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चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास

( तीसरा अध्याय )

सोलहवाँ बयान

      राजा सुरेन्द्रसिंह भी नौगढ़ से रवाना हो दौड़ा दौड़ बिना मुकाम किये दो रोज में चुनार के पास पहुँचे। शाम के वक्त महाराज जयसिंह को खबर लगी। फतहसिंह सेनापति को जो उनके लश्कर के साथ था इस्तकबाल के लिए रवाना किया।

      फतहसिंह की जुबानी राजा सुरेन्द्रसिंह ने सब हाल सुना। सुबह होते-होते इनका लश्कर भी चुनार पहुँचा और जयसिंह के लश्कर के साथ मिलकर पड़ाव डाला गया। राजा सुरेन्द्रसिंह ने फतहसिंह को महाराज जयसिंह के पास भेजा कि आकर मुलाकात के लिए बातचीत करें।

      फतहसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह के खेमे से निकल कुछ ही दूर गये थे कि महाराज जयसिंह के दीवान हरदयालसिंह सरदारों को साथ लिये परेशान और बदहवास आते दिखाई पड़े जिन्हें देख यह अटक गये, कलेजा धकधक करने लगा। जब वे लोग पास आये तो पूछा, “क्या हाल है जो आप लोग इस तरह घबराये हुए आ रहे हैं?”

      एक सरदार - कुछ न पूछो बड़ी आफत आ पड़ी!

      फतह - (घबराकर) सो क्या?

      दूसरा सरदार - राजा साहब के पास चलो, वहीं सब-कुछ कहेंगे।

      उन सबों को लिये हुए फतहसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह के खेमे में आये, कायदे के माफिक सलाम किया, बैठने के लिए हुक्म पाकर बैठ गये।

      राजा सुरेन्द्रसिंह को भी इन लोगों के बदहवास आने से खुटका हुआ। हाल पूछने पर हरदयालसिंह ने कहा, “आज बहुत सवेरे किले के अंदर से तोप की आवाज आई जिसे सुनकर खबर करने के लिए मैं महाराज के खेमे में आया। दरवाजे पर पहरे वालों को बेहोश पड़े देखकर ताज्जुब मालूम हुआ मगर मैं बराबर खेमे के अंदर चला गया। अंदर जाकर देखा तो महाराज का पलंग खाली पाया। देखते ही जी सन्न हो गया, पहरे वालों को देखकर कविराज जी ने कहा इन लोगों को बेहोशी की दवा दी गई है। तुरंत ही कई जासूस महाराज का पता लगाने के लिए इधर-उधर भेजे गए मगर अभी तक कुछ भी खबर नहीं मिली।”

      यह हाल सुनकर सुरेन्द्रसिंह ने जीतसिंह की तरफ देखा जो उनके बाईं तरफ बैठे हुए थे। जीतसिंह ने कहा, “अगर खाली महाराज गायब हुए होते तो मैं कहता कि कोई ऐयार किसी दूसरी तरकीब से ले गया, मगर जब कई आदमी अभी तक बेहोश पड़े हैं तो विश्वास होता है कि महाराज के खाने-पीने की चीजों में बेहोशी की दवा दी गई। अगर उनका रसोइया आवे तो पूरा पता लग सकता है।” सुनते ही राजा सुरेन्द्रसिंह ने हुक्म दिया कि महाराज के रसोइए हाजिर किए जायं।

      कई चोबदार दौड़ गए। बहुत दूर जाने की जरूरत न थी, दोनों लश्करों का पड़ाव साथ ही साथ पड़ा था। चोबदार खबर लेकर बहुत जल्द लौट आये कि रसोइया कोई नहीं है। उसी वक्त कई आदमियों ने आकर यह भी खबर दी कि महाराज के रसोइए और खिदमतगार लश्कर के बाहर पाये गये जिनको डोली पर लादकर लोग यहाँ लिए आते हैं। दीवान तेजसिंह ने कहा, “सब डोलियाँ बाहर रखी जायँ, सिर्फ एक रसोइए की डोली यहाँ लाई जाय।”

