चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास ( चौथा अध्याय ) सोलहवाँ बयान पाठक, अब वह समय आ गया कि आप भी चन्द्रकान्ता और कुँअर वीरेन्द्रसिंह को खुश होते देख खुश हों। यह तो आप समझते ही होंगे कि महाराज जयसिंह विजयगढ़ से रवाना होकर नौगढ़ जायेंगे और वहाँ से राजा सुरेन्द्रसिंह और कुमार को साथ लेकर कुमारी से मिलने की उम्मीद में तिलिस्मी खोह के अंदर जायेंगे। आपको यह भी याद होगा कि सिद्धनाथ योगी ने तहखाने (खोह) से बाहर होते वक्त कुमार को कह दिया था कि जब अपने पिता और महाराज जयसिंह को लेकर इस खोह में आना तो उन लोगों को खोह के बाहर छोड़कर पहले तुम आकर एक दफे हमसे मिल जाना। उन्हीं के कहे मुताबिक कुमार करेंगे। खैर इन लोगों को तो आप अपने काम में छोड़ दीजिए और थोड़ी देर के लिए आँखें बंद करके हमारे साथ उस खोह में चलिए और किसी कोने में छिपकर वहाँ रहने वालों की बातचीत सुनिये। शायद आप लोगों के जी का भ्रम यहाँ निकल जाये और दूसरे तीसरे भाग के बिल्कुल भेदों की बातें भी सुनते ही सुनते खुल जायं, बल्कि कुछ खुशी भी हासिल हो। कुँअर वीरेन्द्रसिंह और महाराज जयसिंह वगैरह तो आज वहाँ तक पहुँचते नहीं मगर आप इसी वक्त हमारे साथ उस तहखाने (खोह) में बल्कि उस बाग में पहुँचिए जिसमें कुमार ने चंदकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था और जिसमें सिद्धनाथ योगी और वनकन्या से मुलाकात हुई थी। आज उसी बाग में पहुँच गये। देखिए अस्त होते हुए सूर्य भगवान अपनी सुंदर लाल किरणों से मनोहर बाग के कुछ ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के ऊपरी हिस्सों को चमका रहे हैं। कुछ-कुछ ठंडी हवा खुशबूदार फूलों की महक चारों तरफ फैला रही है। देखिए इस बाग के बीच वाले संगमरमर के चबूतरे पर तीन पलंग रखे हुए हैं, जिनके ऊपर खूबसूरत लौंडियाँ अच्छे-अच्छे बिछौने बिछा रही हैं; खास करके बीच वाले जड़ाऊ पलंग की सजावट पर सबों का ज्यादा ध्यान है। उधर देखिये वह घास का छोटा सा रमना कैसे खुशनुमा बना हुआ है। उसमें उगी हरी-हरी दूब कैसे खूबसूरती से कटी हुई है, यकायक सब्ज मखमली फर्श में और इसमें कुछ भेद नहीं मालूम होता, और देखिए उसी सब्ज दूब के रमने के चारों तरफ रंग-बिरंगे फूलों से खूब गुथे हुए सीधे-सीधे गुल मेंहदी के पेड़ों की कतार पल्टनों की तरह कैसी शोभा दे रही है। उसके बगल की तरफ ख्याल कीजिए, चमेली का फूला हुआ तख्ता क्या ही रंग जमा रहा है और कैसे घने पेड़ हैं कि हवा को भी उसके अंदर जाने का रास्ता मिलना मुश्किल है, और इन दोनों तख्तों के बीच वाला छोटा सा खूबसूरत बंगला क्या मजा दे रहा है तथा उसके चारों तरफ नीचे से ऊपर तक मालती की लता कैसी घनी चढ़ी हुई और फूल भी कितने ज्यादे फूले हुए हैं। अगर