सुनकर हैरान रह गये। अपने मकान पर जाकर सोचने लगे कि अब क्या किया जाये? अगर तेजसिंह का पता न लगेगा तो बड़ी बदनामी होगी, जहाँ से हो, खोज लगाना चाहिए। आखिर बहुत से आदमियों को इधर-उधर पता लगाने के लिए रवाना किया और अपनी तरफ से एक चिट्ठी नौगढ़ के दीवान जीतसिंह के पास भेजकर ले जाने वाले को ताकीद कर दी कि कल दरबार से पहले इसका जवाब लेकर आना। वह आदमी खत लिये शाम को नौगढ़ को पहुँचा और दीवान जीतसिंह के मकान पर जाकर अपने आने की इत्तिला करवाई। दीवान साहब ने अपने सामने बुलाकर हाल पूछा, उसने सलाम करके खत दिया। दीवान साहब ने गौर से खत को पढ़ा, दिल में यकीन हो गया कि तेजसिंह जरूर ऐयारों के हाथ पकड़ा गया। यह जवाब लिखकर कि ‘ वह यहाँ नहीं है’ आदमी को विदा कर दिया और अपने कई जासूसों को बुलाकर पता लगाने के लिए इधर-उधर रवाना किया। दूसरे दिन दरबार में दीवान जीतसिंह ने राजा सुरेन्द्रसिंह से अर्ज किया, “महाराज, कल विजयगढ़ से दीवान हरदयालसिंह का पत्र लेकर एक आदमी आया था, यह दरियाफ्त किया था, कि तेजसिंह नौगढ़ में है कि नहीं, क्योंकि कई दिनों से वह विजयगढ़ में नहीं है! मैंने जवाब में लिख दिया है कि ‘यहाँ नहीं हैं’।”

      राजा को यह सुनकर ताज्जुब हुआ और दीवान से पूछा, “तेजसिंह वहाँ भी नहीं हैं और यहाँ भी नहीं तो कहाँ चला गया? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि ऐयारों के हाथ पड़ गया हो, क्योंकि महाराज शिवदत्त के कई ऐयार विजयगढ़ में पहुँचे हुए हैं और उनसे मुलाकात करने के लिए अकेला तेजसिंह गया था!”

      दीवान साहब ने कहा, “जहाँ तक मैं समझता हूँ, वह ऐयारों के हाथ में गिरफ्तार हो गया होगा, खैर, जो कुछ होगा दो-चार दिन में मालूम हो जायेगा।”

      कुँवर वीरेन्द्रसिंह भी दरबार में राजा के दाहिनी तरफ कुर्सी पर बैठे यह बात सुन रहे थे। उन्होंने अर्ज किया, “अगर हुक्म हो तो मैं तेजसिंह का पता लगाने जाऊं?”

      दीवान जीतसिंह ने यह सुनकर कुमार की तरफ देखा और हँसकर जवाब दिया, “आपकी हिम्मत और जवांमर्दी में कोई शक नहीं, मगर इस बात को सोचना चाहिए कि तेजसिंह के वास्ते, जिसका काम ऐयारी ही है और ऐयारों के हाथ फँस गया है, आप हैरान हो जाएँ इसकी क्या जरूरत है? यह तो आप जानते ही हैं कि अगर किसी ऐयार को कोई ऐयार पकड़ता है तो सिवाय कैद रखने के जान से नहीं मारता, अगर तेजसिंह उन लोगों के हाथ में पड़ गया है तो कैद होगा, किसी तरह छूट ही जायेगा क्योंकि वह अपने फन में बड़ा होशियार है, सिवाय इसके जो ऐयारी का काम करेगा चाहे वह कितना ही चालाक क्यों न हो, कभी-न-कभी फँस ही जायेगा, फिर इसके लिए सोचना क्या? दस-पाँच दिन सब्र कीजिए, देखिए क्या होता है? इस बीच में, अगर वह न आया तो आपको जो कुछ करना हो कीजिएगा।”

      वीरेन्द्रसिंह ने जवाब दिया, “हाँ, आपका कहना ठीक है मगर पता लगाना जरूरी है, यह सोचकर कि वह चालाक है, खुद छूट जायेगा-खोज न करना मुनासिब नहीं।”

      जीतसिंह ने कहा, “सच है, आपको मुहब्बत के सबब से उसका ज्यादा खयाल है, खैर, देखा जायगा।” यह सुन राजा सुरेन्द्रसिंह ने कहा, “और कुछ नहीं तो किसी को पता लगाने के लिए भेज दो।”

      इसके जवाब में दीवान साहब ने कहा, “कई जासूसों का पता लगाने के लिए भेज चुका हूँ।” राजा और कुंवर वीरेन्द्रसिंह चुप रहे मगर खयाल इस बात का किसी के दिल से न गया।

      विजयगढ़ में दूसरे दिन दरबार में जयसिंह ने फिर हरदयालसिंह से पूछा, “कहीं तेजसिंह का पता लगा?”

