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चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास

( तीसरा अध्याय )

पाँचवाँ बयान

      तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी के जाने के बाद कुँअर वीरेन्द्रसिंह इन लोगों के वापस आने के इंतजार में रात भर जागते रह गए। ज्यों-ज्यों रात गुजरती थी कुमार की तबीयत घबड़ाती थी। सवेरा हुआ ही चाहता था जब ये तीनों ऐयार लश्कर में पहुँचे। तेजसिंह की राय हुई कि इसी तरह नंग-धड़ंग कुमार के पास चलना चाहिए, आखिर तीनों उसी तरह उनके खेमे में गये।

       कुँअर वीरेन्द्रसिंह जाग रहे थे, शमादान जल रहा था, इन तीनों ऐयारों की विचित्र सूरत देख हैरान हो गये। पूछा, “यह क्या हाल है?” तेजसिंह ने कहा, ”बस अभी तो सूरत देख लीजिए बाकी हाल जरा दम ले के कहेंगे।”

       तीनों ऐयारों ने अपने-अपने कपड़े मँगवाकर पहरे, इतने में साफ सवेरा हो गया। कुमार ने तेजसिंह से पूछा, “अब बताओ तुम लोग किस बला में फँस गए?”

      तेज - ऐसा धोखा खाया कि जन्म भर याद करेंगे।

      कुमार - वह क्या?

      तेज - जिनके ऊपर आप जान दिये बैठे हैं, जिनकी खोज में हम लोग मारे-मारे फिरते हैं, इसमें तो कोई शक नहीं कि उनका भी प्रेम आपके ऊपर बहुत है, मगर न मालूम इतनी छिपी क्यों फिरती हैं और इसमें उन्होंने क्या फायदा सोचा है?

      कुमार - क्या कुछ पता लगा?

      तेज - पता क्या आँख से देख आये हैं तभी तो इतनी सजा मिली। उनके साथ भी एक से एक बढ़ के ऐयार हैं, अगर ऐसा जानते तो होशियारी से जाते।

      कुमार - भला खुलासा कहो तो कुछ मालूम भी हो।

      तेजसिंह ने सब हाल कहा, कुमार सुनकर हँसने लगे और ज्योतिषीजी से बोले, “आपके रमल को भी उन लोगों ने धोखा दिया।”

      ज्योतिषी - कुछ न पूछिए, सब आफत हैं!

      कुमार - उन लोगों का खुलासा हाल नहीं मालूम हुआ तो भला इतना ही विचार लेते कि शिवदत्त के ऐयारों की कुछ ऐयारी तो नहीं है?

      ज्योतिषी - नहीं, शिवदत्त के ऐयारों से और उन लोगों से कोई वास्ता नहीं बल्कि उन लोगों को इनकी खबर भी न होगी, इस बात को मैं खूब विचार चुका हूँ।

      तेज - इतनी ही खैरियत है।

      देवी - आज दिन ही को चलकर पता लगायेंगे।

      तेज - तिलिस्म तोड़ने का काम कैसे चलेगा?

      कुमार - एक रोज काम बंद रहेगा तो क्या होगा?

      तेज - इसी से तो मैं कहता हूँ कि चन्द्रकान्ता की मुहब्बत आपके दिल से कम हो गई है।

      कुमार - कभी नहीं, चन्द्रकान्ता से बढ़कर मैं दुनिया में किसी को नहीं चाहता मगर न मालूम क्या सबब है कि वनकन्या का हाल मालूम करने के लिए भी जी बेचैन रहता है।

      तेज - (हँसकर) खैर पहले तो पण्डित बद्रीनाथ ऐयार को ले जाकर उस खोह में कैद करना है फिर दूसरा काम देखेंगे, कहीं ऐसा न हो कि वे छूट के चल दें।

     कुमार - आज ही ले जाकर छोड़ आओ।

      तेज - हाँ अभी उनको ले जाता हूँ, वहाँ रखकर रातों-रात लौट आऊँगा, पंद्रह कोस का मामला ही क्या है, तब तक देवीसिंह और ज्योतिषीजी वनकन्या की खोज में जायँ।

       तेजसिंह की राय पक्की ठहरी, वे स्नान-पूजा से छुट्टी पाकर तैयार हुए, खाने की चीजों में बेहोशी की दवा मिलाकर बद्रीनाथ को खिलाई गईं और जब वे बेहोश हो गये तब तेजसिंह गट्ठर बाँधकर पीठ पर लाद खोह की तरफ रवाना हुए। कुमार ने देवीसिंह और ज्योतिषीजी को वनकन्या की टोह में भेजा।