जी चाहे तो किसी एक तरफ खड़े होकर बिना इधर-उधर हटे हाथ भर का चंगेर भर लीजिये। पश्चिम तरफ निगाह दौड़ाइये, फूली हुई मेंहदी की टट्टी के नीचे जंगली रंग-बिरंगे पत्तों वाले हाथ डेढ़ हाथ ऊँचे दरख्तों (करोटन) की चौहरी कतार क्या भली मालूम होती है, और उसके बुंदकीदार, सुर्खी लिए हुए सफेद लकीरों वाले, सब्ज धारियों वाले, लंबे घूँघरवाले बालों की तरह ऐंठे हुए पत्ते क्या कैफियत दिखा रहे हैं और इधर-उधर हट के दोनों तरफ तिरकोनिया तख्तों की भी रंगत देखिये जो सिर्फ हाथ भर ऊँचे रंगीन छिटकती हुई धारियों वाले पत्तोँ के जंगली पेड़ों (कौलियस) के गमलों से पहाड़ीनुमा सजाये हुए हैं और जिनके चारों तरफ रंग-बिरंगे देशी फूल खिले हुए हैं। अब तो हमारी निगाह इधर-उधर और खूबसूरत क्यारियोँ, फूलों और छूटते हुए फव्वारों का मजा नहीं लेती, क्योंकि उन तीन औरतों के पास जाकर अटक गयी है, जो मेंहदी के पत्ते तोड़कर अपनी झोलियों में बटोर रही हैं। यहाँ निगाह भी अदब करती है, क्योंकि उन तीनों औरतों में से एक तो हमारी उपन्यास की ताज वनकन्या है और बाकी दोनों उसकी प्यारी सखियाँ हैं। वनकन्या की पोशाक तो सफेद है, मगर उसकी दोनों सखियों की सब्ज और सुर्ख। वे तीनों मेंहदी की पत्तियाँ तोड़ चुकीं, अब इस संगमरमर के चबूतरे की तरफ चली आ रही हैं। शायद इन्हीं तीनों पलंगों पर बैठने का इरादा हो। हमारा सोचना ठीक हुआ। वनकन्या मेंहदी की पत्तियाँ जमीन पर उझलकर थकावट की मुद्रा में बिचले जड़ाऊ पलंग पर लेट गयी और दोनों सखियाँ अगल-बगल वाले दोनों पंलगों पर बैठ गयीं। पाठक, हम और आप भी एक तरफ चुपचाप खड़े होकर इन तीनों की बातचीत सुनें। वनकन्या – ओफ, थकावट मालूम होती है! सब्ज कपड़े वाली सखी – घूमने में क्या कम आया है? सुर्ख कपड़े वाली सखी – (दूसरी सखी से) क्या तू भी थक गयी है? सब्ज सखी – मैं क्यों थकने लगी? दस-दस कोस का रोज चक्कर लगाती रही, तब तो थकी ही नहीं। सुर्ख सखी – ओफ, उन दिनों भी कितना दौड़ना पड़ा था। कभी इधर तो कभी उधर, कभी जाओ तो कभी आओ। सब्ज – आखिर कुमार के ऐयार हम लोगों का पता नहीं ही लगा सके। सुर्ख – खुद ज्योतिषीजी की अक्ल चकरा गयी जो बड़े रम्माल और नजूमी कहलाते थे, दूसरों की कौन कहे! वनकन्या – ज्योतिषीजी के रमल को तो इन यंत्रों ने बेकार कर दिया, जो सिद्धनाथ बाबा ने हम लोगों के गले में डाल दिया है और अभी तक जिसे उतारने नहीं देते। सब्ज – मालूम नहीं इस ताबीज (यंत्र) में कौन सी ऐसी चीज है जो रमल को चलने नहीं देती! वनकन्या – मैंने यही बात एक दफे सिद्धनाथ बाबाजी से पूछी थी, जिसके जवाब में वे बहुत कुछ बक गये। मुझे सब तो याद नहीं कि क्या-क्या कह गये हाँ, इतना याद है कि रमल जिस धातु से बनाई जाती है और रमल के साथी ग्रह, राशि, नक्षत्र, तारों