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चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास

( तीसरा अध्याय )

बारहवाँ बयान

      कुँअर वीरेन्द्रसिंह के गायब होने से उनके लश्कर में खलबली पड़ गई। तेजसिंह और देवीसिंह ने घबराकर चारों तरफ खोज की मगर कुछ पता न लगा। दिन भर बीत जाने पर ज्योतिषीजी ने तेजसिंह से कहा, “रमल से जान पड़ता है कि कुमार को कई औरतें बेहोशी की दवा सुँघा बेहोश कर उठा ले गई हैं और नौगढ़ के इलाके में अपने मकान के अंदर कैद कर रखा है, इससे ज्यादे कुछ मालूम नहीं होता।”

      ज्योतिषीजी की बात सुनकर तेजसिंह बोले, “नौगढ़ में तो अपना ही राज्य है, वहाँ कुमार के दुश्मनों का कहीं ठिकाना नहीं। महाराज सुरेन्द्रसिंह की अमलदारी से उनकी रियाया बहुत खुश तथा उनके और उनके खानदान के लिए वक्त पर जान देने को तैयार है फिर कुमार को ले जाकर कैद करने वाला कौन हो सकता है?”

      बहुत देर तक सोच-विचार करते रहने के बाद तेजसिंह कुमार की खोज में जाने के लिए तैयार हुए। देवीसिंह और ज्योतिषीजी ने भी उनका साथ दिया और ये तीनों नौगढ़ की तरफ रवाना हुए। जाते वक्त महाराज शिवदत्त के दीवान को चुनार विदा करते गये जो कुँअर वीरेन्द्रसिंह की मुलाकात को महाराज शिवदत्त की तरफ से तोहफा और सौगात लेकर आये हुए थे और तिलिस्मी किताब फतहसिंह सिपहसालार के सुपुर्द कर दी जो कुँअर वीरेन्द्रसिंह के गायब हो जाने के बाद उनके पलंग पर पड़ी हुई पाई गई थी।

      ये तीनों ऐयार आधी रात गुजर जाने के बाद नौगढ़ की तरफ रवाना हुए। पाँच कोस तक बराबर चले गये, सवेरा होने पर तीनों एक घने जंगल में रुके और अपनी सूरतें बदलकर फिर रवाना हुए। दिन भर चलकर भूखे-प्यासे शाम को नौगढ़ की सरहद पर पहुँचे। इन लोगों ने आपस में यह राय ठहराई कि किसी से मुलाकात न करें बल्कि जाहिर भी न होकर छिपे ही छिपे कुमार की खोज करें।

      तीनों ऐयारों ने अलग-अलग होकर कुमार का पता लगाना शुरू किया। कहीं मकान में घुसकर, कहीं बाग में जाकर, कहीं आदमियों से बातें करके उन लोगों ने दरियाफ्त किया मगर कहीं पता न लगा। दूसरे दिन तीनों इकट्ठे होकर सूरत बदले हुए राजा सुरेन्द्रसिंह के दरबार में गये और एक कोने में खड़े हो बातचीत सुनने लगे।

      उसी वक्त कई जासूस दरबार में पहुँचे जिनकी सूरत से घबराहट और परेशानी साफ मालूम होती थी। तेजसिंह के बाप दीवान जीतसिंह ने उन जासूसों से पूछा, “क्या बात है जो तुम लोग इस तरह घबराये हुए आये हो?”

      एक जासूस ने कुछ आगे बढ़के जवाब दिया, “लश्कर से कुमार की खबर लाया हूँ।”

      जीत - क्या हाल है, जल्द कहो।

      जासूस - दो रोज से उनका कहीं पता नहीं है।

      जीत - क्या कहीं चले गये?

      जासूस - जी नहीं, रात को खेमे में सोये हुए थे, उसी हालत में कुछ औरतें उन्हें उठा ले गईं, मालूम नहीं कहाँ कैद कर रखा है।

      जीत - (घबराकर) यह कैसे मालूम हुआ कि उन्हें कई औरतें ले गईं?

