सामान्य हिन्दी
4. पद–विचार
♦ पद की परिभाषा –
सार्थक वर्ण या वर्णोँ के समूह को शब्द कहा जाता है। शब्द साभिप्राय होते हैँ। जब कोई सार्थक शब्द वाक्य मेँ प्रयुक्त होता है तब उसे ‘पद’ कहते हैँ। व्याकरण के नियमोँ के अनुसार विभक्ति, वचन, लिँग, काल आदि की योग्यता रखने वाला वर्णोँ का समूह ‘पद’ कहलाता है। जैसे– राम विद्यालय जायेगा। यह वाक्य ‘राम’, ‘विद्यालय’ और ‘जायेगा’ तीन पदोँ से बना है।
♦ पद–भेद :
हिन्दी में पद के पाँच भेद या प्रकार माने गये हैं –
(1) संज्ञा (2) सर्वनाम (3) क्रिया (4) विशेषण (5) अव्यय।
1. संज्ञा
‘संज्ञा’ (सम्+ज्ञा) शब्द का अर्थ है ठीक ज्ञान कराने वाला। अतः “वह शब्द जो किसी स्थान, वस्तु, प्राणी, व्यक्ति, गुण, भाव आदि के नाम का ज्ञान कराता है, संज्ञा कहलाता है।”
उदाहरणार्थ –
• स्थान—भारत, दिल्ली, जयपुर, नगर, गाँव, गली, मोहल्ला।
• वस्तुएँ—पंखा, पुस्तक, मेज, दूध, मिठाई।
• प्राणी—गाय, चूहा, तितली, पक्षी, मछली, बिल्ली।
• व्यक्ति—राम, श्याम, कृष्ण, महेश, सुरेश।
• गुण, अवस्था या भाव—बचपन, बुढ़ापा, मिठास, सर्दी, सौन्दर्य, अपनत्व।
♦ संज्ञा के भेद –
हिन्दी भाषा मेँ संज्ञा के मुख्य रूप से तीन भेद ही माने गये हैँ—(1)व्यक्तिवाचक संज्ञा (2) जातिवाचक संज्ञा (3) भाववाचक संज्ञा। द्रव्यवाचक और समूहवाचक संज्ञा शब्दोँ को जातिवाचक संज्ञा ही माना जाता है।
1. व्यक्तिवाचक संज्ञा –
जिन संज्ञा शब्दोँ से किसी एक ही व्यक्ति, वस्तु या स्थान विशेष का पता चलता है, उन शब्दोँ को व्यक्तिवाचक संज्ञा कहते हैँ। जैसे –
• व्यक्तियोँ के नाम—राम, श्याम, मोहन, कमला, कविता, सुशीला, शबनम आदि।
• दिशाओँ के नाम—उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, नैऋत्य, आग्नेय आदि।
• देशोँ के नाम—भारत, पाकिस्तान, चीन, जापान, नेपाल आदि।
• नदियोँ के नाम—गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी आदि।
• सागरोँ के नाम—अरब सागर, हिन्द महासागर, लाल सागर आदि।
• पर्वतोँ के नाम—हिमालय, सतपुड़ा, अरावली, विंध्याचल आदि।
• नगरोँ के नाम—अजमेर, आगरा, मथुरा, दिल्ली, लखनऊ आदि।
• समाचार–पत्रोँ के नाम—राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, दैनिक अम्बर, अमर उजाला आदि।
• पुस्तकोँ के नाम—रामायण, महाभारत, रामचरितमानस, साकेत, अंधायुग आदि।
• दिनोँ के नाम—सोमवार, मंगलवार, बुधवार आदि।
• महीनोँ के नाम—जनवरी, फरवरी, चैत्र, वैशाख आदि।
• ग्रह–नक्षत्रोँ के नाम—सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, शनि, मंगल आदि।
• त्यौहारोँ के नाम—होली, दीपावली, तीज, ईद, गणगौर आदि
2. जातिवाचक संज्ञा –
जिन संज्ञा शब्दोँ से एक जाति के सभी प्राणियोँ या पदार्थोँ अथवा सम्पूर्ण जाति, वर्ग या समुदाय का बोध होता है, उन्हेँ जातिवाचक संज्ञा कहते हैँ। जैसे– मनुष्य, घोड़ा, नगर, पर्वत, स्कूल, गाय, फूल, पुस्तक, पशु, पक्षी, छात्र, खिलाड़ी, सब्जी, माता, मन्त्री, पण्डित, जुलाहा, अध्यापक, कवि, लेखक, जन, बहिन, बेटा, पहाड़, स्त्री, क्षत्रिय, प्रभु, वीर, विद्वान, चोर, शिशु, ठग, सेना, दल, कुंज, कक्षा, भीड़, सोना, दूध, पानी, घी, तेल आदि।
3. भाववाचक संज्ञा –
जिन संज्ञा शब्दोँ से किसी व्यक्ति, वस्तु और स्थान के गुण, दोष, भाव, दशा, व्यापार आदि का बोध होता है, उन्हेँ भाववाचक संज्ञा कहते हैँ। जैसे– सत्य, बचपन, बुढ़ापा, सफलता, मिठास, मित्रता, हरियाली, मुस्कुराहट, लघुता, प्रभुता, वीरता, चूक, लड़कपन, जवानी, ठगी, डर आदि।
भाववाचक संज्ञा मुख्य रूप से पाँच प्रकार से बनती है। जैसे –
(1) जातिवाचक संज्ञा से भाववाचक संज्ञा –
मानव - मानवता
दास - दासता
बच्चा - बचपन
स्त्री - स्त्रीत्व
व्यक्ति - व्यक्तित्व
क्षत्रिय - क्षत्रियत्व
प्रभु - प्रभुता, प्रभुत्व
वीर - वीरता, वीरत्व
बंधु - बंधुत्व
देव - देवता, देवत्व
पशु - पशुता, पशुत्व
ब्राह्मण - ब्राह्मणत्व
मित्र - मित्रता
विद्वान - विद्वता
चोर - चोरी
युवक - यौवन
मनुष्य - मनुष्यता, मनुष्यत्व।
(2) सर्वनाम से भाववाचक संज्ञा –
अजनबी - अजनबीपन
मम - ममता, ममत्व
स्व - स्वत्व
आप - आपा
पराया - परायापन
सर्व - सर्वस्व
निज - निजता, निजत्व
अहं - अहंकार
अपना - अपनापन, अपनत्व।
(3) क्रिया से भाववाचक संज्ञा –
खेलना - खेल
थकना - थकावट
लड़ना - लड़ाई
बहना - बहाव
भूलना - भूल
हँसना - हँसी
देखना - दिखावा
सुनना - सुनवाई
चुनना - चुनाव
धोना - धुलाई
पढ़ना - पढ़ाई
रुकना - रुकावट
लिखना - लिखाई
जीतना - जीत
जीना - जीवन
सीना - सिलाई
जलना - जलन
सजाना - सजावट
बसना - बसावट
गाना - गान
बैठना - बैठक
बिकना - बिक्री
कमाना - कमाई।
(4) विशेषण से भाववाचक संज्ञा –
आवश्यक - आवश्यकता
युवक - यौवन
छोटा - छुटपन
सुन्दर - सुन्दरता, सौन्दर्य
शिष्ट - शिष्टता
ललित - लालित्य
सफेद - सफेदी
निपुण - निपुणता
भयानक - भय
काला - कालिम
लाल - लालिमा
सूक्ष्म - सूक्ष्मता
हरा - हरियाली
मीठा - मिठास
महान - महानता
स्वस्थ - स्वास्थ्य
लम्बा - लम्बाई
भूखा - भूख।
(5) अव्यय शब्दोँ से भाववाचक संज्ञा –
धिक् - धिक्कार
ऊपर - ऊपरी
दूर - दूरी
चतुर - चातुर्य
निकट - निकटता
मना - मनाही
नीचे - नीचाई
तेज - तेजी
बाहर - बाहरी।
2. सर्वनाम
♦ परिभाषा –
संज्ञा के स्थान पर आने वाले शब्दोँ को सर्वनाम कहते हैँ।
सर्वनाम का अभिधार्थ है—सबका नाम। जो सबके नाम के स्थान पर आये, वे सर्वनाम कहलाते हैं। जैसे– मैँ, तुम, आप, यह, वह, हम, उसका, उसकी, वे, क्या, कुछ, कौन आदि।
वाक्य मेँ संज्ञा की पुनरुक्ति को दूर करने के लिए ही सर्वनाम का प्रयोग किया जाता है। सर्वनाम भाषा को सहज, सरल, सुन्दर एवं संक्षिप्त बनाते हैँ। सर्वनाम के अभाव मेँ भाषा अटपटी लगती है।
उदाहरणार्थ –
राम स्कूल गया है। स्कूल से आते ही राम राम का और मित्र का काम करेगा। फिर राम और मित्र खेलेँगे।
यह वाक्य कितना अटपटा, अनगढ़ और असुन्दर है। अब सर्वनामोँ से युक्त वाक्य देखिए–
राम स्कूल गया है। वहाँ से आते ही वह अपने मित्र के घर जायेगा। फिर दोनोँ अपना–अपना काम करेँगे। फिर दोनोँ खेलेँगे।
♦ सर्वनाम के भेद –
सर्वनाम के निम्नलिखित छः भेद होते हैँ –
(1) पुरुषवाचक – मैँ (हम), तुम (तू, आप), वह (यह, आप)
(2) निश्चयवाचक – यह (निकटवर्ती), वह (दूरवर्ती)
(3) अनिश्चयवाचक – कोई (प्राणिवाचक), क्या (अप्राणिवाचक)
(4) सम्बन्धवाचक – जो ... सो (वह)
(5) प्रश्नवाचक – कौन (प्राणिवाचक), क्या (अप्राणिवाचक)
(6) निजवाचक – आप (स्वयं, खुद)।
1. पुरुषवाचक सर्वनाम–
जिस सर्वनाम का प्रयोग वक्ता (बोलने वाला) या लेखक स्वयं अपने लिए अथवा श्रोता या पाठक के लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए करता है, उसे पुरुषवाचक सर्वनाम कहते हैँ। जैसे– उसने, मुझे, तुम आदि।
पुरुषवाचक सर्वनाम के तीन भेद होते हैँ–
(1) उत्तम पुरुषवाचक सर्वनाम–
जिन सर्वनामोँ का प्रयोग बोलने वाला या लिखने वाला अपने लिए करता है, उन्हेँ उत्तम पुरुषवाचक सर्वनाम कहते हैँ। जैसे– मैँ, मेरा, हमारा, मुझको, मुझे, मैँने आदि।
(2) मध्यम पुरुषवाचक सर्वनाम–
जिस सर्वनाम का प्रयोग बोलने वाला या लिखने वाला सुनने वाले या पढ़ने वाले के लिए करे, उसे मध्यम पुरुषवाचक सर्वनाम कहते हैँ। जैसे– तू, तुम, आप, तुझको, तुम्हारा, तुमने आदि।
(3) अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम–
जिन सर्वनाम शब्दोँ का प्रयोग बोलने वाला किसी अन्य व्यक्ति के लिए करे, उन्हेँ अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम कहते हैँ। जैसे– यह, वह, वे, उसे, उसको, इसने, उसने, उन्होँने, उनका आदि।
2. निश्चयवाचक सर्वनाम–
जिन सर्वनाम शब्दोँ से किसी दूरवर्ती या निकटवर्ती व्यक्तियोँ, प्राणियोँ, वस्तुओँ और घटना–व्यापार का निश्चित बोध होता है, उन्हेँ निश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैँ। जैसे– यह, वह, ये, वे, इन्होँने, उन्होँने आदि।
निकटवर्ती के लिए ‘यह’ तथा दूरवर्ती के लिए ‘वह’ का प्रयोग होता है। इस सर्वनाम को ‘संकेतवाचक’ या ‘निर्देशक सर्वनाम’ भी कहते हैँ।
3. अनिश्चयवाचक सर्वनाम–
जिन सर्वनामोँ से किसी निश्चित व्यक्ति, वस्तु या घटना का ज्ञान नहीँ होता, उन्हेँ अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैँ। जैसे– कोई, कुछ, किसी आदि।
प्राणियोँ के लिए ‘कोई’ व ‘किसी’ तथा पदार्थोँ के लिए ‘कुछ’ का प्रयोग किया जाता है। जैसे–
• रास्ते मेँ कुछ खा लेना।
• सम्भवतः कोई आया है।
• वहाँ किसी से भी पूछ लेना।
4. सम्बन्धवाचक सर्वनाम–
जो सर्वनाम शब्द किसी वाक्य मेँ प्रयुक्त संज्ञा या सर्वनाम का अन्य संज्ञा या सर्वनाम के साथ परस्पर सम्बन्ध का बोध कराते हैँ, उन्हेँ सम्बन्धवाचक सर्वनाम कहते हैँ। जैसे– जो, जिनका, उसका आदि।
• जो करता है, वह भरता है।
• जिसका खाते हो उसी को आँख दिखाते हो।
• जैसा करोगे वैसा भरोगे।
• जिसकी लाठी उसकी भैँस।
• जिसको आपने बुलाया था, वह आया है।
5. प्रश्नवाचक सर्वनाम–
वह सर्वनाम जिसका प्रयोग किसी व्यक्ति, प्राणी, वस्तु, क्रिया या व्यापार आदि के सम्बन्ध मेँ प्रश्न करने के लिए किया जाता है, प्रश्नवाचक सर्वनाम कहलाता है। जैसे– कौन, क्या, कब, क्योँ, किसको, किसने आदि।
व्यक्ति या प्राणी के सम्बन्ध मेँ प्रश्न करते समय ‘कौन, किसे, किसने’ का प्रयोग किया जाता है, जबकि वस्तु या क्रिया–व्यापार के सम्बन्ध मेँ प्रश्न करते समय ‘क्या, कब’ आदि का प्रयोग किया जाता है। जैसे–
• देखो, कौन आया है?