वगैरह के असर पड़ने वाली जितनी धातुएँ हैं, उन सबों को एक साथ मिलाकर यह यंत्र बनाया गया है इसलिए जिसके पास यह रहेगा, उसके बारे में कोई नजूमी या ज्योतिषी रमल के जरिये से कुछ नहीं देख सकेगा। सुर्ख – बेशक इसमें बहुत कुछ असर है। देखिये मैं सूरजमुखी बनकर गयी थी, तब भी ज्योतिषीजी रमल से न बता सके कि यह ऐयार है। वनकन्या – कुमार तो खूब ही छके होंगे? सुर्ख – कुछ न पूछिये, वे बहुत ही घबराये कि यह शैतान कहाँ से आयी और क्या शर्त करा के अब क्या चाहती है? सब्ज – उसी के थोड़ी देर पहले मैं प्यादा बनकर खत का जवाब लेने गयी थी और देवीसिंह को चेला बनाया था। यह कोई नहीं कह सका कि इसे मैं पहचानता हूँ। सुर्ख – यह सब तो हुई मगर किस्मत भी कोई भारी चीज है। देखिये जब शिवदत्त के ऐयारों ने तिलिस्मी किताब चुरायी थी और जंगल में ले जाकर जमीन के अंदर गाड़ रहे थे, उसी वक्त इत्तिफाक से हम लोगों ने पहुँच कर दूर से देख लिया कि कुछ गाड़ रहे हैं, उन लोगों के जाने के बाद खोदकर देखा तो तिलिस्मी किताब है। वनकन्या – ओफ, बड़ी मुश्किल से सिद्धनाथ ने हम लोगों को घूमने का हुक्म दिया था, तिस पर भी कसम दे दी थी कि दूर-दूर से कुमार को देखना, पास मत जाना। सुर्ख – इसमें तुम्हारा ही फायदा था, बेचारे सिद्धनाथ कुछ अपने वास्ते थोड़े ही कहते थे। वनकन्या – यह सब सच है, मगर क्या करें बिना देखे जी जो नहीं मानता। सब्ज – हम दोनों को तो यही हुक्म दे दिया था कि बराबर घूम-घूमकर कुमार की मदद किया करो। मालिन रूपी बद्रीनाथ से कैसा बचाया था। सुर्ख – क्या ऐयार लोग पता लगाने की कम कोशिश करते थे? मगर यहाँ तो ऐयारों के गुरुघंटाल सिद्धनाथ हरदम मदद पर थे, उनके किए हो क्या सकता था? देखो गंगाजी में नाव के पास आते वक्त तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी कैसा छके, हम लोगों ने सभी कपड़े तक ले लिए। सब्ज – हम लोग तो जान-बूझ कर उन लोगों को अपने साथ लाये ही थे। वनकन्या – चाहे वे लोग कितने ही तेज हों, मगर हमारे सिद्धनाथ को नहीं पा सकते। हाँ, उन लोगों में तेजसिंह बड़ा चालाक है! सुर्ख – तेजसिंह बहुत चालाक हैं तो क्या हुआ, मगर हमारे सिद्धनाथ तेजसिंह के भी बाप हैं। वनकन्या – (हँसकर) इसका हाल तो तुम ही जानो। सुर्ख – आप तो दिल्लगी करती हैं। सब्ज – हकीकत में सिद्धनाथ ने कुमार और उनके ऐयारों को बड़ा भारी धोखा दिया। उन लोगों को इस बात का ख्याल तक न आया कि इस खोह वाले तिलिस्म को सिद्धनाथ बाबा हम लोगों के हाथ फतह करा रहे हैं। सुर्ख – जब हम लोग अंदर से इस खोह का दरवाजा बंद कर तिलिस्म तोड़ रहे थे तब तेजसिंह बद्रीनाथ की गठरी लेकर इसमें आए थे, मगर दरवाजा बंद पाकर लौट गये। वनकन्या – बड़े ही घबराये होंगे कि अंदर से इसका दरवाजा