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चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास

( दूसरा अध्याय )

छब्बीसवाँ बयान

      इन फूलों को पाकर तेजसिंह जितने खुश हुए शायद अपनी उम्र में आज तक कभी ऐसे खुश न हुए होंगे। एक तो पहिले ही ऐयारी में बढ़े-चढ़े थे, आज इन फूलों ने इन्हें और बढ़ा दिया। अब कौन है जो इनका मुकाबला करे? हाँ एक चीज की कसर रह गई लोपांजन या कोई गुटका इस तिलिस्म में से इनको ऐसा न मिला जिससे ये लोगों की नजरों में छिप जाते, और अच्छा ही हुआ जो न मिला, नहीं तो इनकी ऐयारी की तारीफ न होती क्योंकि जिस आदमी के पास कोई ऐसी चीज हो जिससे वह गायब हो जाय तो फिर ऐयारी की जरूरत ही क्या थी। गायब होकर जो चाहा कर डाला।

       आज की रात इन चारों की जागते ही बीती। तिलिस्म की तारीफ, फूलों के गुण, तिलिस्मी किताब के पढ़ने, सबेरे फिर तिलिस्म में जाने आदि की बातचीत में रात बीत गई। सवेरा हुआ, जल्दी-जल्दी स्नान पूजा से चारों ने छुट्टी पा ली और कुछ भोजन करके तिलिस्म में जाने को तैयार हुए।

       कुमार ने तेजसिंह से कहा, “हमारे पलंग पर से तिलिस्मी किताब उठा के तुम लेते चलो, वहाँ फिर एक दफे पढ़ के तब कोई काम करेंगे।”

       तेजसिंह तिलिस्मी किताब लेने गए मगर किताब नजर न पड़ी, चारपाई के नीचे हर तरफ देखा, कहीं पता नहीं, आखिर कुमार से पूछा, “किताब कहाँ है? पलंग पर तो नहीं है।”

       सुनते ही कुमार के होश उड़ गए, जी सन्न हो गया, दौड़े हुए पलंग के पास आए, ढूँढा, मगर कहीं किताब हो तब तो मिले। कुमार ‘हाय’ करके पलंग के ऊपर गिर पड़े, बिल्कुल हौसला टूट गया, कुमारी चन्द्रकान्ता के मिलने से नाउम्मीद हो गए अब तिलिस्मी किताब कहाँ जिसमें तिलिस्म तोड़ने की तरकीब लिखी है। तेजसिंह, देवीसिंह और जगन्नाथ ज्योतिषी भी घबरा उठे। दो घड़ी तक किसी के मुँह से आवाज तक नहीं निकली, बाद इसके तलाश होने लगी, चारों तरफ चोर की तलाश में लोग निकले।

       तेजसिंह ने कुमार से कहा, “आप जी मत छोटा कीजिए, मैं वादा करता हूँ कि चोर को जरूर पकड़ूँगा, आपके सुस्त हो जाने से सभी का जी टूट जायगा, कोई काम करते न बन पड़ेगा! बहुत समझाने पर कुमार पलँग से उठे, उसी वक्त एक चोबदार ने आकर अजीब खबर सुनाई। हाथ जोड़कर अर्ज किया कि तिलिस्म के फाटक पर पहरे के लिए जो लोग मुस्तैद किए गए हैं उनमें से एक पहरे वाला हाजिर हुआ है और कहता है कि तिलिस्म के भीतर कई आदमियों की आहट मिली है, किसी को अन्दर जाने का हुक्म तो है नहीं जो ठीक मालूम करें, अब जैसा हुक्म हो किया जाय।

      इस खबर को सुनते ही तेजसिंह पता लगाने के लिए तिलिस्म में जाने को तैयार हुए। देवीसिंह से कहा, “तुम भी साथ चलो, देख आवें क्या मामला है।” ज्योतिषीजी बोले, “हम भी चलेंगे।” कुमार भी उठ खड़े हुए। आखिर ये चारों तिलिस्म में चले। बाहर फतहसिंह सेनापति मिले, कुमार ने उनको भी साथ ले लिया।