      जासूस - उनके गायब हो जाने के बाद ऐयारों ने बहुत तलाश किया। जब कुछ पता न लगा तो ज्योतिषी जगन्नाथजी ने रमल से पता लगाकर कहा कि कई औरतें उन्हें ले गई हैं और इस नौगढ़ के इलाके में ही कहीं कैद कर रखा है?

      जीत - (ताज्जुब से) इसी नौगढ़ के इलाके में! यहाँ तो हम लोगों का कोई दुश्मन नहीं है!

      जासूस - जो कुछ हो, ज्योतिषीजी ने तो ऐसा ही कहा है।

      जीत - फिर तेजसिंह कहाँ गया?

      जासूस - कुमार की खोज में कहीं गये हैं, देवीसिंह और ज्योतिषीजी भी उनके साथ हैं। मगर उन लोगों के जाते ही हमारे लश्कर पर आफत आई?

      जीत - (चौंककर) हमारे लश्कर पर क्या आफत आई?

      जासूस - मौका पाकर महाराज शिवदत्त ने हमला कर दिया।

      हमले का नाम सुनते ही तेजसिंह वगैरह ऐयार लोग जो सूरत बदले हुए एक कोने में खड़े थे आगे की सब बातें बड़े गौर से सुनने लगे।

      जीत - पहले तो तुम लोग यह खबर लाये थे कि महाराज शिवदत्त ने कुमार की दोस्ती कबूल कर ली और उनका दीवान बहुत कुछ नजर लेकर आया है, अब क्या हुआ?

      जासूस - उस वक्त की वह खबर बहुत ठीक थी पर आखिर में उसने धोखा दिया और बेईमानी पर कमर बाँध ली।

      जीत - उसके हमले का क्या नतीजा हुआ?

      जासूस - पहर भर तक तो फतहसिंह सिपहसालार खूब लड़े, आखिर शिवदत्त के हाथ से जख्मी होकर गिरफ्तार हो गये। उनके गिरफ्तार होते ही बेसिर की फौज तितिर-बितिर हो गई।

      अभी तक सुरेन्द्रसिंह चुपचाप बैठे इन बातों को सुन रहे थे। फतहसिंह के गिरफ्तार हो जाने और लश्कर के भाग जाने का हाल सुन आँखें लाल हो गईं। दीवान जीतसिंह की तरफ देखकर बोले, “हमारे यहाँ इस वक्त फौज तो है नहीं, थोड़े-बहुत सिपाही जो कुछ हैं उनको लेकर इसी वक्त कूच करूँगा। ऐसे नामर्द को मारना कोई बड़ी बात नहीं है।”

      जीत - ऐसा ही होना चाहिए, सरकार के कूच की बात सुनकर भागी हुई फौज भी इकट्ठी हो जायगी।

      ये बातें हो ही रही थीं कि दो जासूस और दरबार में हाजिर हुए। पूछने से उन्होंने कहा, “कुमार के गायब होने, ऐयारों के उनकी खोज में जाने, फतहसिंह के गिरफ्तार हो जाने और फौज के भाग जाने की खबर सुनकर महाराज जयसिंह अपनी कुल फौज लेकर चुनार पर चढ़ गये हैं। रास्ते में खबर लगी कि फतहसिंह के गिरफ्तार होने के दो ही पहर बाद रात को महाराज शिवदत्त भी कहीं गायब हो गये और उनके पलंग पर एक पुर्जा पड़ा हुआ मिला जिसमें लिखा हुआ था कि इस बेईमान को पूरी सजा दी जायगी, जन्म भर कैद से छुट्टी न मिलेगी। बाद इसके सुनने में आया कि फतहसिंह भी छूटकर तिलिस्म के पास आ गये और कुमार की फौज फिर इकट्ठी हो रही है।”

      इस खबर को सुनकर राजा सुरेन्द्रसिंह ने दीवान जीतसिंह की तरफ देखा।

      जीत - जो कुछ भी हो महाराज जयसिंह ने चढ़ाई कर ही दी, मुनासिब है कि हम भी पहुँच कर चुनार का बखेड़ा ही तय कर दें, यह रोज-रोज की खटपट अच्छी नहीं!

