चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास ( दूसरा अध्याय ) आठवाँ बयान जिस जंगल में कुमार और देवीसिंह बैठे थे और उस सिपाही को पेड़ से बाँधा था वह बहुत ही घना था। वहाँ जल्दी किसी की पहुँच नहीं हो सकती थी। तेजसिंह के चले जाने पर कुमार और देवीसिंह एक साफ पत्थर की चट्टान पर बैठे बातें कर रहे थे। सबेरा हुआ ही चाहता था कि पूरब की तरफ से किसी का फेंका हुआ एक छोटा-सा पत्थर कुमार के पास आ गिरा। ये दोनों ताज्जुब से उस तरफ देखने लगे कि एक पत्थर और आया मगर किसी को लगा नहीं। देवीसिंह ने जोर से आवाज दी, “कौन है जो छिपकर पत्थर मारता है, सामने क्यों नहीं आता है?” जवाब में आवाज आई, “शेर की बोली बोलने वाले गीदड़ों को दूर से ही मारा जाता है!” यह आवाज सुनते ही कुमार को गुस्सा चढ़ आया, झट तलवार के कब्जे पर हाथ रखकर उठ खड़े हुए। देवीसिंह ने हाथ पकड़कर कहा, “आप क्यों गुस्सा करते हैं, मैं अभी उस नालायक को पकड़ लाता हूँ, वह है क्या चीज?” यह कह देवीसिंह उस तरफ गये जिधर से आवाज आई थी। इनके आगे बढ़ते ही एक और पत्थर पहुँचा जिसे देख देवीसिंह तेजी के साथ आगे बढ़े। एक आदमी दिखाई पड़ा मगर घने पेड़ों में अंधॆरा ज्यादे होने के सबब उसकी सूरत नहीं नजर आई। वह देवीसिंह को अपनी तरफ आते देख एक और पत्थर मारकर भागा। देवीसिंह भी उसके पीछे दौड़े मगर वह कई दफे इधर-उधर लोमड़ी की तरह चक्कर लगाकर उन्हीं घने पेड़ों में गायब हो गया। देवीसिंह भी इधर-उधर खोजने लगे, यहाँ तक कि सबेरा हो गया, बल्कि दिन निकल आया लेकिन साफ दिखाई देने पर भी कहीं उस आदमी का पता न लगा। आखिर लाचार होकर देवीसिंह उस जगह फिर आये जिस जगह कुमार को छोड़ गये थे। देखा तो कुमार नहीं। इधर-उधर देखा कहीं पता नहीं। उस सिपाही के पास आये जिसको पेड़ के साथ बाँध दिया था, देखा तो वह भी नहीं। जी उड़ गया, आँखों में आँसू भर आये, उसी चट्टान पर बैठे और सिर पर हाथ रखकर सोचने लगे- अब क्या करें, किधर ढूंढें, कहाँ जायें! अगर ढूँढते-ढूँढते कहीं दूर निकल गये और इधर तेजसिंह आये और हमको न देखा तो उनकी क्या दशा होगी? इन सब बातों को सोच देवीसिंह और थोड़ी देर इधर-उधर देख-भालकर फिर उसी जगह चले आये और तेजसिंह की राह देखने लगे। बीच-बीच में इस तरह कई दफे देवीसिंह ने उठ-उठकर खोज की मगर कुछ काम न निकला। *–*–* नौवाँ बयान तेजसिंह पहरे वाले सिपाही की सूरत में किले के दरवाजे पर पहुँचे। कई सिपाहियों ने जो सबेरा हो जाने के सबब जाग उठे थे तेजसिंह की तरफ देखकर कहा, “जैरामसिंह, तुम कहाँ चले गये थे? यहाँ पहरे में गड़बड़ पड़ गया। बद्रीनाथजी ऐयार पहरे की जाँच करने आये थे, तुम्हारे कहीं चले जाने का हाल सुनकर बहुत खफा हुए और तुम्हारा पता लगाने के लिए आप ही कहीं गए हैं, अभी तक नहीं आये। तुम्हारे सबब से हम लोगों पर खफगी हुई!” जैरामसिंह (तेजसिंह) ने कहा, “मेरी तबीयत खराब हो गई थी, हाजत मालूम हुई इस