      दरवाजे के अन्दर जाते ही इन लोगों के कान में चिल्लाने की आवाज आई, आगे बढ़ने से मालूम हुआ कि इसमें कई आदमी हैं। आवाज की धुन पर ये लोग बराबर बढ़ते चले गए। उस दालान में पहुँचे जिसमें चबूतरे के ऊपर हाथ में किताब लिए पत्थर का आदमी सोया था। देखा कि पत्थर वाला आदमी उठ के बैठा हुआ पण्डित बद्रीनाथ ऐयार को दोनों हाथों से दबाए है और वह चिल्ला रहे हैं।

      पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल छुड़ाने की तरकीब कर रहे हैं मगर कोई काम नहीं निकलता। तिलिस्मी किताब के खो जाने का इन लोगों को बड़ा भारी गम था, मगर इस वक्त पण्डित बद्रीनाथ ऐयार की यह दशा देख सबों को हँसी आ गई, एकदम खिलखिला कर हँस पड़े। उन ऐयारों ने पीछे फिर कर देखा तो कुँअर वीरेन्द्रसिंह मय तीनों ऐयारों के खड़े हैं, साथ ही फतहसिंह सेनापति हैं।

       तेजसिंह ने ललकार कर कहा, “वाह खूब, जैसी जिसकी करनी होती है, उसको वैसा ही फल मिलता है, इसमें कोई शक नहीं। बेचारे कुँअर वीरेन्द्रसिंह को बेकसूर तुम लोगों ने सताया, इसी की सजा तुम लोगों को मिली! परमेश्वर भी बड़ा इन्साफ करने वाला है। क्यों पन्नालाल तुम लोग जान बूझ कर क्यों फँसते हौ? तुम लोगों को तो किसी ने पकड़ा नहीं है, फिर बद्रीनाथ के पीछे क्यों जान देते हो? इनको इसी तरह छोड़ दो, तुम लोग जाओ हवा खावो!”

       पन्नालाल ने कहा, “भला इनको ऐसी हालत में छोड़ के हम लोग कहीं जा सकते हैं? अब तो आपके जो जी में आए सो कीजिए हम लोग हाजिर हैं।”

      तेजसिंह ने पण्डित बद्रीनाथ के पास जाकर कहा, “पण्डित जी परनाम! क्यों, मिजाज कैसा है? क्या आप तिलिस्म तोड़ने को आए थे? अपने राजा को तो पहिले छुड़ा लिए होते। खैर शायद तुमने यह सोचा हो कि हम ही तिलिस्म तोड़ कर कुल खजाना ले लें और खुद चुनार के राजा बन जाँय!”

       देवीसिंह ने भी आगे बढ़ के कहा, “बद्रीनाथजी, अब तो तुम्हारे ग्रह बिगड़े हैं! खैरियत तभी है कि वह तिलिस्मी किताब हमारे हवाले करो जिसे आप लोगों ने रात में चुराया है!”

      बद्रीनाथ सबकी सुनते मगर सिवाय जमीन देखने के जवाब किसी को नहीं देते थे। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल पण्डित बद्रीनाथ को छोड़ अलग हो गए और कुमार से बोले, “ईश्वर के वास्ते किसी तरह बद्रीनाथ की जान बचाइए।”

       कुमार ने कहा, “भला हम क्या कर सकते हैं, कुछ हाल तिलिस्म का मालूम नहीं, जो किताब तिलिस्म से मुझको मिली थी, जिस पढ़ कर तिलिस्म तोड़ते, वह तुम लोगों ने गायब कर ली। अगर मेरे पास होती तो उसमें देख कर कोई तरकीब इनके छुड़ाने की करता, हाँ अगर तुम लोग वह किताब मुझे दे दो तो जरूर बद्रीनाथ इस आफत से छूट सकते हैं।”

       यह सुनकर पन्नालाल ने ने तिरछी निगाहों से बद्रीनाथ की तरफ देखा, उन्होंने भी कुछ इशारा किया। पन्नालाल ने कुमार से कहा, “हम लोगों ने किताब नहीं चुराई है, नहीं तो ऐसी बेबसी की हालत में जरूर दे देते। या तो किसी तरह से पण्डित बद्रीनाथ को छुड़ाइए या हम लोगों को हुक्म दीजिए कि बाहर जाकर इनके लिए कुछ खाने का सामान ला कर खिलाएँ, बल्कि जब तक आपकी किताब न मिले आप तिलिस्म न तोड़ लें और बद्रीनाथ उसी तरह बेबस रहें, तब तक हम लोगों में से किसी को खिलाने-पिलाने के लिए यहाँ आने-जाने का हुक्म हो।”

