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चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास

( तीसरा अध्याय )

अठारहवाँ बयान

      तेजसिंह वगैरह ऐयारों के साथ कुमार खोह से निकलकर तिलिस्म की तरफ रवाना हुए। एक रात रास्ते में बिताकर दूसरे दिन सवेरे जब रवाना हुए तो एक नकाबपोश सवार दूर से दिखाई पड़ा जो कुमार की तरफ ही आ रहा था। जब इनके करीब पहुँचा, घोड़े से उतर जमीन पर कुछ रख दूर जा खड़ा हुआ।

      कुमार ने वहाँ जाकर देखा तो तिलिस्मी किताब नजर पड़ी और एक खत पाई जिसे देख वे बहुत खुश होकर तेजसिंह से बोले - “तेजसिंह, क्या करें, यह वनकन्या मेरे ऊपर बराबर अपने अहसान के बोझ डाल रही है। इसमें कोई शक नहीं कि यह उसी का आदमी है तो तिलिस्मी किताब मेरे रास्ते में रख दूर जा खड़ा हुआ है। हाय इसके इश्क ने भी मुझे निकम्मा कर दिया है! देखें इस खत में क्या लिखा है।”

      यह कह कुमार ने खत पढ़ी : “किसी तरह यह तिलिस्मी किताब मेरे हाथ लग गई जो तुम्हें देती हूँ। अब जल्दी तिलिस्म तोड़कर कुमारी चन्द्रकान्ता को छुड़ाओ। वह बेचारी बड़ी तकलीफ में पड़ी होगी। चुनार में लड़ाई हो रही है, तुम भी वहीं जाओ और अपनी जवाँमर्दी दिखाकर फतह अपने नाम लिखाओ। - तुम्हारी दासी… वियोगिनी।”

      कुमार – तेजसिंह तुम भी पढ़ लो।

      तेजसिंह – (खत पढ़कर) न मालूम यह वनकन्या मनुष्य है या अप्सरा, कैसे- कैसे काम इसके हाथ से होते हैं!

      कुमार – (ऊँची सांस लेकर) हाय, एक बला हो तो सिर से टले!

      देवी – मेरी राय है कि आप लोग यहीं ठहरें, मैं चुनार जाकर पहले सब हाल दरियाफ्त कर आता हूँ।

      कुमार – ठीक है, अब चुनार सिर्फ पाँच कोस होगा, तुम वहाँ की खबर ले आओ तब हम चलें क्योंकि कोई बहादुरी का काम करके हम लोगों का जाहिर होना ज्यादा मुनासिब होगा।

      देवीसिंह चुनार की तरफ रवाना हुए। कुमार को रास्ते में एक दिन और अटकना पड़ा, दूसरे दिन देवीसिंह लौटकर कुमार के पास आए और चुनार की लड़ाई का हाल, महाराज जयसिंह के गिरफ्तार होने की खबर, और जीतसिंह की ऐयारी की तारीफ कर बोले – “लड़ाई अभी हो रही है, हमारी फौज कई दफे चढ़कर किले के दरवाजे तक पहुँची मगर वहाँ अटककर दरवाजा नहीं तोड़ सकी, किले की तोपों की मार ने हमारा बहुत नुकसान किया।”

      इन खबरों को सुनकर कुमार ने तेजसिंह से कहा, “अगर हम लोग किसी तरह किले के अंदर पहुँचकर फाटक खोल सकते तो बड़ी बहादुरी का काम होता।”

      तेज – इसमें तो कोई शक नहीं कि यह बड़ी दिलावरी का काम है, या तो किले का फाटक ही खोल देंगे, या फिर जान से हाथ धोवेंगे।

      कुमार – हम लोगो के वास्ते लड़ाई से बढ़कर मरने के लिए और कौन-सा मौका है? या तो चुनार फतह करेंगे या बैकुण्ठ की ऊँची गद्दी दखल करेंगे, दोनों हाथ लड्डू हैं।

