चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास ( दूसरा अध्याय ) इक्कीसवाँ बयान कुमारी के पास आते हुए चपला को नीचे से कुँअर वीरेन्द्रसिंह वगैरह सबों ने देखा। ऊपर से चपला पुकारकर कहने लगी, “जिस खोह में हम लोगों को शिवदत्त ने कैद किया था उसके लगभग सात कोस दक्षिण एक पुराने खण्डहर में एक बड़ा भारी पत्थर का करामाती बगुला है, वही कुमारी को निगल गया था। वह तिलिस्म किसी तरह टूटे तो हम लोगों की जान बचे, दूसरी कोई तरकीब हम लोगों के छूटने की नहीं हो सकती। मैं बहुत सम्हलकर उस तिलिस्म में गई थी पर तो भी फँस गई। तुम लोग जाना तो बहुत होशियारी के साथ उसको देखना। मैं यह नहीं जानती कि वह खोह चुनार से किस तरफ है, हम लोगों को दुष्ट शिवदत्त ने कैद किया था।” चपला की बात बखूबी सबों ने सुनी, कुमार को महाराज शिवदत्त पर बड़ा ही गुस्सा आया। सामने मौजूद ही थे कहीं ढूँढने जाना तो था ही नहीं, तलवार खींच मारने के लिए झपटे। महाराज शिवदत्त की रानी जो उन्हीं के पास बैठी सब तमाशा देखती और बातें सुनती थीं, कुँअर वीरेन्द्रसिंह को तलवार खींच के महाराज शिवद्त्त की तरफ झपटते देख दौड़कर कुमार के पैरों पर गिर पड़ीं और बोलीं, “पहले मुझको मार डालिए, क्योंकि मैं विधावा होकर मुर्दों से बुरी हालत में नहीं रह सकती!” तेजसिंह ने कुमार का हाथ पकड़ लिया और बहुत कुछ समझा-बुझाकर ठण्डा किया। कुमार ने तेजसिंह से कहा, “अगर मुनासिब समझो और हर्ज न हो तो कुमारी के माँ-बाप को भी यहाँ लाकर कुमारी का मुँह दिखला दो, भला कुछ उन्हें भी तो ढाढ़स हो।” तेजसिंह ने कहा, “यह कभी नहीं हो सकता, इस तहखाने को आप मामूली न समझिए, जो कुछ कहना होगा मुँहजबानी सब हाल उनको समझा दिया जायेगा। अब यह फिक्र करनी चाहिए जिससे कुमारी की जान छूटे। चलिए सब कोई महाराज जयसिंह को यह हाल कहते हुए उस खण्डहर तक चलें जिसका पता चपला ने दिया है।” यह कहकर तेजसिंह ने चपला को पुकारकर कहा, “देखो हम लोग उस खण्डहर की तरफ जाते हैं। क्या जाने कितने दिन उस तिलिस्म को तोड़ने में लगें। तुम राजकुमारी को ढाढ़स देती रहना, किसी तरह की तकलीफ न होने पाये। क्या करें कोई ऐसी तरकीब भी नजर नहीं आती कि कपड़े या खाने-पीने की चीजें तुम तक पहुँचाई जाय।” चपला ने ऊपर से जवाब दिया, “कोई हर्ज नहीं, खाने-पीने की कुछ तकलीफ न होगी क्योंकि इस जगह बहुत से मेवों के पेड़ हैं, और पत्थरों में से छोटे-छोटे कई झरने पानी के जारी हैं। आप लोग बहुत होशियारी से काम कीजिएगा। इतना मुझे मालूम हो गया कि बिना कुमार के यह तिलिस्म नहीं टूटने का, मगर तुम लोग भी इनका साथ मत छोड़ना, बड़ी हिफाजत रखना।” महाराज शिवद्त्त और उनकी रानी को उसी तहखाने में छोड़ कुँअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी चारों आदमी वहाँ से बाहर निकले। दोहरा ताला लगा दिया। इसके बाद सब हाल कहने के लिए कुमार ने देवीसिंह को नौगढ़ अपने माँ-बाप के पास भेज दिया और यह भी कह दिया कि “नौगढ़ से होकर कल ही तुम लौट के विजयगढ़ आ जाना, हम लोग वहाँ चलते हैं, तुम आओगे तब कहीं जायेंगे।” यह सुन देवीसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए। सबेरे ही से कुँअर वीरेन्द्रसिंह विजयगढ़ से गायब थे, बिना किसी