       देवीसिंह ने कहा, “पन्नालाल, भला यह तो कहो कि अगर कई रोज तक बद्रीनाथ इसी तरह कैद रह गए तो खाने-पीने का बन्दोबस्त तो तुम कर लोगे, जाकर ले आओगे लेकिन अगर इनको दिशा मालूम पड़ेगी तो क्या उपाय करोगे? उसको कहाँ ले जाकर फेंकोगे? या इसी तरह इनके नीचे ढेर लगा रहेगा?”

      इसका जवाब पन्नालाल ने कुछ न दिया। तेजसिंह ने कहा, “सुनो जी, ऐयारों को ऐयार लोग खूब पहिचानते हैं। अगर तुम्हार आने-जाने के लिए कुमार हुक्म नहीं देते तो हम हुक्म देते हैं कि आया करो और जिस तरह बने बद्रीनाथ की हिफाजत करो। तुम लोगों ने हमारा बड़ा हर्ज किया, तिलिस्मी किताब चुरा ली और अब मुकरते हो, इस वक्त हमारे अख्तियार में सब कोई हो, जिसके साथ जो चाहे करूँ, सीधी तरह से न दो तो डंडो के जोर से किताब ले लूँ, मगर नहीं, छोड़ देता हूँ और खूब होथियार कर देता हूँ, किताब सम्हाल के रखना, मैं बिना लिए न छोड़ूँगा और तुम लोगों को भी गिरफ्तार भी न करूँगा!”

      तेजसिंह की बात सुनकर पण्डित बद्रीनाथ लाल हो गए और बोले, “इस वक्त हमको बेबस देख के शेखी करते हो! यह हिम्मत तो तब जानें कि हमारे छूटने पर कह-बद के कोई ऐयारी करो और जीत जाओ! क्या तुम ही एक दुनिया में ऐयार हो? हम भी जोर देकर कहते हैं कि हम ही ने तुम्हारी तिलिस्मी किताब चुराई है, मगर हम लोगों में से किसी को कैद किए या सताए बिना तुम नहीं पा सकते। यह शेखी तुम्हारी न चलेगी कि ऐयारों को गिरफ्तार भी न करो बल्कि आने-जाने के लिए छुट्टी दे दो और किताब भी ले लो। ऐसा कर लो तो उसी दिन से हम लोग तुम्हारे गुलाम हो जाँय और महाराज शिवदत्त को छोड़ कर कुमार की ताबेदारी करें। मैं बता देता हूँ कि किताब भी न दूँगा और यहाँ से छूट के भी निकल जाऊँगा।”

       तेजसिंह ने कहा, “मैं भी कसम खाकर कहता हूँ कि बिना तुम लोगों को कैद किए अगर किताब न ले लूँ तो फिर ऐयारी का नाम न लूँ और सिर मुड़ा के दूसरे देश में निकल जाऊँ! मुझको भी तुम लोगों से एक ही दफे में फैसला कर लेना है।”

       इस बात पर तेजसिंह और बद्रीनाथ दोनों ने कसमें खाईं। बेचारे कुँअर वीरेन्द्रसिंह सभों का मुँह देखते थे, कुछ कहते बन नहीं पड़ता था। तेजसिंह ने देवीसिंह और ज्योतिषीजी को अलग ले जाकर कान में कुछ कहा और वे दोनों उसी वक्त तिलिस्म के बाहर हो गए। फिर तेजसिंह बद्रीनाथ के पास आकर बोले, “हम लोग जाते हैं, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को जहाँ जी भेजो और अपने छुड़ाने की जो तरकीब सूझे करो। पहरे वालों को कह दिया जाता है वे तुम्हारे साथियों को आते-जाते न रोकेंगे।”

       कुमार को लिए हुए तेजसिंह अपने डेरे में पहुँचे, देखा तो ज्योतिषीजी बैठे हैं।

      तेजसिंह ने पूछा, “क्यों ज्योतिषीजी, देवीसिंह गए?”