किसने बंद कर दिया? सुर्ख – जरूर घबराये होंगे। इसी में क्या और कई बातों में हम लोगों ने कुमार और उनके ऐयारों को धोखा दिया था। देखिये मैं उधर सूरजमुखी बनकर कह आयी कि शिवदत्त को छुड़ा दूँगी और इधर इस बात की कसम खिलाकर कि कुमार से दुश्मनी न करेगा, शिवदत्त को छोड़ दिया। उन लोगों ने भी जरूर सोचा होगा कि सूरजमुखी कोई भारी शैतान है। वनकन्या – मगर फिर भी हरामजादे शिवदत्त ने धोखा दिया और कुमार से दुश्मनी करने पर कमर बाँधी, उसकी कसम का कोई एतबार नहीं। सुर्ख – इसी से फिर हम लोगों ने गिरफ्तार भी तो कर लिया और तिलिस्मी किताब पाकर फिर कुमार को दे दी। हाँ, क्रूरसिंह ने एक दफे हम लोगों को पहचान लिया था। मैंने सोचा कि अब अगर यह जीता बचा तो सब भंडा फूट जायगा, बस लड़ाई हो गयी। आखिर मेरे हाथ से उसकी मौत लिखी थी मारा गया। सब्ज – उस मुए को धुन सवार थी कि हम ही तिलिस्म फतह करके खजाना ले लें। वनकन्या – मुझको तो इसी बात की खुशी है यह खोह वाला तिलिस्म मेरे हाथ से फतह हुआ। सुर्ख – इसमें काम ही कितना था, तिस पर सिद्धनाथ बाबा की मदद! वनकन्या – खैर एक बात तो है। *–*–* सत्रहवाँ बयान अपनी जगह पर दीवान हरदयालसिंह को छोड़ तेजसिंह और बद्रीनाथ को साथ लेकर महाराज जयसिंह विजयगढ़ से नौगढ़ की तरफ रवाना हुए। साथ में सिर्फ पाँच सौ आदमियों का झमेला था। एक दिन रास्ते में लगा, दूसरे दिन नौगढ़ के करीब पहुँचकर डेरा डाला। राजा सुरेन्द्रसिंह को महाराज जयसिंह के पहुँचने की खबर मिली। उसी वक्त अपने मुसाहबों और सरदारों को साथ ले इस्तकबाल के लिए गये और अपने साथ शहर में आये। महाराज जयसिंह के लिए पहले से ही मकान सजा रखा था, उसी में उनका डेरा डलवाया और ज्याफत के लिए कहा, मगर महाराज जससिंह ने ज्याफत से इंकार किया और कहा कि “कई वजहों से मैं आपकी ज्याफत मंजूर नहीं कर सकता, आप मेहरबानी करके इसके लिए जिद न करें बल्कि इसका सबब भी न पूछें कि ज्याफत से क्यों इनकार करता हूँ।” राजा सुरेन्द्रसिंह इसका सबब समझ गए और जी में बहुत खुश हुए। रात के वक्त कुँअर वीरेन्द्रसिंह और बाकी के ऐयार लोग भी महाराज जयसिंह से मिले। कुमार को बड़ी खुशी के साथ महाराज ने गले लगाया और अपने पास बैठाकर तिलिस्म का हाल पूछते रहे। कुमार ने बड़ी खूबसूरती के साथ तिलिस्म का हाल बयान किया। रात को ही यह राय पक्की हो गयी कि सवेरे सूरज निकलने के पहले तिलिस्मी खोह में सिद्धनाथ बाबा से मिलने के लिए रवाना होंगे। उसी मुताबिक दूसरे दिन तारों की रोशनी रहते ही महाराज जयसिंह, राजा सुरेन्द्रसिंह, कुँअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, पण्डित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल वगैरह हजार आदमी की भीड़भाड़ लेकर तिलिस्मी तहखाने की