      तेज – शाबाश, इससे बढ़कर और क्या बहादुरी होगी, तो चलिए हम लोग भेष बदलकर किले में घुस जायँ। मगर यह काम दिन में नहीं हो सकता।

      कुमार – क्या हर्ज है रात ही को सही। रात–भर किले के अंदर ही छिपे रहेंगे, सुबह जब लड़ाई खूब रंग पर आवेगी उसी वक्त फाटक पर टूट पड़ेंगे। सब ऊपर फसीलों पर चढ़े होंगे, फाटक पर सौ-पचास आदमियों में घुसकर दरवाजा खोल देना कोई बात नहीं है।

      देवी – कुमार की राय बहुत सही है, मगर ज्योतिषीजी को बाहर ही छोड़ देना चाहिए।

      ज्योतिषी – सो क्यों?

      देवी – आप ब्राह्मण हैं, वहाँ क्यों ब्रह्महत्या के लिए आप कोले चलें, यह काम क्षत्रियों का है, आपका नहीं।

      कुमार – हाँ ज्योतिषीजी, आप किले में मत जाइये।

      ज्योतिषी – अगर मैं ऐयारी न जानता होता तो आपका ऐसा कहना मुनासिब था, मगर जो ऐयारी जानता है उसके आगे जवाँमर्दी और दिलावरी हाथ जोड़े खड़ी रहती हैं।

      देवी – अच्छा चलिए फिर, हमको क्या, हमें तो और फायदा ही है।

      कुमार – फायदा क्या?

      देवी – इसमें तो कोई शक नहीं ज्योतिषीजी हम लोगों के पूरे दोस्त हैं, कभी संग न छोड़ेंगे, अगर यह मर भी जायेंगे तो ब्रह्मराक्षस होंगे, और भी हमारा काम इनसे निकला करेगा।

      ज्योतिषी – क्या हमारी ही अवगति होगी? अगर ऐसा हुआ तो तुम्हें कब छोड़ूँगा तुम्हीं से ज्यादे मुहब्बत है।

      इनकी बातों पर कुमार हँस पड़े और घोड़े पर सवार हो ऐयारों को साथ ले चुनार की तरफ रवाना हुए। शाम होते–होते ये लोग चुनार पहुँचे और रात को मौका पा कमंद लगा किले के अंदर घुस गये।

*–*–*

उन्नीसवाँ बयान

      दिन अनुमान पहर-भर के आया होगा कि फतहसिंह की फौज लड़ती हुई फिर किले के दरवाजे तक पहुँची। शिवदत्त की फौज बुर्जियों पर से गोलों की बौछार मार कर उन लोगों को भगाना चाहती थी कि यकायक किले का दरवाजा खुल गया और जर्द रंग (वीरेन्द्रसिंह के लश्कर का जर्द निशान था) की चार झण्डियाँ दिखाई पड़ीं जिन्हें राजा सुरेन्द्रसिंह, महाराज जयसिंह और उनकी कुल फौज ने दूर से देखा। मारे खुशी के फतहसिंह अपनी फौज के साथ धड़धड़ाकर फाटक के अंदर घुस गया और बाद इसके धीरे–धीरे कुल फौज किले में दाखिल हुई। फिर किसी को मुकाबले की ताब न रही, साथ वाले आदमी चारों तरफ दिखाई देने लगे।

      फतहसिंह ने बुर्ज पर से महाराज शिवदत्त का सब्ज झंडा गिराकर अपना जर्द झंडा खड़ा कर दिया और अपने हाथ से चोब उठाकर जोर से तीन चोट डंके पर लगाईं जो उसी झंडे के नीचे रखा हुआ था। ‘क्रूम धूम फतह’ की आवाज निकली जिसके साथ ही किले वालों का जी टूट गया और कुँअर वीरेन्द्रसिंह की मुहब्बत दिल में असर कर गई।