      तेजसिंह पण्डित बद्रीनाथ की गठरी लिये शाम होते-होते तहखाने में पहुँचे। शेर के मुँह में हाथ डाल जुबान खींची और तब दूसरा ताला खोला, मगर दरवाजा न खुला। अब तो तेजसिंह के होश उड़ गए, फिर कोशिश की, लेकिन किवाड़ न खुला। बैठ के सोचने लगे, मगर कुछ समझ में न आया। आखिर लाचार हो बद्रीनाथ की गठरी लादे वापिस हुए।

*–*–*

छठवाँ बयान

      देवीसिंह और ज्योतिषीजी वनकन्या की टोह में निकलकर थोड़ी ही दूर गए होंगे कि एक नकाबपोश सवार मिला जिसने पुकारके कहा -

       “देवीसिंह कहाँ जाते हो? तुम्हारी चालाकी हम लोगों से न चलेगी, अभी कल आप लोगों की खातिर की गई है और जल में गोते देकर कपड़े सब छीन लिए गए, अब क्या गिरफ्तार ही होना चाहते हो? थोड़े दिन सब्र करो, हम लोग तुम लोगों को ऐयारी सिखलाकर पक्का करेंगे तब काम चलेगा।”

      नकाबपोश सवार की बातें सुन देवीसिंह मन में हैरान हो गए पर ज्योतिषीजी की तरफ देखकर बोले, “सुन लीजिए! यह सवार साहब हम लोगों को ऐयारी सिखलायेंगे जो शर्म के मारे अपना मुँह तक नहीं दिखा सकते।”

      नकाब - ज्योतिषीजी क्या सुनेंगे, यह भी तो शर्माते होंगे क्योंकि इनके रमल को हम लोगों ने बेकार कर दिया, हजार दफे फेंकें मगर पता खाक न लगेगा।

      देवी - अगर इस इलाके में रहोगे तो बिना पता लगाए न छोड़ेंगे।

      नकाब - रहेंगे नहीं तो जायेंगे कहाँ? रोज मिलेंगे मगर पता न लगने देंगे।

       बात करते-करते देवीसिंह ने चालाकी से कूदकर सवार के मुँह पर से नकाब खींच ली। देखा कि तमाम चेहरे पर रोली मली हुई है, कुछ पहचान न सके। सवार ने फुर्ती के साथ देवीसिंह की पगड़ी उतार ली और एक खत उनके सामने फेंक घोड़ा दौड़ाकर निकल गया। देवीसिंह ने शर्मिन्दगी के साथ खत उठाकर देखा, लिफाफे पर लिखा हुआ था-
“कुँअर वीरेन्द्रसिंह”।

     ज्योतिषीजी ने देवीसिंह से कहा, “न मालूम ये लोग कहाँ के रहने वाले हैं। मुझे तो मालूम होता है कि इस मण्डली में जितने हैं सब ऐयार ही हैं।”

      देवी - (खत जेब में रखकर) इसमें तो शक नहीं, देखिए हर दफे हम ही लोग नीचा देखते हैं, समझा था कि नकाब उतार लेने से सूरत मालूम होगी, मगर उसकी चालाकी तो देखिए चेहरा रंग के तब नकाब डाले हुए था।

      ज्योतिषी - खैर देखा जायगा, इस वक्त तो फिर से लश्कर में चलना पड़ा क्योंकि खत कुमार को देनी चाहिए, देखें इससे क्या हाल मालूम होता है? अगर इस पर कुमार का नाम न लिखा होता तो पढ़ लेते।

      देवी - हाँ चलो, पहले खत का हाल सुन लें तब कोई कार्रवाई सोचें।

      दोनों आदमी लौटकर लश्कर में आये और कुँअर वीरेन्द्रसिंह के डेरे में पहुँचकर सब हाल कह खत हाथ में दे दी।

      कुमार ने पढ़ा, यह लिखा हुआ था-
      “चाहे जो हो, पर मैं आपके सामने तब तक नहीं हो सकती जब तक आप नीचे लिखी बातों का लिखकर इकरार न कर लें।

(1) चन्द्रकान्ता से और मुझसे एक ही दिन एक ही सायत में शादी हो।
(2) चन्द्रकान्ता से रुतबे में मैं किसी तरह कम न समझी जाऊँ क्योंकि मैं हर तरह हर दर्जे में उसके बराबर हूँ।

      अगर इन दोनों बातों का इकरार आप न करेंगे तो कल ही मैं अपने घर का रास्ता लूँगी। सिवाय इसके यह भी कहे देती हूँ कि बिना मेरी मदद के चाहे आप हजार बरस भी कोशिश करें मगर चन्द्रकान्ता को नहीं पा सकते।”

