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चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास

( दूसरा अध्याय )

चौदहवाँ बयान

      थोड़ी देर में चपला फलों से झोली भरे हुए पहुँची, देखा तो चन्द्रकान्ता वहाँ नहीं है। इधर-उधर निगाह दौड़ाई, कहीं नहीं। इस टूटे मकान में तो नहीं गई है! यह सोचकर मकान के अंदर चली। कुमारी तो बेधाड़क उस खण्डहर में चली गई थी मगर चपला रुकती हुई चारों तरफ निगाह दौड़ाती और एक-एक चीज तजवीज करती हुई चली।

       फाटक के अंदर घुसते ही दोनों बगल दो दलान दिखाई पड़े। ईंट-पत्थर के ढेर लगे हुए, कहीं से छत टूटी हुई मगर दीवारों पर चित्रकारी और पत्थरों की मूर्तियाँ अभी तक नई मालूम पड़ती थीं।

       चपला ने ताज्जुब की निगाह से उन मूर्तियों को देखा, कोई भी उसमें पूरे बदन की नजर न आई, किसी का सिर नहीं, किसी की टाँग नहीं, किसी का हाथ कटा, किसी का आधा धाड़ ही नहीं! सूरत भी इन मूर्तियों की अजब डरावनी थी। और आगे बढ़ी, बड़े-बड़े मिट्टी-पत्थर के ढेर जिनमें जंगली पेड़ लगे हुए थे, लाँघती हुई मैदान में पहुँची, दूर से वह बगुला दिखाई पड़ा जिसके पेट में कुमारी पड़ चुकी थी। सब जगहों को देखना छोड़ चपला उस बगुले के पास धड़धड़ाती हुई पहुँची। उसने मुँह खोल दिया। चपला को बड़ा ताज्जुब हुआ, पीछे हटी। बगुले ने मुँह बंद कर दिया। सोचने लगी अब क्या करना चाहिए। यह तो कोई बड़ी भारी ऐयारी मालूम होती है। क्या भेद है इसका पता लगाना चाहिए। मगर पहले कुमारी को खोजना उचित है क्योंकि यह खण्डहर कोई पुराना तिलिस्म मालूम होता है, कहीं ऐसा न हो कि इसी में कुमारी फँस गई हो। यह सोच उस जगह से हटी और दूसरी तरफ खोजने लगी।

       चारों तरफ हाता घिरा हुआ था, कई दलान और कोठरियाँ ढूटी-फूटी और कई साबुत भी थीं, एक तरफ से देखना शुरू किया। पहले एक दलान में पहुँची जिसकी छत बीच से टूटी हुई थी, लंबाई दलान की लगभग सौ गज की होगी, बीच में मिट्टी-चूने का ढेर, इधर-उधर बहुत-सी हड्डी पड़ी हुईं और चारों तरफ जाले-मकड़े लगे हुए थे। मिट्टी के ढेर में से छोटे-छोटे बहुत से पीपल वगैरह के पेड़ निकल आये थे। दलान के एक तरफ छोटी-सी कोठरी नजर आई जिसके अंदर पहुँचने पर देखा एक कुआँ है, झाँकने से अंधेरा मालूम पड़ा।

      इस कुएं के अंदर क्या है! यह कोठरी बनिस्बत और जगहों के साफ क्यों मालूम पड़ती है? कुआँ भी साफ दीख पड़ता है, क्योंकि जैसे अक्सर पुराने कुओं में पेड़ वगैरह लग जाते हैं, इसमें नहीं हैं, कुछ-कुछ आवाज भी इसमें से आती है जो बिल्कुल समझ नहीं पड़ती। इसका पता लगाने के लिए चपला ने अपने ऐयारी के बटुए में से काफूर निकाला और उसके टुकड़े बालकर कुएँ में डाले। अंदर तक पहुँचकर उन बलते हुए काफूर के टुकड़ों ने खूब रोशनी की। अब साफ मालूम पड़ने लगा कि नीचे से कुआँ बहुत चौड़ा और साफ है मगर पानी नहीं है बल्कि पानी की जगह एक साफ सफेद बिछावन मालूम पड़ता है जिसके ऊपर एक बूढ़ा आदमी बैठा है। उसकी लंबी दाढ़ी लटकती हुई दिखाई पड़ती है, मगर गर्दन नीची होने के सबब चेहरा मालूम नहीं पड़ता। सामने एक चौकी रखी हुई है जिस पर रंग-बिरंगे फूल पड़े हैं। चपला यह तमाशा देख डर गई। फिर जी को सम्हाला और कुएँ पर बैठ गौर करने लगी मगर कुछ अक्ल ने गवाही न दी। वह काफूर के टुकड़े भी बुझ गये जो कुएँ के अंदर जल रहे थे और फिर अंधॆरा हो गया।