      राजा - तुम्हारा कहना ठीक है, ऐसा ही किया जाय, क्या कहें हमने सोचा था कि लड़के के ही हाथ से चुनार फतह हो जिससे उसका हौसला बढ़े मगर अब बर्दाश्त नहीं होता।

      इन सब बातों और खबरों को सुन तीनों ऐयार वहाँ से रवाना हो गए और एकांत में जाकर आपस में सलाह करने लगे।

      तेज - अब क्या करना चाहिए?

      देवी - चाहे जो भी हो पहले तो कुमार को ही खोजना चाहिए।

      तेज - मैं कहता हूँ कि तुम लश्कर की तरफ जाओ और हम दोनों कुमार की खोज करते हैं।

      ज्योतिषी - मेरी बात मानो तो पहले एक दफे उस तहखाने (खोह) में चलो जिसमें महाराज शिवदत्त को कैद किया था।

      तेज - उसका तो दरवाजा ही नहीं खुलता।

      ज्योतिषी - भला चलो तो सही, शायद किसी तरकीब से खुल जाय।

      तेज - इसकी कोशिश तो आप बेफायदे करते हैं, अगर दरवाजा खुला भी तो क्या काम निकलेगा?

      ज्योतिषी - अच्छा चलो तो।

      तेज - खैर चलो।

      तीनों ऐयार तहखाने की तरफ रवाना हुए।

*–*–*

तेरहवाँ बयान

      कुँअर वीरेन्द्रसिंह धीरे-धीरे बेहोश होकर उस गद्दी पर लेट गए। जब आँख खुली अपने को एक पत्थर की चट्टान पर सोये पाया। घबराकर इधर-उधर देखने लगे। चारों तरफ ऊँची-ऊँची पहाड़ी, बीच में बहता चश्मा, किनारे-किनारे जामुन के दरख्तों की बहार देखने से मालूम हो गया कि यह वही तहखाना है जिसमें ऐयार लोग कैद किये जाते थे, जिस जगह तेजसिंह ने महाराज शिवदत्त को मय उनकी रानी के कैद किया था, या कुमार ने पहाड़ी के ऊपर चन्द्रकान्ता और चपला को देखा था। मगर पास न पहुँच सके थे।

      कुमार घबराकर पत्थर की चट्टान पर से उठ बैठे और उस खोह को अच्छी तरह पहचानने के लिए चारों तरफ घूमने और हर एक चीज को देखने लगे। अब शक जाता रहा और बिल्कुल यकीन हो गया कि यह वही खोह है, क्योंकि उसी तरह कैदी महाराज शिवदत्त को जामुन के पेड़ के नीचे पत्थर की चट्टान पर लेटे और पास ही उनकी रानी को बैठे और पैर दबाते देखा। इन दोनों का रुख दूसरी तरफ था, कुमार ने उनको देखा मगर उनको कुमार का कुछ गुमान तक भी न हुआ।

      कुँअर वीरेन्द्रसिंह दौड़े हुए उस पहाड़ी के नीचे गये जिसके ऊपर वाले दालान में कुमारी चन्द्रकान्ता और चपला को छोड़ तिलिस्म तोड़ने खोह के बाहर गये थे। इस वक्त भी कुमारी को उस दिन की तरह वही मैली और फटी साड़ी पहने उसी तौर से चेहरे और बदन पर मैल चढ़ी और बालों की लट बाँधे बैठे हुए देखा।