• यह गिलास किसने तोड़ा?
• आप खाने मेँ क्या लेँगे?
• जयपुर कब जा रहे हो?
6. निजवाचक सर्वनाम–
वह सर्वनाम शब्द जिनका प्रयोग बोलने वाला या लिखने वाला स्वयं अपने लिए करता है, निजवाचक सर्वनाम कहलाता है। जैसे– आप, अपने आप, अपना, स्वयं, खुद, मैँ, हम, हमारा आदि।
• हमेँ अपना कार्य स्वयं करना चाहिए।
• मैँ अपना काम खुद कर लूँगा।
• मैँ स्वयं आ जाऊँगा।
• हमारा प्यारा राजस्थान।
♦ सर्वनाम शब्दोँ के रूपान्तर–नियम :
(1) सर्वनाम का प्रयोग संज्ञा के स्थान पर होता है। अतः किसी भी सर्वनाम शब्द का लिँग और वचन उस संज्ञा के अनुरूप रहेगा जिसके स्थान पर उसका प्रयोग हुआ है। जैसे–
राम और उसका बेटा आया था।
(2) सर्वनाम का प्रयोग एकवचन और बहुवचन दोनोँ मेँ होता है। जैसे– मैँ (हम), वह (वे), यह (ये), इसका (इनका)।
(3) सम्बन्धकारक के अतिरिक्त अन्य किसी कारक के कारण सर्वनाम शब्द का लिँग परिवर्तन नहीँ होता। जैसे–
• मैँ पढ़ता हूँ।
मैँ पढ़ती हूँ।
• वह आया।
वह आई।
• तुम स्कूल जाते हो।
तुम स्कूल जाती हो।
(4) सर्वनाम से सम्बोधन कारक नहीँ होता, क्योँकि किसी को सर्वनाम द्वारा पुकारा नहीँ जाता।
(5) आदर के अर्थ मेँ एक व्यक्ति के लिए भी अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम का प्रयोग बहुवचन मेँ होता है। जैसे–
• तुलसीदास महान कवि थे, उन्होँने हिँदी साहित्य को महान रचनाएँ प्रदान कीँ।
(6) उत्तम पुरुष और मध्यम पुरुष सर्वनाम के बहुवचन का प्रयोग एक व्यक्ति के लिए भी होता है। जैसे–
• हम (मैँ) आ रहे हैँ।
• आप (तू) अवश्य आना।
• तुम (तू) जा सकते हो।
(7) ‘तू’ सर्वनाम का प्रयोग अत्यन्त निकटता या आत्मीयता प्रकट करने के लिए, अपने से आयु व सम्बन्ध मेँ छोटे व्यक्ति के लिए या कभी–कभी तिरस्कार प्रदर्शन करने के लिए एवं ईश्वर के लिए भी किया जाता है। जैसे–
• माँ! तू क्या कर रही है?
• अरे नालायक! तू अब तक कहाँ था?
• हे प्रभु! तू मेरी प्रार्थना कब सुनेगा?
(8) मुझ, तुझ, तुम, उस, इन आदि सर्वनामोँ मेँ निश्चयार्थ के लिए ‘ई’ (ी) जोड़ देते हैँ। जैसे– उस (उसी), तुझ (तुझी), तुम (तुम्हीँ), इन (इन्हीँ)।
(9) मैँ, तुम, आप, वह, यह, कौन आदि सर्वनामोँ का निज–भेद उनके क्रिया–रूपोँ से जाना जाता है। जैसे–
• वह पढ़ रहा है।
• वह पढ़ रही है।
(10) पुरुषवाचक सर्वनामोँ के साथ ‘को’ लगने पर उनके रूप मेँ अन्तर आ जाता है। जैसे–
• मैँ (को) मुझको या मुझे।
• तू (को) तुझको या तुझे।
• यह (को) इसको या इसे।
• ये (को) इनको या इन्हेँ।
• वह (को) उसको या उसे।
• वे (को) उनको या उन्हेँ।
(11) अधिकार अथवा अभिमान प्रकट करने के लिए आजकल ‘मैँ’ की बजाय ‘हम’ का प्रयोग चल पड़ा है, जो व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध है। जैसे–
• पिता के नाते हमारा भी कुछ कर्त्तव्य है।
• शांत रहिए, अन्यथा हमेँ कड़ा रुख अपनाना पड़ेगा।
(12) जहाँ ‘मैँ’ की जगह ‘हम’ का प्रयोग होने लगा है, वहाँ ‘हम’ के बहुवचन के रूप मेँ ‘हम लोग’ या ‘हम सब’ का प्रयोग प्रचलित है।
(13) ‘तुम’ सर्वनाम के बहुवचन के रूप मेँ ‘तुम सब’ का प्रचलन हो गया है। जैसे–
• रमेश! तुम यहाँ आओ।
• अरे रमेश, सुरेश, दिनेश! तुम सब यहाँ आओ।
(14) ‘मैँ’, ‘हम’ और ‘तुम’ के साथ ‘का’, ‘के’, ‘की’ की जगह ‘रा’, ‘रे’, ‘री’ प्रयुक्त होते हैँ। जैसे– मेरा, मेरी, मेरे, तुम्हारा, तुम्हारे, तुम्हारी, हमारा, हमारे, हमारी।
(15) सर्वनाम शब्दोँ के साथ विभक्ति चिह्न मिलाकर लिखे जाने चाहिए। जैसे– मुझको, उसने, हमसे आदि।
(16) यदि सर्वनाम के बाद दो विभक्ति चिह्न आते हैँ तो पहला मिलाकर तथा दूसरा अलग रखा जाना चाहिए। जैसे– उनके लिए, उन पर से, हममेँ से, उनके द्वारा आदि।
(17) यदि सर्वनाम तथा विभक्ति चिह्न के बीच ‘ही’, ‘तक’ आदि कोई निपात आ जाता है तो विभक्ति को अलग लिखा जाएगा। जैसे– आप ही के लिए, उन तक से आदि।
♦ सर्वनामोँ के पुनरुक्ति रूप :
कुछ सर्वनाम पुनरावृत्ति के साथ प्रयोग मेँ आते हैँ। ऐसे स्थलोँ पर अर्थ मेँ विशिष्टता या भिन्नता आ जाती है। जैसे–
• जो—जो–जो आता जाए, उसे बिठाते जाओ।
• कोई—कोई–कोई तो बिना बात भागा चला जा रहा था।
• क्या—हमारे साथ क्या–क्या हुआ, यह न पूछो।
• कौन—मेले मेँ कौन–कौन चलेगा?
• किस—किस–किसको भूख लगी है?
• कुछ—मुझे कुछ–कुछ याद आ रहा है।
• अपना—अपना–अपना सामान लो और चलते बनो।
• आप—यजमान आप–आप ही खाए जा रहे थे, मेहमानोँ की कहीँ कोई पूछ नहीँ थी।
• वह—जिसे मिठाई न मिली हो, वह–वह रूक जाओ।
• कहाँ—मैँने तुम्हेँ कहाँ–कहाँ नहीँ ढूँढा।
कुछ सर्वनाम संयुक्त रूप मेँ प्रयुक्त होते हैँ। जैसे–
• कोई–न–कोई—रात के समय कोई–न–कोई प्रबंध अवश्य हो जायेगा।
• कुछ–न–कुछ—घबराओ नहीँ, कुछ–न–कुछ गाड़ी तो चलेगी ही।
3. विशेषण
♦ परिभाषा –
संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता (गुण, दोष, संख्या, रंग, आकार–प्रकार आदि) बताने वाले शब्दोँ को विशेषण कहते हैँ। जैसे– मोटा, पतला, कौन आदि।
उदाहरणार्थ–
• एक किलो चीनी लाओ।
• सफेद गाय कम दूध देती है।
• बच्चा होशियार है।
• कुछ लोग सो रहे हैँ।
• मेरी कक्षा मेँ बीस विद्यार्थी हैँ।
उपर्युक्त वाक्योँ मेँ एक किलो, सफेद, कम, होशियार, कुछ, बीस क्रमशः चीनी, गाय, दूध, बच्चे, लोग तथा विद्यार्थी की विशेषता बता रहे हैँ, अतः ये सभी विशेषण हैँ।
♦ विशेष्य और विशेषण –
जिस संज्ञा या सर्वनाम शब्द की विशेषता प्रकट की जाती है, उसे विशेष्य और जो विशेषता–सूचक शब्द होता है, उसे विशेषण कहते हैँ। विशेषण शब्द प्रायः विशेष्य से पहले आता है। जैसे –
• मुझे मीठे व्यंजन अच्छे लगते हैँ।
• काली बिल्ली को देखो।
• दो किलो दूध लाओ।
उपर्युक्त वाक्योँ मेँ क्रमशः ‘व्यंजन’, ‘बिल्ली’ और ‘चीनी’ विशेष्य तथा ‘मीठे’, ‘काली’ और ‘दो किलो’ शब्द विशेषण हैँ। कभी–कभी विशेषण शब्द विशेष्य के बाद भी प्रयुक्त होते हैँ। जैसे –
• यह छात्र बुद्धिमान है।
• ये फल बहुत मीठे हैँ।
• वह व्यक्ति योग्य है।
• रमेश ईमानदार है।
♦ प्रविशेषण –
जो विशेषण शब्द विशेषणोँ की भी विशेषता बतलाते है, उन्हेँ प्रविशेषण कहते हैँ।
उदाहरणार्थ –
• यह लड़का बहुत अच्छा है।
(‘बहुत’ प्रविशेषण)
• आप बड़े भोले हैँ।
(‘बड़े’ प्रविशेषण)
• मैँ पूर्ण स्वस्थ हूँ।
(‘पूर्ण’ प्रविशेषण)
• मोहनी अत्यन्त सुन्दरी है।
(‘अत्यन्त’ प्रविशेषण)
• घर बिल्कुल सुनसान था।
(‘बिल्कुल’ प्रविशेषण)
• आज बहुत अधिक सर्दी है।
(‘बहुत’ प्रविशेषण)
क्रिया–विशेषणोँ की विशेषता बताने वाले विशेषणोँ को भी ‘प्रविशेषण’ कहा जाता है। जैसे–
• गरिमा बहुत धीरे चलती है।
(‘बहुत’ क्रिया–प्रविशेषण)
• गावस्कर बिल्कुल धीरे खेलता था।
(‘बिल्कुल’ क्रिया–प्रविशेषण)
• मैँ ठीक सात बजे आऊँगा।
(‘ठीक’ क्रिया–प्रविशेषण)
• मैँ बहुत अधिक तेज नहीँ चल सकता।
(‘बहुत अधिक’ क्रिया–प्रविशेषण)।
♦ उद्देश्य विशेषण और विधेय विशेषण –
वाक्य मेँ विशेषण की स्थिति दो प्रकार की होती है– विशेष्य से पहले तथा विशेष्य के बाद। इस स्थिति के आधार पर विशेषण दो प्रकार के होते हैँ–
(1) उद्देश्य विशेषण – विशेष्य से पहले आने वाले विशेषण उद्देश्य–विशेषण या विशेष्य–विशेषण कहलाते हैँ। स्थिति की दृष्टि से ये विशेषण वाक्य के उद्देश्य–भाग के अन्तर्गत आते है। जैसे –
• चतुर बालक अपना काम कर लेते हैँ।
• भला बालक है, मदद कर दीजिए।
• बुद्धिमान आदमी सर्वत्र पूजा जाता है।
(2) विधेय विशेषण – विशेष्य के बाद आने वाले विशेषण को ‘विधेय–विशेषण’ कहते हैँ। ये विशेषण क्रिया से पहले और वाक्य के विधेय–भाग के अन्तर्गत आते हैं। जैसे –
• वह बालक चतुर है।
• सुनिता बहुत अच्छा गाती है।
• उसकी पेन्ट नीली है।
• रेखा घर की शोभा बढ़ाती है।
ध्यातव्य – विशेषण चाहे, ‘उद्देश्य–विशेषण’ हो, चाहे ‘विधेय–विशेषण’, दोनोँ ही स्थितियोँ मेँ उनका रूप संज्ञा या सर्वनाम के अनुसार बदलता है। उदाहरणार्थ –
उद्देश्य विशेषणोँ के रूप–
• लंबी युवती खेल रही है।
(विशेषण और विशेष्य दोनोँ स्त्री एकवचन)
• लंबी युवतियाँ खेल रही हैँ।
(स्त्रीलिँग, विशेषण अपरिवर्तित रहता है)
• लंबा लड़का जा रहा है।
(विशेषण–विशेष्य दोनोँ पुरुष एकवचन)
• लंबे लड़के जा रहे हैँ।
(विशेषण–विशेष्य दोनोँ पुरुष बहुवचन)
विधेय विशेषणोँ के रूप –
• वह लड़का लंबा है।
(विशेषण–विशेष्य दोनोँ पुरुष एकवचन)
• वे लड़के लंबे हैँ।
(विशेषण–विशेष्य दोनोँ पुरुष बहुवचन)
• वह लड़की मोटी है।
(विशेषण–विशेष्य दोनोँ स्त्री. एकवचन)
• वे लड़कियाँ मोटी हैँ।