       उस कोठरी में से एक दूसरे दलान में जाने का रास्ता था। उस राह से चपला दूसरे दलान में पहुँची, जहाँ इससे भी ज्यादे जी दहलाने और डराने वाला तमाशा देखा। कूड़ा-कर्कट, हड्डी और गंदगी में यह दलान पहले दलान से कहीं बढ़ा-चढ़ा था, बल्कि एक साबुत पंजर हड्डी का भी पड़ा हुआ था जो शायद गदहे या टट्टू का हो। उसी के बगल से लाँघती हुई चपला बीचों बीच दलान में पहुँची।

       एक चबूतरा संगमर्मर का पुरसा भर ऊँचा देखा जिस पर चढ़ने के लिए खूबसूरत नौ सीढ़ियां बनी हुई थीं। ऊपर उसके एक आदमी चौकी पर लेटा हुआ हाथ में किताब लिये कुछ पढ़ता हुआ मालूम पड़ा, मगर ऊँचा होने के सबब साफ दिखाई न दिया। इस चबूतरे पर चढ़े या न चढ़े? चढ़ने से कोई आफत तो न आवेगी! भला सीढ़ी पर एक पैर रखकर देखूँ तो सही? यह सोचकर चपला ने सीढ़ी पर एक पैर रखा। पैर रखते ही बड़े जोर से आवाज हुई और संदूक के पल्ले की तरह खुलकर सीढ़ी के ऊपर वाले पत्थर ने चपला के पैर को जोर से फेंक दिया जिसकी धमक और झटके से वह जमीन पर गिर पड़ी।

       सम्हलकर उठ खड़ी हुई, देखा तो वह सीढ़ी का पत्थर जो संदूक के पल्ले की तरह खुल गया था ज्यों का त्यों बंद हो गया है।

      चपला अलग खड़ी होकर सोचने लगी कि यह टूटा-फूटा मकान तो अजब तमाशे का है। जरूर यह किसी भारी ऐयार का बनाया हुआ होगा। इस मकान में घुसकर सैर करना कठिन है, जरा चूके और जान गई। पर मुझको क्या डर क्योंकि जान से भी प्यारी मेरी चन्द्रकान्ता इसी मकान में कहीं फँसी हुई है जिसका पता लगाना बहुत जरूरी है। चाहे जान चली जाय मगर बिना कुमारी को लिये इस मकान से बाहर कभी न जाऊँगी? देखूँ इस सीढ़ी और चबूतरे में क्या-क्या ऐयारियाँ की गई हैं? कुछ देर तक सोचने के बाद चपला ने एक दस सेर का पत्थर सीढ़ी पर रखा। जिस तरह पैर को उस सीढ़ी ने फेंका था उसी तरह इस पत्थर को भी भारी आवाज के साथ फेंक दिया।

      चपला ने हर एक सीढ़ी पर पत्थर रखकर देखा, सबों में यही करामात पाई। इस चबूतरे के ऊपर क्या है? इसको जरूर देखना चाहिए, यह सोच अब वह दूसरी तरकीब करने लगी। बहुत से ईंट-पत्थर उस चबूतरे के पास जमा किए और उसके ऊपर चढ़कर देखा कि संगमर्मर की चौकी पर एक आदमी दोनों हाथों में किताब लिए पड़ा है, उम्र लगभग तीस वर्ष की होगी। खूब गौर करने से मालूम हुआ कि यह भी पत्थर का है। चपला ने एक छोटी-सी कंकड़ी उसके मुँह पर डाली, था तो पत्थर का पुतला मगर काम आदमी का किया। चपला ने जो कंकड़ी उसके मुँह पर डाली थी उसको एक हाथ से हटा दिया और फिर उसी तरह वह हाथ अपने ठिकाने ले गया। चपला ने तब एक कंकड़ उसके पैर पर रखा, उसने पैर हिलाकर कंकड़ गिरा दिया। चपला थी तो बड़ी चालाक और निडर मगर इस पत्थर के आदमी का तमाशा देख बहुत डरी और जल्दी वहाँ से हट गई।

