चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास ( दूसरा अध्याय ) ग्यारहवाँ बयान कुमार का मिजाज बदल गया। वे बातें जो उनमें पहले थीं अब बिल्कुल न रहीं। मां-बाप की फिक्र, विजयगढ़ का ख्याल, लड़ाई की धुन, तेजसिंह की दोस्ती, चन्द्रकान्ता और चपला के मरते ही सब जाती रहीं। किले से ये तीनों बाहर आये, आगे शिवदत्त की गठरी लिए देवीसिंह और उनके पीछे कुमार को बीच में लिए तेजसिंह चले जाते थे। कुँअर वीरेन्द्रसिंह को इसका कुछ भी ख्याल न था कि वे कहाँ जा रहे हैं। दिन चढ़ते-चढ़ते ये लोग बहुत दूर एक घने जंगल में जा पहुँचे, जहाँ तेजसिंह के कहने से देवीसिंह ने महाराज शिवदत्त की गठरी जमीन में रख दी और अपनी चादर से एक पत्थर खूब झाड़कर कुमार को बैठने के लिए कहा, मगर वे खड़े ही रहे, सिवाय जमीन देखने के कुछ भी न बोले। कुमार की ऐसी दशा देखकर तेजसिंह बहुत घबड़ाये। जी में सोचने लगे कि अब इनकी जिंदगी कैसे रहेगी? अजब हालत हो रही है, चेहरे पर मुर्दनी छा रही है, तनोबदन की सुध नहीं, बल्कि पलकें नीचे को बिल्कुल नहीं गिरतीं, आँखों की पुतलियां जमीन देख रही हैं, जरा भी इधर-उधर नहीं हटतीं। यह क्या हो गया? क्या चन्द्रकान्ता के साथ ही इनका भी दम निकल गया? यह खड़े क्यों हैं? तेजसिंह ने कुमार का हाथ पकड़ बैठने के लिए जोर दिया, मगर घुटना बिल्कुल न मुड़ा, धम्म से जमीन पर गिर पड़े, सिर फूट गया, खून निकलने लगा मगर पलकें उसी तरह खुली की खुली, पुतलियां ठहरी हुईं, साँस रुक-रुककर निकलने लगी। अब तेजसिंह कुमार की जिंदगी से बिल्कुल नाउम्मीद हो गये, रोकने से तबीयत न रुकी, जोर से पुकार कर रोने लगे। इस हालत को देख देवीसिंह की भी छाती फटी, रोने में तेजसिंह के शरीक हुए। तेजसिंह पुकार-पुकार कर कहने लगे- “हाय कुमार, क्या सचमुच अब तुमने दुनिया छोड़ ही दी? हाय, न मालूम वह कौन-सी बुरी सायत थी कि कुमारी चन्द्रकान्ता की मुहब्बत तुम्हारे दिल में पैदा हुई जिसका नतीजा ऐसा बुरा हुआ। अब मालूम हुआ कि तुम्हारी जिंदगी इतनी ही थी।” तेजसिंह इस तरह की बातें कह रो रहे थे कि इतने में एक तरफ से आवाज आई, “नहीं, कुमार की उम्र कम नहीं है बहुत बड़ी है, इनको मारने वाला कोई पैदा नहीं हुआ। कुमारी चन्द्रकान्ता की मुहब्बत बुरी सायत में नहीं हुई बल्कि बहुत अच्छी सायत में हुई, इसका नतीजा बहुत अच्छा होगा। कुमारी से शादी तो होगी ही साथ ही इसके चुनार की गद्दी भी कुँअर वीरेन्द्रसिंह को मिलेगी। बल्कि और भी कई राज्य इनके हाथ से फतह होंगे। बड़े तेजस्वी और इनसे भी ज्यादे नाम पैदा करने वाले दो वीर पुत्र चन्द्रकान्ता के गर्भ से पैदा होंगे। क्या हुआ है जो रो रहे हो?” तेजसिंह और देवीसिंह का रोना एकदम बंद हो गया, इधर-उधर देखने लगे। तेजसिंह सोचने लगे कि हैं, यह कौन है, ऐसी मुर्दे को जिलाने वाली आवाज किसके मुँह से