      ज्योतिषी – हाँ वह तो गए।

       तेज – आपने अभी कुछ देखा कि नहीं?

       ज्योतिषी – हाँ पता लगा पर आफत पर आफत नजर आती है।

       तेज – वह क्या?

      ज्योतिषी – रमल से मालूम होता है कि उन लोगों के हाथ से भी किताब निकल गई और अबी तक कहीं रक्खी नहीं गई, देखें देवीसिंह क्या करके आते हैं, हम भी जाते तो अच्छा होता।

       तेज – तो फिर आप राह क्यों देखते हैं, जाइये, हम भी अपनी धुन में लगते हैं।

       यह सुन ज्योतिषीजी तुरन्त वहाँ से चले गए। कुमार ने कहा, “भला कुछ हमें भी तो मालूम हो कि तुम लोगों ने क्या सोचा, क्या कर रहे हो और क्या समझ के तुमने उन लोगों को छोड़ दिया। मैं तो जरूर यही कहूँगा कि इस वक्त तुम्हीं ने शेखी में आकर बिगाड़ दिया, नहीं तो वे लोग हमारे हाथ फँस चुके थे।”

       तेजसिंह ने कहा, “मेरा मतलब आप अभी तक नहीं समझे, किताब तो मैं उनसे ले ही लूँगा मगर जहाँ तक बने उन सभों को एक ही दफे में अपने चेला भी करूँ, नहीं तो यह रोज-रोज की ऐयारी से कहाँ तक होशियारी चलेगी? सिवाय जिद और बदाबदी के ऐयार कभी ताबेदारी कबूल नहीं करते, चाहे जान चली जाय, मालिक का साथ कभी न छोड़ेंगे!”

       कुमार ने कहा, “इससे तो हमको और तरद्दुद हुआ। ईश्वर न करे कहीं तुम हार गए और बद्रीनाथ छूट के निकल गए तो क्या तुम हमारा संग छोड़ दोगे?”

       तेज – बेशक छोड़ दूँगा, फिर अपना मुँह न दिखाऊँगा।

      कुमार – तो तुम आप भी गए और मुझे भी मारा, अच्छी दोस्ती अदा की! हाय अब क्या करूँ? भला यह तो बताओ कि देवीसिंह और ज्योतिषी कहाँ गए?”

      तेज – अभी न बताऊँगा। पर आप डरिए मत, ईश्वर चाहेगा तो सब काम ठीक होगा और मेरा साथ भी न छूटेगा। आप बैठिए, मैं दो घण्टे के लिए कहीं जाता हूँ।

       कुमार – अच्छा जाओ। तेजसिंह वहाँ से चले गए, फतहसिंह को भी कुमार ने विदा किया, अब देखना चाहिए ये लोग क्या करते हैं और कौन जीतता है।

*–*–*

सत्ताईसवाँ बयान

      तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी के चले जाने पर कुमार बहुत देर तक सुस्त बैठे रहे। तरह-तरह के खयाल पैदा होते रहे, जरा खुटका हुआ और दरवाजे की तरफ देखने लगते कि शायद तेजसिंह या देवीसिंह आते हों, जब किसी को नहीं देखते तो फिर हाथ पर गाल रख कर सोच-विचार में पड़ जाते? पहर भर दिन बाकी रह गया पर तीनों ऐयारों में से कोई भी लौट कर न आया, कुमार की तबीयत और भी घबड़ाई, बैठा न गया, डेरे से बाहर निकले। कुमार को डेरे के बाहर होते देख बहुत से मुलाजिम सामने आ खड़े हुए। बगल ही में फतहसिंह सेनापति का डेरा था, सुनते ही कपड़े बदल हर्बों को लगा कर वह भी बाहर निकल आए और कुमार के पास आकर खड़े हो गए।