तरफ रवाना हुए। तहखाना बहुत दूर न था, सूरज निकलते तक उस खोह (तहखाने) के पास पहुँचे। कुँअर वीरेन्द्रसिंह ने महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह से हाथ जोड़कर अर्ज किया, “जिस वक्त सिद्धनाथ योगी ने मुझे आप लोगों को लाने के लिए भेजा था उस वक्त यह भी कह दिया था कि ‘जब वे लोग इस खोह के पास पहुँच जायं तो तब अगर हुक्म दें तो तुम उन लोगों को छोड़कर पहले अकेले आकर हमसे मिल जाना।’ अब आप कहें तो योगीजी के कहे मुताबिक पहले मैं उनसे जाकर मिल आऊँ।” महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह ने कहा, “योगीजी की बात जरूर माननी चाहिए, तुम जाओ उनसे मिलकर आओ, तब तक हमारा डेरा भी इसी जंगल में पड़ता है।” कुँअर वीरेन्द्रसिंह अकेले सिर्फ तेजसिंह को साथ लेकर खोह में गये। जिस तरह हम पहले लिख आए हैं उसी तरह खोह का दरवाजा खोल कई कोठरियों, मकानों और बागों में घूमते हुए दोनों आदमी उस बाग में पहुँचे जिसमें सिद्धनाथ रहते थे या जिसमें कुमारी चन्द्रकान्ता की तस्वीर का दरबार कुमार ने देखा था। बाग के अंदर पैर रखते ही सिद्धनाथ योगी से मुलाकात हुई जो दरवाजे के पास पहले ही से खड़े कुछ सोच रहे थे। कुँअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह को आते देख उनकी तरफ बढ़े और पुकार के बोले, “आप लोग आ गए ?” पहले दोनों ने दूर से प्रणाम किया और पास पहुँचकर उनकी बात का जवाब दिया : कुमार – आपके हुक्म के मुताबिक महाराज जयसिंह और अपने पिता को खोह के बाहर छोड़कर आपसे मिलने आया हूँ। सिद्धनाथ – बहुत अच्छा किया जो उन लोगों को ले आये, आज कुमारी चन्द्रकान्ता से आप लोग जरूर मिलोगे। तेज – आपकी कृपा है तो ऐसा ही होगा। सिद्धनाथ – कहो और तो सब कुशल है? विजयगढ़ और नौगढ़ में किसी तरह का उत्पात तो नहीं हुआ था। तेज – (ताज्जुब से उनकी तरफ देखकर) हाँ उत्पात तो हुआ था, कोई जालिमखां नामी दोनों राजाओं का दुश्मन पैदा हुआ था। सिद्धनाथ – हाँ यह तो मालूम है, बेशक पण्डित बद्रीनाथ अपने फन में बड़ा ओस्ताद है, अच्छी चालाकी से उसे गिरफ्तार किया। खूब हुआ जो वे लोग मारे गये, अब उनके संगी-साथियों का दोनों राजों से दुश्मनी करने का हौसला न पड़ेगा। आओ टहलते-टहलते हम लोग बात करें। कुमार – बहुत अच्छा। तेज – जब आपको यह सब मालूम है तो यह भी जरूर मालूम होगा कि जालिमखां कौन था? सिद्धनाथ – यह तो नहीं मालूम कि वह कौन था मगर अंदाज से मालूम होता है कि शायद नाज़िम और अहमद के रिश्तेदारों में से कोई होगा। कुमार – ठीक है जो आप सोचते हैं वही होगा। सिद्धनाथ – महाराज शिवदत्त तो जंगल में चले गये? कुमार – जी हाँ, वे तो हमारे पिता से कह गए हैं कि अब तपस्या करेंगे। सिद्धनाथ – जो हो मगर दुश्मन का विश्वास कभी नहीं