निकली? क्या कहा? कुमार को मारने वाला कौन है! कुमार के दो पुत्र होंगे! हैं, यह कैसी बात है? कुमार का तो यहाँ दम निकला जाता है। ढूँढना चाहिए यह कौन है? तेजसिंह और देवीसिंह इधर-उधर देखने लगे पर कहीं कुछ पता न चला। फिर आवाज आई, “इधर देखो।” आवाज की सीधा पर एक तरफ सिर उठाकर तेजसिंह ने देखा कि पेड़ पर से जगन्नाथ ज्योतिषी नीचे उतर रहे हैं। जगन्नाथ ज्योतिषी उतरकर तेजसिंह के सामने आये और बोले, “आप हैरान मत होइए, ये सब बातें जो ठीक होने वाली हैं मैंने ही कही हैं। इसके सोचने की भी जरूरत नहीं कि मैं महाराज शिवदत्त का तरफदार होकर आपके हित में बातें क्यों कहने लगा? इसका सबब भी थोड़ी देर में मालूम हो जायगा और आप मुझको अपना सच्चा दोस्त समझने लगेंगे, पहले कुमार की फिक्र कर लें तब आपसे बातचीत हो।” इसके बाद जगन्नाथ ज्योतिषी ने तेजसिंह और देवीसिंह के देखते-देखते एक बूटी जिसकी तिकोनी पत्ती थी और आसमानी रंग का फूल लगा हुआ था, डंठल का रंग बिल्कुल सफेद और खुरदुरा था, उसी समय पास ही से ढूँढकर तोड़ी और हाथ में खूब मल के दो बूंद उसके रस की कुमार की दोनों आँखों और कानों में टपका दीं, बाकी जो सीठी बची उसको तालू पर रखकर अपनी चादर से एक टुकड़ा फाड़कर बाँध दिया और बैठकर कुमार के आराम होने की राह देखने लगे। आधी घड़ी भी नहीं बीतने पाई थी कि कुमार की आँखों का रंग बदल गया, पलकों ने गिरकर कौड़ियों को ढँक लिया, धीरे- धीरे हाथ-पैर भी हिलने लगे, दो-तीन छींकें भी आईं जिनके साथ ही कुमार होश में आकर उठ बैठे। सामने ज्योतिषीजी के साथ तेजसिंह और देवीसिंह को बैठे देखकर पूछा, “क्यों, मुझको क्या हो गया था?” तेजसिंह ने सब हाल कहा। कुमार ने जगन्नाथ ज्योतिषी को दण्डवत किया और कहा, “महाराज, आपने मेरे ऊपर क्यों कृपा की, इसका हाल जल्द कहिये, मुझको कई तरह के शक हो रहे हैं!” ज्योतिषीजी ने कहा, “कुमार, यह ईश्वर की माया है कि आपके साथ रहने को मेरा जी चाहता है। महाराज शिवदत्त इस लायक नहीं है कि मैं उसके साथ रहकर अपनी जान दूँ। उसको आदमी की पहचान नहीं, वह गुणियों का आदर नहीं करता, उसके साथ रहना अपने गुण की मिट्टी खराब करना है। गुणी के गुण को देखकर कभी तारीफ नहीं करता, वह बड़ा भारी मतलबी है। अगर उसका काम किसी से कुछ बिगड़ जाय तो उसकी आँखें उसकी तरफ से तुरंत बदल जाती हैं, चाहे वह कैसा ही गुणी क्यो न हो। सिवाय इसके वह अधर्मी भी बड़ा भारी है, कोई भला आदमी ऐसे के साथ रहना पसंद नहीं करेगा, इसी से मेरा जी फट गया। मैं अगर रहूँगा तो आपके साथ रहूँगा। आप-सा कदरदान मुझको कोई दिखाई नहीं देता, मैं कई दिनों से इस फिक्र में था मगर कोई ऐसा मौका नहीं मिलता था कि अपनी सचाई दिखाकर आपका साथी हो जाता, क्योंकि मैं चाहे कितनी ही बातें बनाऊँ मगर ऐयारों की तरफ से ऐयारों का जी साफ होना मुश्किल है। आज मुझको ऐसा मौका