      दीवान साहब ने कहा, “यहां तो तेजसिंह का पता नहीं लगता, शायद नौगढ़ में हों। मैंने वहाँ भी आदमी भेजा है, अब आता ही होगा, जो कुछ है मालूम हो जायेगा।”

      ये बातें हो रही थीं कि खत का जवाब लिये वह आदमी आ पहुंचा जो नौगढ़ गया था। हरदयालसिंह ने जवाब पढ़ा औऱ बड़े अफसोस के साथ महाराज से अर्ज किया कि ‘नौगढ़ में भी तेजसिंह नहीं हैं, यह उनके बाप जीतसिंह के हाथ का खत मेरे खत के जवाब में आया है’।

      महाराज ने कहा, “उसका पता लगाने के लिए कुछ फिक्र की गयी है या नहीं?” हरदयालसिंह ने कहा, “हाँ, कई जासूस मैंने इधर-उधर भेजे हैं।”

      महाराज को तेजसिंह का बहुत अफसोस रहा, दरबार बर्खास्त करके महल में चले गये। बात-की-बात में महाराज ने तेजसिंह का जिक्र महारानी से किया और कहा, “किस्मत का फेर इसे ही कहते हैं। क्रूरसिंह ने तो हलचल मचा ही रक्खी थी, मदद के वास्ते एक तेजसिंह आया था सो कई दिन से उसका भी पता नहीं लगता, अब मुझे उसके लिए सुरेन्द्रसिंह से शर्मिन्दगी उठानी पड़ेगी। तेजसिंह का चाल-चलन, बात-चीत, इल्म और चालाकी पर जब खयाल करता हूँ, तबीयत उमड़ आती है। बड़ा लायक लड़का है। उसके चेहरे पर उदासी तो कभी देखी ही नहीं।”

      महारानी ने भी तेजसिंह के हाल पर बहुत अफसोस किया। इत्तिफाक से चपला उस वक्त वहीं खड़ी थी, यह हाल सुन वहाँ से चली और चन्द्रकान्ता के पास पहुँची। तेजसिंह का हाल जब कहना चाहती थी, जी उमड़ आता है, कुछ कह न सकती थी।

      चन्द्रकान्ता ने उसकी दशा देख पूछा, “क्यों? क्या है? इस वक्त तेरी अजब हालत हो रही है, कुछ मुंह से तो कह!”

      इस बात का जवाब देने के लिए चपला ने मुंह खोला ही था कि गला भर आया, आँखों से आँसू टपक पड़े, कुछ जवाब न दे सकी। चन्द्रकान्ता को और भी ताज्जुब हुआ, पूछा, “तू रोती क्यों है, कुछ बोल भी तो।”

      आखिर चपला ने अपने को सम्हाला और बहुत मुश्किल से कहा,“महाराज की जुबानी सुना है कि तेजसिंह को महाराज शिवदत्त के ऐयारों ने गिरफ्तार कर लिया। अब वीरेन्द्रसिंह का आना भी मुश्किल होगा क्योंकि उनका वही एक बड़ा सहारा था।”

      इतना कहा था कि पूरे तौर पर आँसू भर आये और खूब खुलकर रोने लगी। इसकी हालत से चन्द्रकान्ता समझ गई कि चपला भी तेजसिंह को चाहती है, मगर सोचने लगी कि चलो अच्छा ही है इसमें भी हमारा ही भला है, मगर तेजसिंह के हाल और चपला की हालत पर बहुत अफसोस हुआ, फिर चपला से कहा, “उनको छुड़ाने की यही फिक्र हो रही है? क्या तेरे रोने से वे छूट जायेंगे? तुझसे कुछ नहीं हो सकता तो मैं ही कुछ करूँ?”

      चम्पा भी वहाँ बैठी यह अफसोस भरी बातें सुन रही थी, बोली, “अगर हुक्म हो तो मैं तेजसिंह की खोज में जाऊं?”

      चपला ने कहा, “अभी तू इस लायक नहीं हुई है?”

      चम्पा बोली, “क्यों, अब मेरे में क्या कसर है? क्या मैं ऐयारी नहीं कर सकती?”

      चपला ने कहा, “हाँ, ऐयारी तो कर सकती है मगर उन लोगों का मुकाबला नहीं कर सकती जिन लोगों ने तेजसिंह जैसे चालाक ऐयार को पकड़ लिया है। हाँ, मुझको राजकुमारी हुक्म दें तो मैं खोज में जाऊं?”

      चन्द्रकान्ता ने कहा, “इसमें भी हुक्म की जरूरत है? तेरी मेहनत से अगर वे छूटेंगे तो जन्म भर उनको कहने लायक रहेगी। अब तू जाने में देर मत कर, जा।”

      चपला ने चम्पा से कहा, “देख, मैं जाती हूँ, पर ऐयार लोग बहुत से आये हुए हैं, ऐसा न हो कि मेरे जाने के बाद कुछ नया बखेड़ा मचे। खैर, और तो जो होगा देखा जायेगा, तू राजकुमारी से होशियार रहियो। अगर तुझसे कुछ भूल हुई या राजकुमारी पर किसी तरह की आफत आई तो मैं जन्म-भर तेरा मुंह न देखूँगी!”

      चम्पा ने कहा, “इस बात से आप खातिर जमा रखें, मैं बराबर होशियार रहा करूंगी।”

      चपला अपने ऐयारी के सामान से लैस हो और कुछ दक्षिणी ढंग के जेवर तथा कपड़े ले तेजसिंह की खोज में निकली।

*–*–*


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