करना चाहिए। कुमार – क्या वह फिर दुश्मनी पर कमर बाँधेंगे? सिद्धनाथ – कौन ठिकाना! कुमार – अब हुक्म हो तो बाहर जाकर अपने पिता और महाराज जयसिंह को ले आऊँ। सिद्धनाथ – हाँ मगर पहले यह तो सुन लो कि हमने तुमको उन लोगों से पहले क्यों बुलाया। कुमार – कहिये। सिद्धनाथ – कायदे की बात यह है कि जिस चीज को जी बहुत चाहता है अगर वह खो गयी हो और बहुत मेहनत करने या बहुत हैरान होने पर यकायक ताज्जुब के साथ मिल जाये, तो उसका चाहने वाला उस पर इस तरह टूटता है जैसे अपने शिकार पर भूखा बाज। यह हम जानते हैं कि चन्द्रकान्ता और तुममें बहुत ज्यादा मुहब्बत है, अगर यकायक दोनों राजाओं के सामने तुम उसे देखोगे या वह तुम्हें देखेगी तो ताज्जुब नहीं कि उन लोगों के सामने तुमसे या कुमारी चन्द्रकान्ता से किसी तरह की बेअदबी हो जाय या जोश में आकर तुम उसके पास ही जा खड़े हो तो भी मुनासिब न होगा। इसलिए मेरी राय है कि उन लोगों के पहले ही तुम कुमारी से मुलाकात कर लो। आओ हमारे साथ चले आओ। अहा, इस वक्त तो कुमार के दिल की हुई! मुद्दत के बाद सिद्धनाथ बाबा की कृपा से आज उस कुमारी चन्द्रकान्ता से मुलाकात होगी जिसके वास्ते दिन-रात परेशान थे, राजपाट जिसकी एक मुलाकात पर न्यौछावर कर दिया था, जान तक से हाथ धो बैठे थे। आज यकायक उससे मुलाकात होगी – सो भी ऐसे वक्त पर जब किसी तरह का खुटका नहीं, किसी तरह का रंज या अफसोस नहीं, कोई दुश्मन बाकी नहीं। ऐसे वक्त में कुमार की खुशी का क्या कहना! कलेजा उछलने लगा। मारे खुशी के सिद्धनाथ योगी की बात का जवाब तक न दे सके और उनके पीछे – पीछे रवाना हो गए। थोड़ी दूर कमरे की तरफ गए होंगे कि एक लौंडी फूल तोड़ती हुई नजर पड़ी जिसे बुलाकर सिद्धनाथ ने कहा, “तू अभी चन्द्रकान्ता के पास जा और कह कि कुँअर वीरेन्द्रसिंह तुमसे मुलाकात करने आ रहे हैं, तुम अपनी सखियों के साथ अपने कमरे में जाकर बैठो।” यह सुनते ही वह लौंडी दौड़ती हुई एक तरफ चली गई और सिद्धनाथ कुमार तथा तेजसिंह को साथ ले बाग में इधर- धर घूमने लगे। कुँअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह दोनों अपनी-अपनी फिक्र में लग गए। तेजसिंह को चपला से मिलने की बड़ी खुशी थी। दोनों यह सोचने लगे कि किस हालत में मुलाकात होगी, उससे क्या बातचीत करेंगे, क्या पूछेंगे, वह हमारी शिकायत करेगी तो क्या जवाब देंगे? इसी सोच में दोनों ऐसे लीन हो गये कि फिर सिद्धनाथ योगी से बात न की, चुपचाप बहुत देर तक योगीजी के पीछे–पीछे घूमते रह गये। घूम-फिर कर इन दोनों को साथ लिए हुए सिद्धनाथ योगी उस कमरे के पास पहुँचे जिसमें कुमारी चन्द्रकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था। वहाँ पर सिद्धनाथ ने कुमार की तरफ देखकर कहा : “जाओ इस कमरे में