       अब दूसरी तरफ देखने लगी। बगल के एक और दलान में पहुँची, देखा कि बीचों बीच दलान के एक तहखाना मालूम पड़ता है, नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं और ऊपर की तरफ दो पल्ले किवाड़ के हैं जो इस समय खुले हैं।

       चपला खड़ी होकर सोचने लगी कि इसके अंदर जाना चाहिए या नहीं! कहीं ऐसा न हो कि इसमें उतरने के बाद यह दरवाजा बंद हो जाय तो मैं इसी में रह जाऊँ, इससे मुनासिब है कि इसको भी आजमा लूं। पहिले एक ढोंका इसके अंदर डालूं लेकिन अगर आदमी के जाने से यह दरवाजा बंद हो सकता है तो जरूर ढोंके के गिरते ही बंद हो जायगा तब इसके अंदर जाकर देखना मुश्किल होगा, अस्तु ऐसी कोई तरकीब की जाय जिससे उसके जाने से किवाड़ बंद न होने पावे, बल्कि हो सके तो पल्लों को तोड़ ही देना चाहिए।

       इन सब बातों को सोचकर चपला दरवाजे के पास गई। पहले उसके तोड़ने की फिक्र की मगर न हो सका, क्योंकि वे पल्ले लोहे के थे। कब्जा उनमें नहीं था, सिर्फ पल्ले के बीचों बीच में चूल बनी हुई थी जो कि जमीन के अंदर घुसी हुई मालूम पड़ती थी। यह चूल जमीनके अंदर कहाँ जाकर अड़ी थी इसका पता न लग सका।

      चपला ने अपने कमर से कमंद खोली और चौहरा करके एक सिरा उसका उस किवाड़ के पल्ले में खूब मजबूती के साथ बाँधा, दूसरा सिरा उस कमंद का उसी दलान के एक खंभे में जो किवाड़ के पास ही था बाँधा, इसके बाद एक ढोंका पत्थर का दूर से उस तहखाने में डाला। पत्थर पड़ते ही इस तरह की आवाज आने लगी जैसे किसी हाथी में से जोर से हवा निकलने की आवाज आती है, साथ ही इसके जल्दी से एक पल्ला भी बंद हो गया, दूसरा पल्ला भी बंद होने के लिए खिंचा मगर वह कमंद से कसा हुआ था, उसको तोड़ न सका, खिंचा का खिंचा ही रहग या।

      चपला ने सोचा- “कोई हर्ज नहीं, मालूम हो गया कि यह कमंद इस पल्ले को बंद न होने देगी, अब बेखटके इसके अंदर उतरो, देखो तो क्या है!” यह सोच चपला उस तहखाने में उतरी।

*–*–*

पन्द्रहवाँ बयान

      चंपा बेफिक्र नहीं है, वह भी कुमारी की खोज में घर से निकली हुई है। जब बहुत दिन हो गये और राजकुमारी चन्द्रकान्ता की कुछ खबर न मिली तो महारानी से हुक्म लेकर चंपा घर से निकली। जंगल-जंगल पहाड़-पहाड़ मारी फिरी मगर कहीं पता न लगा। कई दिन की थकी-मांदी जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठकर सोचने लगी कि अब कहाँ चलना चाहिए और किस जगह ढूँढना चाहिए, क्योंकि महारानी से मैं इतना वादा करके निकली हूँ कि कुँअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह से बिना मिले और बिना उनसे कुछ खबर लिए कुमारी का पता लगाऊँगी, मगर अभी तक कोई उम्मीद पूरी न हुई और बिना काम पूरा किये मैं विजयगढ़ भी न जाऊँगी चाहे जो हो, देखूँ कब तक पता नहीं लगता।

       जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठी हुई चंपा इन सब बातों को सोच रही थी कि सामने से चार आदमी सिपाहियाना पोशाक पहने, ढाल-तलवार लगाये एक-एक तेगा हाथ में लिये आते दिखाई दिये।

       चंपा को देखकर उन लोगों ने आपस में कुछ बातें कीं जिसे दूर होने के सबब चंपा बिल्कुल सुन न सकी मगर उन लोगों के चेहरे की तरफ गौर से देखने लगी। वे लोग कभी चंपा की तरफ देखते, कभी आपस में बातें करके हँसते, कभी ऊँचे हो-हो कर अपने पीछे की तरफ देखते, जिससे यह मालूम होता था कि ये लोग किसी की राह देख रहे हैं। थोड़ी देर बाद वे चारों चंपा के चारों तरफ हो गए और पेडॊ के नीचे छाया देखकर बैठ गये।