मिला, क्योंकि आज का दिन आप पर बड़े संकट का था, जो कि महाराज शिवदत्त के धोखे और चालाकी ने आपको दिखाया!” इतना कह ज्योतिषीजी चुप हो रहे। ज्योतिषीजी की आखिरी बात ने सभी को चौंका दिया। तीनों आदमी खिसककर उनके पास आ बैठे। तेजसिंह ने कहा, “हाँ ज्योतिषीजी जल्दी खुलासा कहिये, शिवदत्त ने क्योंकर धोखा दिया?” ज्योतिषीजी ने कहा, “महाराज शिवदत्त का यह कायदा है कि जब कोई भारी काम किया चाहता है तो पहले मुझसे जरूर पूछता है, लेकिन चाहे राय दूँ या मना करूँ मगर करता है अपने ही मन की और धोखा भी खाता है। कई दफे पण्डित बद्रीनाथ भी इन बातों से रंज हो गये कि जब अपने ही मन की करनी है तो ज्योतिषीजी से पूछने की जरूरत ही क्या है? आज रात को जो चालाकी उसने आपसे की उसके लिए भी मैंने मना किया था मगर कुछ न माना, आखिर नतीजा यह निकला कि घसीटासिंह और भगवानदत्त ऐयारों की जान गई, इसका खुलासा हाल मैं तब कहूँगा जब आप इस बात का वादा कर लें कि मुझको अपना ऐयार या साथी बनावेंगे।” ज्योतिषीजी की बात सुन कुमार ने तेजसिंह की तरफ देखा। तेजसिंह ने कहा, “ज्योतिषीजी, मैं बड़ी खुशी से आपको साथ रखूँगा परंतु आपको इसके पहले अपने साफ दिल होने की कसम खानी पड़ेगी।” ज्योतिषीजी ने तेजसिंह के मन से शक मिटाने के लिए जनेऊ हाथ में लेकर कसम खाई, तेजसिंह ने उठ के उन्हें गले लगा लिया और बड़ी खुशी से अपने ऐयारों की पंगत में मिला लिया। कुमार ने अपने गले से कीमती माला निकाल ज्योतिषीजी को पहना दी। ज्योतिषीजी ने कहा, “अब मुझसे सुनिये कि कुमार महल में क्यों कैद किये गये थे और जो रात को खून-खराबा हुआ उसका असल भेद क्या है? जब आप लोग लश्कर से कुमारी की खोज में निकले थे तो रास्ते में बद्रीनाथ ऐयार ने आपको देख लिया था। आप लोगों के पहले वे वहाँ पहुँचे और चन्द्रकान्ता को दूसरी जगह छिपाने की नीयत से उस खोह में उसको लेने गये मगर उनके पहुँचने से पहले ही कुमारी वहाँ से गायब हो गयी थी और वे खाली हाथ वापस आये, तब नाज़िम को साथ ले आप लोगो की खोज में निकले और आपको इस जंगल में पाकर ऐयारी की। नाज़िम ने ढेला फेंका था, देवीसिंह उसको पकड़ने गये, तब तक बद्रीनाथ जो पहले ही तेजसिंह बनकर आये थे, न मालूम किस चालाकी से आपको बेहोश कर किले में ले गये और जिसमें आपकी तबीयत से चन्द्रकान्ता की मुहब्बत जाती रहे और आप उसकी खोज न करें तथा उसके लिए महाराज शिवदत्त से लड़ाई न ठानें इसलिए भगवानदत्त और घसीटासिंह जो हम सबों में कम उम्र थे चन्द्रकान्ता और चपला बनाये गये जिनको आपने खत्म किया, बाकी हाल तो आप जानते ही हैं।” ज्योतिषीजी की बात सुन कुमार मारे खुशी के उछल पड़े। कहने लगे, “हाय, क्या गजब किया था। कितना भारी धोखा दिया! अब मालूम हुआ कि बेचारी चन्द्रकान्ता जीती-जागती है मगर कहाँ है इसका पता नहीं, खैर यह भी मालूम हो जायेगा!”