सबब से मैदान चला गया, वहाँ कई दस्त आये जिससे देर हो गई और फिर भी कुछ पेट में गड़बड़ मालूम पड़ता है। भाई, जान है तो जहान है, चाहे कोई रंज हो या खुश हो यह जरूरत तो रोकी नहीं जाती, मैं फिर जाता हूँ और अभी आता हूँ।” यह कह नकली जैरामसिंह तुरंत वहाँ से चलता बना। पहरे वालों से बातचीत करके तेजसिंह ने सुन लिया कि बद्रीनाथ यहाँ आये थे और उनकी खोज में गये हैं, इससे वे होशियार हो गए। सोचा कि अगर हमारे यहाँ होते बद्रीनाथ लौट आवेंगे तो जरूर पहचान जायेंगे, इससे यहाँ ठहरना मुनासिब नहीं। आखिर थोड़ी दूर जा एक भिखमंगे कीसूरत बना सड़क किनारे बैठ गए और बद्रीनाथ के आने की राह देखने लगे। थोड़ी देर गुजरी थी कि दूर से बद्रीनाथ आते दिखाई पड़े, पीछे-पीछे पीठ पर गट्ठर लादे नाज़िम था जिसके पीछे वह सिपाही भी था जिसकी सूरत बना तेजसिंह आए थे। तेजसिंह इस ठाठ से बद्रीनाथ को आते देख चकरा गए। जी में सोचने लगे कि ढंग बुरे नजर आते हैं। इस सिपाही को जो पीछे-पीछे चला आता है मैं पेड़ के साथ बाँध आया था, उसी जगह कुमार और देवीसिंह भी थे। बिना कुछ उपद्रव मचाये इस सिपाही को ये लोग नहीं पा सकते थे। जरूर कुछ न कुछ बखेड़ा हुआ है। जरूर उस गट्ठर में जो नाज़िम की पीठ पर है, कुमार होंगे या देवीसिंह, मगर इस वक्त बोलने का मौका नहीं, क्योंकि यहाँ सिवाय इन लोगों के हमारी मदद करने वाला कोई न होगा। यह सोचकर तेजसिंह चुपचाप उसी जगह बैठे रहे। जब ये लोग गट्ठर लिए किले के अंदर चले गए तब उठकर उस तरफ का रास्ता लिया जहाँ कुमार और देवीसिंह को छोड़ आये थे। देवीसिंह उसी जगह पत्थर पर उदास बैठे कुछ सोच रहे थे कि तेजसिंह आ पहुँचे। देखते ही देवीसिंह दौड़कर पैरों पर गिर पड़े और गुस्से भरी आवाज में बोले, “गुरुजी कुमार तो दुश्मनों के हाथ पड़ गए!” तेजसिंह पत्थर पर बैठ गए और बोले, “खैर खुलासा हाल कहो क्या हुआ!” देवीसिंह ने जो कुछ बीता था सब हाल कह सुनाया। तेजसिंह ने कहा, “देखो आजकल हम लोगों का नसीब कैसा उल्टा हो रहा है, फिक्र चारों तरफ की ठहरी मगर करें तो क्या करें? बेचारी चन्द्रकान्ता और चपला न मालूम किस आफत में फँस गईं और उनकी क्या दशा होगी इसकी फिक्र तो थी ही मगर कुमार का फँसना तो गजब हो गया।” थोड़ी देर तक देवीसिंह और तेजसिंह बातचीत करते रहे, इसके बाद उठकर दोनों ने एक तरफ का रास्ता लिया। *–*–* दसवाँ बयान चुनार के किले के अंदर महाराज शिवदत्त के खास महल में एक कोठरी के अंदर जिसमें लोहे के छड़दार किवाड़ लगे हुए थे, हाथों में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी पड़ी हुई, दरवाजे के सहारे उदास मुख वीरेन्द्रसिंह बैठे हैं। पहरे पर कई औरतें कमर से छुरा बाँधे टहल रही हैं। कुमार धीरे-धीरे भुनभुना रहे हैं, “हाय चन्द्रकान्ता का पता लगा भी तो किसी काम का नहीं, भला पहले तो यह मालूम हो गया था कि शिवदत्त चुरा ले गया, मगर अब क्या कहा जाय! हाय, चन्द्रकान्ता, तू