       चंपा का जी खटका और सोचने लगी कि ये लोग कौन हैं, चारों तरफ से मुझको घेरकर क्यों बैठ गये और इनका क्या इरादा है? अब यहाँ बैठना न चाहिए। यह सोचकर उठ खड़ी हुई और एक तरफ का रास्ता लिया, मगर उन चारों ने न जाने दिया। दौड़कर घेर लिया और कहा, “तुम कहाँ जाती हो? ठहरो, हमारे मालिक दमभर में आया ही चाहते हैं, उनके आने तक बैठो, वे आ लें तब हम लोग उनके सामने ले चल के सिफारिश करेंगे और नौकर रखा देंगे, खुशी से तुम रहा करोगी। इस तरह से कहाँ तक जंगल-जंगल मारी फिरोगी!”

       चंपा - मुझे नौकरी की जरूरत नहीं जो मैं तुम्हारे मालिक के आने की राह देखूँ, मैं नहीं ठहर सकती।

      एक सिपाही - नहीं-नहीं, तुम जल्दी न करो, ठहरो, हमारे मालिक को देखोगी तो खुश हो जाओगी, ऐसा खूबसूरत जवान तुमने कभी न देखा होगा, बल्कि हम कोशिश करके तुम्हारी शादी उनसे करा देंगे।

       चंपा - होश में आकर बातें करो नहीं तो दुरुस्त कर दूंगी! खाली औरत न समझना, तुम्हारे ऐसे दस को मैं कुछ नहीं समझती!

       चंपा की ऐसी बात सुनकर उन लोगों को बड़ा अचम्भा हुआ, एक का मुँह दूसरा देखने लगा। चंपा फिर आगे बढ़ी। एक ने हाथ पकड़ लिया। बस फिर क्या था, चंपा ने झट कमर से खंजर निकाल लिया और बड़ी फुर्ती के साथ दो को जख्मी करके भागी। बाकी के दो आदमियों ने उसका पीछा किया मगर कब पा सकते थे।

       चंपा भागी तो मगर उसकी किस्मत ने भागने न दिया। एक पत्थर से ठोकर खा बड़े जोर से गिरी, चोट भी ऐसी लगी कि उठ न सकी, तब तक ये दोनों भी वहाँ पहुँच गये। अभी इन लोगों ने कुछ कहा भी नहीं था कि सामने से एक काफिला सौदागरों का आ पहुँचा जिसमें लगभग दो सौ आदमियों के करीब होंगे। उनके आगे-आगे एक बूढ़ा आदमी था जिसकी लंबी सफेद दाढ़ी, काला रंग, भूरी आँखें, उम्र लगभग अस्सी वर्ष के होगी। उम्दे कपड़े पहने, ढाल-तलवार लगाये बर्छी हाथ में लिये, एक बेशकीमती मुश्की घोड़े पर सवार था। साथ में उसके एक लड़का जिसकी उमर बीस वर्ष से ज्यादा न होगी, रेख तक न निकली थी, बड़े ठाठ के साथ एक नेपाली टाँगन पर सवार था, जिसकी खूबसूरती और पोशाक देखने से मालूम होता था कि कोई राजकुमार है। पीछे-पीछे उनके बहुत से आदमी घोडे पर सवार और कुछ पैदल भी थे, सबसे पीछे कई ऊँटों पर असबाब और उनका डेरा लदा हुआ था। साथ में कई डोलियाँ थीं जिनके चारों तरफ बहुत से प्यादे तोड़ेदार बंदूकें लिये चले आते थे।

      दोनों आदमियों ने जिन्होंने चंपा का पीछा किया था पुकार कर कहा, “इस औरत ने हमारे दो आदमियों को जख्मी किया है।” जब तक कुछ और कहे तब तक कई आदमियों ने चंपा को घेर लिया और खंजर छीन हथकड़ी-बेड़ी डाल दी।

       उस बूढ़े सवार ने जिसके बारे में कह सकते हैं कि शायद सबों का सरदार होगा, दो-एक आदमियों की तरफ देखकर कहा, “हम लोगों का डेरा इसी जंगल में पड़े। यहाँ आदमियों की आमदरफ्त कम मालूम होती है, क्योंकि कोई निशान पगडण्डी का जमीन पर दिखाई नहीं देता।”

