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चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास

( तीसरा अध्याय )

चौदहवाँ बयान

      कुमार के गायब हो जाने के बाद तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी उनकी खोज में निकले हैं इस खबर को सुनकर महाराज शिवदत्त के जी में फिर बेईमानी पैदा हुई। एकांत में अपने ऐयारों और दीवान को बुलाकर उसने कहा, “इस वक्त कुमार लश्कर से गायब हैं और उनके ऐयार भी उन्हें खोजने गये हैं, मौका अच्छा है, मेरे जी में आता है कि चढ़ाई करके कुमार के लश्कर को खतम कर दूँ और उस खजाने को भी लूट लूँ जो तिलिस्म में से उनको मिला है।”

      इस बात को सुन दीवान तथा बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल ने बहुत कुछ समझाया कि आपको ऐसा न करना चाहिए क्योंकि आप कुमार से सुलह कर चुके हैं। अगर इस लश्कर को आप जीत ही लेंगे तो क्या हो जायेगा, फिर दुश्मनी पैदा होने में ठीक नहीं है इत्यादि बहुत-सी बातें कहके इन लोगों ने समझाया मगर शिवदत्त ने एक न मानी। इन्हीं ऐयारों में नाज़िम और अहमद भी थे जो शिवदत्त की राय में शरीक थे और उसे हमला करने के लिए उकसाते थे।

      आखिर महाराज शिवदत्त ने कुँअर वीरेन्द्रसिंह के लश्कर पर हमला किया और खुद मैदान में आ फतहसिंह सिपहलासार को मुकाबले के लिए ललकारा। वह भी जवाँमर्द था, तुरंत मैदान में निकल आया और पहर भर तक खूब लड़ा, लेकिन आखिर शिवदत्त के हाथ से जख्मी होकर गिरफ्तार हो गया।

      सेनापति के गिरफ्तार होते ही फौज बेदिल होकर भाग गई। सिर्फ खेमा वगैरह महाराज शिवदत्त के हाथ लगा। तिलिस्मी खजाना उसके हाथ कुछ भी नहीं लगा क्योंकि तेजसिंह ने बंदोबस्त करके उसे पहले ही नौगढ़ भेजवा दिया था, हाँ तिलिस्मी किताब उसके कब्जे में जरूर पड़ गई जिसे पाकर वह बहुत खुश हुआ और बोला, “अब इस तिलिस्म को मैं खुद तोड़ कुमारी चन्द्रकान्ता को उस खोह से निकालकर ब्याहूँगा।”

      फतहसिंह को कैद कर शिवदत्त ने जलसा किया। नाच की महफिल से उठकर खास दीवानखाने में आकर पलंग पर सो रहा। उसी रोज वह पलंग पर से गायब हुआ, मालूम नहीं कौन कहाँ ले गया, सिर्फ वह पुर्जा पलंग पर मिला जिसका हाल ऊपर लिख चुके हैं। उसके गायब होने पर फतहसिंह सिपहसालार भी कैद से छूट गया, उसकी आँख सुनसान जंगल में खुली। यह कुछ मालूम न हुआ कि उसको कैद से किसने छुड़ाया बल्कि उसके उन जख्मों पर जो शिवदत्त के हाथ से लगे थे पट्टी भी बाँधी गई थी जिससे बहुत आराम और फायदा मालूम होता था।

      फतहसिंह फिर तिलिस्म के पास आए जहाँ उनके लश्कर के कई आदमी मिले बल्कि धीरे-धीरे वह सब फौज इकट्ठी हो गई जो भाग गई थी। इसके बाद ही यह खबर लगी कि महाराज शिवदत्त को भी कोई गिरफ्तार कर ले गया।

      अकेले फतहसिंह ने सिर्फ थोड़े से बहादुरों पर भरोसा कर चुनार पर चढ़ाई कर दी। दो कोस गया होगा कि लश्कर लिए हुए महाराज जयसिंह के पहुँचने की खबर मिली। चुनार का जाना छोड़ जयसिंह के इस्तकबाल (अगुआनी) को गया और उनका भी इरादा अपने ही-सा सुन उनके साथ चुनार की तरफ बढ़ा।

      जयसिंह की फौज ने पहुँचकर चुनार का किला घेर लिया। शिवदत्त की फौज ने किले के अंदर घुसकर दरवाजा बंद कर लिया। फसीलों पर तोपें चढ़ा दीं, और कुछ रसद का सामान कर फसीलों और बुर्जों पर लड़ाई करने लगे।

*–*–*

पन्द्रहवाँ बयान

      चुनार के पास दो पहाड़ियों के बीच के एक नाले के किनारे शाम के वक्त पण्डित बद्रीनाथ, रामनारायण, पन्नालाल, नाज़िम और अहमद बैठे आपस में बातें कर रहे हैं।

      नाज़िम - क्या कहें हमारा मालिक तो बहिश्त में चला गया, तकलीफ उठाने को हम रह गये।

      अहमद - अभी तक इसका पता नहीं लगा कि उन्हें किसने मारा।

      बद्री - उन्हें उनके पापों ने मारा और तुम दोनों की भी बहुत जल्द वही दशा होगी। कहने के लिए तुम लोग ऐयार कहलाते हो मगर बेईमान और हरामखोर पूरे दर्जे के हो इसमें कोई शक नहीं।

      नाज़िम - क्या हम लोग बेईमान हैं?