      कुमार का इश्क वनकन्या पर पूरे दर्जे का था। चन्द्रकान्ता से किसी तरह वनकन्या की चाह कम न थी, मगर इस खत को पढ़ने से उनको कई तरह की फिक्रों ने आ घेरा। सोचने लगे कि यह कैसे हो सकता है कि कुमारी से और इससे एक ही सायत में शादी हो, वह कब मंजूर करेगी और महाराज जयसिंह ही कब इस बात को मानेंगे! सिवाय इसके यहाँ यह भी लिखा है कि बिना मेरी मदद के आप चन्द्रकान्ता से नहीं मिल सकते, यह क्या बात है? खैर सो सब जो भी हो वनकन्याके बिना मेरी जिंदगी मुश्किल है, मैं जरूर उसके लिखे मुताबिक इकरारनामा लिख दूँगा पीछे समझा जायेगा। कुमारी चन्द्रकान्ता मेरी बात जरूर मान लेगी।

      देवीसिंह और ज्योतिषीजी को भी कुमार ने वह खत दिखाई। वे लोग भी हैरान थे कि वनकन्या ने यह क्या लिखा और इसका जवाब क्या देना चाहिए।

      दिन और रात भर कुमार इसी सोच में रहे कि इस खत का क्या जवाब दिया जाय। दूसरे दिन सुबह होते-होते तेजसिंह भी पण्डित बद्रीनाथ ऐयार की गठरी पीठ पर लादे हुए आ पहुँचे। कुमार ने पूछा, “वापस क्यों आ गये?”

      तेज - क्या बतावें मामला ही बिगड़ गया?

      कुमार - सो क्या?

      तेज - तहखाने का दरवाजा नहीं खुलता।

     कुमार- किसी ने भीतर से तो बंद नहीं कर लिया।

      तेज - नहीं भीतर तो कोई ताला ही नहीं है।

      ज्योतिषी - दो बातों में से एक बात जरूर है, या तो कोई नया आदमी पहुँचा जिसने दरवाजा खोलने की कल बिगाड़ दी, या फिर महाराज शिवदत्त ने भीतर से कोई चालाकी की।

      तेज - भला शिवदत्त अंदर से बंद करके अपने को और बला में क्यों फँसावेंगे? इसमें तो उनका हर्ज ही है कुछ फायदा नहीं।

      कुमार - कहीं वनकन्या ने तो कोई तरकीब नहीं की।

      तेज - आप भी गजब करते हैं, कहाँ बेचारी वनकन्या कहाँ वह तिलिस्मी तहखाना!

      कुमार - तुमको मालूम ही नहीं। उसने मुझे खत लिखी है कि-बिना मेरी मदद के तुम चन्द्रकान्ता से नहीं मिल सकते। और भी दो बातें लिखी हैं। मैं इसी सोच में था कि क्या जवाब दूँ और वह कौन-सी बात है जिसमें मुझको वनकन्या की मदद की जरूरत पड़ेगी, मगर अब तुम्हारे लौट आने से शक पैदा होता है।

      देवी - मुझे भी कुछ उन्हीं का बखेड़ा मालूम होता है।

      तेज - अगर वनकन्या को हमारे साथ कुछ फसाद करना होता तो तिलिस्मी किताब क्यों वापस देती? देखिये उस खत में क्या लिखा है जो किताब के साथ आया था।

      ज्योतिषी - यह भी तुम्हारा कहना ठीक है।

      तेज - (कुमार से) भला वह खत तो दीजिए जिसमें वनकन्या ने यह लिखा है कि बिना हमारी मदद के चन्द्रकान्ता से मुलाकात नहीं हो सकती।

       कुमार ने वह खत तेजसिंह के हाथ में दे दी, पढ़कर तेजसिंह बड़े सोच में पड़ गये कि यह क्या बात है, कुछ अक्ल काम नहीं करती।

      कुमार ने कहा, “तुम लोग यह जानते ही हो कि वनकन्या की मुहब्बत मेरे दिल में कैसा असर कर गई है, बिना देखे एक घड़ी चैन नहीं पड़ता, तो फिर उसके लिखे बमूजिब इकरारनामा लिख देने में क्या हर्ज है, जब वह खुश होगी तो उससे जरूर ही कुछ न कुछ भेद मिलेगा।”

     तेज - जो मुनासिब समझिये कीजिए, चन्द्रकान्ता बेचारी तो कुछ न बोलेगी मगर महाराज जयसिंह यह कब मंजूर करेंगे कि एक ही मड़वे में दोनों के साथ शादी हो। क्या जाने वह कौन, कहाँ की रहने वाली और किसकी लड़की है?