(स्त्रीलिँग, विशेषण अपरिवर्तित रहता है।)
♦ विशेषण के भेद :
विशेषण के पाँच भेद होते हैँ –
1. गुणवाचक विशेषण (Adjective of Quality)
2. परिमाणवाचक विशेषण (Adjective of Quantity)
3. संख्यावाचक विशेषण (Numerical Adjective)
4. सार्वनामिक विशेषण या संकेतवाचक अथवा निर्देशवाचक विशेषण (Demonstrative Adjective)
5. व्यक्तिवाचक विशेषण।
1. गुणवाचक विशेषण –
संज्ञा अथवा सर्वनाम के किसी भी प्रकार के गुण से सम्बन्धित विशेषता का बोध कराने वाले शब्दोँ को गुणवाचक विशेषण कहते हैँ। जैसे–
वह मोटा आदमी है।
उसके कोट का रंग नीला है।
वह गोरी लड़की है।
इन वाक्योँ मेँ ‘मोटा’, ‘नीला’, ‘गोरी’ शब्द गुणवाचक विशेषण हैँ।
यहाँ ‘गुण’ का अर्थ केवल अच्छी विशेषताओँ से नहीँ है। यहाँ ‘गुण’ का तात्पर्य है– किसी भी वस्तु या व्यक्ति की विशेष स्थिति, विशेष दशा, विशेष दिशा, रंग, गंध, काल, स्थान, आकार, रूप, स्वाद, बुराई, अच्छाई आदि। अतः जो विशेषण किसी संज्ञा या सर्वनाम की उपर्युक्त विशेषताओँ का बोध कराए, उसे गुणवाचक विशेषण कहते हैँ। कुछ प्रचलित प्रमुख गुणवाचक विशेषण इस प्रकार हैँ–
• गुणबोधक—अच्छा, भला, शिष्ट, नम्र, सुशील, विनीत, दानी, ईमानदार, परिश्रमी, दयालु, सच्चा, सरल आदि।
• दोषबोधक—बुरा, खराब, झूठा, अशिष्ट, उद्धत, ढीठ, दुश्चरित्र, कंजूस, कामचोर, पापी, दुरात्मा, निर्दयी आदि।
• रंगबोधक—काला, पीला, नीला, हरा, लाल, गुलाबी, सुनहरा, चमकीला, हरित, रक्त, जामुनी, बैँगनी, खाकी, सुर्मई, बहुरंगी, सतरंगी, नवरंग आदि।
• कालबोधक—आधुनिक, प्राचीन, ताजा, बासी, प्रागैतिहासिक, नवीन, नूतन, क्षणिक, दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, वार्षिक आदि।
• स्थानबोधक—ग्रामीण, शहरी, भारतीय, देशी, विदेशी, बनारसी, रूसी, जापानी, चीनी, नेपाली, बाहरी, अमरोही, लुधियानवी, जयपुरी, लाहौरी, जालंधरी, इलाहाबादी आदि।
• गन्धबोधक—खुशबूदार, सुगन्धित, मधुगन्धी, सौँधी, महक, बदबूदार, दुर्गन्धित, गंधहीन आदि।
• दिशाबोधक—उत्तरी, दक्षिणी, पूर्वी, पश्चिमी, पश्चिमोत्तरी, पाश्चात्य, पौर्वात्य, ईशानकोणीय, ऊपरी, भीतरी, बाहरी आदि।
• अवस्थाबोधक—गीला, सूखा, नम, शुष्क, आर्द्र, नमीदार, पनीला, भुना हुआ, तला हुआ, जला हुआ, पका हुआ आदि।
• आयुबोधक—युवा, वृद्ध, बाल, किशोर, अधेड़, प्रौढ़, तरुण आदि।
• दशाबोधक—रोगी, निरोगी, स्वस्थ, अस्वस्थ, बीमार, रुग्ण, भला–चंगा, तन्दुरुस्त, सुधरा हुआ, बिगड़ा हुआ, फटा हुआ, नया, पुराना आदि।
• आकारबोधक—छोटा, बड़ा, मोटा, लम्बा, ठिगना, बौना, गोल, ऊँचा, चौड़ा, तिकोना, चौकोर, षट्कोण, अण्डाकार, त्रिभुज, सर्पाकार, गोलाकार, वृत्ताकार आदि।
• स्पर्शबोधक—कठोर, कोमल, मुलायम, खुरदरा, मखमली, नर्म, सख्त, ठण्डा, गर्म, चिकना, स्निग्ध आदि।
• स्वादबोधक—खट्टा, मीठा, मधुर, कड़वा, नमकीन, कसैला आदि।
2. परिमाणवाचक विशेषण –
जिस विशेषण शब्द से संज्ञा अथवा सर्वनाम की माप–तोल या मात्रा संबंधी विशेषता का ज्ञान हो, उसे परिमाणवाचक विशेषण कहते हैँ। जैसे– कुछ, थोड़ा, सब आदि।
• मैँ प्रतिदिन चार लीटर दूध लाता हूँ।
• वह बाद मेँ कुछ घी खाता है।
यहाँ चार लीटर दूध का माप है। कुछ घी का माप है। इन दोनोँ वस्तुओँ को गिना नहीँ जा सकता, केवल मापा जा सकता है। इसलिए ये परिमाणवाचक विशेषण हैँ।
परिणामवाचक विशेषण दो प्रकार के होते हैँ–
(1) निश्चित परिमाणवाचक–
जो विशेषण संज्ञा या सर्वनाम के निश्चित परिमाण का बोध कराते हैँ, उन्हेँ निश्चित परिमाणवाचक विशेषण कहते हैँ। जैसे–
पाँच किलो, दस क्विँटल, एक तोला सोना, दो मीटर कपड़ा, दस ग्राम सोना आदि।
(2) अनिश्चित परिणामवाचक–
जो विशेषण संज्ञा या सर्वनाम के निश्चित परिमाण का नहीँ अपितु अनिश्चित परिमाण का बोध कराते हैँ, उन्हेँ अनिश्चित परिमाणवाचक विशेषण कहते हैँ। जैसे–
कुछ आम, थोड़ा दूध, बहुत घी, कम चीनी, ढेर सारा मक्खन, कई किलो दही, पचासोँ मन गेहूँ, तनिक अचार, जरा–सा नमक आदि।
3. संख्यावाचक विशेषण –
जो विशेषण किसी व्यक्ति, प्राणी अथवा वस्तु (संज्ञा या सर्वनाम) की संख्या से सम्बन्धित विशेषता का बोध कराएँ, उन्हेँ संख्यावाचक विशेषण कहते हैँ। जैसे– तीसवाँ, साढ़े चार, प्रत्येक, कम, सब आदि।
संख्यावाचक विशेषण मुख्यतः दो प्रकार के होते हैँ–
(क) निश्चित संख्यावाचक–
जो निश्चित संख्या का बोध कराते हैँ। जैसे– पहला, तीसरा, पाँच छात्र, सात किताबेँ आदि। निश्चित संख्यावाचक विशेषण के निम्नलिखित उपभेद होते हैँ–
(i) गणनावाचक—
जिनसे अंक या गिनती का ज्ञान हो। जैसे– एक, पाँच, दस, बारह, आधा, चौथाई, सवा पाँच, साढ़े सात आदि। गणना वाचक विशेषण के भी दो भेद किए जा सकते हैँ–
(अ) अपूर्ण संख्यावाचक विशेषण—
1/4 (पाव), 1/2 (आधा), 1–1/4 (सवा), 1–1/2 (डेढ़), 1–3/4 (पौने दो), 2–1/2 (ढ़ाई), 3–1/2 (साढ़े तीन) आदि विशेषण अपूर्ण संख्याबोधक हैँ।
(ब) पूर्ण संख्यावाचक विशेषण—
एक, दो, तीन आदि पूर्ण संख्याबोधक हैँ।
(ii) क्रमवाचक—
जिस विशेषण से क्रम का ज्ञान हो, उसे क्रमवाचक विशेषण कहते हैँ। जैसे– पहला, तीसरा, चौथा, छठा, आठवाँ आदि।
(iii) आवृत्तिवाचक—
जिस विशेषण से किसी संज्ञा या सर्वनाम की तहोँ या गुणन का बोध हो अथवा जिससे यह ज्ञात होता है कि संज्ञा या सर्वनाम कितने गुना है। जैसे– दुगुना, चौगुना, पाँच गुना, इकहरा, दुहरा, तिहरा आदि।
(iv) समुदायवाचक—
जिस विशेषण से कुछ संख्याओँ के इकट्ठे समूह अथवा समुदाय का बोध हो, उसे समुदायवाचक विशेषण कहते हैँ। जैसे– दोनोँ, तीनोँ, पाँचोँ, आठोँ, दसोँ, तीनोँ–के–तीनोँ, सभी, सब–के–सब आदि।
(v) समुच्चयवाचक—
संज्ञा या सर्वनाम के किसी प्रचलित समुच्चय को प्रकट करने वाले विशेषण समुच्चयवाचक कहलाते हैँ। जैसे– दर्जन, युग्म, जोड़ा, पच्चीसी, चालीसा, शतक, सैँकड़ा, सतसई आदि।
(vi) भिन्नतावाचक—
जो विशेषण भिन्नता दर्शाते हुए संज्ञा या सर्वनाम (विशेष्य) की विशेषता बतलाते हैँ, उन्हेँ भिन्नतावाचक विशेषण कहते हैँ। जैसे– प्रत्येक, हरेक, हर मास, हर वर्ष, एक–एक, चार–चार आदि।
(ब) अनिश्चित संख्यावाचक—
जो विशेषण संज्ञा या सर्वनाम की किसी निश्चित संख्या का ज्ञान नहीँ कराते, बल्कि उसका अस्पष्ट अनुमान प्रस्तुत करते हैँ, उन्हेँ अनिश्चित संख्यावाचक विशेषण कहते हैँ। जैसे– कुछ छात्राएँ, थोड़े–से गाँव, अधिक लड़के, काफी धन, कई लोग, बहुत–सा पैसा, हजारोँ आदमी, पाँच–छः दर्शक आदि।
वाक्य–प्रयोग—
• कुछ बच्चे खेल रहे हैँ।
• तुम्हारी थैली मेँ बहुत संतरे हैँ, मेरी मेँ थोड़े।
• रैली मेँ हजारोँ लोग पहुँचे।
• गुंडोँ ने सैकड़ोँ दुकानेँ फूँक डाली।
• वहाँ कोई पाँच सौ खिलाड़ी होँगे।
परिमाणवाचक और संख्यावाचक विशेषण मेँ अन्तर :
यदि विशेष्य गिनी जाने वाली वस्तु हो तो, उसके साथ प्रयुक्त विशेषण संख्यावाचक माना जाता है, अन्यथा उसे परिमाणवाचक विशेषण माना जाता है। जैसे–
• मोहित दस केले खा गया।
(संख्यावाचक)
• मोहित दो किलो दूध पी गया।
(परिमाणवाचक)
• मैँने अधिक सेब खा लिए।
(संख्यावाचक)
• कुछ दूध मेरे लिए भी छोड़ देना।
(परिमाणवाचक)
• थोड़े बच्चे दिखाई दे रहे हैँ।
(संख्यावाचक)
• थोड़ा घी लाया हूँ।
(परिमाणवाचक)
4. सार्वनामिक विशेषण—
जो सर्वनाम, अपने सार्वनामिक रूप मेँ ही संज्ञा के विशेषण के रूप मेँ प्रयुक्त होते हैँ अथवा जो सर्वनाम शब्द संज्ञा की ओर संकेत करते हैँ, उन्हेँ सर्वनामिक विशेषण या संकेतवाचक विशेषण कहते हैँ। जैसे– ये, वे, कौन, उस आदि।
• यह मेरी पुस्तक है।
• कोई व्यक्ति गा रहा है।
• कौन लोग आये थे?
• वह मकान अच्छा है।
• इन छात्रोँ को पुस्तकेँ दो।
उपर्युक्त वाक्योँ मेँ ‘यह’, ‘कोई’, ‘कौन’, ‘वह’ और ‘इन’ शब्द क्रमशः ‘पुस्तक’, ‘व्यक्ति’, ‘लोग’, ‘मकान’ और ‘छात्रोँ’ की ओर संकेत करते हैँ अथवा उनकी विशेषता प्रकट करते हैँ। अतः ये सार्वनामिक या संकेतवाचक विशेषण हैँ।
सार्वनामिक विशेषण के चाय भेद हैँ–
(1) निश्चयवाचक/संकेतवाचक सार्वनामिक विशेषण–
ये संज्ञा या सर्वनाम की ओर निश्चयात्मक संकेत करते हैँ। जैसे–
• यह किताब उठा दो।
• उस घर को देखो।
(2) अनिश्चयवाचक सार्वनामिक विशेषण–
ये संज्ञा या सर्वनाम की ओर अनिश्चयात्मक संकेत करते हैँ। जैसे–
• कोई आदमी आपसे मिलने आया है।
• किसी से कुछ मत लेना।
(3) प्रश्नवाचक सार्वनामिक विशेषण–
ये विशेषण संज्ञा या सर्वनाम से संबंधित प्रश्नोँ का बोध कराते हैँ। जैसे–
• कौन–सी फिल्म देखोगे?
• कौन लड़की गा रही है?
• किस पुस्तक को पढ़ूँ?
• क्या वस्तु लाकर मैँ उसे प्रसन्न कर सकता हूँ?