कुमारी चन्द्रकान्ता और उसकी सखियों से मुलाकात करो, मैं तब तक दूसरा काम करता हूँ।” कुँअर वीरेन्द्रसिंह उस कमरे में अंदर घुसे। दूर से कुमारी चन्द्रकान्ता को चपला और चम्पा के साथ खड़े दरवाजे की तरफ टकटकी लगाए देखा। देखते ही कुँअर वीरेन्द्रसिंह कुमारी की तरफ झपटे और चन्द्रकान्ता कुमार की तरफ, अभी एक-दूसरे से कुछ दूर ही थे कि दोनों जमीन पर गिरकर बेहोश हो गए। तेजसिंह और चपला की भी आपस में टकटकी बँध गई। बेचारी चम्पा कुँअर वीरेन्द्रसिंह और कुमारी चन्द्रकान्ता की यह दशा देख दौड़ी हुई दूसरे कमरे में गई और हाथ में बेदमुश्क के अर्क से भरी हुई सुराही और दूसरे हाथ में सूखी चिकनी मिट्टी का ढेला लेकर दौड़ी हुई आई। दोनों के मुँह पर अर्क का छींटा दिया और थोड़ा सा अर्क उस मिट्टी के ढेले पर डाल हलका लखलखा बनाकर दोनों को सुँघाया। कुछ देर बाद तेजसिंह और चपला की भी टकटकी टूटी और ये भी कुमार और चन्द्रकान्ता की हालत देख उनको होश में लाने की फिक्र करने लगे। कुँअर वीरेन्द्रसिंह और चन्द्रकान्ता दोनों होश में आए, दोनों एक-दूसरे की तरफ देखने लगे, मुँह से बात किसी के नहीं निकलती थी। क्या पूछें, कौन सी शिकायत करें, किस जगह से बात उठावें, दोनों के दिल में यही सोच था। पेट से बात निकलती थी मगर गले में आकर रुक जाती थी, बातों की भरावट से गला फूलता था, दोनों की आँखें डबडबा आई थीं बल्कि आंसू की बूंदें बाहर गिरने लगीं। घंटों बीत गये, देखा-देखी में ऐसे लीन हुए कि दोनों को तनोबदन की सुध न रही। कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं, सामने कौन है, इसका ख्याल तक किसी को नहीं। कुँअर वीरेन्द्रसिंह और कुमारी चन्द्रकान्ता के दिल का हाल अगर कुछ मालूम है तो तेजसिंह और चपला को, दूसरा कौन जाने, कौन उनकी मुहब्बत का अंदाजा कर सके, सो वे दोनों भी अपने आपे में नहीं थे। हाँ, बेचारी चम्पा इन लोगो का हद दर्जे तक पहुँचा हुआ प्रेम देखकर घबरा उठी, जी में सोचने लगी कि कहीं ऐसा न हो कि इसी देखा-देखी में इन लोगों का दिमाग बिगड़ जाये। कोई ऐसी तरकीब करनी चाहिए कि जिससे इनकी यह दशा बदले और आपस में बातचीत करने लगें। आखिर कुमारी का हाथ पकड़ चम्पा बोली - “कुमारी, तुम तो कहती थीं कि कुमार जिस रोज मिलेंगे उनसे पूछूंगी कि वनकन्या किसका नाम रखा था? वह कौन औरत है? उससे क्या वादा किया है? अब किसके साथ शादी करने का इरादा है? क्या वे सब बातें भूल गईं, अब इनसे न कहोगी?” किसी तरह किसी की लौ तभी तक लगी रहती है जब तक कोई दूसरा आदमी किसी तरह की चोट उसके दिमाग पर न दे और उसके ध्यान को छेड़कर न बिगाड़े इसीलिये योगियों को एकांत में बैठना कहा है। कुँअर वीरेन्द्रसिंह और कुमारी चन्द्रकान्ता की मुहब्बत बाजारू न थी, वे दोनों एक