      बेहोश रसोइया खेमे के अंदर लाया गया जिसे जीतसिंह लखलख सुंघाकर होश में लाये और उससे बेहोश होने का सबब पूछा। जवाब में उसने कहा कि “पहर रात गए हम लोगों के पास एक हलवाई खोमचा लिए हुए आया जो बोलने में बहुत ही तेज और अपने सौदे की बेहद तारीफ करता था। हम लोगों ने उससे कुछ सौदा खरीदकर खाया, उसी समय सिर घूमने लगा, दाम देने की भी सुध न रही, इसके बाद क्या हुआ कुछ मालूम नहीं।”

      यह सुन दीवान जीतसिंह ने कहा, “बस-बस, सब हाल मालूम हो गया, अब तुम अपने डेरे में जाओ।”

      इसके बाद थोड़ा सा लखलखा देकर उन सरदारों को भी विदा किया और यह कह दिया कि इसे सुंघाकर आप उन लोगों को होश में लाइए जो बेहोश हैं और दीवान हरदयालसिंह को कहा कि अभी आप यहीं बैठिए। सब आदमी विदा कर दिए गए, राजा सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह और दीवान हरदयालसिंह रह गए।

      राजा सुरेन्द्र – (दीवान जीतसिंह की तरफ देखकर) महाराज को छुड़ाने की कोई फिक्र होनी चाहिए।

      जीत – क्या फिक्र की जाये, कोई ऐयार भी यहाँ नहीं जिससे कुछ काम लिया जाय, तेजसिंह और देवीसिंह कुमार की खोज में गए हुए हैं, अभी तक उनका भी कुछ पता नहीं।

      राजा – तुम ही कोई तरकीब करो।

      जीत – भला मैं क्या कर सकता हूँ! मुद्दत हुई ऐयारी छोड़ दी। जिस रोज तेजसिंह को इस फन में होशियार करके सरकार के नजर किया उसी दिन सरकार ने ऐयारी करने से ताबेदार को छुट्टी दे दी, अब फिर यह काम लिया जाता है। ताबेदार को यकीन था कि अब जिंदगी भर ऐयारी की नौबत न आयेगी, इसी ख्याल से अपने पास ऐयारी का बटुआ तक भी नहीं रखता।

      राजा – तुम्हारा कहना ठीक है मगर इस वक्त दब जाना या ऐयारी से इनकार करना मुनासिब नहीं, और मुझे यकीन है कि चाहे तुम ऐयारी का बटुआ न भी रखते हो मगर उसका कुछ न कुछ सामान जरूर अपने साथ लाए होगे।

      जीत – (मुस्कराकर) जब सरकार के साथ हैं और इस फन को जानते हैं तो सामान क्यों न रखेंगे, तिस पर सफर में!

      राजा – तब फिर क्या सोचते हो, इस वक्त अपनी पुरानी कारीगरी याद करो और महाराज जयसिंह को छुड़ाओ।

      जीत – जो हुक्म! (हरदयालसिंह की तरफ देखकर) आप एक काम कीजिए, इन बातों को जो इस वक्त हुई हैं छिपाए रहिए और फतहसिंह को लेकर शाम होने के बाद लड़ाई छेड़ दीजिए। चाहे जो हो मगर आज रात भर लड़ाई बंद न होने पावे यह काम आपके जिम्मे रहा।

      हरदयाल – बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा।

      जीत – आप जाकर लड़ाई का इंतजाम कीजिए, मैं भी महाराज से विदा हो अपने डेरे जाता हूँ क्योंकि समय कम और काम बहुत है।

      दीवान हरदयालसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह से विदा हो अपने डेरे की तरफ रवाना हुए। दीवान जीतसिंह ने फतहसिंह को बुलाकर लड़ाई के बारे में बहुत कुछ समझा-बुझा के विदा किया और आप भी हुक्म लेकर अपने खेमे में गए। पहले पूजा, भोजन इत्यादि से छुट्टी पाई, तब ऐयारी का सामान दुरुस्त करने लगे।