(4) सम्बन्धवाचक सार्वनामिक विशेषण–
ये विशेषण संज्ञा या सर्वनाम का सम्बन्ध वाक्य मेँ प्रयुक्त अन्य संज्ञा या सर्वनाम शब्द के साथ जोड़ते हैँ। जैसे–
• जो बोया है, वही तो काटोगे।
• जो आदमी कल आया था, वह बाहर खड़ा है।
• जिस कार्य को करना न हो, उस पर विचार करना मूर्खता है।
♦ सार्वनामिक विशेषण और सर्वनाम मेँ अन्तर :
यदि सार्वनामिक विशेषण का प्रयोग संज्ञा या सर्वनाम शब्द से पहले हो, तो यह सार्वनामिक विशेषण कहलाएगा और यदि अकेले (संज्ञा के स्थान पर) प्रयुक्त हो, तो सर्वनाम कहलाता है। जैसे–
• यह आम पका है और वह कच्चा।
(‘यह’ सार्वनामिक विशेषण है और ‘वह’ सर्वनाम।)
• यह लड़का बहुत चालाक है।
(सार्वनामिक विशेषण)
• यह काफी कमजोर है।
(सर्वनाम)
• उस घर मेँ मेरा मित्र रहता है।
(सार्वनामिक विशेषण)
• उसने मुझे बुलाया है।
(सर्वनाम)
5. व्यक्तिवाचक विशेषण–
व्यक्तिवाचक संज्ञा से बनन वाले विशेषण को व्यक्तिवाचक विशेषण कहते हैँ। जैसे– कश्मीरी, जापानी, भारतीय, नेपाली आदि।
• हम राजस्थानी हैँ।
• मैँ भारतीय नागरिक हूँ।
• रमेश धनवान (धनी) आदमी है।
• नागौरी बैल अच्छे होते हैँ। ऊपर लिखे वाक्योँ मेँ ‘राजस्थान’ से ‘राजस्थानी’, ‘भारत’ से ‘भारतीय’, ‘धन’ से ‘धनवान (धनी)’ और ‘नागौर’ से ‘नागौरी’ विशेषण बने हैँ। राजस्थान, भारत, धन और नागौर व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ हैँ।
♦ विशेषणोँ की तुलना :
विशेषणोँ मेँ तुलनात्मक स्थियाँ आती हैँ। यद्यपि हिन्दी मेँ विशेषताओँ की तुलनात्मक कमी या अधिकता प्रकट करने के लिए अलग से अपने शब्द नहीँ हैँ। जो भी तुलनात्मक शब्द हैँ, वे संस्कृत या उर्दू के हैँ। हिन्दी मेँ तुलनात्मक विशेषता प्रकट करने के लिए ‘से कम’, ‘से अधिक’, ‘सबसे बढ़कर’, ‘सर्वाधिक न्यून’ आदि प्रविशेषणोँ का प्रयोग किया जाता है।
तुलना के आधार पर विशेषणोँ की तीन अवस्थाएँ होती हैँ—मूलावस्था, उत्तरावास्था एवं उत्तमावस्था।
(1) मूलावस्था –
विशेषण सामान्य रूप से जिस मूल रूप मेँ रहता है, उसे मूलावस्था कहते हैँ। इसमेँ किसी प्रकार की तुलना नहीँ होती, केवल विशेषण का सामान्य कथन होता है। जैसे – सुन्दर, अधिक, श्रेष्ठ, लघु आदि।
• अरुण अच्छा लड़का है।
• काली गाय चर रही है।
• आपका चित्र सुन्दर है।
(2) उत्तरावस्था –
जहाँ दो व्यक्तियोँ या वस्तुओँ मेँ तुलना की जाये और उनमेँ से किसी एक को अधिक या कम बतलाया जाये, वहाँ उत्तरावस्था होती है। जैसे – सुन्दरतर, श्रेष्ठतर, अधिकतर, लघुत्तर आदि।
• अरुण राजीव से अच्छा है।
• वह तुम्हारी अपेक्षा समझदार है।
• आकार मेँ रामायण से महाभारत वृहत्तर है।
• मोहिनी, उर्वशी की तुलना मेँ रूपवती है।
ध्यान देने योग्य है कि उत्तरावस्था मेँ दो विशेष्य होते हैँ। उनमेँ तुलना प्रकट करने के लिए से बढ़कर, से घटकर, से कम, की अपेक्षा, की तुलना मेँ, के मुकाबले, से अधिक आदि वाचकोँ का प्रयोग होता है।
(3) उत्तमावस्था –
जब दो या दो से अधिक व्यक्तियोँ या वस्तुओँ की तुलना मेँ किसी एक को सबसे अधिक श्रेष्ठ अथवा कम बतलाया जाये तब वह विशेषण की उत्तमावस्था होती है। जैसे– सुन्दरतम, श्रेष्ठतम, अधिकतम, लघुत्तम आदि। इसमेँ सबसे बढ़कर, सर्वाधिक, सबसे कम, सभी मेँ आदि शब्द प्रयुक्त होते हैँ। जैसे –
• माला, सबसे चतुर लड़की है।
• हिमालय सर्वाधिक ऊँचा पर्वत है।
• राजस्थान मेँ माउण्ट आबू सर्वाधिक ठण्डा स्थान है।
♦ तुलनाबोधक प्रत्यय –
हिन्दी मेँ अपने तुलनात्मक प्रत्यय नहीँ हैँ। अतः संस्कृत शब्दोँ के साथ संस्कृत के प्रत्यय ‘तर’ और ‘तम’ प्रयुक्त होते हैँ तथा उर्दू शब्दोँ के साथ उर्दू के प्रत्यय ‘तर’ तथा ‘तरीन’ प्रयुक्त होते हैँ। जैसे–
मूलावस्था उत्तरावस्था उत्तमावस्था
अधिक अधिकतर अधिकतम
उत्कृष्ट उत्कृष्टतर उत्कृष्टतम
उच्च उच्चतर उच्चतम
कुटिल कुटिलतर कुटिलतम
गुरु गुरुतर गुरुतम
दृढ़ दृढ़तर दृढ़तम
दीर्घ दीर्घतर दीर्घतम
निकट निकटतर निकटतम
निकृष्ट निकृष्टतर निकृष्टतम
निम्न निम्नतर निम्नतम
न्यून न्यूनतर न्यूनतम
महान महत्तर महत्तम
मधुर मधुरतर मधुरतम
मृदु मृदुतर मृदुतम
लघु लघुत्तर लघुत्तम
वृहत वृहत्तर वृहत्तम
श्रेष्ठ श्रेष्ठतर श्रेष्ठतम
सुंदर सुंदरतर सुंदरतम
समीप समीपतर समीपतम
उर्दू–फारसी के तुलनात्मक प्रत्यय–
अच्छा बेहतर बेहतरीन
कम कमतर कमतरीन
बद बदतर बदतरीन
♦ विशेषण शब्दोँ के रूपांतर :
विशेषण शब्दोँ मेँ तीन कारणोँ से रूपान्तर होते हैँ—लिँग, वचन और कारक के कारण। कुछ आकारांत विशेषणोँ मेँ लिँग और वचन संबंधी परिवर्तन विशेष्य के अनुसार होता है। जैसे –
• काला कौआ, काली गाय, काले घोड़े।
• छोट बच्चा, छोटी बच्ची, छोटे बच्चे।
• मैला कपड़ा, मैली चादर, मैले बर्तन।
विभक्ति से युक्त विशेष्य और संबोधन कारक के साथ आकारांत विशेषण मेँ ‘आ’ का ‘ए’ हो जाता है। जैसे –
• लंबे लड़कोँ को पीछे बिठाओ।
(लंबा का लंबे)
• काले घोड़ोँ को दौड़ाओ।
(काला का काले)
• पीले कपड़े पहन लो।
(पीला का पीले)
• ऐ छोटे बच्चे, बैठ जाओ।
(छोटा का छोटे)
• बुरे लोगोँ से दूर ही रहना चाहिए।
(बुरा का बुरे)
आकारांत विशेषणोँ के अतिरिक्त अन्य विशेषण यथावत् रहते हैँ। उनका रूप–परिवर्तन नहीँ होता। जैसे –
• कीमती हार, कीमती गुड़िया, कीमती कपड़े।
• मासिक पत्रिका, मासिक पत्रिकाएँ, मासिक चंदे।
• ऐतिहासिक इमारत, ऐतिहासिक इमारतेँ।
• योग्य लड़का, योग्य लड़के, योग्य लड़की।
• रोगी बच्चे, रोगी स्त्री, रोगी व्यक्ति।
कुछ तत्सम् विशेषणोँ को स्त्रीलिँग रूपोँ मेँ ही प्रयुक्त किया जाता है। जैसे –
• बुद्धिमती नारी (बुद्धिमान का प्रयोग गलत है)
• विदुषी कन्या (विद्वान नहीँ लिखा जाता)
• रूपवती पत्नी (रूपवान नहीँ लिखा जाता)
इसी प्रकार स्त्रीलिँग रूपोँ के साथ धनवती, गुणवती, ज्ञानवती आदि शब्दोँ के स्थान पर क्रमशः धनवान, गुणवान, ज्ञानवान आदि लिखना अनुपयुक्त है।
कई बार विशेषणोँ को ही संज्ञा–रूप मेँ प्रयुक्त किया जाता है। जैसे –
• बड़ोँ का सम्मान करना चाहिए।
• छोटोँ को प्यार देना चाहिए।
• वीरोँ की पूजा कौन नहीँ करता?
• सज्जनोँ की संगति से मौत भी टल सकती है।
उपर्युक्त वाक्योँ मेँ क्रमशः बड़ोँ, छोटोँ, वीरोँ तथा सज्जनोँ शब्द संज्ञा की तरह ही प्रयुक्त हुए हैँ। अतः ये संज्ञा शब्द माने जाएँगे और संज्ञा के समान ही इनके लिँग, वचन और कारक का प्रयोग होगा।
♦ विशेषणोँ की रचना :
हिन्दी मेँ मूल रूप मेँ विशेषण शब्द बहुत कम हैँ। कुछ मूल विशेषण हैँ– बुरा, अच्छा, लम्बा, बड़ा आदि। अधिकांश विशेषण संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या अव्यय शब्दोँ से उत्पन्न हुए हैँ। इसी कारण उन्हेँ व्युत्पन्न विशेषण कहा जाता है। व्युत्पन्न विशेषणोँ का निर्माण संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया तथा अव्यय मेँ उपसर्ग और प्रत्यय लगाने से होता है।
1. उपसर्गोँ से विशेषण रचना–
• शब्द मेँ ‘अ’ जोड़कर—अयोग्य, अबोध, असमर्थ, अविकसित, अविचल।
• ‘स’ जोड़कर—सबल, सफल, सपूत, सजीव, सचित्र, सजल।
• ‘निः’ जोड़कर—निर्भय, निर्गुण, निर्दोष, निर्लज्ज, निर्मम, निर्विकार।
• ‘नि’ जोड़कर—निडर, निकम्मा, निपूती।
• ‘दु’ जोड़कर—दुबला, दुधारा, दुर्दिन।
• ‘बे’ जोड़कर—बेकसूर, बेईमान, बेहोश, बेवकूफ, बेवजह।
• ‘ला’ जोड़कर—लावारिस, लाईलाज, लापता, लाचार।
2. प्रत्ययोँ से विशेषण रचना–
• इतिहास+इक = ऐतिहासिक
• समाज+इक = सामाजिक
• रंग+इला = रंगीला
• ज्ञान+वती = ज्ञानवती
• मद+अक = मादक
• बुद्धि+मान = बुद्धिमान
• सुख+द = सुखद
• बल+शाली = बलशाली
• चाय+वाला = चायवाला।
3. उपसर्ग और प्रत्यय दोनोँ के योग से विशेषण रचना–
• अप+मान+इत = अपमानित
• न+अस्ति+क = नास्तिक
• अन+आचार+ई = अनाचारी
• अन+आत्मा+इक = अनात्मिक
• अ+धर्म+इक = अधार्मिक
• अ+न्याय+ई = अन्यायी।
4. संज्ञा शब्दोँ से व्युत्पन्न विशेषण–
अधिकांश विशेषण संज्ञा शब्दोँ से व्युत्पन्न होते हैँ। जैसे–
संज्ञा शब्द — विशेषण
• जयपुर—जयपुरी
• लखनऊ—लखनवी
• अलीगढ़—अलीगढ़ी
• आदर—आदरणीय
• नमक—नमकीन
• नगर—नागरिक
• ग्राम—ग्रामीण
• शहर—शहरी
• अंक—अंकित
• दिन—दैनिक
• गाना—गायक
• खेद—खिन्न
• पुष्प—पुष्पित
• फल—फलित
• चाचा—चचेरा
• दूध—दुधारू
• नाव—नाविक।
5. सर्वनाम से व्युत्पन्न विशेषण–
• जो—जैसा
• यह—ऐसा
• वह—वैसा
• अहं—अहंकार
• तुम—तुम–सा
• आप—आप–सा
• उस—उस–सा
• मैँ—मुझ–सा।
6. क्रिया से व्युत्पन्न विशेषण–
• भागना—भगोड़ा
• भूलना—भुलक्कड़
• पठ्—पठित
• हँसना—हँसोड़
• चलना—चालू
• दिखाना—दिखावटी।
7. अव्यय से व्युत्पन्न विशेषण–