      अपने हाथ से कुमार ने फाटक पर चालीस आदमियों के सिर काटे थे, मगर ऐयारों के सहित वे भी जख्मी हो गये थे। राजा सुरेन्द्रसिंह किले के अंदर घुसे ही थे कि कुमार, तेजसिंह और देवीसिंह झण्डियाँ लिए चरणों पर गिर पड़े, ज्योतिषीजी ने आशीर्वाद दिया। इससे ज्यादे न ठहर सके, जख्मों के दर्द से चारों बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े और बदन से खून निकलने लगा। जीतसिंह ने पहुँचकर चारों के जख्मों पर पट्टी बाँधी, चेहरा धुलने से ये चारों पहचाने गए। थोड़ी देर में ये सब होश में आ गए।

      राजा सुरेन्द्रसिंह अपने प्यारे लड़के को देर तक छाती से लगाये रहे और तीनों ऐयारों पर भी बहुत मेहरबानी की। महाराज जयसिंह कुमार की दिलावरी पर मोहित हो तारीफ करने लगे। कुमार ने उनके पैरों को हाथ लगाया और खुशी-खुशी दूसरे लोगों से मिले।

      चुनार का किला फतह हो गया। महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह दोनों ने मिलकर उसी रोज कुमार को राजगद्दी पर बैठाकर तिलक दे दिया। जश्न शुरू हुआ और मुहताजों को खैरात बंटने लगी। सात रोज तक जश्न रहा। महाराज शिवदत्त की कुल फौज ने दिलोजान से कुमार की ताबेदारी कबूल की। हमारा कोई आदमी जनाने महल में नहीं गया बल्कि वहाँ इंतजाम करके पहरा मुकर्रर किया गया।

      कई दिन के बाद महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह कुँअर वीरेन्द्रसिंह को तिलिस्म तोड़ने की ताकीद करके खुशी-खुशी विजयगढ़ और नौगढ़ रवाना हुए। उनके जाने के बाद कुँअर वीरेन्द्रसिंह अपने ऐयारों और कुछ फौज साथ ले तिलिस्म की तरफ रवाना हुए।

*–*–*

बीसवाँ बयान

      तिलिस्म के दरवाजे पर कुँअर वीरेन्द्रसिंह का डेरा खड़ा हो गया। खजाना पहले ही निकाल चुके थे, अब कुल दो टुकड़े तिलिस्म के टूटने को बाकी थे, एक तो वह चबूतरा जिस पर पत्थर का आदमी सोया था दूसरे अजदहे वाले दरवाजे को तोड़कर वहाँ पहुँचना जहाँ कुमारी चन्द्रकान्ता और चपला थीं। तिलिस्मी किताब कुमार के हाथ लग ही चुकी थी, उसके कई पन्ने बाकी रह गये थे, आज उसे बिल्कुल पढ़ गए। कुमारी चन्द्रकान्ता के पास पहुँचने तक जो-जो काम इनको करने थे सब ध्यान में चढ़ा लिए, मगर उस चबूतरे के तोड़ने की तरकीब किताब में न देखी जिस पर पत्थर का आदमी सोया हुआ था, हाँ उसके बारे में इतना लिखा था कि ‘वह चबूतरा एक दूसरे तिलिस्म का दरवाजा है जो इस तिलिस्म से कहीं बढ़-चढ़ के है और माल-खजाने की तो इन्तहा नहीं कि कितना रखा हुआ है। वहाँ की एक-एक चीज ऐसे ताज्जुब की है कि जिसके देखने से बड़े-बड़े दिमाग वालों की अक्ल चकरा जाये। उसके तोड़ने की तरकीब दूसरी ही है, ताली भी उसकी उसी आदमी के कब्जे में है जो उस पर सोया हुआ है।’

      कुमार ने ज्योतिषीजी की तरफ देखकर कहा, “क्यों ज्योतिषीजी! क्या वह चबूतरे वाला तिलिस्म मेरे हाथ से न टूटेगा?”