से कुछ कहे ही चले गये थे इसलिए महाराज जयसिंह बहुत ही उदास हो कई जासूसों को चारों तरफ खोजने के लिए भेज चुके थे। शाम होते-होते ये लोग विजयगढ़ पहुँचे और महाराज से मिले। महाराज ने कहा, “कुमार तुम इस तरह बिना कहे-सुने जहाँ जी में आता है चले जाते हो, हम लोगों को इससे तकलीफ होती है, ऐसा न किया करो!” इसका जवाब कुमार ने कुछ न दिया मगर तेजसिंह ने कहा, “महाराज, जरूरत ही ऐसी थी कि कुमार को बड़े सबेरे यहाँ से जाना पड़ा, उस वक्त आप आराम में थे, इसलिए कुछ कह न सके।” बाद इसके तेजसिंह ने कुल हाल, लड़ाई से चुनार जाना, महाराज शिवद्त्त की रानी को चुराना, खोह में कुमारी का पता लगाना, ज्योतिषीजी की मुलाकात, बर्देफरोशों की कैफियत, उस तहखाने में कुमारी और चपला को देख उनकी जुबानी तिलिस्म का हाल आदि सब-कुछ हाल पूरा-पूरा ब्यौरेवार कह सुनाया, आखिर में यह भी कहा कि अब हम लोग तिलिस्म तोड़ने जाते हैं। इतना लंबा-चौड़ा हाल सुनकर महाराज हैरान हो गये। बोले, “तुम लोगों ने बड़ा ही काम किया इसमें कोई शक नहीं, हद के बाहर काम किया, अब तिलिस्म तोड़ने की तैयारी है, मगर वह तिलिस्म दूसरे के राज्य में है। चाहे वहाँ का राजा तुम्हारे यहाँ कैद हो तो भी पूरे सामान के साथ तुम लोगों को जाना चाहिए, मैं भी तुम लोगों के साथ चलूँ तो ठीक है।” तेजसिंह ने कहा, “आपको तकलीफ करने की कोई जरूरत नहीं है, थोड़ी फौज साथ जायेगी वही बहुत है।” महाराज ने कहा, “ठीक है, मेरे जाने की कोई जरूरत नहीं मगर इतना होगा कि चलकर उस तिलिस्म को मैं भी देख आऊँगा।” तेजसिंह ने कहा, “जैसी मर्जी।” महाराज ने दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि “हमारी आधी फौज और कुमार की कुल फौज रात भर में तैयार हो रहे, कल यहाँ से चुनार की तरफ कूच होगा।” बमूजिब हुक्म के सब इंतजाम दीवान साहब ने कर दिया। दूसरे दिन नौगढ़ से लौटकर देवीसिंह भी आ गए। बड़ी तैयारी के साथ चुनार की तरफ तिलिस्म तोड़ने के लिए कूच हुआ। दीवान हरदयालसिंह विजयगढ़ में छोड़ दिए गए। *–*–* बाईसवाँ बयान चार दिन रास्ते में लगे , पाँचवें दिन चुनार की सरहद में फौज पहुँची। महाराज शिवद्त्त के दीवान ने यह खबर सुनी तो घबरा उठे, क्योंकि महाराज शिवद्त्त तो कैद हो ही चुके थे, लड़ने की ताकत किसे थी। बहुत-सी नजर वगैरह लेकर महाराज जयसिंह से मिलने के लिए हाजिर हुआ। खबर पाकर महाराज ने कहला भेजा कि मिलने की कोई जरूरत नहीं, हम चुनार फतह करने नहीं आये हैं, क्योंकि जिस दिन तुम्हारे महाराज हमारे हाथ फँसे उसी रोज चुनार फतह हो गया, हम दूसरे काम से आये हैं, तुम और कुछ मत सोचो।” लाचार होकर दीवान साहब को वापस जाना पड़ा, मगर यह मालूम हो गया कि फलाने काम के लिए आये हैं। आज तक इस तिलिस्म का हाल किसी को भी मालूम न था, बल्कि किसी ने उस खण्डहर को देखा तक न था। आज यह मशहूर हो गया कि इस इलाके में कोई तिलिस्म है जिसको कुँअर वीरेन्द्रसिंह तोड़ेंगे। उस तिलिस्मी खण्डहर का पता लगाने के लिए बहुत से जासूस इधर-उधर भेजे गये। तेजसिंह और ज्योतिषीजी भी गये। आखिर उसका पता लग ही गया। दूसरे दिन मय फौज के सभी का डेरा उसी जंगल में जा लगा जहाँ वह तिलिस्मी खण्डहर था। *–*–* तेईसवाँ बयान महाराज