• बाहर—बाहरी
• भीतर—भीतरी
• आगे—अगला
• पीछे—पिछला
• ऊपर—ऊपरी
• नीचे—निचला।
हिँदी मेँ प्रचलित विशेषण
शब्द — विशेषण
• अंक—अंकित
• अंश—आंशिक
• अधर्म—अधर्मी
• अध्यात्म—आध्यात्मिक
• अनुकरण—अनुकरणीय
• अनुवाद—अनूदित, अनुवादित
• अवलंब—अवलंबित
• अध्ययन—अध्ययनीय, अध्येता, अध्येय
• अतिथि—आतिथेय
• अर्थ—आर्थिक
• आत्म—आत्मिक, आत्मीय
• आलस—आलसी
• आदर—आदरणीय
• आश्रय—आश्रित
• आमोद—आमोदित
• आप—आपसी
• आवरण—आवृत्त
• आदि—आदिम
• आयोग—आयुक्त
• आयु—आयुष्मान्
• आविष्कार—आविष्कृत
• आस्वाद—आस्वादित
• इतिहास—ऐतिहासिक
• ईर्ष्या—ईर्ष्यालु
• ईश्वर—ईश्वरीय
• उत्साह—उत्साही
• उदर—उदरस्थ
• उल्लास—उल्लासित
• उत्कंठा—उत्कंठित
• उपासना—उपासक
• उर्मि—उर्मिल
• ऊपर—ऊपरी
• ऋण—ऋणी
• ओज—ओजस्वी
• कंटक—कंटकित
• कर्त्तव्य—कर्त्तव्य परायण
• कल्पना—काल्पनिक
• कलंक—कलंकित
• करुणा—कारुणिक
• कर्म—कर्मठ, कर्मशील
• क्रम—क्रमिक
• काँटा—कँटीला
• काम—कामुक
• काल—कालिक
• कुल—कुलीन
• कृपा—कृपालु
• खेल—खिलाड़ी
• गति—गतिमान
• ग्राम—ग्रामीण
• गुण—गुणी, गुणवान
• गाँव—गँवार
• घर—घरेलू
• चमक—चमकीला
• चलता—चलायमान
• चाचा—चचेरा
• चाल—चालू
• चिँता—चिँतित
• चित्र—चित्रित
• चिकित्सा—चिकित्सक
• चिह्न—चिह्नित
• छंद—छंदोमय
• जटा—जटिल
• जल—जलमय
• जघन—जघन्य
• ज्योति
• जाति—जातीय
• जीव—जैविक
• जोश—जोशीला
• झगड़ा—झगड़ालू
• तट—तटीय, तटस्थ
• तत्त्व—तात्विक
• तप—तपस्वी
• तर्क—तार्किक
• तरंग—तरंगित
• तिरोधान—तिरोहित
• त्वरा—त्वरित
• दया—दयायु
• द्रव—द्रवित
• दान—दानी, दाता
• दिन—दैनिक
• दुःख—दुःखी
• देखना—दिखावटी
• देव—दैविक
• देह—दैहिक
• धन—धन्य, धनी, धनिक, धनवान
• धर्म—धार्मिक
• ध्यान—ध्येय
• ध्वनि—ध्वनित
• धूम—धूमिल
• नगर—नागरिक
• नमक—नमकीन
• नाव—नाविक
• नागपुर—नागपुरी
• नास्ति—नास्तिक
• नाम—नामिक, नामी
• निँदा—निँदक
• नियंत्रण—नियंत्रित
• निमीलन—निमीलित
• निमित्त—नैमित्तिक
• निसर्ग—नैसर्गिक
• नीचे—निचला
• नीति—नैतिक
• पंक—पंकिल
• पक्ष—पाक्षिक
• पठन—पठित
• पत्थर—पथरीला
• परलोक—पारलौकिक
• परितोष—पारितोषिक
• पल्लव—पल्लवित
• प्यास—प्यासा
• पानी—पानीय
• पाठ—पाठ्य, पठनीय
• पिशाच—पैशाचिक
• पुत्र—पुत्रवान
• पुरा—पुरातन
• पुरुष—पौरुषेय, पुरुषार्थ
• पुष्प—पुष्पित
• पूजा—पूज्य, पूजनीय
• पूर्व—पूर्वी
• पेट—पेटू
• प्रत्याशा—प्रत्याशित
• प्रभाव—प्रभावित
• प्रभा—प्रभामय
• प्रमाण—प्रमाणित, प्रामाणिक
• प्रलय—प्रलयंकर
• प्रांत—प्रांतीय
• प्रातःकाल—प्रातःकालीन
• फेन—फेनिल
• बंक—बंकिम
• बल—बली, बलवान
• बढ़ना—बड़ा
• बाधा—बाधित
• बुद्धि—बुद्धिमान, बौद्धिक
• बुभुक्षा—बुभुक्षित
• बेचना—बिकाऊ
• बाहर—बाहरी
• भय—भयानक, भयभीत, भयंकर
• भार—भारित, भारी
• भागना—भगोड़ा
• भारत—भारतीय
• भीतर—भीतरी
• भूत—भौतिक
• भूलना—भुलक्कड़
• भूमि—भौमिक
• भूगोल—भौगोलिक
• भेद—भेदी, भेदक
• मद—मादक
• मन—मनस्वी
• मध्य—मध्यस्थ
• मर्यादा—मर्यादित
• मर्म—मार्मिक
• मधु—मधुर
• मानस—मानसिक
• मानव—मानवीय
• मास—मासिक
• मुख—मुखर
• मुखर—मुखरित
• मूर्धा—मूर्धन्य
• मूल—मौलिक
• मृत्यु—मृत, मृतक
• मृदु—मृदुल
• यदु—यादव
• यज्ञ—याज्ञिक
• युग—युगीन
• यूरोप—यूरोपीय
• रक्त—रक्तिम
• रस—रसिक, रसमय, रसीला
• रश्मि—रश्मिल
• राष्ट्र—राष्ट्रीय
• रूचि—रुचिर
• रूप—रूपवान
• रेत—रेतीला
• रोग—रोगी
• रोम—रोमिल
• रोमांच—रोमांचित
• लय—लीन
• लाठी—लठैत
• लालच—लालची
• लिपि—लिपिबद्ध
• लेख—लिखित
• वन—वन्य
• वश—वश्य
• वर्ष—वार्षिक
• वह—वैसा
• वायु—वायवी, वायव्य
• विदेश—विदेशी
• विष—विषैला
• विस्मय—विस्मित
• विश्वास—विश्वासी, विश्वस्त
• विधि—वैधानिक
• विकार—विकारी
• विष्णु—वैष्णव
• वेद—वैदिक
• शर्म—शर्मीला
• शकुन—शकुनी
• शक्ति—शक्तिशाली, शक्तिमान
• शब्द—शाब्दिक
• शाप—शापित
• शास्त्र—शास्त्रीय
• शिव—शैव
• शीत—शीतल
• शोभा—शोभित
• श्रम—श्रमिक
• श्रद्धा—श्रद्धालु
• श्रवण—श्रोता
• श्री—श्रीमती, श्रीमान्
• संकेत—सांकेतिक
• संचय—संचित
• संप्रदाय—सांप्रदायिक
• संयम—संयमित
• संयोग—संयुक्त
• संस्कृति—सांस्कृतिक
• समाज—सामाजिक
• सप्ताह—साप्ताहिक
• सत्य—सत्यवान
• समुदाय—सामुदायिक
• समीप—समीपस्थ
• सर्वजन—सार्वजनिक
• सीमा—सीमित
• सुख—सुखद, सुखमय
• सुरभि—सुरभित
• सेवा—सेवक, सेव्य
• सोना—सुनहरा
• स्त्री—स्त्रैण
• स्व—स्वकीय
• स्मृति—स्मार्त
• स्वर्ग—स्वर्गीय
• स्पर्श—स्पर्श्य
• स्वाद—स्वादिष्ट
• स्वप्न—स्वप्निल
• स्थान—स्थानीय
• स्वास्थ्य—स्वस्थ
• स्तुति—स्तुत्य
• हँसना—हँसोड़
• हृदय—हार्दिक
• हिँसा—हिँस्र
• हिम—हिमवान
• क्षय—क्षीण
• क्षत्रिय—क्षात्र
• क्षुधा—क्षुधित
• त्रास—त्रस्त, त्रासदी
• त्रुटि—त्रुटिपूर्ण
• ज्ञान—ज्ञानी।
4. क्रिया
♦ परिभाषा–
जिन शब्दोँ से किसी कर्म (कार्य) के होने या करने अथवा किसी प्रक्रिया मेँ होने का बोध हो, उन शब्दोँ को क्रिया कहते हैँ। जैसे–
• राम खाना खाता है।
• रेखा खेल रही है।
• वह बम्बई गया।
• नदी बह रही थी।
• मोहिनी गाती है।
• पुस्तक मेज पर है।
• गर्मी हो रही है।
उपर्युक्त वाक्योँ मेँ ‘खाता है’, ‘खेल रही है’, ‘गया’, ‘बह रही थी’, ‘गाती है’, ‘पर है’, ‘हो रही है’ क्रिया बोधक शब्द हैँ।
क्रिया वाक्य का अनिवार्य अंग है। बिना क्रिया के वाक्य–रचना संभव नहीँ है। क्रिया के बिना वाक्यांश हो सकता है, वाक्य नहीँ। कई बार क्रिया प्रत्यक्ष रूप मेँ नहीँ, बल्कि परोक्ष रूप मेँ विद्यमान रहती है। जैसे–
• बहुत सुंदर।
• दिल्ली।
• अवश्य।
• रोटी।
इन अपूर्ण वाक्योँ मेँ क्रियाएँ छिपी हुई हैँ। ‘बहुत सुन्दर’ का अर्थ– यह बहुत सुन्दर है अथवा यह बहुत सुन्दर हुआ है। या यह बहुत सुन्दर किया है।
‘अवश्य’ का अर्थ है– अवश्य जाऊँगा/आऊँगा/खाऊँगा/गया था/जाता हूँ आदि।
‘दिल्ली’ का तात्पर्य है– दिल्ली गया था/जाऊँगा आदि। ‘रोटी’ का आशय है– रोटी खाई थी/रोटी खाएँगे आदि।
♦ क्रिया का निर्माण–
क्रिया का निर्माण धातु से होता है। ‘धातु’ वह मूल शब्द है, जिससे क्रिया पद का गठन होता होता है। जैसे– लिखना—लिख धातु, ना प्रत्यय। पढ़ना—पठ् धातु, ना प्रत्यय।
♦ क्रिया के सामान्य रूप–
मूल धातु मेँ ‘ना’ प्रत्यय लगाकर प्रयुक्त किए जाने वाले रूप को क्रिया का सामान्य रूप कहा जाता है। जैसे– पढ़+ना = पढ़ना, लिख+ना = लिखना, खेल+ना = खेलना, पी+ना = पीना, चल+ना = चलना, खा+ना = खाना आदि।
♦ धातु –
क्रिया के मूल स्वरूप को धातु कहते हैँ। जैसे– आ, जा, खा, पी, पढ़, लिख, चल, हँस, गा, सो, सक, खेल, देख, सुन, बैठ आदि।
ये विभिन्न क्रियाओँ के मूल रूप हैँ। इसलिए इन्हेँ क्रियामूल भी कहते हैँ। इनसे अनेक क्रियाएँ बनती हैँ। जैसे– लिख से लिखा, लिखता, लिखते, लिखती, लिखूँ, लिखूँगा, लिखेँगे, लिखी थी आदि।
♦ मूल धातु की पहचान –
मूल धातु आज्ञार्थक रूप मेँ ‘तू’ के साथ प्रयुक्त होती है। जैसे– तू खा, तू पढ़, तू लिख, तू पी, तू जा, तू खेल, तू हँस, तू गा आदि।
इस प्रकार मूल धातुओँ की पहचान हो सकती है।
♦ धातु के रूप –
धातु के निम्नलिखित पाँच भेद हैँ–
1. सामान्य धातु – मूल धातु मेँ ‘ना’ प्रत्यय लगाकर बनाए गए रूप ‘सामान्य धातु’ कहलाते हैँ। जैसे– सोना, पढ़ना, आना, जाना, लिखना, तैरना आदि। इन्हेँ सरल धातु भी कहा जाता है।
2. व्युत्पन्न धातु – जो धातु सामान्य धातु मेँ प्रत्यय लगाकर अथवा अन्य किसी प्रकार बनाई जाती है, उन्हेँ व्युत्पन्न धातु कहते हैँ। जैसे–
सामान्य धातु—व्युत्पन्न धातु
पीना—पिलाना, पिलवाना
देना—दिलाना, दिलवाना
रोना—रुलाना, रुलवाना
सोना—सुलाना, सुलवाना
उठना—उठाना, उठवाना
कटना—काटना, कटाना, कटवाना
उड़ना—उड़ाना, उड़वाना।
3. नामधातु – संज्ञा, सर्वनाम और विशेषण शब्दोँ मेँ प्रत्यय लगाकर जो धातु व्युत्पन्न होती हैँ, उन्हेँ नाम धातु कहते हैँ। प्रायः नाम धातुओँ मेँ ‘अ’ प्रत्यय का प्रयोग होता है। जैसे–
• संज्ञा शब्दोँ से—लालच–ललचाना, शर्म–शर्माना, हाथ–हथियाना, बात–बतियाना, लात–लतियाना, फिल्म–फिल्माना।
• विशेषण शब्दोँ से—चिकना–चिकनाना, गर्म–गरमाना, लँगड़ा–लँगड़ाना, दुहरा–दुहराना।
• सर्वनाम शब्दोँ से—आप–अपनाना।
4. सम्मिश्र धातु – संज्ञा, विशेषण और क्रिया–विशेषण शब्दोँ के पश्चात् ‘करना’ या ‘होना’ क्रिया–पद लगाकर बनने वाले धातु रूप ‘सम्मिश्र धातु’ कहलाते हैँ। जैसे–
काम करना, काम होना, उत्तम करना, उत्तम होना, धीरे करना, धीरे होना आदि।
कुछ अन्य सहायक क्रिया–पदोँ से बनने वाले सम्मिश्र धातु–
• करना—नाम करना, छेद करना, हत्या करना।