      देखते ही फिर वही मुहब्बत की बला सिर पर सवार हो गई। कुमारी को पहले की तरह बेबसी की हालत में देख आँखों में आँसू भर आये, गला रुक गया और कुछ शर्मा के सामने से हट एक पेड़ की आड़ में खड़े हो जी में सोचने लगे, ‘हाय, अब कौन मुँह लेकर कुमारी चन्द्रकान्ता के सामने जाऊँ और उससे क्या बातचीत करूँ? पूछने पर क्या यह कह सकूँगा कि तुम्हें छुड़ाने के लिए तिलिस्म तोड़ने गये थे लेकिन अभी तक वह नहीं टूटा। हा! मुझसे तो यह बात कभी नहीं कही जायेगी। क्या करूँ वनकन्या के फेर में तिलिस्म तोड़ने की सुध जाती रही और कई दिन का हर्ज भी हुआ। जब कुमारी पूछेगी कि तुम यहाँ कैसे आये तो क्या जवाब दूँगा? शिवदत्त भी यहाँ दिखाई देता है। लश्कर में तो सुना था कि वह छूट गया बल्कि उसका दीवान खुद नजर लेकर आया था, तब यह क्या मामला है!’

      इन सब बातों को कुमार सोच ही रहे थे कि सामने से तेजसिंह आते दिखाई पड़े जिनके कुछ दूर पीछे देवीसिंह और पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषी भी थे। कुमार उनकी तरफ बढ़े। तेजसिंह सामने से कुमार को अपनी तरफ आते देख दौड़े और उनके पास जाकर पैरों पर गिर पड़े, उन्होंने उठाकर गले से लगा लिया। देवीसिंह से भी मिले और ज्योतिषीजी को दण्डवत किया। अब ये चारों एक पेड़ के नीचे पत्थर पर बैठकर बातचीत करने लगे।

      कुमार - देखो तेजसिंह, वह सामने कुमारी चन्द्रकान्ता उसी दिन की तरह उदास और फटे कपड़े पहिरे बैठी है और बगल में उसकी सखी चपला बैठी अपने आँचल से उनका मुँह पोछ रही है।

      तेज - आपसे कुछ बातचीत भी हुई?

      कुमार - नहीं कुछ नहीं, अभी मैं यही सोच रहा था कि उसके सामने जाऊँ या नहीं।

      तेज - कै दिन से आप यह सोच रहे हैं?

      कुमार - अभी मुझको इस घाटी में आये दो घड़ी नहीं हुई।

      तेज - (ताज्जुब से) क्या आप अभी इस खोह में आये हैं? इतने दिनों तक कहाँ रहे? आपको लश्कर से आये तो कई दिन हुए! इस वक्त आपको यकायक यहाँ देख के मैंने सोचा कि कुमारी के इश्क में चुपचाप लश्कर से निकलकर इस जगह आ बैठे हैं।

      कुमार - नहीं, मैं अपनी खुशी से लश्कर से नहीं आया, न मालूम कौन उठा ले गया था।

      तेज - (ताज्जुब से) हैं, क्या अभी तक आपको यह भी मालूम नहीं हुआ कि लश्कर से आपको कौन उठा ले गया था।

      कुमार - नहीं, बिल्कुल नहीं।

      इतना कहकर कुमार ने अपना बिल्कुल हाल पूरा-पूरा कह सुनाया। जब तक कुमार अपनी कैफियत कहते रहे तीनों ऐयार अचंभे में भरे सुनते रहे। जब कुमार ने अपनी कथा समाप्त की तब तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से पूछा, “यह क्या मामला है, आप कुछ समझे?”

      ज्योतिषी - कुछ नहीं, बिल्कुल ख्याल में ही नहीं आता कि कुमार कहाँ गये थे और उन्हें ऐसे तमाशे दिखलाने वाला कौन था।

      कुमार - तिलिस्म तोड़ने के वक्त जो ताज्जुब की बातें देखी थीं उनसे बढ़कर इन दो-तीन दिनों में दिखाई पड़ीं।

      देवी - किसी छोटे दिल के डरपोक आदमी को ऐसा मौका पड़े तो घबरा के जान ही दे दे।

      ज्योतिषी - इसमें क्या संदेह है!