अब क्या करना चाहिए इस बात को सबों ने मिलकर सोचा और यह पक्का किया कि– *–*–* बारहवाँ बयान दोपहर के वक्त एक नाले के किनारे सुंदर साफ चट्टान पर दो कमसिन औरतें बैठी हैं। दोनों की मैली-फटी साड़ी, दोनों के मुँह पर मिट्टी, खुले बाल, पैरों पर खूब धूल पड़ी हुई और चेहरे पर बदहवासी और परेशानी छाई हुई है। चारों तरफ भयानक जंगल, खूनी जानवरों की भयानक आवाजें आ रही हैं। जब कभी जोर से हवा चलती है तो पेड़ों की घनघनाहट से जंगल और भी डरावना मालूम पड़ता है। इन दोनों औरतों के सामने नाले के उस पार एक तेंदुआ पानी पीने के लिए उतरा, उन्होने उस तेंदुए को देखा मगर वह खूनी जानवर इन दोनों को न देख सका, क्योंकि जहाँ वे दोनों बैठी थीं सामने ही एक मोटा जामुन का पेड़ था। इन दोनों में से एक जो ज्यादे नाजुक थी उस तेंदुए को देख डरी और धीरे से दूसरे से बोली, “प्यारी सखी, देखो कहीं वह इस पार न उतर आवे।” उसने कहा, “नहीं सखी वह इस पार न आवेगा, अगर आने का इरादा भी करेगा तो मैं पहले ही इन तीरों से उसको मार गिराऊँगी जो उस नाले के सिपाहियों को मारकर लेती आई हूँ। इस वक्त हमारे पास दो सौ तीर हैं और हम दोनों तीर चलाने वाली हैं, लो तुम भी एक तीर चढ़ा लो।” यह सुन उसने भी एक तीर कमान पर चढ़ाई मगर उसकी कोई जरूरत न पड़ी। वह तेंदुआ पानी पीकर तुरंत ऊपर चढ़ गया और देखते-देखते गायब हो गया तब इन दोनों में यों बात-चीत होने लगी-
कुमारी - क्यों चपला, कुछ मालूम पड़ता है कि हम लोग किस जगह आ पहुँचे और यह कौन-सा जंगल है तथा विजयगढ़ की राह किधर है? चपला और चन्द्रकान्ता दोनों वहाँ से उठीं। नाले के ऊपर इधर-उधर घूमने लगीं। दिन दोपहर से ज्यादे ढल चुका था। पेड़ों की छांह में घूमती जंगली बेरों को तोड़ती खाती वे दोनों एक टूटे-फूटे उजाड़ मकान के पास पहुँचीं जिसको देखने से मालूम होता था कि यह मकान जरूर किसी बड़े राजा का बनाया हुआ होगा मगर अब टूट-फूट गया है। चपला ने कुमारी चन्द्रकान्ता से कहा, “बहिन तुम मकान के टूटे दरवाजे पर बैठो, मैं फल तोड़ लाऊँ तो इसी जगह बैठकर दोनों खायें और इसके बाद तब इस मकान के अंदर घुसकर देखें कि क्या है। जब तक विजयगढ़ का रास्ता न मिले यही खण्डहर हम लोगों के रहने के लिए अच्छा होगा, इसी में गुजारा करेंगे। कोई मुसाफिर या चरवाहा इधर से आ निकलेगा तो विजयगढ़ का रास्ता पूछ लेंगे और तब यहाँ से जायेंगे।” कुमारी ने कहा, “अच्छी बात है, मैं इसी जगह बैठती हूँ, तुम कुछ फल तोड़ो लेकिन दूर मत जाना!” चपला ने कहा, “नहीं मैं दूर न जाऊँगी, इसी जगह तुम्हारी आँखों के सामने रहूँगी।” यह कहकर चपला फल तोड़ने चली गई। *–*–* तेरहवाँ बयान चपला खाने के लिए कुछ फल तोड़ने चली गई। इधर चन्द्रकान्ता अकेली बैठी-बैठी घबड़ा उठी। जी में सोचने लगी कि जब तक चपला फल तोड़ती है तब तक इस टूटे-फूटे मकान की सैर करें, क्योंकि यह मकान