• होना—नाम होना, छेद होना, हत्या होना।
• खाना—मार खाना, रिश्वत खाना, हवा खाना।
• देना—दर्शन देना, कष्ट देना, धन्यवाद देना।
• आना—काम आना, पसंद आना, नजर आना।
• जाना—भाग जाना, खा जाना, पी जाना, सो जाना।
• मारना—चक्कर मारना, डीँग मारना, झपट्टा मारना।
5. अनुकरणात्मक धातु – ध्वनियोँ के अनुकरण पर बनाई जाने वाली धातुएँ अनुकरणात्मक कहलाती हैँ। जैसे–
भिनभिन–भिनभिनाना, हिनहिन–हिनहिनाना, खटखट–खटखटाना, टनटन–टनटनाना, झनझन–झनझनाना।
♦ क्रिया के भेद –
अर्थ के आधार क्रिया के मुख्यतः दो भेद होते हैँ– 1. सकर्मक क्रिया, 2. अकर्मक क्रिया।
1. सकर्मक क्रिया –
जिस क्रिया के व्यापार (कार्य) का फल कर्त्ता को छोड़कर कर्म पर पड़ता है, वह सकर्मक क्रिया कहलाती है। इन क्रियाओँ मेँ कर्म अवश्य होता है। जैसे–
• मोहन ने खाना खाया।
• सीता ने पत्र पढ़ा।
इन दोनोँ वाक्योँ मेँ ‘खाया’ और ‘लिखा’ शब्दोँ का फल मोहन और सीता पर न पड़कर ‘खाना’ और ‘पत्र’ पर पड़ रहा है। अतः ये दोनोँ सकर्मक क्रियाएँ हैँ। अन्य उदाहरण–
• अनुराग ने फल खरीदे।
• राम ने रावण को मारा।
• बच्चे सीरियल देख रहे हैँ।
• बालिका निबन्ध लिख रही है।
• डॉक्टर बीमारी दूर करता है।
कुछ वाक्योँ मेँ ‘कर्म’ उपस्थित नहीँ होता, परन्तु कर्म की आवश्यकता बनी रहती है। ऐसी क्रिया भी सकर्मक कहलाती है। जैसे–
• राम पढ़ता है।
• सुधा खेल रही है।
इन वाक्योँ मेँ राम ‘क्या’ पढ़ रहा है और सुधा ‘क्या’ खेल रही है—ये आवश्यकताएँ बनी हुई हैँ। इसलिए कर्म के न होने पर भी ये सकर्मक क्रियाएँ हैँ।
♦सकर्मक क्रिया के भेद –
सकर्मक क्रिया के दो भेद होते हैँ– पूर्ण सकर्मक और अपूर्ण सकर्मक क्रिया।
(1) पूर्ण सकर्मक क्रियाएँ–
जो क्रियाएँ कर्म के साथ जुड़कर पूरा अर्थ प्रदान करती हैँ, पूर्ण सकर्मक कहलाती हैँ। इस क्रिया के भी दो भेद होते हैँ–
(अ) पूर्ण एककर्मक क्रियाएँ–
जो क्रिया एक कर्म के साथ जुड़कर पूरा अर्थ प्रदान करती हैँ, वह पूर्ण एककर्मक क्रिया कहलाती है। एक ही कर्म होने के कारण इसे ‘एक कर्मक’ तथा पूर्ण अर्थ प्रदान करने मेँ सक्षम होने के कारण ‘पूर्ण’ कहा जाता है। जैसे–
• वाल्मीकि ने रामायण लिखी।
• राजू ने टी.वी. खरीदा।
• मैँने फिल्म देखी।
(ब) पूर्ण द्विकर्मक क्रियाएँ–
जो क्रियाएँ दो कर्मोँ के साथ संयुक्त होने पर पूर्ण अर्थ प्रदान करती हैँ, उन्हेँ द्विकर्मक क्रियाएँ कहा जाता हैँ। जैसे–
• मालिक ने नौकर को पानी दिया।
(इसमेँ ‘दिया’ क्रिया के दो कर्म हैँ– नौकर तथा पानी)
• मोहन ने सोहन को पुस्तक दी।
(‘दी’ क्रिया के कर्म– सोहन तथा पुस्तक।)
• मैँने अपने मित्र की भरपूर सहायता की।
(‘की’ क्रिया के कर्म– मित्र और सहायता।)
• नौकर को कुत्ते को दूध पिलाया।
(‘पिलाया’ क्रिया के कर्म– कुत्ता और दूध।)
• थानेदार सिपाही से चोर पकड़वाता है।
(‘पकड़वाता’ क्रिया के कर्म– सिपाही तथा चोर।)
• पिताजी ने हमेँ कुछ पैसे दिए।
(‘दिए’ क्रिया के कर्म– हमेँ तथा पैसे।)
अतः ये सभी क्रियाएँ द्विकर्मक हैँ।
♦ मुख्य कर्म और गौण कर्म–
प्रायः मुख्य कर्म–
1. क्रिया के समीप रहता है।
2. विभक्ति रहित होता है।
3. अप्राणिवाचक होता है।
गौण कर्म प्रायः–
1. क्रिया से अपेक्षाकृत दूर रहता है।
2. विभक्ति सहित होता है।
3. प्राणिवाचक होता है।
(2) अपूर्ण सकर्मक क्रियाएँ–
जिन क्रियाओँ का आशय कर्म होने पर भी पूर्ण नहीँ होता और अर्थ को स्पष्ट करने के लिए किसी पूरक (संज्ञा या विशेषण) की आवश्यकता है वे ‘अपूर्ण सकर्मक क्रियाएँ’ होती हैँ। जैसे– मैँ तुझे समझता हूँ , यह अपूर्ण वाक्य है। इस वाक्य को इस प्रकार पूरा कर सकते हैँ– मैँ तुझे बुद्धिमान समझता हूँ। अतः ‘समझना’ अपूर्ण सकर्मक क्रिया है।
अन्य उदाहरण–
• तुम मुझे (पत्र) अवश्य लिखना।
• वह (डॉक्टर) बनकर दिखाएगा।
• वे हमारे (गुरु) थे।
• मैँ तुम्हेँ अपना (भाई) मानता हूँ।
• हमने उसे (प्रतिनिधि) चुना।
प्रायः चुनना, मानना, समझना, बनाना ऐसी क्रियाएँ हैँ, जिनमेँ कर्म के सिवाय एक पूरक की भी आवश्यकता बनी रहती है।
2.अकर्मक क्रियाएँ–
जिन क्रियाओँ मेँ कोई कर्म नहीँ होता और उनके व्यापार (कार्य) का फल कर्त्ता पर ही पड़ता है, वे ‘अकर्मक क्रियाएँ’ कहलाती हैँ। जैसे–
• मोहन खेलता है।
• बन्दर आया।
इन वाक्योँ मेँ ‘खेलता है’ और ‘आया’ क्रिया शब्दोँ का फल कर्त्ता मोहन और बन्दर पर पड़ रहा है, किसी कर्म पर नहीँ। अतः ये दोनोँ अकर्मक क्रियाएँ हैँ।
कुछ अकर्मक (धातु) क्रियाएँ :
शरमाना, ठहरना, होना, जागना, बढ़ना, क्षीण होना, कूदना, डरना, जीना, मरना, सोना, खेलना, अच्छा लगना, बरसना, चमकना, बैठना, उठना, दौड़ना, उगना, अकड़ना, उछलना।
हिन्दी मेँ कुछ क्रियाओँ का सकर्मक तथा अकर्मक दोनोँ रूपोँ मेँ प्रयोग होता है। जैसे–
• अकर्मक—बूँद–बूँद से बाल्टी भरती है।
• सकर्मक—नौकरानी नल पर बाल्टी भरती है।
• अकर्मक—उसका सिर खुजला रहा है।
• सकर्मक—वह अपने सिर को खुजला रहा है।
• अकर्मक—बहू लजाती है।
• सकर्मक—अब उसे और न लजाओ।
जो नाम अर्थात् संज्ञा, सर्वनाम या विशेषण शब्द धातु की तरह प्रयुक्त होते हैँ, वे नामधातु कहलाते हैँ। नाम धातु मेँ प्रत्यय लगाकर जो क्रिया बनती है, उसे नामधातु क्रिया कहते हैँ। जैसे–
नाम धातु क्रिया का निर्माण चार प्रकार से होता है–
(i) संज्ञा शब्द से—लाज से लजाना, हाथ से हथियाना।
(ii) विशेषण शब्द से—मोटा से मुटाना, नरम से नरमाना।
(iii) सर्वनाम शब्द से—अपना से अपनाना।
(iv) अनुकरणवाची शब्द से—हिनहिन से हिनहिनाना, बड़बड़ से बड़बड़ाना।
(3) प्रेरणार्थक क्रिया–
जिस क्रिया से यह बोध होता है कि कर्त्ता स्वयं कार्य न करके किसी अन्य को उस कार्य के करने की प्रेरणा देता है, वह प्रेरणार्थक क्रिया कहलाती है। जैसे– मोहन, बरखा से पत्र लिखवाता है। यहाँ ‘लिखवाता है’ प्रेरणार्थक क्रिया है। ‘मोहन’ प्रेरक कर्त्ता और ‘बरखा’ प्रेरित कर्त्ता है।
प्रेरणार्थक क्रिया दो प्रकार से बनती है—(1) अकर्मक क्रिया से (2) सकर्मक क्रिया से। अकर्मक क्रिया प्रेरणार्थक क्रिया बनने पर सकर्मक क्रिया हो जाती है।
प्रेरणार्थक क्रिया की दो श्रेणियाँ हैँ—(1) प्रथम प्रेरणार्थक (2) द्वितीय प्रेरणार्थक।
♦ प्रेरणार्थक क्रिया बनाने के नियम :
(I) अकर्मक से सकर्मक–
मूल धातु के अन्त मेँ ‘आ’ जोड़ने से प्रथम प्रेरणार्थक (सकर्मक) और ‘वा’ जोड़ने से द्वितीय प्रेरणार्थक (द्विकर्मक) क्रिया बनती है। जैसे–
• चमक से चमकाना, चमकवाना।
• लड़ना से लड़ाना, लड़वाना।
(II) सकर्मक धातुओँ से द्विप्रेरणार्थक–
जैसे– काटना से कटाना, कटवाना। पढ़ना से पढ़ाना, पढ़वाना।
(4) कृदन्त क्रिया–
जो क्रियाएँ शब्दोँ के अन्त मेँ शब्दांश जोड़कर बनायी जाती हैँ, वे कृदन्त क्रियाएँ कहलाती हैँ। जैसे– देखता, देखा, देखकर आदि।
(5) पूर्वकालिक क्रिया–
यदि किसी क्रिया से पहले कोई दूसरी क्रिया आए, अर्थात् जहाँ एक कार्य समाप्त होकर दूसरा कार्य किया जाए उसे पूर्वकालिक क्रिया कहते हैँ। पूर्वकालिक क्रिया या तो क्रिया का मूल रूप होती है या उसके साथ ‘कर’ या ‘करके’ का प्रयोग होता है। जैसे– वह अभी सोकर उठा है। इस वाक्य मेँ ‘उठा है’ क्रिया के पूर्व ‘सोकर’ क्रिया का प्रयोग हुआ है। अतः ‘सोकर’ पूर्वकालिक क्रिया है।
(6) आज्ञार्थक या विधि क्रिया–
जिस क्रिया का प्रयोग आज्ञा, अनुमति, प्रार्थना आदि के बोध के लिए किया जाता है, तो वह आज्ञार्थक क्रिया कहलाती है। जैसे–
• इधर आओ।
• उधर मत जाओ।
• पुस्तक पढ़ो।
• बाग मेँ चलेँ।
• बड़ोँ का आदर करना चाहिए।
♦ समापिका एवं असमापिका क्रियाएँ :
(1) समापिका क्रियाएँ –
समापिका क्रियाएँ वाक्य के अन्त मेँ रहकर वाक्योँ को समाप्त करती हैँ। जैसे–
• चिड़िया आकाश मेँ उड़ती है।
• मोहन पार्क मेँ दौड़ रहा है।
• विनोद सुबह नाश्ते मेँ चाय पिएगा।
• हिमालय की बर्फ पिघल रही थी।
• उपदेशोँ पर चला करो।
• मैँ उठकर जा रहा हूँगा।
उपर्युक्त वाक्योँ मेँ ‘उड़ती है’, ‘दौड़ रहा है’, ‘पिएगा’, ‘पिघल रही थी’, ‘चला करो’ तथा ‘जा रहा हूँगा’ समापिका क्रियाएँ हैँ।
(2) असमापिका क्रियाएँ–
जो क्रियाएँ वाक्य के अन्त मेँ न आकर वाक्य मेँ अन्यत्र कहीँ प्रयुक्त होती हैँ, उन्हेँ असमापिका क्रियाएँ कहते हैँ। जैसे– डाल पर चहचहाती हुई चिड़ियाँ कितनी सुन्दर हैँ।
यहाँ ‘चहचहाती हुई’ असमापिका क्रिया है। यह क्रिया वाक्य का अंत करके ‘चिड़ियाँ’ का विशेषण बनकर प्रयुक्त हुई है।
कुछ अन्य उदाहरण–
• जंगल मेँ दौड़ता हुआ हिरण कैसा मनोरम है?
• बहता हुआ गंगाजल किसे नहीँ भाता?