      कुमार - उसकी खत में तो यह भी लिखा है कि ‘मैं किसी तरह रुतबे में कुमारी से कम नहीं हूँ।’

      ये बातें हो ही रही थीं कि चोबदार ने आकर अर्ज किया, “एक सिपाही बाहर आया है और जो हाजिर होकर कुछ कहना चाहता है।” कुमार ने कहा, “उसे ले आओ।”

      चोबदार उस सिपाही को अंदर ले आया, सबों ने देखा कि अजीब रंग-ढंग का आदमी है। नाटा-सा कद, काला रंग, टाट का चपकन पायजामा जिसके ऊपर से लैस टँकी हुई, सिर पर दौरी की तरह बाँस की टोपी, ढाल-तलवार लगाये था। उसने झुककर कुमार को सलाम किया।

      सबों को उसकी सूरत देखकर हँसी आयी मगर हँसी को रोका। तेजसिंह ने पूछा, “तुम कौन हो और कहाँ से आये हो?” उस बांके जवान ने कहा, “मैं देवता हूँ, दैत्यों की मण्डली से आ रहा हूँ, कुमार ने उस खत का जवाब चाहता हूँ जो कल एक सवार ने देवीसिंह और जगन्नाथ ज्योतिषी को दी थी।”

      तेज - भला तुमने ज्योतिषीजी और देवीसिंह का नाम कैसे जाना?

      बाँका - ज्योतिषीजी को तो मैं तब से जानता हूँ जब से वे इस दुनिया में नहीं आये थे, और देवीसिंह तो हमारे चेले ही हैं।

      देवी - क्यों बे शैतान, हम कब से तेरे चेले हुए? बेअदबी करता है?

      बाँका - बेअदबी तो आप करते हैं कि ओस्ताद को बे-बे करके बुलाते हैं, कुछ इज्जत नहीं करते!

      देवी - मालूम होता है तेरी मौत तुझको यहाँ ले आई है।

      बाँका - मैं तो स्वयं मौत हूँ।

      देवी - इस बेअदबी का मजा चखाऊँ तुझको?

      बाँका - मैं कुछ ऐसे-वैसे का भेजा नहीं आया हूँ, मुझको उसने भेजा है जिसको तुम दिन में साढ़े सत्रह दफा झुककर सलाम करोगे।

      देवीसिंह और कुछ कहा ही चाहते थे कि तेजसिंह ने रोक दिया और कहा, “चुप रहो, मालूम होता है यह कोई ऐयार या मसखरा है, तुम खुद ऐयार होकर जरा दिल्लगी में रंज हो जाते हो!

      बाँका - अगर अब भी न समझोगे तो समझाने के लिए मैं चम्पा को बुला लाऊँगा। उस बाँके-टेढ़े जवान की बात पर सब लोग एकदम हँस पड़े, मगर हैरान थे कि वह कौन है? अजब तमाशा तो यह कि वनकन्या के कुल आदमी हम लोगों का रत्ती-रत्ती हाल जानते हैं और हम लोग कुछ नहीं समझ सकते कि वे कौन हैं!

      तेजसिंह उस शैतान की सूरत को गौर से देखने लगे। वह बोला, “आप मेरी सूरत क्या देखते हैं। मैं ऐयार नहीं हूँ, अपनी सूरत मैंने रंगी नहीं है, पानी मँगाइए धोकर दिखा दूँ, मैं आज से काला नहीं हूँ, लगभग चार सौ वर्षों से मेरा यही रंग रहा है।”

      तेजसिंह हँस पड़े और बोले, “जो हो अच्छे हो, मुझे और जाँचने की कोई जरूरत नहीं, अगर दुश्मन का आदमी होता तो ऐसा करते भी मगर तुमसे क्या? ऐयार हो तो, मसखरे हो तो, इसमें कोई शक नहीं कि दोस्त के आदमी हो।”

      यह सुन उसने झुककर सलाम किया और कुमार की तरफ देखकर कहा, “मुझको जवाब मिल जाये क्योंकि बड़ी दूर जाना है।”

      कुमार ने उसी खत की पीठ पर यह लिख दिया, “मुझको सब-कुछ दिलोजान से मंजूर है।” बाद इसके अपनी अंगूठी से मोहर कर उस बांके जवान के हवाले किया, वह खत लेकर खेमे के बाहर हो गया।

*–*–*


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