      दीवान जीतसिंह का एक बहुत पुराना बूढ़ा खिदमतगार था जिसको ये बहुत मानते थे। इनका ऐयारी का सामान उसी के सुपुर्द रहा करता था। नौगढ़ से रवाना होते दफे अपना ऐयारी का असबाब दुरुस्त करके ले चलने का इंतजाम इसी बूढ़े के सुपुर्द किया। इनको ऐयारी छोड़े मुद्दत हो चुकी थी मगर जब उन्होंने अपने राजा को लड़ाई पर जाते देखा और यह भी मालूम हुआ कि हमारे ऐयार लोग कुमार की खोज में गये है, शायद कोई जरूरत पड़ जाय, तब बहुत सी बातों को सोच इन्होंने अपना सब सामान दुरुस्त करके साथ ले लेना ही मुनासिब समझा था। उसी बुड्ढे खिदमतगार से ऐयारी का संदूक मँगवाया और सामान दुरुस्त करके बटुए में भरने लगे। इन्होंने बेहोशी की दवाओं का तेल उतारा था, उसे भी एक शीशी में बंद कर बटुए में रख लिया। पहर दिन बाकी रहे तक सामान दुरुस्त कर एक जमींदार की सूरत बना अपने खेमे के बाहर निकल गये।

      जीतसिंह लश्कर से निकलकर किले के दक्खिन की एक पहाड़ी की तरफ रवाना हुए और थोड़ी दूर जाने के बाद सुनसान मैदान पाकर एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गये। बटुए में से कलम दवात और कागज निकाला और कुछ लिखने लगे जिसका मतलब यह था -

      “तुम लोगों की चालाकी कुछ काम न आई और आखिर मैं किले के अंदर घुस ही आया। देखो क्या ही आफत मचाता हूँ। तुम चारों ऐयार हो और मैं ऐयारी नहीं जानता तिस पर भी तुम लोग मुझे गिरफ्तार नहीं कर सकते, लानत है तुम्हारी ऐयारी पर।”

      इस तरह के बहुत से पुरजे लिखकर और थोड़ी सी गोंद तैयार कर बटुए में रख ली और किले की तरफ रवाना हुए। पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई, अस्तु किले के इधर-उधर घूमने लगे। जब खूब अंधेरा हो गया, मौका पाकर एक दीवार पर जो नीची और टूटी हुई थी कमंद लगाकर चढ़ गये। अंदर सन्नाटा पाकर उतरे और घूमने लगे।

      किले के बाहर दीवान हरदयालसिंह और फतहसिंह ने दिल खोलकर लड़ाई मचा रखी थी, दनादन तोपों की आवाजें आ रही थीं। किले की फौज बुर्जियों या मीनारों पर चढ़कर लड़ रही थी और बहुत से आदमी भी दरवाजे की तरफ खड़े घबड़ाये हुए लड़ाई का नतीजा देख रहे थे, इस सबब से जीतसिंह को बहुत कुछ मौका मिला। उन पुरजों को जिन्हें पहले से लिखकर बटुए में रख छोड़ा था, इधर-उधर दीवारों और दरवाजों पर चिपकाना शुरू किया, जब किसी को आते देखते हटकर छिप रहते और सन्नाटा होने पर फिर अपना काम करते, यहाँ तक कि सब कागजों को चिपका दिया।

      किले के फाटक पर लड़ाई हो रही है, जितने अफसर और ऐयार हैं सब उसी तरफ जुटे हुए हैं, किसी को यह खबर नहीं कि ऐयारों के सिरताज जीतसिंह किले के अंदर आ घुसे और अपनी ऐयारी की फिक्र कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि इतने लंबे-चौड़े किले में महाराज जयसिंह कहाँ कैद हैं इस बात का पता लगावें और उन्हें छुड़ावें, और साथ ही शिवदत्त के भी ऐयारों को गिरफ्तार करके लेते चलें, एक ऐयार भी बचने न पावे जो फँसे हुए ऐयारों को छुड़ाने की फिक्र करे या छुड़ावे।

*–*–*

सत्रहवाँ बयान

      फतहसिंह सेनापति की बहादुरी ने किले वालों के छक्के छुड़ा दिये। यही मालूम होता था कि अगर इसी तरह रात भर लड़ाई होती रही तो सवेरे तक किला हाथ से जाता रहेगा और फाटक टूट जायेगा। तरद्दुद में पड़े बद्रीनाथ वगैरह ऐयार इधर-उधर घबराये घूम रहे थे कि इतने में एक चोबदार ने आकर गुल शोर मचाना शुरू किया जिससे बद्रीनाथ और भी घबरा गए।

      चोबदार बिल्कुल जख्मी हो रहा था और उसके चेहरे पर इतने जख्म लगे हुए थे कि खून निकलने से उसको पहचानना मुश्किल हो रहा था।

      बद्री – (घबराकर) यह क्या, तुमको किसने जख्मी किया?