      ज्योतिषी – देखा जायेगा, पहले आप कुमारी चन्द्रकान्ता को छुड़ाइए।

      कुमार – अच्छा चलिए, यह काम तो आज ही खत्म हो जाये।

      तीनों ऐयारों को साथ लेकर कुँअर वीरेन्द्रसिंह उस तिलिस्म में घुसे। जो कुछ उस तिलिस्मी किताब में लिखा हुआ था खूब ख्याल कर लिया और उसी तरह काम करने लगे। खण्डहर के अंदर जाकर उस मालूमी दरवाजे (पहले लिख चुके हैं कि इसकी ताली तेजसिंह के सुपुर्द थी) को खोला जो उस पत्थर वाले चबूतरे के सिरहाने की तरफ था। नीचे उतरकर कोठरी में से होते हुए उसी बाग में पहुँचे जहाँ खजाने और बारहदरी के सिंहासन के ऊपर का वह पत्थर हाथ लगा था जिसको छूकर चपला बेहोश हो गई थी और जिसके बारे में तिलिस्मी किताब में लिखा हुआ था कि ‘वह एक डिब्बा है और उसके अंदर एक नायाब चीज रखी है।’

      चारों आदमी नहर के रास्ते गोता मारकर उसी तरह बाग के उस पार हुए जिस तरह चपला उसके बाहर गई थी और उसी की तरह पहाड़ी के नीचे वाली नहर के किनारे-किनारे चलते हुए उस छोटे से दालान में पहुँचे जिसमें वह अजदहा था जिसके मुँह में चपला घुसी थी।

      एक तरफ दीवार में आदमी के बराबर काला पत्थर जड़ा हुआ था। कुमार ने उस पर जोर से लात मारी, साथ ही वह पत्थर पल्ले की तरह खुल के बगल में हो गया और नीचे उतरने की सीढ़ियाँ दिखाई पड़ीं। मशाल बाल चारों आदमी नीचे उतरे, यहाँ उस अजदहे की बिल्कुल कारीगरी नजर पड़ी। कई चरखी और पुरजों के साथ लगी हुई भोजपत्र की बनी मोटी भाथी उसके नीचे थी जिसको देखने से कुमार समझ गये कि जब अजदहे के सामने वाले पत्थर पर कोई पैर रखता है तो यह भाथी चलने लगती है और इसकी हवा की तेजी सामने वाले आदमी को खींचकर अजदहे के मुँह में डाल देती है।

      बगल में एक खिड़की थी जिसका दरवाजा बंद था। सामने ताली रखी हुई थी जिससे ताला खोलकर चारों आदमी उसके अंदर गए। यहाँ से वे लोग छत पर चढ़ गए जहाँ से गली की तरह एक खोह दिखाई पड़ी। किताब से पहले ही मालूम हो चुकाथा कि यही खोह की सी गली उस दालान में जाने के लिए राह है जहाँ चपला और चन्द्रकान्ता बेबस पड़ी हैं।

      अब कुमारी चन्द्रकान्ता से मुलाकात होगी, इस ख्याल से कुमार का जी धड़कने लगा। चपला की मुहब्बत ने तेजसिंह के पैर हिला दिये। खुशी-खुशी ये लोग आगे बढ़े। कुमार सोचते जाते थे कि ‘आज जैसे निराले में कुमारी चन्द्रकान्ता से मुलाकात होगी वैसी पहले कभी न हुई थी। मैं अपने हाथों से उसके बाल सुलझाऊँगा, अपनी चादर से उसके बदन की गर्द झाडूँगा। हाय, बड़ी भारी भूल हो गई कि कोई धोती उसके पहनने के लिए नहीं लाए, किस मुँह से उसके सामने जाऊँगा, वह फटे कपड़ों में कैसी दु:खी होगी! मैं उसके लिए कोई कपड़ा नहीं लाया इसलिए वह जरूर खफा होगी और मुझे खुदगर्ज समझेगी। नहीं-नहीं वह कभी रंज न होगी, उसको मुझसे बड़ी मुहब्बत है, देखते ही खुश हो जायगी, कपड़े का कुछ ख्याल न करेगी। हाँ, खूब याद पड़ा, मैं अपनी चादर अपनी कमर में लपेट लूँगा और अपनी धोती उसे पहिराऊँगा, इस वक्त का काम चल जायेगा।