      डेरा पड़ गया, एक बड़ी रावटी में कई औरतें कैद की गईं जो डोलियों पर थीं। चंपा बेचारी भी उन्हीं में रखी गई। सूरज अस्त हो गया, एक चिराग उस रावटी में जलाया गया जिसमें कई औरतों के साथ चंपा भी थी।

      दो लौँडियां आईं जिन्होंने औरतों से पूछा कि तुम लोग रसोई बनाओगी या बना-बनाया खाओगी? सबों ने कहा, “हम बना-बनाया खाएँगे।” मगर दो औरतों ने कहा, “हम कुछ न खाएँगे!” जिसके जवाब में वे दोनों लौंडियाँ यह कहकर चली गईं कि देखें कब तक भूखी रहती हो।

       इन दोनों औरतों में से एक तो बेचारी आफत की मारी चंपा ही थी और दूसरी एक बहुत ही नाजुक और खूबसूरत औरत थी जिसकी आँखों से आँसू जारी थे और जो थोड़ी-थोड़ी देर पर लंबी-लंबी साँस ले रही थी। चंपा भी उसके पास बैठी हुई थी।

       पहर रात चली गई, सबों के वास्ते खाने को आया मगर उन दोनों के वास्ते नहीं जिन्होंने पहले इंकार किया था। आधी रात बीतने पर सन्नाटा हुआ, पैरों की आवाज डेरे के चारों तरफ मालूम होने लगी जिससे चंपा ने समझा कि इस डेरे के चारों तरफ पहरा घूम रहा है। धीरे- धीरे चंपा ने अपने बगल वाली खूबसूरत नाजुक औरत से बातें करना शुरू किया-

       चंपा - आप कौन हैं और इन लोगों के हाथ क्यों कर फँस गईं?

       औरत - मेरा नाम कलावती है, मैं महाराज शिवदत्त की रानी हूँ, महाराज लड़ाई पर गये थे, उनके वियोग में जमीन पर सो रही थी, मुझको कुछ मालूम नहीं, जब आँख खुली अपने को इन लोगों के फंदे में पाया। बस और क्या कहूँ। तुम कौन हो?

       चंपा - हैं, आप चुनार की महारानी हैं! हा, आपकी यह दशा! वाह विधाता तू धन्य है! मैं क्या बताऊँ, जब आप महाराज शिवदत्त की रानी हैं तो कुमारी चन्द्रकान्ता को भी जरूर जानती होंगी, मैं उन्हीं की सखी हूँ, उन्हीं की खोज में मारी-मारी फिरती थी कि इन लोगों ने पकड़ लिया।

       ये दोनों आपस में धीरे-धीरे बातें कर रही थीं कि बाहर से एक आवाज आई, “कौन है? भागा, भागा, निकल गया” महारानी डरीं, मगर चंपा को कुछ खौफ न मालूम हुआ। बात ही बात में रात बीत गई, दोनों में से किसी को नींद न आयी। कुछ-कुछ दिन भी निकल आया, वही दोनों लौंडियाँ जो भोजन कराने आई थीं इस समय फिर आईं। तलवार दोनों के हाथ में थी। इन दोनों ने सबों से कहा, “चलो बारी-बारी से मैदान हो आओ।”

      कुछ औरतें मैदान गईं, मगर ये दोनों अर्थात् महारानी और चंपा उसी तरह बैठी रहीं, किसी ने जिद्द भी न की। पहर दिन चढ़ आया होगा कि इस काफिले का बूढ़ा सरदार एक बूढ़ी औरत को लिए इस डेरे में आया जिसमें सब औरतें कैद थीं।

       बुढ़ी- इतनी ही हैं या और भी?

       सरदार - बस इस वक्त तो इतनी ही हैं, अब तुम्हारी मेहरबानी होगी तो और हो जायेंगी।

       बुढ़ी - देखिये तो सही, मैं कितनी औरतें फँसा लाती हूँ। हाँ अब बताइये किस मेल की औरत लाने पर कितना इनाम मिलेगा।

       सरदार - देखो ये सब एक मेल में हैं, इस किस्म की अगर लाओगी तो दस रुपये मिलेंगे। (चंपा की तरफ इशारा करके) अगर इस मेल की लाओगी तो पूरे पचास रुपये। (महारानी की तरफ बताकर) अगर ऐसी खूबसूरत हो तो पूरे सौ रुपये मिलेंगे, समझ गईं।

       बुढ़ी - हाँ अब मैं बिल्कुल समझ गई, इन सबों को आपने कैसे पाया।

       सरदार - यह जो सबसे खूबसूरत है इसको तो एक खोह में पाया था, बेहोश पड़ी थी और यह कल इसी जगह पकड़ी गई है, इसने दो आदमी मेरे मार डाले हैं, बड़ी बदमाश है!