      चोबदार – आप लोग तो इधर के ख्याल में ऐसा भूले हैं कि और बातों की कोई सुध ही नहीं। पिछवाड़े की तरफ से कुँअर वीरेन्द्रसिंह के कई आदमी घुस आए हैं और किले में चारों तरफ घूम-घूम कर न मालूम क्या कर रहे हैं। मैंने एक का मुकाबिला भी किया मगर वह बहुत ही चालाक और फुर्तीला था, मुझे इतना जख्मी किया कि दो घंटे तक बदहवास जमीन पर पड़ा रहा, मुश्किल से यहाँ तक खबर देने आया हूँ। आती दफे रास्ते में उसे दीवारों पर कागज चिपकाते देखा मगर खौफ के मारे कुछ न बोला।

      पन्ना – यह बुरी खबर सुनने में आई!

      बद्री – वे लोग कै आदमी हैं, तुमने देखा है?

      चोब – कई आदमी मालूम होते हैं मगर मुझे एक ही से वास्ता पड़ा था।

      बद्री – तुम उसे पहचान सकते हो?

      चोब – हाँ, जरूर पहचान लूँगा क्योंकि मैंने रोशनी में उसकी सूरत बखूबी देखी है।

      बद्री – मैं उन लोगों को ढूँढने चलता हूँ, तुम साथ चल सकते हो?

      चोब – क्यों न चलूँगा, मुझे उसने अधमरा कर डाला था, अब बिना गिरफ्तार कराये कब चैन पड़ना है!

      बद्री – अच्छा चलो।

      बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल चारों आदमी अंदर की तरफ चले, साथ-साथ जख्मी चोबदार भी रवाना हुआ। जनाने महल के पास पहुँचकर देखा कि एक आदमी जमीन पर बदहवास पड़ा है, एक मशाल थोड़ी दूर पर पड़ी हुई है जो कुछ जल रही है, पास ही तेल की कुप्पी भी नजर पड़ी, मालूम हो गया कि कोई मशालची है।

      चोबदार ने चौंककर कहा, “देखो-देखो एक और आदमी उसने मारा!” यह कहकर मशाल और कुप्पी झट से उठा ली और उसी कुप्पी से मशाल में तेल छोड़ उसके चेहरे के पास ले गया। बद्रीनाथ ने देखकर पहचाना कि यह अपना ही मशालची है। नाक पर हाथ रख के देखा, समझ गये कि इसे बेहोशी की दवा दी गई है। चोबदार ने कहा, “आप इसे छोड़िये, चलकर पहले उस बदमाश को ढूँढिए, मैं यही मशाल लिए आपके साथ चलता हूँ। कहीं ऐसा न हो कि वे लोग महाराज जयसिंह को छुड़ा ले जायँ।”

      बद्रीनाथ ने कहा, “पहले उसी जगह चलना चाहिए जहाँ महाराज जयसिंह कैद हैं।”

      सबों की राय यही हुई और सब उसी जगह पहुँचे। देखा तो महाराज जयसिंह कोठरी में हथकड़ी पहने लेटे हैं। चोबदार ने खूब गौर से उस कोठरी और दरवाजे को देखकर कहा, “नहीं, वे लोग यहाँ तक नहीं पहुँचे, चलिए दूसरी तरफ ढूँढें।” चारों तरफ ढूँढने लगे। घूमते-घूमते दीवारों और दरवाजों पर सटे हुए कई पुर्जे दिखे जिसे पढ़ते ही इन ऐयारों के होश जाते रहे। खड़े हो सोच ही रहे थे कि चोबदार चिल्ला उठा और एक कोठरी की तरफ इशारा करके बोला, “देखो-देखो, अभी एक आदमी उस कोठरी में घुसा है, जरूर वही है जिसने मुझे जख्मी किया था!” यह कह उस कोठरी की तरफ दौड़ा मगर दरवाजे पर रुक गया, तब तक ऐयार लोग भी पहुँच गये।

      बद्री – (चोबदार से) चलो, अंदर चलो।

      चोब – पहले तुम लोग हाथों में खंजर या तलवार ले लो, क्योंकि वह जरूर वार करेगा।

      बद्री – हम लोग होशियार हैं, तुम अंदर चलो क्योंकि तुम्हारे हाथ में मशालहै।

      चोब – नहीं बाबा, मैं अंदर नहीं जाऊँगा, एक दफे किसी तरह जान बची, अब कौन सी कम्बख्ती सवार है कि जान बूझकर भाड़ में जाऊँ।

      बद्री – वाह रे डरपोक! इसी जीवट पर महाराजों के यहाँ नौकरी करता है? ला मेरे हाथ में मशाल दे, मत जा अंदर!