कहाँ है? मुझको बेड़ी और यह कैद कुछ तकलीफ नहीं देती जैसा तेरा लापता हो जाना खटक रहा है। हाय, अगर मुझको इस बात का यकीन हो जाय कि तू सही-सलामत है और अपने माँ-बाप के पास पहुँच गई तो इसी कैद में भूखे-प्यासे मर जाना मेरे लिए खुशी की बात होगी मगर जब तक तेरा पता नहीं लगता जिंदगी बुरी मालूम होती है। हाय, तेरी क्या दशा होगी, मैं कहाँ ढूढूँ! यह हथकड़ी-बेड़ी इस वक्त मेरे साथ कटे पर नमक का काम का रही है। हाय, क्या अच्छी बात होती अगर इस वक्त कुमारी की खोज में जंगल-जंगल मार-मारा फिरता, पैरों में काँटे गड़े होते, खून निकलता होता, भूख-प्यास लगने पर भी खाना-पीना छोड़कर उसी का पता लगाने की फिक्र होती। हे ईश्वर! तूने कुछ न किया, भला मेरी हिम्मत को तो देखा होता कि इश्क की राह में कैसा मजबूत हूँ, तूने तो मेरे हाथ-पैर ही जकड़ डाले। हाय, जिसको पैदा करके तूने हर तरह का सुख दिया उसका दिल दुखाने और उसको खराब करने में तुझे क्या मजा मिलता है?” ऐसी-ऐसी बातें करते हुए कुँअर वीरेन्द्रसिंह की आँखों से आँसू जारी थे और लंबी-लंबी साँसें ले रहे थे। आधी रात के लगभग जा चुकी थी। जिस कोठरी में कुमार कैद थे उसके सामने सजे हुए दलान में चार-पाँच शीशे जल रहे थे, कुमार का जी जब बहुत घबड़ाया। सर उठाकर उस तरफ देखने लगे। एक बारगी पाँच-सात लौंडियाँ एक तरफ से निकल आईं और हाँडी, ढोल, दीवारगीर, झाड़, बैठक, कंवल, मृदंगी वगैरह शीशों को जलाया जिनकी रोशनी से एकदम दिन-सा हो गया। बाद इसके दलान के बीचों बीच बेशकीमती गद्दी बिछाई और तब सब लौंडियाँ खड़ी होकर एकटक दरवाजे की तरफ देखने लगीं, मानो किसी के आने का इंतजार कर रही हैं। कुमार बड़े गौर से देख रहे थे, क्योंकि इनको इस बात का बड़ा ताज्जुब था कि वे महल के अंदर जहाँ मर्दों की बू तक नहीं जा सकती क्यों कैद किये गये और इसमें महाराज शिवदत्त ने क्या फायदा सोचा! थोड़ी देर बाद महाराज शिवदत्त अजब ठाठ से आते दिखाई पड़े, जिसको देखते ही वीरेन्द्रसिंह चौंक पड़े। अजब हालत हो गई, एकटक देखने लगे। देखा कि महाराज शिवदत्त के दाहिनी तरफ चन्द्रकान्ता और बाईं तरफ चपला,दोनों के हाथों में हाथ दिये धीरे- धीरे आकर उस गद्दी पर बैठ गये जो बीच में बिछी हुई थी। चन्द्रकान्ता और चपला भी दोनों तरफ सटकर महाराज के पास बैठ गईं! चन्द्रकान्ता और कुमार का साथ तो लड़कपन ही से था मगर आज चन्द्रकान्ता की खूबसूरती और नजाकत जितनी बढ़ी-चढ़ी थी इसके पहले कुमार ने कभी नहीं देखी थी। सामने पानदान, इत्रदान वगैरह सब सामान ऐश का रखा हुआ था। यह देख कुमार की आँखों में खून उतर आया, जी में सोचने लगे, “यह क्या हो गया! चन्द्रकान्ता इस तरह खुशी-खुशी शिवदत्त के बगल में बैठी हुई हाव-भाव कर रही है, यह क्या मामला है? क्या मेरी मुहब्बत एकदम उसके दिल से जाती रही, साथ ही मां-बाप की मुहब्बत भी बिल्कुल उड़ गई? जिसमें मेरे सामने उसकी यह कैफियत है! क्या