      बद्री - जरूर, इसमें भी कुछ कहना है? जब तुम अपने मालिक महाराज जयसिंह के न हुए तो किसके होवोगे। आप भी गारत हुए, क्रूरसिंह की भी जान ली, और हमारे राजा को भी चौपट बल्कि कैद कराया। यही जी में आता है कि खाली जूतियाँ मार-मारकर तुम दोनों की जान ले लूँ।

      अहमद - जुबान सम्हाल कर बातें करो नहीं तो कान पकड़ के उखाड़ लूँगा!

      अहमद का इतना कहना था कि मारे गुस्से के बद्रीनाथ कांप उठे। उसी जगह एक चहारदीवार से पत्थर का एक टुकड़ा उठाकर इस जोर से अहमद के सिर में मारा कि वह तुरंत जमीन सूंघकर दोजख (नर्क) की तरफ रवाना हो गया। उसकी यह कैफियत देख नाज़िम भागा मगर बद्रीनाथ तो पहले ही से उन दोनों की जान का प्यासा हो रहा था, कब जाने देता। बड़ा-सा पत्थर छागे (छागा-एक किस्म का छीका (ढेलवांस) होता है। छीके में चारों तरफ डोरी रहती है मगर छागे में दो ही तरफ। एक तरफ की डोरी कलाई में पहिर लेते हैं और दूसरी डोरी चुटकी में थामकर बीच में से घुमाकर निशाना मारते हैं) में रखकर मारा जिसकी चोट से वह भी जमीन पर गिर पड़ा और पन्नालाल वगैरह ने पहुँचकर मारे लातों के भुरता करके उसे भी अहमद के साथ क्रूर की ताबेदारी को रवाना कर दिया। इन लोगों के मरने के बाद फिर चारों ऐयार उसी जगह आ बैठे और आपस में बातें करने लगे।

      पन्ना - अब हमारे दरबार की झंझट दूर हुई।

      बद्री - महाराज को जरा भी रंज न होगा।

      पन्ना - किसी तरह गद्दी बचाने की फिक्र करनी चाहिए। महाराज जयसिंह ने बेतरह आ घेरा है और बिना महाराज के फौज मैदान में निकलकर लड़ नहीं सकती।

      चुन्नी - आखिर किले में भी रहकर कब तक लड़ेंगे? हम लोगों के पास सिर्फ दो महीने के लायक गल्ला किले के अंदर है, इसके बाद क्या करेंगे।

      राम - यह भी मौका न मिला कि कुछ गल्ला बटोर के रख लेते।

      बद्री - एक बात है, किसी तरह महाराज जयसिंह को उनके लश्कर से उड़ाना चाहिए, अगर वह हम लोगों की कैद में आ जायँ तो मैदान में निकलकर उनकी फौज को भगाना मुश्किल न होगा।

      पन्ना - जरूर ऐसा करना चाहिए, जिसका नमक खाया उसके साथ जान देना हम लोगों का धर्म है।

      राम - हमारे राजा ने भी तो बेईमानी पर कमर बाँधी है। बेचारे कुँअर वीरेन्द्रसिंह का क्या दोष है?

      चुन्नी - चाहे जो हो मगर हम लोगों को मालिक का साथ देना जरूरी है।

      बद्री - नाजिम और अहमद ये ही दोनों हमारे राजा पर क्रूर ग्रह थे, सो निकल गये। अबकी दफे जरूर दोनों राजों में सुलह कराऊँगा, तब वीरेन्द्रसिंह की ताबेदारी नसीब होगी। वाह, क्या जवांमर्द और होनहार कुमार हैं?

      पन्ना - अब रात भी बहुत गई, चलो कोई ऐयारी करके महाराज जयसिंह को गिरफ्तार करें और गुप्त राह से किले में ले जाकर कैर करें।

      बद्री - हमने एक ऐयारी सोची है, वही ठीक होगी।

      पन्ना - वह क्या?

      बद्री - हम लोग चल के पहले उनके रसोइये को फाँसें। मैं उसकी शक्ल बनाकर रसोई बनाऊँ और तुम लोग रसोईघर के खिदमतगारों को फाँसकर उनकी शक्ल बना हमारे साथ काम करो। मैं खाने की चीजों में बेहोशी की दवा मिलाकर महाराज को और बाद में उन लोगों को भी खिलाऊँगा जो उनके पहरे पर होंगे, बस फिर हो गया।

      पन्ना - अच्छी बात है, तुम रसोइया बनो क्योंकि ब्राह्मण होगे, तुम्हारे हाथ का महाराज जयसिंह खायेंगे तो उनका धर्म भी न जायगा, इसका भी ख्याल जरूर होना चाहिए, मगर एक बात का ध्यान रहे कि चीजों में तेज बेहोशी की दवा न पड़ने पाये।

      बद्री - नहीं-नहीं, क्या मैं ऐसा बेवकूफ हूँ, क्या मुझे नहीं मालूम कि राजे लोग पहले दूसरे को खिलाकर देख लेते हैं! ऐसी नरम दवा डालूँगा कि खाने के दो घंटे बाद तक बिल्कुल न मालूम पड़े कि हमने बेहोशी की दवा मिली हुई चीजें खाई हैं।

      राम - बस, यह राय पक्की हो गई, अब यहाँ से उठो।

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