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चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास

( तीसरा अध्याय )

सातवाँ बयान

      आज तेजसिंह के वापस आने और बाँके-तिरछे जवान के पहुँचकर बातचीत करने और खत लिखने में देर हो गई, दो पहर दिन चढ़ आया। तेजसिंह ने बद्रीनाथ को होश में लाकर पहरे में किया और कुमार से कहा, “अब स्नान-पूजा करें फिर जो कुछ होगा सोचा जायेगा, दो रोज से तिलिस्म का भी कोई काम नहीं होता।”

      कुमार ने दरबार बर्खास्त किया, स्नान-पूजा से छुट्टी पाकर खेमे में बैठे, ऐयार लोग और फतहसिंह भी हाजिर हुए। अभी किसी किस्म की बातचीत नहीं हुई थी कि चोबदार ने आकर अर्ज किया, “एक बूढ़ी औरत बाहर हाजिर हुई है, कुछ कहा चाहती है, हम लोग पूछते हैं तो कुछ नहीं बताती, कहती है जो कुछ है कुमार से कहूँगी क्योंकि उन्हीं के मतलब की बात है।”

      कुमार ने कहा, “उसे जल्दी अंदर लाओ।” चोबदार ने उस बूढ़ी को हाजिर किया, देखते ही तेजसिंह के मुँह से निकला, “क्या पिशाचों और डाकिनियों का दरबा खुल पड़ा है?”

      उस बूढ़ी ने भी यह बात सुन ली, लाल-लाल आँखें कर तेजसिंह की तरफ देखने लगी और बोली, “बस कुछ न कहूँगी जाती हूँ, मेरा क्या बिगड़ेगा, जो कुछ नुकसान होगा कुमार का होगा।” यह कह खेमे के बाहर चली गई। कुमार का इशारा पा चोबदार समझा-बुझाकर उसे पुन: ले आया।

      यह औरत भी अजीब सूरत की थी। उम्र लगभग सत्तर वर्ष के होगी, बाल कुछ-कुछ सफेद, आधे से ज्यादा दाँत गायब, लेकिन दो बड़े-बड़े और टेढ़े आगे वाले दाँत दो-दो अंगुल बाहर निकले हुए थे जिनमें जर्दी और कीट जमी हुई थी। मोटे कपड़े की साड़ी बदन पर थी जो बहुत ही मैली और सिर की तरफ से चिक्कट हो रही थी। बड़ी-सी पीतल की नथ नाक में और पीतल ही के घुँघरू पैर में पहिरे हुए थे।

      तेजसिंह ने कहा, “क्यों क्या चाहती हो?”

      बूढ़ी - जरा दम ले लूँ तो कहूँ, फिर तुमसे क्यों कहने लगी जो कुछ है खास कुमार ही से कहूँगी।

      कुमार - अच्छा मुझ ही से कह, क्या कहती है?

      बूढ़ी - तुमसे तो कहूँगी ही, तुम्हारे बड़े मतलब की बात है। (खाँसने लगती है)

      देवी - अब डेढ़ घंटे तक खाँसेगी तब कहेगी?

      बूढ़ी - फिर दूसरे ने दखल दिया! कुमार-नहीं-नहीं, कोई न बोलेगा।

      बूढ़ी - एक बात है, मैं जो कुछ कहूँगी तुम्हारे मतलब की कहूँगी जिसको सुनते ही खुश हो जाओगे, मगर उसके बदले में मैं भी कुछ चाहती हूँ।

      कुमार - हाँ-हाँ तुझे भी खुश कर देंगे।

      बूढ़ी -पहले तुम इस बात की कसम खाओ कि तुम या तुम्हारा कोई आदमी मुझको कुछ न कहेगा और मारने-पीटने या कैद करने का तो नाम भी न लेगा!

      कुमार - जब हमारे भले की बात है तो कोई तुमको क्यों मारने या कैद करने लगा!

      बूढ़ी - हाँ यह तो ठीक है, मगर मुझे डर मालूम होता है क्योंकि मैंने आपके लिए वह काम किया है कि अगर हजार बरस भी आपके ऐयार लोग कोशिश करते तो वह न होता, इस सबब से मुझे डर मालूम होता है कि कहीं आपके ऐयार लोग खार खाकर मुझे तंग न करें। उस बूढ़ी की बात सुनकर सब दंग हो गये और सोचने लगे कि यह कौन-सा ऐसा काम कर आई है कि आसमान पर चढ़ी जाती है। आखिर कुमार ने कसम खाई कि ‘चाहे तू कुछ कहे मगर हम या हमारा कोई आदमी तुझे कुछ न कहेगा’ तब वह फिर बोली, “मैं उस वनकन्या का पूरा पता आपको दे सकती हूँ और एक तरकीब ऐसी बता सकती हूँ कि आप घड़ी भर में बिल्कुल तिलिस्म तोड़कर कुमारी चन्द्रकान्ता से जा मिलें।”

      बूढ़ी की बात सुनकर सब खुश हो गये। कुमार ने कहा, “अगर ऐसा ही है तो जल्द बता कि वह वनकन्या कौन है और घड़ी भर में तिलिस्म कैसे टूटेगा?”