वह यह नहीं जानती कि उसके सामने ही मैं इस कोठरी में कैदियों की तरह पड़ा हुआ हूँ? जरूर जानती है, वह देखो मेरी तरफ तिरछी आँखों से देख मुँह बिचका रही है। साथ ही इसके चपला को क्या हो गया जो तेजसिंह पर जी दिये बैठी थी और हथेली पर जान रख इसी महाराज शिवदत्त को छकाकर तेजसिंह को छुड़ा ले गई थी। उस वक्त महाराज शिवदत्त की मुहब्बत इसको न हुई और आज इस तरह अपनी मालकिन चन्द्रकान्ता के साथ बराबरी दर्जे पर शिवदत्त के बगल में बैठी है! हाय-हाय, स्त्रियों का कुछ ठिकाना नहीं, इन पर भरोसा करना बड़ी भारी भूल है। हाय! क्या मेरी किस्मत में ऐसी ही औरत से मुहब्बत होनी लिखी थी। ऐसे ऊँचे कुल की लड़की ऐसा काम करे। हाय, अब मेरा जीना व्यर्थ है, मैं जरूर अपनी जान दे दूंगा, मगर क्या चन्द्रकान्ता और चपला को शिवदत्त के लिए जीता छोड़ दूँगा? कभी नहीं। यह ठीक है कि वीर पुरुष स्त्रियों पर हाथ नहीं छोड़ते, पर मुझको अब अपनी वीरता दिखानी नहीं, दुनिया में किसी के सामने मुँह करना नहीं है, मुझको यह सब सोचने से क्या फायदा? अब यही मुनासिब है कि इन दोनों को मार डालना और पीछे अपनी भी जान दे देनी। तेजसिंह भी जरूर मेरा साथ देंगे, चलो अब बखेड़ा ही तय कर डालो!!” इतने में इठलाकर चन्द्रकान्ता ने महाराज शिवदत्त के गले में हाथ डाल दिया, अब तो वीरेन्द्रसिंह सह न सके। जोर से झटका दे हथकड़ी तोड़ डाली, उसी जोश में एक लात सींखचे वाले किवाड़ में भी मारी और पल्ला गिरा शिवदत्त के पास पहुँचे। उनके सामने जो तलवार रखी थी उसे उठा लिया और खींच के एक हाथ चन्द्रकान्ता पर ऐसा चलाया कि खट से सर अलग जा गिरा और धड़ तड़पने लगा, जब तक महाराज शिवदत्त सम्हलें तब तक चपला के भी दो टुकड़े कर दिये, मगर महाराज शिवदत्त पर वार न किया। महाराज शिवदत्त सम्हलकर उठ खड़े हुए, यकायकी इस तरह की ताकत और तेजी कुमार की देख सकते में हो गये, मुँह से आवाज तक न निकली, जवांमर्दी हवा खाने चली गई, सामने खड़े होकर कुमार का मुँह देखने लगे। कुँअर वीरेन्द्रसिंह खून भरी नंगी तलवार लिये खड़े थे कि तेजसिंह और देवीसिंह धम्म से सामने आ मौजूद हुए। तेजसिंह ने आवाज दी, “वाह शाबास, खूब दिल को सम्हाला।” यह कह झट से महाराज शिवदत्त के गले में कमंद डाल झटका दिया। शिवदत्त की हालत पहले ही से खराब हो रही थी, कमंद से गला घुटते ही जमीन पर गिर पड़े। देवीसिंह ने झट गट्ठर बांधा पीठ पर लाद लिया। तेजसिंह ने कुमार की तरफ देखकर कहा, “मेरे साथ-साथ चले आइये, अभी कोई दूसरी बात मत कीजिये, इस वक्त जो हालत आपकी है मैं खूब जानता हूँ।” इस वक्त सिवाय लौंडियों के कोई मर्द वहाँ पर नहीं था। इस तरह का खून-खराब देखकर कई तो बदहवास हो गईं बाकी जो थीं उन्होंने चूँ तक न किया, एकटक देखती ही रह गईं और ये लोग चलते बने। *–*–* « पीछे जायेँ | आगे पढेँ » • चन्द्रकान्ता [ होम पेज ] |
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