      कुमार - और एक ताज्जुब की बात सुनो, शिवदत्त भी यहाँ दिखाई पड़ रहा है।

      तेज - सो कहाँ?

      कुमार - (हाथ का इशारा करके) वह, उस पेड़ के नीचे नजर दौड़ाओ।

      तेज - हाँ ठीक तो है, मगर यह क्या मामला है! चलो उससे बात करें, शायद कुछ पता लगे।

      कुमार - उसके सामने ही कुमारी चन्द्रकान्ता पहाड़ी के ऊपर है, पहले उससे कुछ हाल पूछना चाहिए। मेरा जी तो अजब पेच में पड़ा हुआ है, कोई बात बैठती ही नहीं कि वह क्या पूछेगी और मैं क्या जवाब दूँगा।

      तेज - आशिकों की यही दशा होती है, कोई बात नहीं, चलिए मैं आपकी तरफ से बात करूंगा।

      चारों आदमी शिवदत्त की तरफ चले। पहले उस पहाड़ी के नीचे गये जिसके ऊपर छोटे दालान में कुमारी चन्द्रकान्ता और चपला बैठी थीं। कुमारी की निगाह दूसरी तरफ थी, चपला ने इन लोगों को देखा, वह उठ खड़ी हुई और आवाज देकर कुमार के राजी-खुशी का हाल पूछने लगी। जवाब खुद कुमार ने देकर कुमारी चन्द्रकान्ता के मिजाज का हाल पूछा। चपला ने कहा, “इनकी हालत तो देखने ही से मालूम होती होगी, कहने की जरूरत ही नहीं।”

      कुमारी अभी तक सिर नीचे किए बैठी थी। चपला के बातचीत की आवाज सुन चौंककर उसने सिर उठाया। कुमार को देखते ही हाथ जोड़कर खड़ी हो गई और आँखों से आँसू बहाने लगी। कुँअर वीरेन्द्रसिंह ने कहा, “कुमारी तुम थोड़े दिन और सब्र करो। तिलिस्म टूट गया, थोड़ा बाकी है। कई सबबों से मुझे यहाँ आना पड़ा, अब मैं फिर उसी तिलिस्म की तरफ जाऊँगा!”

      चपला - कुमारी कहती हैं कि मेरा दिल यह कह रहा है कि इन दिनों या तो मेरी मुहब्बत आपके दिल से कम हो गई है या फिर मेरी जगह किसी और ने दखल कर ली। मुद्दत से इस जगह तकलीफ उठा रही हूँ जिसका ख्याल मुझे कभी भी न था मगर कई दिनों से यह नया ख्याल जी में पैदा होकर मुझे बेहद सता रहा है।

      चपला इतना कह के चुप हो गई। तेजसिंह ने मुस्कुराते हुए कुमार की तरफ देखा और बोले, “क्यों, कहो तो भण्डा फोड़ दूँ!” कुमार इसके जवाब में कुछ कह न सके, आँखों से आँसू की बूंदें गिरने लगीं और हाथ जोड़ के उनकी तरफ देखा। हँसकर तेजसिंह ने कुमार के जुड़े हाथ छुड़ा दिये औरउनकी तरफ से खुद चपला को जवाब दिया- “कुमारी को समझा दो कि कुमार की तरफ से किसी तरह का अंदेशा न करें, तुम्हारे इतना ही कहने से कुमार की हालत खराब हो गई।”

      चपला - आप लोग आज यहाँ किसलिए आये?