      (चौंककर) यह क्या, सामने कई आदमियों के पैरों की चाप सुनाई पड़ती है! शायद मेरा आना मालूम करके कुमारी चन्द्रकान्ता और चपला आगे से मिलने को आ रही हैं। नहीं-नहीं, उनको क्या मालूम कि मैं यहाँ आ पहुँचा!’

      ऐसी-ऐसी बातें सोचते और धीरे-धीरे कुमार बढ़ रहे थे कि इतने में ही आगे दो भेड़ियों के लड़ने और गुर्राने की आवाज आई जिसे सुनते ही कुमार के पैर दो-दो मन के हो गए। तेजसिंह की तरफ देखकर कुछ कहा चाहते थे मगर मुँह से आवाज न निकली। चलते-चलते उस दालान में पहुँचे जहाँ नीचे खोह के अंदर से कुमारी और चपला को देखा था।

      पूरी उम्मीद थी कि कुमारी चन्द्रकान्ता और चपला को यहाँ देखेंगे, मगर वे कहीं नजर न आईं, हाँ जमीन पर पड़ी दो लाशें जरूर दिखाई दीं जिनमें मांस बहुत कम था, सिर से पैर तक नुची हड्डी दिखाई देती थीं, चेहरे किसी के भी दुरुस्त न थे।

      इस वक्त कुमार की कैसी दशा थी वे ही जानते होंगे। पागलों की सी सूरत हो गई, चिल्लाकर रोने और बकने लगे– “हाय चन्द्रकान्ता, तुझे कौन ले गया? नहीं, ले नहीं बल्कि मार गया! जरूर इन्हीं भेड़ियों ने तुझे मुझसे जुदा किया जिनकी आवाज यहाँ पहुँचने के पहले मैंने सुनी थी। हाय वह भेड़िया बड़ा ही बेवकूफ था जो उसने तेरे खाने में जल्दी की, उसके लिए तो मैं पहुँच ही गया था, मेरा खून पीकर वह बहुत खुश होता क्योंकि इसमें तेरी मुहब्बत की मिठास भरी हुई है! तेरे में क्या बचा था, सूख के पहले ही काँटा हो रही थी! मगर क्या सचमुच तुझे भेड़िया खा गया या मैं भूलता हूँ? क्या यह दूसरी जगह तो नहीं है? नहीं-नहीं, वह सामने दुष्ट शिवदत्त बैठा है। हाय अब मैं जीकर क्या करूंगा, मेरी जिंदगी किस काम आवेगी, मैं कौन मुँह लेकर महाराज जयसिंह के सामने जाऊँगा! जल्दी मत करो, धीरे-धीरे चलो, मैं भी आता हूँ, तुम्हारा साथ मरने पर भी न छोड़ूँगा! आज नौगढ़, विजयगढ़ और चुनारगढ़ तीनों राज्य ठिकाने लग गए। मैं तो तुम्हारे पास आता ही हूँ, मेरे साथ ही और कई आदमी आवेंगे जो तुम्हारी खिदमत के लिए बहुत होंगे। हाय, इस सत्यानाशी तिलिस्म ने, इस दुष्ट शिवदत्त ने, इन भेड़ियों ने, आज बड़े-बड़े दिलावरों को खाक में मिला दिया। बस हो गया, दुनिया इतनी ही बड़ी थी, अब खत्म हो गई। हाँ-हाँ, दौड़ी क्यों जाती हो, लो मैं भी आया!”