• गुरुजी को खड़े होकर प्रणाम करो।
♦ असमापिका क्रियाओँ का विवेचन–
असमापिका क्रियाओँ के अनेक भेद हैँ। उनका विवेचन तीन दृष्टियोँ से किया जाता है–
1. रचना की दृष्टि से–
रचना की दृष्टि से असमापिक क्रियाओँ की रचना चार प्रकार के प्रत्ययोँ से होती है–
(1) अपूर्ण कृदंत—ता, ते, ती; जैसे– बहता, जाता, भागते, दौड़ते।
(2) पूर्ण कृदंत—बैठा, बैठी, पिछले।
(3) क्रियार्थक कृदंत—ना, नी, ने; पढ़ना, पढ़ने।
(4) पूर्वकालिक कृदंत—कर; पढ़कर, खड़े रहकर, खोकर।
2. शब्द–भेद की दृष्टि से–
असमापिका क्रियाएँ या तो संज्ञा के रूप मेँ प्रयुक्त होती हैँ, या विशेषण या क्रिया–विशेषण के रूप मेँ। जैसे–
(i) संज्ञा–रूप मेँ–
• ना—एकांत मेँ टहलना मुझे भाता है।
• ने—गाड़ी चलने वाली है।
(ii) विशेषण–रूप मेँ–
• ता—खेलता बच्चा खुश रहता है।
• ता—बहता पानी निर्मल होता है।
• ते—हँसते लोग अच्छे लगते है।
• ते—रोते मनुष्य अकेले रह जाते हैँ।
• ती—छेड़ती नजरेँ बुरी लगती हैँ।
• आ—मरा हुआ इन्सान जाग उठा।
• ई—खिली हुई कलियाँ चटक उठीँ।
• ए—गिरे हुए इन्सानोँ को सहारा देना पुण्य है।
(iii) क्रिया–विशेषण–
• ते ही—बंदर बंदूक देखते ही भाग गया।
• ते–ते—बालक पढ़ते–पढ़ते सो गया।
• कर—मैँ गाना गाकर जाऊँगा।
• ए–ए—वह बैठे–बैठे पढ़ता रहा।
3. प्रयोग की दृष्टि से–
प्रयोग की दृष्टि से कृदंत छः प्रकार के होते हैँ–
(i) क्रियार्थक कृदंत–
इनका प्रयोग भाववाचक संज्ञा के रूप मेँ होता है। जैसे– टहलना, खेलना, सोना, पढ़ना आदि।
वाक्य–प्रयोग-
• समय से सोना अच्छी आदत है।
• मन लगाकर पढ़ना ही सफलता की कुंजी है।
(ii) कर्तृवाचक कृदंत–
इससे कर्तृवाचक संज्ञा बनती है। जैसे– धातु+ने+वाला/वाली–पढ़ने वाला, पढ़ने वाली।
वाक्य–प्रयोग-
• खेलने वालोँ को मना करो।
• हँसने वालोँ को खड़ा करो।
(iii) वर्तमानकालिक कृदंत–
ये कृदंत वर्तमान काल मेँ चल रही किसी क्रिया का बोध कराते हैँ। जैसे– बहता हुआ, जाता हुआ, नाचता हुआ।
वाक्य–प्रयोग-
• नाचता हुआ मोर कितना सुन्दर है।
• हँसता हुआ जोकर सबको गुदगुदाता है।
ये वर्तमानकालिक कृदंत विशेषण का कार्य करते हैँ।
(iv) भूतकालिक कृदंत–
ये कृदंत भूतकाल मेँ सम्पन्न हो चुकी क्रिया का बोध कराते हैँ तथा विशेषण के रूप मेँ प्रयुक्त होते हैँ। जैसे– पका हुआ फल, सड़ा, निकला, भागा, जागा हुआ।
वाक्य–प्रयोग-
• जागा हुआ शिशु न जाने क्या कर बैठे?
(v) तात्कालिक कृदंत–
इस कृदंत से मुख्य क्रिया से तुरंत पहले हुई किसी क्रिया का बोध होता है। तात्कालिक कृदंत के सम्पन्न होते ही मुख्य क्रिया सम्पन्न हो जाती है। इसका वाचक प्रत्यय है– ‘ते’, ‘ही’। जैसे– तुम्हारे निकलते ही वह आ गया।
(vi) पूर्वकालिक कृदंत–
इस कृदंत से मुख्य क्रिया से पहले होने वाली क्रिया का बोध होता है। इसका निर्माण धातु मेँ ‘कर’ प्रत्यय लगाने से होता है। जैसे– पढ़+कर = पढ़कर, सोकर, जागकर आदि।
वाक्य–प्रयोग-
• मैँ नहा–धोकर नाश्ता करूँगा।
• वह स्कूल से आकर काम करेगा।
♦ पूर्वकालिक कृदंत और तात्कालिक कृदंत मेँ अन्तर:
पूर्वकालिक क्रिया मुख्य क्रिया से पहले होने वाली सामान्य क्रिया है, जबकि तात्कालिक क्रिया और मुख्य क्रिया मेँ समय का अन्तर नहीँ है। बस क्रम का अंतर है। ये दोनोँ क्रियाएँ क्रम के भेद से एक साथ होती हैँ। पहले पूर्वकालिक क्रिया, बाद मेँ तात्कालिक क्रिया, अंत मेँ मुख्य क्रिया– यह क्रम रहता है।
क्रिया के वाच्य
♦ परिभाषा–
क्रिया के जिस रूप से यह बोध होता है कि वाक्य मेँ क्रिया द्वारा किए गए विधान का प्रधान विषय कर्त्ता है, कर्म है अथवा भाव है, उसे वाच्य कहते हैँ।
♦ वाच्य के भेद :
वाच्य के निम्नलिखित तीन भेद होते हैँ–
(1) कर्तृवाच्य–
क्रिया के जिस रूप से वाक्य के उद्देश्य का बोध हो, उसे कर्तृवाच्य कहते हैँ। इसमेँ कर्त्ता प्रधान होता है तथा क्रिया के लिँग, वचन और पुरुष कर्त्ता के अनुरूप होते हैँ। कर्त्ता ही वाक्य का केन्द्र बिन्दु होता है।
जैसे—रमा लिखती है। इस वाक्य मेँ रमा एकवचन, स्त्रीलिँग और अन्य पुरुष है तथा उसकी क्रिया ‘लिखती’ भी एकवचन, स्त्रीलिँग और अन्य पुरुष है। अतः यहाँ कर्तृवाच्य है।
(2) कर्मवाच्य–
क्रिया के जिस रूप से वाक्य का उद्देश्य ‘कर्म प्रधान हो’ उसे कर्मवाच्य कहते हैँ। इसमेँ क्रिया का केन्द्र बिन्दु कर्त्ता न होकर ‘कर्म’ होता है और लिँग, वचन भी कर्म के अनुसार होते हैँ।
जैसे—उपन्यास मेरे द्वारा लिखा गया। इस वाक्य मेँ ‘लिखा गया’ क्रिया मेँ ‘कर्म’ की प्रधानता होने से क्रिया के इस रूप मेँ कर्मवाच्य है।
कर्मवाच्य का प्रयोग सामान्यतः निम्न स्थितियोँ मेँ किया जाता है–
• जब क्रिया का कर्त्ता अज्ञात हो अथवा उसके व्यक्त करने की आवश्यकता न हो। जैसे–
- चोर पकड़ा गया है।
- आज हुक्म सुनाया जाएगा।
- उसे पेश किया गया है।
- यह फिर देखा जाएगा।
• जब कोई सूचना दी जाती है। जैसे–
- शीतकालीन अवकाश बदला जाएगा।
- आज शाम को नाटक दिखाया जाएगा।
(3) भाववाच्य–
क्रिया के जिस रूप से वाक्य का उद्देश्य केवल भाव ही जाना जाए, उसे भाववाच्य कहते हैँ। भाववाच्य मेँ क्रिया सदा अकर्मक, एकवचन पुल्लिँग तथा अन्य पुरुष मेँ प्रयोग की जाती है। ऐसे वाक्योँ मेँ क्रिया न तो कर्त्ता के अनुसार होती है और न कर्म के अनुसार। इसमेँ क्रिया के भाव की प्रधानता रहती है। जैसे–
अब मुझसे लिखा नहीँ जाता। इस वाक्य मेँ ‘लिखा नहीँ जाता’ क्रिया का भाव प्रमुख होने से भाव वाच्य है।
♦ वाच्योँ की पहचान :
• कर्तृवाच्य—
- कर्त्ता बिना विभक्ति के होता है। अथवा
- कर्त्ता के साथ ‘ने’ विभक्ति होती है।
• कर्मवाच्य—
- कर्त्ता के साथ ‘से’ या ‘के द्वारा’ विभक्ति होती है।
- मुख्य क्रिया सकर्मक होती है और उसके साथ ‘जाना’ क्रिया का लिँग, वचन कालानुसार रूप जुड़ा होता है।
- ‘जाना’ के उपर्युक्त रूप से पहले क्रिया सामान्य भूतकाल मेँ होती है।
• भाववाच्य—
- कर्त्ता के साथ ‘से’ या ‘के द्वारा’ कारक चिह्न होता है।
- क्रिया अकर्मक होती है।
- क्रिया सदा एकवचन पुल्लिँग मेँ होती है।
♦ वाच्योँ का प्रयोग :
हिन्दी मेँ अधिकतर कर्मवाच्य का ही प्रयोग होता है। जिन परिस्थितियोँ मेँ कर्मवाच्य और भाववाच्य का प्रयोग होता है, वे इस प्रकार हैँ–
◊ कर्मवाच्य के प्रयोग–स्थल –
• अधिकार, गर्व या दर्प जताने के लिए–
(1) कल अपराधी को पेश किया जाए।
(2) शुभ्रा को दंड दिया जाए।
(3) यह खाना हमसे नहीँ खाया जाता।
(4) इस मामले की पूरी जाँच की जाए।
• जब वाक्य मेँ कर्त्ता को प्रकट करने की आवश्यकता न हो या कर्त्ता अज्ञात हो–
(1) रुपया पानी की तरह बहाया जा रहा है।
(2) यहाँ किसी की बात नहीँ सुनी जाती।
(3) पत्र भेज दिया गया है।
(4) गाना गाया गया होगा।
(5) गोष्ठी मेँ कविता पढ़ी जाएगी।
• जब कर्त्ता कोई सभा, समाज या सरकार हो–
(1) स्वास्थ्य योजनाओँ पर सरकार द्वारा प्रतिवर्ष निर्धारित धन खर्चा जाता है।
(2) आर्य समाज द्वारा कई अंतर्जातीय विवाह कराए जाते हैँ।
(3) क्रिकेट खिलाड़ियोँ का चयन क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड द्वारा किया जाता है।
• कानून या कार्यालयोँ की भाषा मेँ–
(1) होली की छुट्टी होगी।
(2) तीन माह का अर्जित अवकाश स्वीकृत किया जाता है।
(3) कार्य–कुशलता के लिए कर्मचारियोँ को सरकार द्वारा पुरस्कृत किया जाएगा।
(4) बिना आज्ञा के प्रवेश करने वालोँ को दंडित किया जाएगा।
(5) आपके प्रार्थना–पत्र को निम्नलिखित कारणोँ से रद्द कर दिया गया है।
◊ भाववाच्य के प्रयोग–स्थल–
• विवशता, असमर्थता व्यक्त करने के लिए या निषेधार्थ मेँ–
(1) यहाँ तो खड़ा भी नहीँ हुआ जाता।
(2) आज मुझसे बैठा भी नहीँ जा रहा है।
(3) यह खाना कैसे खाया जाएगा?
• अनुमति या आज्ञा प्राप्त करने के लिए–
(1) अब थोड़ी देर आराम किया जाए।
(2) अब चला जाए।
(3) चलिए, अब थोड़ा सो लिया जाए।
♦ वाच्य परिवर्तन :
1. कर्तृवाच्य से कर्मवाच्य बनाना :
♦ कर्तृवाच्य के कर्त्ता को करण कारक बना दिया जाता है अर्थात् कर्त्ता को उसकी विभक्ति (यदि लगी है तो) हटाकर ‘से’, ‘द्वारा’ या ‘के द्वारा’ विभक्ति लगा दी जाती है। जैसे–
• कर्तृवाच्य—संगीता पत्र लिखती है।
• कर्मवाच्य—संगीता से पत्र लिखा जाता है।
• कर्तृवाच्य—संगीता ने पत्र लिखा।
• कर्मवाच्य—संगीता द्वारा पत्र लिखा गया।
• कर्तृवाच्य—संगीता पत्र लिखेगी।
• कर्मवाच्य—संगीता के द्वारा पत्र लिखा जाएगा।
♦ कर्म के साथ यदि विभक्ति लगी हो तो उसे हटा दिया जाता है। जैसे–
• कर्तृवाच्य—माँ ने पुत्र को सुला दिया।
• कर्मवाच्य—माँ के द्वारा पुत्र को सुला दिया गया।
• कर्तृवाच्य—सुशीला पुस्तक को पढ़ेगी।
• कर्मवाच्य—सुशीला के द्वारा पुस्तक पढ़ी जाएगी।
2. कर्तृवाच्य से भाववाच्य बनाना :
♦ कर्त्ता के आगे ‘से’ अथवा ‘के द्वारा’ लगाएँ। जैसे– बच्चे–बच्चोँ से, लड़की–लड़की के द्वारा।
♦ मुख्य क्रिया को सामान्य भूतकाल की क्रिया के एकवचन मेँ बदलकर उसके साथ ‘जाना’ धातु के एकवचन, पुल्लिँग, अन्य पुरुष का वही काल लगा देँ, जो कर्तृवाच्य की क्रिया का है। जैसे–
• कर्तृवाच्य—बालक नहीँ पढ़ता है।
• भाववाच्य—बालक से पढ़ा नहीँ जाता।
• कर्तृवाच्य—हम दौड़ेँगे।
• भाववाच्य—हमसे दौड़ा जाएगा।
• कर्तृवाच्य—पक्षी आकाश मेँ नहीँ उड़ते।
• भाववाच्य—पक्षियोँ द्वारा आकाश मेँ नहीँ उड़ा जाता है।
• कर्तृवाच्य—मैँ नहीँ पढ़ता।
• भाववाच्य—मुझसे पढ़ा नहीँ जाता।
• कर्तृवाच्य—शेर दौड़ता है।
• भाववाच्य—शेर से दौड़ा जाता है।
• कर्तृवाच्य—लड़का रात भर सो न सका।
• भाववाच्य—लड़के से रात भर सोया न जा सका।
• कर्तृवाच्य—मैँ अब नहीँ चल सकता।
• भाववाच्य—मुझसे अब नहीँ चला जाता।
• कर्तृवाच्य—क्या वे लिखेँगे?
• भाववाच्य—क्या उनसे लिखा जाएगा?