चाहे टूटकर खंडहर हो रहा है मगर मालूम होता है किसी समय में अपना सानी न रखता होगा। कुमारी चन्द्रकान्ता वहाँ से उठकर खंडहर के अंदर गई। फाटक इस टूटे-फूटे मकान का दुरुस्त और मजबूत था। यद्यपि उसमें किवाड़ न लगे थे, मगर देखने वाला यही कहेगा कि पहले इसमें लकड़ी या लोहे का फाटक जरूर लगा रहा होगा। कुमारी ने अंदर जाकर देखा कि बड़ा भारी चौखूटा मकान है। बीच की इमारत तो टूटी-फूटी है मगर हाता चारों तरफ का दुरुस्त मालूम पड़ता है। और आगे बढ़ी, एक दलान में पहुँची जिसकी छत गिरी हुई थी पर खंभे खड़े थे। इधर-उधर ईंट-पत्थर के ढेर थे जिन पर धीरे- धीरे पैर रखती और आगे बढी। बीच में एक मैदान देख पड़ा जिसको बड़े गौर से कुमारी देखने लगी। साफ मालूम होता था कि पहले यह बाग था क्योंकि अभी तक संगमरमर की क्यारियाँ बनी हुई थीं, छोटी-छोटी नहरें जिनसे छिड़काव का काम निकलता होगा अभी तक तैयार थीं। बहुत से फव्वारे बेमरम्मत दिखाई पड़ते थे मगर उन सबों पर मिट्टी की चादर पड़ी हुई थी। बीचों बीच उस खण्डहर के एक बड़ा भारी पत्थर का बगुला बना हुआ दिखाई दिया जिसको अच्छी तरह से देखने के लिए कुमारी उसके पास गई और उसकी सफाई और कारीगरी को देख उसके बनाने वाले की तारीफ करने लगी। वह बगुला सफेद संगमरमर का बना हुआ था और काले पत्थर के कमर बराबर ऊँचे तथा मोटे खंभे पर बैठाया हुआ था। टाँगें उसकी दिखाई नहीं देती थीं, यही मालूम होता था कि पेट सटाकर इस पत्थर पर बैठा है। कम से कम पंद्रह हाथ के घेरे में उसका पेट होगा। लंबी चोंच, बाल और पर उसके ऐसी कारीगरी के साथ बनाये हुए थे कि बार-बार उसके बनाने वाले कारीगर की तारीफ मुँह से निकलती थी। जी में आया कि और पास जाकर बगुले को देखे। पास गई, मगर वहाँ पहुँचते ही उसने मुँह खोल दिया। चन्द्रकान्ता यह देख घबड़ा गई कि यह क्या मामला है, कुछ डर भी मालूम हुआ, सामना छोड़ बगल में हो गई। अब उस बगुले ने पर भी फैला दिये। कुमारी को चपला ने बहुत ढीठ कर दिया था। कभी-कभी जब जिक्र आ जाता तो चपला यही कहती थी कि दुनिया में भूत-प्रेत कोई चीज नहीं, जादू-मंत्र सब खेल कहानी है, जो कुछ है ऐयारी है। इस बात का कुमारी को भी पूरा यकीन हो चुका था। यही सबब था कि चन्द्रकान्ता इस बगुले के मुँह खोलने और पर फैलाने से नहीं डरी, अगर किसी दूसरी ऐसी नाजुक औरत को कहीं ऐसा मौका पड़ता तो शायद उसकी जान निकल जाती। जब बगुले को पर फैलाते देखा तो कुमारी उसके पीछे हो गयी, बगुले के पीछे की तरफ एक पत्थर जमीन में लगा था जिस पर कुमारी ने पैर रखा ही था कि बगुला एक दफे हिला और जल्दी से घूम अपनी चोंच से कुमारी को उठाकर निगल गया, तब घूमकर अपने ठिकाने हो गया। पर समेट लिए और मुँह बंद कर लिया। *–*–* « पीछे जायेँ | आगे पढेँ » • चन्द्रकान्ता [ होम पेज ] |
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