      चोब – लो मशाल लो, मैं डरपोक सही, इतने जख्म खाये अभी डरपोक ही रह गया, अपने को लगती तो मालूम होता, इतनी मदद कर दी यही बहुत है!

      इतना कह चोबदार मशाल और कुप्पी बद्रीनाथ के हाथ में देकर अलग हो गया। चारों ऐयार कोठरी के अंदर घुसे। थोड़ी दूर गये होंगे कि बाहर से चोबदार ने किवाड़ बंद करके जंजीर चढ़ा दी, तब अपनी कमर से पथरी निकाल आग झाड़कर बत्ती जलाई और चौखट के नीचे जो एक छोटी सी बारूद की चुपड़ी हुई पलीती निकाली हुई थी उसमें आग लगा दी। वह बत्ती बलकर सुरसुराती हुई घुस गई।

      पाठक समझ गये होंगे कि यह चोबदार साहब कौन थे। ये ऐयारों के सरताज जीतसिंह थे। चोबदार बन ऐयारों को खौफ दिलाकर अपने साथ ले आये और घुमाते फिराते वह जगह देख ली जहाँ महाराज जयसिंह कैद थे। फिर धोखा देकर इन ऐयारों को उस कोठरी में बंद कर दिया जिसे पहले ही से अपने ढंग का बना रखा था। इस कोठरी के अंदर पहले ही से बेहोशी की बारूद एक पाव भर के अंदाज कोने में रख दी थी और लंबी पलीती बारूद के साथ लगा कर चौखट के बाहर निकाल दी थी।

      पलीती में आग लगा और दरवाजे को उसी तरह बंद छोड़ उस जगह गये जहाँ महाराज जयसिंह कैद थे। वहाँ बिल्कुल सन्नाटा था, दरवाजा खोल बेड़ी और हथकड़ी काटकर उन्हें बाहर निकाला और अपना नाम बताकर कहा, “जल्द यहाँ से चलिए।”

      जिधर से जीतसिंह कमंद लगाकर किले में आये थे उसी राह से महाराज जयसिंह को नीचे उतारा और तब कहा, “आप नीचे ठहरिये, मैंने ऐयारों को भी बेहोश किया है, एक-एक करके कमंद में बाँधकर उन लोगों को लटकाता जाता हूँ आप खोलते जाइये। अंत में मैं भी उतरकर आपके साथ लश्कर में चलूँगा।”

      महाराज जयसिंह ने खुश होकर इसे मंजूर किया।

      जीतसिंह ने लौटकर उस कोठरी की जंजीर खोली जिसमें बद्रीनाथ वगैरह चारों ऐयारों को फँसाया था। अपने नाक में लखलखे से तर की हुई रुई डाल कोठरी के अंदर घुसे, तमाम कोठरी को धुएँ से भरा हुआ पाया, बत्ती जला बद्रीनाथ वगैरह बेहोश ऐयारों को घसीटकर बाहर लाये और किले की पिछली दीवार की तरफ ले जाकर एक-एक करके सबों को नीचे उतार आप भी उतर आये। चारोँ ऐयारो को एक तरफ छिपा महाराज जयसिंह को लश्कर में पहुँचाया फिर कई कहारों को साथ ले उस जगह जा ऐयारों को उठवा लाए, हथकड़ी-बेड़ी डालकर खेमे में कैर कर पहरा मुकर्रर कर दिया।

      महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह गले मिले, जीतसिंह की बहुत कुछ तारीफ करके दोनों राजों ने कई इलाके उनको दिये, जिनकी सनद भी उसी वक्त मुहर करके उनके हवाले की गई।

      रात बीत गई, पूरब की तरफ से धीरे-धीरे सफेदी निकलने लगी और लड़ाई बंद कर दी गई।

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