      बूढ़ी - पहले मेरे इनाम की बात तो कर लीजिए।

      कुमार - अगर तेरी बात सच हुई तो जो कहेगी वही इनाम मिलेगा।

      बूढ़ी - तो इसके लिए कसम खाइये।

      कुमार - अच्छा क्या इनाम लेगी, पहले यह तो सुन लूँ।

      बूढ़ी - बस और कुछ नहीं केवल इतना ही कि आप मुझसे शादी कर लें, वनकन्या और चन्द्रकान्ता से तो चाहे जब शादी हो मगर मुझसे आज ही हो जाये क्योंकि मैं बहुत दिनों से तुम्हारे इश्क में फँसी हुई हूँ, बल्कि तुम्हारे मिलने की तरकीब सोचते-सोचते बूढ़ी हो चली। आज मौका मिला कि तुम मेरे हाथ फँस गये, बस अब देर मत करो नहीं तो मेरी जवानी निकल जायगी, फिर पछताओगे।

      बूढ़ी की बातें सुन मारे गुस्से के कुमार का चेहरा लाल हो गया और उनके ऐयार लोग भी दाँत पीसने लगे मगर क्या करें लाचार थे, अगर कुमार कसम न खा चुके होते तो ये लोग उस बूढ़ी की पूरी दुर्गति कर देते।

      तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से पूछा,“आप बताइए यह कोई ऐयार है या सचमुच जैसी दिखाई देती है वैसी ही है? अगर कुमार कसम न खाये होते तो हम लोग किसी तरकीब से मालूम कर ही लेते।”

      ज्योतिषीजी ने अपनी नाक पर हाथ रखकर स्वाँस का विचार करके कहा, “यह ऐयार नहीं है, जो देखते हो वही है।” अब तो तेजसिंह और भी बिगड़े, बूढ़ी से कहा, “बस तू यहाँ से चली जा, हम लोग कुमार के कसम खाने को पूरा कर चुके कि तुझे कुछ न कहा, अगर अब जाने में देर करेगी तो कुत्तोँ से नुचवा डालूगा। क्या तमाशा है! ऐसी-ऐसी चुड़ैलें भी कुमार पर आशिक होने लगीं!”

      बूढ़ी ने कहा, “अगर मेरी बात न मानोगे तो पछताओगे, तुम्हारा सब काम बिगाड़ दूँगी, देखो उस तहखाने में मैंने कैसा ताला लगा दिया कि तुमसे खुल न सका, आखिर बद्रीनाथ की गठरी लेकर वापस आए, अब जाकर महाराज शिवदत्त को छुड़ा देती हूँ, फिर और फसाद करूँगी! यह कहती हुई गुस्से के मारे लाल-लाल आँखें किये खेमे के बाहर निकल गई, तेजसिंह के इशारे से देवीसिंह भी उसके पीछे चले गए।

      कुमार - क्यों तेजसिंह, यह चुडैल तो अजब आफत मालूम पड़ती है, कहती है कि तहखाने में मैंने ही ताला लगा दिया था।

      तेज - क्या मामला है कुछ समझ में नहीं आता!

      ज्योतिषी - अगर इसका कहना सच है तो हम लोगों के लिए यह एक बड़ी भारी बला पैदा हुई।

      तेज - इसकी सच्चाई-झुठाई तो शिवदत्त के छूटने ही से मालूम हो जायगी, अगर सच्ची निकली तो बिना जान से मारे न छोड़ूंगा।

      ज्योतिषी - ऐसी को मारना ही जरूरी है।

      तेज - कुमार ने कुछ यह कसम तो खाई नहीं है कि जन्म भर कोई उसको कुछ न कहेगा।

      कुमार - (लंबी सांस लेकर) हाय, आज मुझको यह दिन भी देखना पड़ा।

      तेज - आप चिंता न कीजिए, देखिये तो हम लोग क्या करते हैं, देवीसिंह उसके पीछे गये ही हैं कुछ पता लिए बिना नहीं आते।

      कुमार - आजकल तुम लोगों की ऐयारी में उल्ली लग गई है, कुछ वनकन्या का पता लगाया, कुछ अब डाकिनी की खबर लोगे!