जयसिंह, कुँअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी खण्डहर की सैर करने के लिए उसके अंदर गये। जाते ही यकीन हो गया कि बेशक यह तिलिस्म है। हर एक तरफ वे लोग घुसे और एक-एक चीज को अच्छी तरह देखते-भालते बीच वाले बगुले के पास पहुँचे। चपला की जुबानी यह तो सुन ही चुके थे कि यही बगुला कुमारी को निगल गया था, इसलिए तेजसिंह ने किसी को उसके पास जाने न दिया, खुद गये। चपला ने जिस तरह इस बगुले को आजमाया था उसी तरह तेजसिंह ने भी आजमाया। महाराज इस बगुले का तमाशा देखकर बहुत हैरान हुए। इसका मुँह खोलना, पर फैलाना और अपने पीछे वाली चीज को उठाकर निगल जाना सबों ने देखा और अचंभे में आकर बनाने वाले की तारीफ करने लगे। इसके बाद उस तहखाने के पास आये जिसमें चपला उतरी थी। किवाड़ के पल्ले को कमंद से बंधा देख तेजसिंह को मालूम हो गया कि यह चपला की कार्रवाई है और जरूरयह कमंद भी चपला की ही है, क्योंकि इसके एक सिरे पर उसका नाम खुदा हुआ है, मगर इस किवाड़ का बाँधना बेफायदे हुआ क्योंकि इसमें घुसकर चपला निकल न सकी। कुएँ को भी बखूबी देखते हुए उस चबूतरे के पास आये जिस पर पत्थर का आदमी हाथ में किताब लिए सोया हुआ था। चपला की तरह तेजसिंह ने भी यहाँ धोखा खाया। चबूतरे के ऊपर चढ़ने वाली सीढ़ी पर पैर रखते ही उसके ऊपर का पत्थर आवाज देकर पल्ले की तरह खुला और तेजसिंह धम्म से जमीन पर गिर पड़े। इनके गिरने पर कुमार को हँसी आ गई, मगर देवीसिंह बड़े गुस्से में आये। कहने लगे, “सब शैतानी इसी आदमी की है जो इस पर सोया है, ठहरो मैं इसकी खबर लेता हूं!” यह कहकर उछलकर बड़े जोर से एक धौल उसके सिर पर जमाई। धौल का लगना था कि वह पत्थर का आदमी उठ बैठा, मुँह खोल दिया, हाथी की तरह उसके मुँह से हवा निकलने लगी, मालूम होता था कि भूकंप आया है, सबों की तबीयत घबरा गई। ज्योतिषीजी ने कहा, “जल्दी इस मकान से बाहर भागो ठहरने का मौका नहीं है!” इस दलान से दूसरे दलान में होते हुए सब के सब भागे। भागने के वक्त जमीन हिलने के सबब से किसी का पैर सीधा नहीं पड़ता था। खण्डहर के बाहर हो दूर से खड़े होकर उसकी तरफ देखने लगे। पूरे मकान को हिलते देखा। दो घण्टे तक यही कैफियत रही और तब तक खण्डहर की इमारत का हिलना बंद न हुआ। तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से कहा, “आप रमल और नजूम से पता लगाइये कि यह तिलिस्म किस तरह और किसके हाथ से टूटेगा?” ज्योतिषीजी ने कहा, “आज दिन भर आप लोग सब्र कीजिए और जो कुछ सोचना हो सोचिए, रात को मैं सब हाल रमल से दरियाफ्त कर लूँगा, फिर कल जैसा मुनासिब होगा किया जायगा। मगर यहाँ कई रोज लगेंगे, महाराज का रहना ठीक नहीं है, बेहतर है कि वे विजयगढ़ जायँ।” इस राय को सबों ने पसंद किया। कुमार ने महाराज से कहा, “आप सिर्फ इस खण्डहर को देखने आये थे सो देख चुके अब जाइये। आपका यहां रहना मुनासिब नहीं।” महाराज विजयगढ़ जाने पर राजी न थे मगर सबों के जिद करने से कबूल किया। कुमार की जितनी फौज थी उसको और अपनी जितनी फौज साथ आई थी उसमें से भी आधी फौज साथ ले विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए। *–*–* « पीछे जायेँ | आगे पढेँ » • चन्द्रकान्ता [ होम पेज ] |
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