      कुमार ने फतहसिंह से कहा, “चलो जरा घूम आएँ, मगर हमारे साथ और कोई न आए!” यह कह आगे बढ़े। फतहसिंह ने सभों को मना कर दिया, लाचार कोई साथ न हुआ। ये दोनों धीरे-धीरे टहलते हुए डेरे से बहुत दूर निकल गए, तब कुमार ने फतहसिंह का हाथ पकड़ लिया और कहा, “सुनो फतहसिंह तुम भी हमारे दोस्त हो, साथ ही पढ़े और बड़े हुए, तुमसे हमारी कोई बात छिपी नहीं रहती, तेजसिंह भी तुमको बहुत मानते हैं। आज हमारी तबीयत बहुत उदास हो गई, अब हमारा जीना मुश्किल समझो क्योंकि आज तेजसिंह को न मालूम क्या सूझी कि बद्रीनाथ से जिद कर बैठे, हाथ में फँसे हुए चोर को छोड़ दिया, न जाने अब क्या होता है? किताब हाथ लगे या न लगे, तिलिस्म टूटे या न टूटे, चन्द्रकान्ता मिले या तिलिस्म ही में तड़प-तड़प कर मर जाय!”

       फतहसिंह ने कहा, “आप कुछ सोच न कीजिए। तेजसिंह ऐसे बेवकूफ नहीं हैं, उन्होंने जिद किया सो अच्छा ही किया। सब ऐयार एक दम से आपकी तरफ हो जायेंगे। आज का भी बिल्कुल हाल मुझको मालूम है, इन्तजाम भी उन्होंने अच्छा किया है। मुझको भी एक काम सुपुर्द कर गए हैं वह भी बहुत ठीक हो गया है, देखिए तो क्या होता है?”

       बातचीत करते दोनों बहुत दूर निकल गए, यकायक इन लोगों की निगाह कई औरतों पर पड़ी जो इनसे बहुत दूर न थीं। इन्होंने आपुस में बातचीत करना बंद कर दिया और पेड़ों की आड़ से औरतों को देखने लगे।

       अन्दाज से बीस औरतें होंगी, अपने-अपने घोड़ों की बाग थामे धीरे-धीरे उसी तरफ आ रही थीं। एक औरत के हाथ में दो घोड़ों की बाग थी। यों तो सभी औरतें एक से एक खूबसूरत थीं मगर सभों के आगे-आगे जो आ रही थी बहुत ही खूबसूरत और नाजुक थी। उम्र करीब पन्द्रह वर्ष के होगी, पोशाक और जेवरों के देखने से यही मालूम होता था कि यह जरूर किसी राजा की लड़की है। सिर से पाँव तक जवाहिरात से लदी हुई, हर एक अंग उसके सुन्दर और सुडौल, गुलाब सा चेहरा दूर से दिखाई दे रहा था। साथ वाली औरतें भी एक से एक खूबसूरत बेशकीमत पोशाक पहिरे हुई थीं।

       कुँअर वीरेन्द्रसिंह एकटक उसी औरत की तरफ देखने लगे जो सभीं के आगे थी। ऐसे तरद्दुद की हालत में भी कुमार के मुँह से निकल पड़ा, “वाह क्या सुडौल हाथ-पैर हैं! बहुत सी बातें कुमारी चन्द्रकान्ता की इससे मिलती हैं, नजाकत और चाल भी उसी ढंग की है, हाथ में कोई किताब है जिससे मालूम होता है कि पढ़ी-लिखी भी है।”

       वे औरतें और पास आ गईं। अब कुमार को बखूबी देखने का मौका मिला। जिस जगह पेड़ों की आड़ में ये दोनों छिपे हुए थे किसी की निगाह नहीं पड़ सकती थी। वह औरत जो सभों के आगे-आगे आ रही थी, जिसको हम राजकुमारी कह सकते हैं चलते-चलते अटक गई, उस किताब को खोल कर देखने लगी, साथ ही इसके दोनों आँखों से आँसू गिरने लगे।

       कुमार ने पहिचाना कि यह वही तिलस्मी किताब है, क्योंकि इसकी जिल्द पर एक तरफ मोटे-मोटे हरफों में ‘तिलिस्म’ लिखा हुआ है। सोचने लगे – “इस किताब को तो ऐयार लोग चुरा ले गए थे, तेजसिंह इसकी खोज में गए हैं। इसके हाथ यह किताब क्योंकर लगी? यह कौन है और किताब देख-देख रोती क्यों है?”

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