      कुमार की यह बात तेजसिंह और ज्योतिषीजी को तीर के समान लगी मगर कुछ बोले नहीं, सिर्फ उठ के खेमे के बाहर चले गए। इन लोगों के चले जाने के बाद कुमार खेमे में अकेले रह गये, तरह-तरह की बातें सोचने लगे, कभी चन्द्रकान्ता की बेबसी और तिलिस्म में फँस जाने पर, कभी तिलिस्म टूटने में देर और वनकन्या की खबर या ठीक-ठीक हाल न पाने पर, कभी इस बूढ़ी चुड़ैल की बातों पर जो अभी शादी करने आई थी अफसोस और गम करते रहे। तबीयत बिल्कुल उदास थी। आखिर दिन बीत गया और शाम हुई।

      कुमार ने फतहसिंह को बुलाया, जब वे आये तो पूछा, “तेजसिंह कहाँ हैं?” उन्होंने जवाब दिया, “कुछ मालूम नहीं, ज्योतिषीजी को साथ लेकर कहीं गये हैं?”

*–*–*

आठवाँ बयान

      देवीसिंह उस बूढ़ी के पीछे रवाना हुए। जब तक दिन बाकी रहा बूढ़ी चलती गई। उन्होंने भी पीछा न छोड़ा। कुछ रात गये तक वह चुडैल एक छोटे से पहाड़ के दर्रे में पहुँची जिसके दोनों तरफ ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ थीं। थोड़ी दूर इस दर्रे के अंदर जा वह एक खोह में घुस गई जिसका मुँह बहुत छोटा, सिर्फ एक आदमी के जाने लायक था। देवीसिंह ने समझा शायद यही इसका घर होगा, यह सोच पेड़ के नीचे बैठ गये। रात भर उसी तरह बैठे रह गये मगर फिर वह बुढ़िया उस खोह में से बाहर न निकली। सबेरा होते ही देवीसिंह भी उसी खोह में घुसे।

       उस खोह के अंदर बिल्कुल अंधकार था, देवीसिंह टटोलते हुए चले जा रहे थे। अगल-बगल जब हाथ फैलाते तो दीवार मालूम पड़ती जिससे जाना जाता कि यह खोह एक सुरंग के तौर पर है, इसमें कोई कोठरी या रहने की जगह नहीं है। लगभग दो मील गये होंगे कि सामने की तरफ चमकती हुई रोशनी नजर आई। जैसे-जैसे आगे जाते थे रोशनी बढ़ी मालूम होती थी, जब पास पहुँचे तो सुरंग के बाहर निकलने का दरवाजा देखा।

       देवीसिंह बाहर हुए, अपने को एक छोटी-सी पहाड़ी नदी के किनारे पाया, इधर-उधर निगाह दौड़ाकर देखा तो चारों तरफ घना जंगल। कुछ मालूम न पड़ा कि कहाँ चले आए और लश्कर में जाने की कौन-सी राह है। दिन भी पहर भर से ज्यादे जा चुका था। सोचने लगे कि उस बूढ़ी ने खूब छकाया, न मालूम वह किस राह से निकलकर कहाँ चली गई, अब उसका पता लगाना मुश्किल है। फिर इसी सुरंग की राह से फिरना पड़ा क्योंकि ऊपर से जंगल-जंगल लश्कर में जाने की राह मालूम नहीं, कहीं ऐसा न हो कि भूल जायँ तो और भी खराबी हो, बड़ी भूल हुई कि रात को बूढ़ी के पीछे-पीछे हम भी इस सुरंग में न घुसे, मगर यह क्या मालूम था कि इस सुरंग में दूसरी तरफ निकल जाने के लिए रास्ता है।

       देवीसिंह मारे गुस्से के दाँत पीसने लगे मगर कर ही क्या सकते थे? बूढ़ी तो मिली नहीं कि कसर निकालते, आखिर लाचार हो उसी सुरंग की राह से वापस हुए और शाम होते-होते लश्कर में पहुँचे।

      कुमार के खेमे में गये, देखा कि कई आदमी बैठे हैं और वीरेन्द्रसिंह फतहसिंह से बातें कर रहे हैं। देवीसिंह को देख सब कोई खेमे के बाहर चले गये सिर्फ फतहसिंह रह गये। कुमार ने पूछा, “क्यो उस बूढ़ी की क्या खबर लाए?”

      देवी - बुङ्ढी ने तो बेहिसाब धोखा दिया!

      कुमार - (हँसकर) क्या धोखा दिया?

      देवीसिंह ने बूढ़ी के पीछे जाकर परेशान होने का सब हाल कहा जिसे सुनकर कुमार और भी उदास हुए। देवीसिंह ने फतहसिंह से पूछा, “हमारे ओस्ताद और ज्योतिषीजी कहाँ हैं?” उन्होंने जवाब दिया कि “बूढ़ी चुड़ैल के आने से कुमार बहुत रंज में थे, उसी हालत में तेजसिंह से कह बैठे कि तुम लोगों की ऐयारी में इन दिनों उल्ली लग गई। इतना सुन गुस्से में आकर ज्योतिषीजी को साथ ले कहीं चले गए, अभी तक नहीं आए।”

      देवी - कब गए?