       बुढ़ी - इसकी चितवन ही से बदमाशी झलकती है, ऐसी-ऐसी अगर तीन-चार आ जायें तो आपका काफिला ही बैकुण्ठ चला जाय!

      सरदार - इसमें क्या शक है! और वे सब जो हैं, कई तरह से पकड़ी गई हैं। एक तो वह बंगाले की रहने वाली है इसके पड़ोस ही में मेरे लड़के ने डेरा डाला था, अपने पर आशिक करके निकाल लाया। ये चारों रुपये की लालच में फंसी हैं, और बाकी सबों को मैंने उनकी माँ, नानी या वारिसों से खरीद लिया है। बस चलो अब अपने डेरे में बातचीत करेंगे। मैं बुढ़ा आदमी बहुत देर तक खड़ा नहीं रह सकता।

       बुढ़ी - चलिए।

       दोनों उस डेरे से रवाना हुए। इन दोनों के जाने के बाद सब औरतों ने खूब गालियां दीं- “मुए को देखो, अभी और औरतों को फँसाने की फिक्र में लगा है? न मालूम यह बुढ़ी इसको कहाँ से मिल गई, बड़ी शैतान मालूम पड़ती है! कहती है, देखो मैं कितनी औरतें फँसा लाती हूँ। हे परमेश्वर इन लोगों पर तेरी भी कृपा बनी रहती है? न मालूम यह डाइन कितने घर चौपट करेगी!”

       चंपा ने उस बुढ़िया को खूब गौर करके देखा और आधे घंटे तक कुछ सोचती रही, मगर महारानी को सिवाय रोने के और कोई धुन न थी। “हाय, महाराज की लड़ाई में क्या दशा हुई होगी, वे कैसे होंगे, मेरी याद करके कितने दु:खी होते होंगे!” धीरे- धीरे यही कह के रो रही थीं।

       चंपा उनको समझाने लगी- “महारानी, सब्र करो, घबराओ मत, मुझे पूरी उम्मीद हो गई, ईश्वर चाहेगा तो अब हम लोग बहुत जल्दी छूट जायेंगे। क्या करूँ, मैं हथकड़ी-बेड़ी में पड़ी हूँ, किसी तरह यह खुल जातीं तो इन लोगों को मजा चखाती, लाचार हूँ कि यह मजबूत बेड़ी सिवाय कटने के दूसरी तरह खुल नहीं सकती और इसका कटना यहाँ मुश्किल है।”

       इसी तरह रोते-कलपते आज का दिन भी बीता। शाम हो गई। बूढ़ा सरदार फिर डेरे में आ पहुँचा जिसमें औरतें कैद थीं। साथ में सवेरे वाली बुढ़िया आफत की पुड़िया एक जवान खूबसूरत औरत को लिये हुए थी।

       बुढ़िया - मिला लीजिये, अव्वल नंबर की है या नहीं?

       सरदार - अव्वल नंबर की तो नहीं, हाँ दूसरे नंबर की जरूर है, पचास रुपये की आज तुम्हारी बोहनी हुई, इसमें शक नहीं!

       बुढ़िया - खैर पचास ही सही, यहाँ कौन गिरह की जमा लगती है, कल फिर लाऊँगी, चलिये।

       इस समय इन दोनों की बातचीत बहुत धीरे-धीरे हुई, किसी ने सुना नहीं मगर होठों के हिलने से चंपा कुछ-कुछ समझ गई। वह नई औरत जो आज आई बड़ी खुश दिखाई देती थी। हाथ-पैर खुले थे। तुरंत ही इसके वास्ते खाने को आया। इसने भी खूब लंबे-चौड़े हाथ लगाये, बेखटके उड़ा गई। दूसरी औरतों को सुस्त और रोते देख हँसती और चुटकियाँ लेती थी। चंपा ने जी में सोचा- यह तो बड़ी भारी बला है, इसको अपने कैद होने और फँसने की कोई फिक्र ही नहीं! मुझे तो कुछ खुटका मालूम होता है!

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