      तेज - महाराज शिवदत्त को देखने आये हैं, वहाँ खबर लगी थी कि ये छूटकर चुनार पहुँच गये।

      चपला - किसी ऐयार ने सूरत बदली होगी, इन दोनों को तो मैं बराबर यहीं देखती रहती हूँ।

      तेज - जरा मैं उनसे भी बातचीत कर लूँ।

      तेजसिंह और चपला की बातचीत महाराज शिवदत्त कान लगाकर सुन रहे थे। अब वे कुमार के पास आये, कुछ कहा चाहते थे कि ऊपर चन्द्रकान्ता और चपला की तरफ देखकर चुप हो रहे।

      तेज - शिवदत्त, हाँ क्या कहने को थे, कहो रुक क्यों गये?

      शिव - अब न कहूँगा।

      तेज - क्यों?

      शिव - शायद न कहने से जान बच जाय।

      तेज - अगर कहोगे तो तुम्हारी जान कौन मारेगा?

      शिव - जब इतना ही बता दूँ तो बाकी क्या रहा?

      तेज - न बताओगे तो मैं तुम्हें कब छोड़ूँगा।

      शिव - जो चाहो करो मगर मैं कुछ न बताऊँगा।

      इतना सुनते ही तेजसिंह ने कमर से खंजर निकाल लिया, साथ ही चपला ने ऊपर से आवाज दी, “नहीं, ऐसा मत करना!” तेजसिंह ने हाथ रोककर चपला की तरफ देखा।

      चपला - शिवदत्त के ऊपर खंजर खींचने का क्या सबब है?

      तेज - यह कुछ कहने आये थे मगर तुम्हारी तरफ देखकर चुप हो रहे, अब पूछता हूँ तो कुछ बताते नहीं, बस कहते हैं कि कुछ बोलूँगा तो जान चली जायगी। मेरी समझ में नहीं आता कि यह क्या मामला है। एक तो इनके बारे में हम लोग आप ही हैरान थे, दूसरे कुछ कहने के लिए हम लोगों के पास आना और फिर तुम्हारी तरफ देखकर चुप हो रहना और पूछने से जवाब देना कि कहेंगे तो जान चली जायेगी इन सब बातों से तबीयत और परेशान होती है?

      चपला - आजकल ये पागल हो गये हैं, मैं देखा करती हूँ कि कभी-कभी चिल्लाया और इधर-उधर दौड़ा करते हैं। बिल्कुल हालत पागलों की-सी पाई जाती है, इनकी बातों का कुछ ख्याल मत करो?

      शिव - उल्टे मुझी को पागल बनाती है!

      तेज - (शिवद्त्त से) क्या कहा, फिर तो कहो?

      शिव - कुछ नहीं, तुम चपला से बातें करो, मैं तो आजकल पागल हो गया हूँ।

      देवी - वाह, क्या पागल बने हैं।

      शिव - चपला का कहना बहुत सही है, मेरे पागल होने में कोई शक नहीं।

      कुमार - ज्योतिषीजी, जरा इन नई गढ़न्त के पागल को देखना!

      ज्योतिषी - (हँसकर) जब आकाशवाणी हो ही चुकी कि ये पागल हैं तो अब क्या बाकी रहा?

      कुमार - दिल में कई तरह के खुटके पैदा होते हैं।

      तेज - इसमें जरूर कोई भारी भेद है। न मालूम वह कब खुलेगा, लाचारी यही है कि हम कुछ कर नहीं सकते!

      देवी - हमारी ओस्तादिन इस भेद को जानती हैं मगर उनको अभी इस भेद को खोलना मंजूर नहीं।

      कुमार - यह बिल्कुल ठीक है।

      देवीसिंह की बात पर तेजसिंह हँसकर चुप हो रहे। महाराज शिवदत्त भी वहाँ से उठकर अपने ठिकाने जा बैठे। तेजसिंह ने कुमार से कहा, “अब हम लोगों को लश्कर में चलना चाहिए। सुनते हैं कि हम लोगों के पीछे महाराज शिवदत्त ने लश्कर पर धावा मारा जिससे बहुत कुछ खराबी हुई। मालूम नहीं पड़ता वह कौन शिवदत्त था, मगर फिर सुनने में आया कि शिवदत्त भी गायब हो गया। अब यहाँ आकर फिर शिवदत्त को देख रहे हैं!”