      इतना कह और पहाड़ी के नीचे की तरफ देख कुमार कूद के अपनी जान दिया ही चाहते थे और तीनों ऐयार सन्न खड़े देख ही रहे थे कि यकायक भारी आवाज के साथ दालान के एक तरफ की दीवार फट गयी और उसमें से एक वृद्ध महापुरुष ने निकलकर कुमार का हाथ पकड़ लिया।

      कुमार ने फिरकर देखा लगभग अस्सी वर्ष की उम्र, लंबी-लंबी सफेद रूई की तरह दाढ़ी नाभि तक आई हुई, सिर की लंबी जटा जमीन तक लटकती हुई, तमाम बदन में भस्म लगाये। लाल और बड़ी-बड़ी आँखें निकाले, दाहिने हाथ में त्रिशूल उठाये, बायें हाथ से कुमार को थामे, गुस्से से बदन कँपाते तापसी रूप शिवजी की तरह दिखाई पड़े जिन्होंने कड़क के आवाज दी और कहा, “खबरदार जो किसी को विधावा करेगा!”

      यह आवाज इस जोर की थी कि सारा मकान दहल उठा, तीनों ऐयारों के कलेजे काँप उठे। कुँअर वीरेन्द्रसिंह का बिगड़ा हुआ दिमाग फिर ठिकाने आ गया। देर तक उन्हें सिर से पैर तक देखकर कुमार ने कहा –

    “मालूम हुआ, मैं समझ गया कि आप साक्षात शिवजी या कोई योगी हैं, मेरी भलाई के लिए आये हैं। वाह-वाह खूब किया जो आ गए! अब मेरा धर्म बच गया, मैं क्षत्री होकर आत्महत्या न कर सका। एक हाथ आपसे लड़ूँगा और इस अद्भुत त्रिशूल पर अपनी जान न्यौछावर करूँगा? आप जरूर इसीलिए आये हैं, मगर महात्माजी, यह तो बताइये कि मैं किसको विधावा करूंगा? आप इतने बड़े महात्मा होकर झूठ क्यों बोलते हैं? मेरा है कौन? मैंने किसके साथ शादी की है, हाय! कहीं यह बात कुमारी सुनती तो उसको जरूर यकीन हो जाता कि ऐसे महात्मा की बात भला कौन काट सकता है?”

      वृद्ध योगी ने कड़ककर कहा, “क्या मैं झूठा हूँ? क्या तू क्षत्री है? क्षत्रियों के यही धर्म होते हैं? क्यों वे अपनी प्रतिज्ञा को भूल जाते हैं? क्या तूने किसी से विवाह की प्रतिज्ञा नहीं की? ले देख पढ़ किसका लिखा हुआ है?” यह कह अपनी जटा के नीचे से एक खत निकालकर कुमार के हाथ में दे दी।

      पढ़ते ही कुमार चौंक उठे। “हैं, यह तो मेरा ही लिखा है! क्या लिखा है? ‘मुझे सब मंजूर है!’ इसके दूसरी तरफ क्या लिखा है। हाँ अब मालूम हुआ, यह तो उस वनकन्या की खत है। इसी में उसने अपने साथ ब्याह करने के लिए मुझे लिखा था, उसके जवाब में मैंने उसकी बात कबूल की थी। मगर खत इनके हाथ कैसे लगी! वनकन्या से इनसे क्या वास्ता?”

      कुछ ठहरकर कुमार ने पूछा, “क्या इस वनकन्या को आप जानते हैं?” इसके जवाब में फिर कड़क के वृद्ध योगी बोले, “अभी तक जानने को कहता है! क्या उसे तेरे सामने कर दूँ?”

      इतना कहकर एक लात जमीन पर मारी, जमीन फट गई और उसमें से वनकन्या ने निकलकर कुमार का पाँव पकड़ लिया।

॥तीसरा भाग समाप्त॥


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