रूप हो रहे थे; दिल ही दिल में अपनी जुदाई का सदमा एक ने दूसरे से कहा और दोनों समझ गए मगर किसी पास वाले को मालूम न हुआ, क्योंकि जुबान दोनों की बंद थी। हाँ चम्पा की बात ने दोनों को चौंका दिया, दोनों की चार आँखें जो मिल-जुलकर एक हो रही थीं हिल-डोल कर नीचे की तरफ हो गईं और सिर नीचा किए हुए दोनों कुछ-कुछ बोलने लगे। क्या जाने वे दोनों क्या बोलते थे और क्या समझते, उनकी वे ही जानें। बेसिर-पैर की टूटी-फूटी पागलों की सी बातें कौन सुने, किसके समझ में आए। न तो कुमारी चन्द्रकान्ता को कुमार से शिकायत करते बनी और न कुमार उनकी तकलीफ पूछ सके। वे दोनों पहरों आमने-सामने बैठे रहते तो शायद कहीं जुबान खुलती, मगर यहाँ दो घंटे बाद सिद्धनाथ योगी ने दोनों को फिर अलग कर दिया। लौंडी ने बाहर से आकर कहा, “कुमार, आपको सिद्धनाथ बाबाजी ने बहुत जल्द बुलाया है,चलिए देर मत कीजिए।” कुमार की यह मजाल न थी कि सिद्धनाथ योगी की बात टालते, घबराकर उसी वक्त चलने को तैयार हो गए। दोनों के दिल की दिल ही में रह गई। कुमारी चन्द्रकान्ता को उसी तरह छोड़ कुमार उठ खड़े हुए, कुमारी को कुछ कहा ही चाहते थे, तब तक दूसरी लौंडी ने पहुँचकर जल्दी मचा दी। आखिर कुँअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह उस कमरे के बाहर आए। दूर से सिद्धनाथ बाबा दिखाई पड़े जिन्होंने कुमार को अपने पास बुलाकर कहा - “कुमार, हमने तुमको यह नहीं कहा था कि दिन भर चन्द्रकान्ता के पास बैठे रहो। दोपहर हुआ चाहती है, जिन लोगों को खोह के बाहर छोड़ आए हो वे बेचारे तुम्हारी राह देखते होंगे।” कुमार – (सूरज की तरफ देखकर) जी हाँ दिन तो… बाबा - दिन तो क्या? कुमार – (सकपकाये से होकर) देर तो जरूर कुछ हो गई, अब हुक्म हो तो जाकर अपने पिता और महाराज जयसिंह को जल्दी से ले आऊँ? बाबा – हाँ जाओ उन लोगों को यहाँ ले आओ। मगर मेरी तरफ से दोनों राजाओं को कह देना कि इस खोह के अंदर उन्हीं लोगों को अपने साथ लायें जो कुमारी चन्द्रकान्ता को देख सकें या जिसके सामने वह हो सके। कुमार – बहुत अच्छा। बाबा – जाओ अब देर न करो। कुमार – प्रणाम करता हूँ। बाबा – इसकी कोई जरूरत नहीं, क्योंकि आज ही तुम फिर लौटोगे। तेज – दण्डवत। बाबा – तुमको तो जन्म भर दण्डवत करने का मौका मिलेगा, मगर इस वक्त इस बात का ख्याल रखना कि तुम लोगों की जबानी कुमारी से मिलने का हाल खोह के बाहर वाले न सुनें और आती वक्त अगर दिन थोड़ा रहे तो आज मत आना। तेज – जी नहीं हम लोग क्यों कहने लगे! बाबा – अच्छा जाओ। दोनों आदमी सिद्धनाथ बाबा से विदा हो उसी मालूमी राह से घूमते-फिरते खोह के बाहर आए। *–*–* « पीछे जायेँ | आगे पढेँ » • चन्द्रकान्ता [ होम पेज ] |
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