      कुमार - इसमें तो कोई शक नहीं कि ये सब बातें बहुत ही ताज्जुब की हैं, खैर तुमने जो कुछ जिसकी जुबानी सुना है साफ-साफ कहो।

      तेजसिंह ने अपने तीनों आदमियों का कुमार की खोज में लश्कर से बाहर निकलना, नौगढ़ राज्य में सुरेन्द्रसिंह के दरबार में भेष बदले हुए पहुँचकर दो जासूसों की जुबानी लश्कर का हाल सुनना, महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह का चुनार पर चढ़ाई करना इत्यादि सब हाल कहा जिसे सुन कुमार परेशान हो गये, खोह के बाहर चलने के लिए तैयार हुए। कुमारी चन्द्रकान्ता से फिर कुछ बातें कर और धीरज दे आँखों से आंसू बहाते कुँअर वीरेन्द्रसिंह उस खोह के बाहर हुए।

      शाम हो चुकी थी जब ये चारों खोह के बाहर आये। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा कि हम लोग यहाँ बैठते हैं तुम नौगढ़ जाकर सरकारी अस्तबल में से एक उम्दा घोड़ा खोल लाओ जिस पर कुमार को सवार कराके तिलिस्म की तरफ ले चलें, मगर देखो किसी को मालूम न हो कि देवीसिंह घोड़ा ले गए हैं।

      देवी - जब किसी को मालूम हो ही गया तो मेरे जाने से फायदा क्या?

      तेज - कितनी देर में आओगे?

      देवी - यह कोई भारी बात तो है नहीं जो देर लगेगी, पहर भर के अंदर आ जाऊँगा।

      यह कहकर देवीसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए, उनके जाने के बाद ये तीनों आदमी घने पेड़ों के नीचे बैठ बातें करने लगे।

      कुमार - क्यों ज्योतिषीजी, शिवदत्त का भेद कुछ न खुलेगा?

      ज्योतिषी - इसमें तो कोई शक नहीं कि वह असल में शिवदत्त ही था जिसने कैद से छूटकर अपने दीवान के हाथ आपके पास तोहफा भेजकर सुलह के लिए कहलाया था, और विचार से मालूम होता है कि वह भी असली शिवदत्त ही है जिसे आप इस वक्त खोह में छोड़ आए हैं, मगर बीच का हाल कुछ मालूम नहीं होता कि क्या हुआ।

      कुमार - पिताजी ने चुनार पर चढ़ाई की है, देखें इसका नतीजा क्या होता है? हम लोग भी वहाँ जल्दी पहुँचते तो ठीक था।

      ज्योतिषी - कोई हर्ज नहीं, वहाँ बोलने वाला कौन है? आपने सुना ही है कि शिवदत्त फिर गायब हो गया बल्कि उस पुरजे से जो उसके पलंग पर मिला मालूम होता है फिर गिरफ्तार हो गया।

      तेज - हाँ चुनार दखल होने में क्या शक है, क्योंकि सामना करने वाला कोई नहीं, मगर उनके ऐयारों का खौफ जरा बना रहता है।

      कुमार - बद्रीनाथ वगैरह भी गिरफ्तार हो जाते तो बेहतर था।

      तेज - अबकी चलकर जरूर गिरफ्तार करूंगा।

      इसी तरह की बात करते इनको पहर भर से ज्यादे गुजर गया। देवीसिंह घोड़ा लेकर आ पहुँचे जिस पर कुमार सवार हो तिलिस्म की तरफ रवाना हुए, साथ-साथ तीनों ऐयार पैदल बातें करते जाने लगे।

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