      फतह - तुम्हारे जाने के थोड़ी देर बाद।

      देवी - इतने गुस्से में ओस्ताद का जाना खाली न होगा, जरूर कोई अच्छा काम करके आवेंगे!

      कुमार - देखना चाहिए।

      इतने में तेजसिंह और ज्योतिषीजी वहाँ आ पहुँचे। इस वक्त उनके चेहरे पर खुशी और मुस्कराहट झलक रही थी जिससे सब समझे कि जरूर कोई काम कर आए हैं। कुमार ने पूछा, “क्यों क्या खबर है?”

      तेज - अच्छी खबर है।

      कुमार - कुछ कहोगे भी कि इसी तरह?

      तेज - आप सुन के क्या कीजिएगा?

      कुमार - क्या मेरे सुनने लायक नहीं है?

      तेज - आपके सुनने लायक क्यों नहीं है मगर अभी न कहेंगे।

      कुमार - भला कुछ तो कहो?

      तेज - कुछ भी नहीं।

      देवी - भला ओस्ताद हमें भी बताओगे या नहीं?

      तेज - क्या तुमने ओस्ताद कहकर पुकारा इससे तुमको बता दें?

      देवी - झख मारोगे और बताओगे!

      तेज - (हँसकर) तुम कौन-सा जस लगा आए पहले यह तो कहो?

      देवी - मैं तो आपकी शागिर्दी में बट्टा लगा आया।

      तेज - तो बस हो चुका।

      ये बातें हो ही रही थीं कि चोबदार ने आकर हाथ जोड़ अर्ज किया कि “महाराज शिवदत्त के दीवान आये हैं।” सुनकर कुमार ने तेजसिंह की तरफ देखा फिर कहा, “अच्छा आने दो, उनके साथ वाले बाहर ही रहें।” महाराज शिवदत्त के दीवान खेमे में हाजिर हुए और सलाम करके बहुत-सा जवाहरात नजर किया। कुमार ने हाथ से छू दिया।

      दीवान ने अर्ज किया, “यह नजर महाराज शिवदत्त की तरफ से ले आया हूँ। ईश्वर की दया और आपकी कृपा से महाराज कैद से छूट गये हैं। आते ही दरबार करके हुक्म दे दिया कि आज से हमने कुँअर वीरेन्द्रसिंह की ताबेदारी कबूल की, हमारे जितने मुलाजिम या ऐयार हैं वे भी आज से कुमार को अपना मालिक समझें, बाद इसके मुझको यह नजर और अपने हाथ की लिखी खत देकर हुजूर में भेजा है, इस नजर को कबूल किया जाय!”

      कुमार ने नजर कबूल कर तेजसिंह के हवाले की और दीवान साहब को बैठने का इशारा किया, वे खत देकर बैठ गये।

       कुछ रात जा चुकी थी, कुमार ने उसी वक्त दरबारे आम किया, जब अच्छी तरह दरबार भर गया तब तेजसिंह को हुक्म दिया कि खत जोर से पढ़ो। तेजसिंह ने पढ़ना शुरू किया, लंबे-चौड़े सिरनामे के बाद यह लिखा था-

      “मैं किसी ऐसे सबब से उस तहखाने की कैद से छूटा जो आप ही की कृपा से छूटना कहला सकता है। आप जरूर इस बात को सोचेंगे कि मैं आपकी दया से कैसे छूटा, आपने तो कैद ही किया था, तो ऐसा सोचना न चाहिए। किसी सबब से मैं अपने छूटने का खुलासा हाल नहीं कह सकता और न हाजिर ही हो सकता हूँ। मगर जब मौका होगा और आपको मेरे छूटने का हाल मालूम होगा यकीन हो जायगा कि मैंने झूठ नहीं कहा था। अब मैं उम्मीद करता हूँ कि आप मेरे बिल्कुल कसूरों को माफ करके यह नजर कबूल करेंगे। आज से हमारा कोई ऐयार या मुलाजिम आपसे ऐयारी या दगा नकरेगा और आप भी इस बात का ख्याल रखें। - आपका शिवदत्त।”

       इस खत को सुनकर सब खुश हो गए। कुमार ने हुक्म दिया कि पण्डित बद्रीनाथ जी, जो हमारे यहाँ कैद हैं लाये जावें। जब वे आये कुमार के इशारे से उनके हाथ-पैर खोल दिए गए। उन्हें भारी खिलअत पहिराकर दीवान साहब के हवाले किया और हुक्म दिया कि आप दो रोज यहाँ रहकर चुनार जायें। फतहसिंह को उनकी मेहमानी के लिए हुक्म देकर दरबार बर्खास्त किया।

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