• कर्तृवाच्य—भाई लड़ नहीँ सका।
• भाववाच्य—भाई से लड़ा नहीँ जा सका।
3. कर्मवाच्य और भाववाच्य से कर्तृवाच्य बनाना :
♦ कर्मवाच्य और भाववाच्य से कर्तृवाच्य बनाने के लिए ‘से’, ‘द्वारा’, ‘के द्वारा’ आदि को हटा दिया जाता है। जैसे–
* कर्मवाच्य/भाववाच्य–
• पक्षियोँ से उड़ा नहीँ जाता।
• अपर्णा द्वारा कविता पढ़ी गई।
• लड़कोँ द्वारा हँसा नहीँ जाता।
• वेदव्यास द्वारा महाभारत लिखा गया।
• सरकार द्वारा शिक्षा पर बहुत खर्च किया जाता है।
• बालकोँ द्वारा क्रिकेट खेली गई।
* कर्तृवाच्य–
• पक्षी उड़ नहीँ पाते।
• अपर्णा ने कविता पढ़ी।
• लड़के नहीँ हँसे।
• वेदव्यास ने महाभारत लिखी।
• सरकार शिक्षा पर बहुत खर्च करती है।
• बालकोँ ने क्रिकेट खेली।
5. अव्यय
♦ परिभाषा–
जिन शब्दोँ के रूप मेँ लिंग, वचन, क्रिया, कारक आदि के कारण कोई विकार पैदा नहीँ है, उन्हेँ अव्यय शब्द कहते हैँ।
अव्यय का शाब्दिक अर्थ होता है– जो व्यय नहीँ होता है। अर्थात् ये अविकारी होते हैँ। ये शब्द जहाँ भी प्रयुक्त होते हैँ, वहाँ एक ही रूप मेँ रहते हैँ। जैसे– अन्दर, बाहर, अनुसार, अधीन, इसलिए, यद्यपि, तथापि, परन्तु आदि।
♦ अव्यय के भेद–
अव्यय या अविकारी शब्दोँ को सुविधा, स्वरूप और व्यवस्था की दृष्टि से चार भागोँ मेँ बाँटा गया है–
1. क्रिया–विशेषण
2. समुच्चय बोधक
3. सम्बन्ध बोधक
4. विस्मय बोधक अव्यय।
1. क्रिया–विशेषण अव्यय–
क्रिया की विशेषता प्रकट करने वाले शब्द क्रिया–विशेषण अव्यय कहलाते हैँ। जैसे—‘अधिक तेज दौड़ना’ मेँ दौड़ने की विशेषता क्रिया विशेषण शब्द ‘तेज’ बतला रहा है परन्तु ‘अधिक’ क्रिया विशेषण शब्द की विशेषता बतला रहा है। अन्य उदाहरण—
• वह प्रतिदिन पढ़ता है।
• कुछ खा लो।
• मोहन सुन्दर लिखता है।
• घोड़ा तेज दौड़ता है।
इन वाक्योँ मेँ प्रतिदिन, कुछ, सुन्दर व तेज शब्द क्रिया की विशेषता प्रकट कर रहे हैँ। अतः ये शब्द क्रिया–विशेषण अव्यय हैँ।
क्रिया–विशेषण अव्यय छः प्रकार के होते हैँ–
(1) स्थानवाचक क्रिया विशेषण–
जिस क्रिया विशेषण अव्यय से क्रिया की स्थान या दिशा सम्बन्धी विशेषता प्रकट होती है, वह स्थानवाचक क्रिया विशेषण अव्यय कहलाता है। जैसे–
• वह यहाँ नहीँ है।
• तुम वहाँ क्या कर रहे थे?
• तुम आगे चलो।
• वह पेड़ के नीचे बैठा है।
• इधर–उधर मत भागो।
• हमारे आस–पास रहना।
इन वाक्योँ मेँ यहाँ, वहाँ, नीचे, इधर–उधर, आस–पास स्थानवाचक क्रिया–विशेषण अव्यय हैँ।
(2) कालवाचक क्रिया–विशेषण अव्यय–
जिन क्रिया–विशेषण शब्दोँ से क्रिया के होने का समय या काल मालूम होता है, उन्हेँ कालवाचक क्रिया–विशेषण अव्यय कहते हैँ। जैसे—सर्वदा, बहुधा, निरन्तर, प्रतिदिन, आज, कल, परसोँ आदि।
• तुम अब जा सकते हो।
• दिन भर पानी बरसता रहा।
• तुम प्रतिदिन समय पर आते हो।
इन वाक्योँ मेँ अब, दिनभर, प्रतिदिन शब्द क्रिया की विशेषता बतला रहे हैँ अतः ये कालवाचक क्रिया–विशेषण अव्यय हैँ।
(3) परिमाणवाचक क्रिया–विशेषण अव्यय–
जिन क्रिया–विशेषण शब्दोँ से क्रिया के परिमाण अर्थात् अधिकता–न्यूनता, नाप–तौल का बोध होता है, उन्हेँ परिमाणवाचक क्रिया–विशेषण अव्यय कहते हैँ। जैसे– थोड़ा, तनिक, पर्याप्त, बहुत, बिल्कुल आदि।
• उतना खाओ, जितना आवश्यक हो।
• कुछ तेज चलो।
• तुम खूब खेलो।
• रमेश बहुत बोलता है।
इन वाक्योँ मेँ उतना, जितना, कुछ, खूब व बहुत परिमाणवाचक क्रिया–विशेषण अव्यय हैँ।
(4) रीतिवाचक क्रिया–विशेषण अव्यय–
वे क्रिया–विशेषण शब्द जिनसे क्रिया की रीति या विधि का पता चलता है अर्थात् क्रिया के होने का ढंग मालूम होता है, उन शब्दोँ को रीतिवाचक क्रिया–विशेषण अव्यय कहते हैँ। जैसे—धीरे–धीरे, मानो, यथाशक्ति, ज्योँ, त्योँ आदि।
रीतिवाचक विशेषण निम्न अर्थोँ मेँ आते हैँ–
1. प्रकारात्मक—धीरे–धीरे, अचानक, अनायास, संयोग से, एकाएक, सहसा, सुखपूर्वक, शान्ति से, हँसता हुआ, मन से, धड़ाधड़, झटपट, आप ही आप, शीघ्रता से, ध्यानपूर्वक, जल्दी, तुरन्त आदि।
2. निश्चयात्मक—अवश्य, ठीक, सचमुच, अलबत्ता, वास्तव मेँ, बेशक, निःसंदेह आदि।
3. अनिश्चयात्मक—कदाचित्, शायद, सम्भव है, बहुत करके, बहुधा, प्रायः, अक्सर आदि।
4. स्वीकारात्मक—हाँ, ठीक, सच, बिल्कुल सही, जी हाँ आदि।
5. कारणात्मक (हेतु)—इसलिए, अतएव, क्योँ, किसलिए, काहे को, अतः आदि।
6. निषेधात्मक—न, ना, नहीँ, मत, बिल्कुल नहीँ, हरगिज नहीँ, जी नहीँ आदि।
7. आवृत्यात्मक—गटागट, फटाफट, खुल्लमखुल्ला आदि।
8. अवधारक—ही, तो, भी, तक, भर, मात्र, अभी, कभी, जब भी, तभी आदि।
(5) स्वीकारात्मक क्रिया–विशेषण अव्यय–
जिन क्रिया विशेषण शब्दोँ से स्वीकृति का बोध होता है, उन्हेँ स्वीकारात्मक क्रिया–विशेषण अव्यय कहते हैँ। जैसे– जी, अवश्य, अच्छा, बहुत अच्छा, जरूर आदि।
(6) निषेधात्मक क्रिया–विशेषण अव्यय–
जिन अव्यय शब्दोँ से क्रिया के निषेध का ज्ञान होता है, उन्हेँ निषेधात्मक क्रिया–विशेषण अव्यय कहते हैँ। जैसे– न, नहीँ, मत आदि।
♦ क्रिया–विशेषणोँ की रचना :
मूल क्रिया विशेषणोँ के अतिरिक्त प्रत्यय, समास आदि के योग से भी कुछ क्रिया–विशेषण शब्दोँ की रचना होती है, जिन्हेँ यौगिक क्रिया–विशेषण कहा जाता है। ये निम्न प्रकार हैँ–
1. संज्ञा से—प्रेमपूर्वक, कुशलतापूर्वक, दिन–भर, रात–तक, सवेरे, सायं आदि।
2. सर्वनाम से—यहाँ, वहाँ, अब, जब, जिससे, इसलिए, जिस पर, ज्योँ, त्योँ, जैसे–वैसे, जहाँ–वहाँ आदि।
3. विशेषण से—धीरे, चुपके, इतने मेँ, ऐसे, वैसे, कैसे, जैसे, पहले, दूसरे, प्रायः, बहुधा आदि।
4. क्रिया से—चलते–चलते, उठते–बैठते, खाते–पीते, सोते–जागते, जाते–जाते, करते हुए, लौटते हुए आदि।
5. शब्दोँ की पुनरुक्ति से—हाथोँ–हाथ, रातोँ–रात, बीचोँ–बीच, घर–घर, साफ–साफ, कभी–कभी, क्षण–क्षण, पल–पल, धड़ाधड़ आदि।
6. विलोम शब्दोँ के योग से—रात–दिन, साँझ–सवेरे, देश–विदेश, उल्टा–सीधा, छोटा–बड़ा आदि।
7. तः प्रत्याना—सामान्यतः, वस्तुतः, साधारणतः, येन केन प्रकारेण (जैसे–तैसे) आदि।
8. बिना प्रत्ययान्त के—कभी–कभी संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण आदि बिना किसी प्रत्यय के, क्रिया–विशेषण के रूप मेँ प्रयुक्त होते हैँ। जैसे–
(1) संज्ञा –
• तू सिर पढ़ेगा।
• तुम खाक करोगे।
(2) सर्वनाम –
• यह क्या हुआ?
• तूने यह क्या किया?
(3) विशेषण –
• अच्छा हुआ।
• घोड़ा अच्छा चलता है।
(4) पूर्वकालिक क्रिया –
• सुनकर चला गया।
• देखकर चकरा गया।
इस प्रकार के वाक्य क्रिया–विशेषण के रूप मेँ प्रयुक्त किए जाते हैँ।
(9) परसर्ग जोड़कर—कुछ क्रिया–विशेषणोँ के साथ की, के, को, से, पर आदि विभक्तियाँ भी लगती हैँ और इनके योग से भी क्रिया–विशेषणोँ की रचना होती है। जैसे–
• कहाँ से आ रहे हो।
• यहाँ से क्योँ जा रहे हो।
• कब से तुम्हारी राह देख रहा हूँ।
• गुरुजी से नम्रता से बोलो।
• आगे से ऐसा मत करना।
• रात को देर तक मत पढ़ना।
परसर्गोँ की सहायता से बने ये वाक्य क्रिया–विशेषणोँ का कार्य कर रहे हैँ।
10. पदबन्ध—पूरे वाक्यांश क्रिया–विशेषण के रूप मेँ प्रयुक्त होते हैँ। जैसे–
• सवेरे से शाम तक।
• तन–मन–धन से।
• जी–जान से।
• पहाड़ की तलहटी मेँ।
• आपके आदेशानुसार। आदि पदबन्ध क्रिया–विशेषण हैँ।
2. समुच्चयबोधक अव्यय–
जिन अव्यय शब्दोँ से दो शब्द, दो वाक्यांश, दो उपवाक्य, पदबन्ध या वाक्य जोड़े जाते हैँ, उन्हेँ समुच्चय बोधक या योजक अव्यय कहते हैँ। जैसे– पुनः, यथा, वरना, अधिक आदि।
• वह निकम्मा है इसीलिए सब उसे दुत्कारते हैँ।
• यदि तुम परिश्रम करोगे तो अवश्य उत्तीर्ण होगे।
• राम यहाँ रहे या कहीँ और।
• यह मेरा घर है और यह मेरे मित्र का।
उक्त वाक्योँ मेँ ‘इसीलिए’, ‘यदि’, ‘तो’, ‘या’, ‘और’ शब्द समुच्चय या योजक अव्यय हैँ क्योँकि ये वाक्योँ को आपस मेँ जोड़ रहे हैँ।
♦ समुच्चय बोधक अव्यय के दो भेद हैँ–
1. समानाधिकरण समुच्चय बोधक
2. व्याधिकरण समुच्चय बोधक।
1. समानाधिकरण समुच्चय बोधक–
वे अव्यय जो समान घटकोँ (शब्दोँ, वाक्योँ या वाक्यांशोँ) को परस्पर मिलाते हैँ, समानाधिकरण समुच्चयबोधक अव्यय कहलाते हैँ।
समानाधिकरण अव्यय के तीन भेद हैँ–
(1) संयोजक–
जो शब्द वाक्योँ, वाक्यांशोँ या शब्दोँ मेँ संयोग प्रकट करते हैँ उन्हेँ संयोजक कहते हैँ। जैसे–
• राम और श्याम दोनोँ एक ही कक्षा मेँ पढ़ते हैँ।
• मैँ और मेरा पुत्र एवं पड़ौसी सभी साथ थे।
• बादल उमड़े एवं वर्षा हुई।
उपर्युक्त वाक्योँ मेँ ‘और’, ‘एवं’ शब्द संयोजक अव्यय हैँ।
(2) विकल्पबोधक–
ये अव्यय शब्दोँ, वाक्यांशोँ या वाक्योँ मेँ विकल्प प्रकट करते हुए अथवा विभाजन करते हुए उनमेँ मेल कराते हैँ। जैसे–
• तुम चलोगे अथवा श्याम चलेगा।
• न रमेश कोई काम करता है न सुरेश ही।
• तुम्हेँ जन्मदिन पर घड़ी मिलेगी या साइकिल।
उक्त वाक्योँ मेँ ‘अथवा’, ‘न’ व ‘या’ शब्द विकल्पबोधक अव्यय का कार्य कर रहे हैँ।
(3) भेदबोधक–
जो योजक शब्द एक वाक्य, वाक्यांश या शब्द से भिन्नता का ज्ञान कराते हैँ उन्हे भेदबोधक कहते हैँ। जैसे– परन्तु, यद्यपि, तथापि, चाहे, तो भी।
• वह नालायक है फिर भी पास हो जाता है।
• यद्यपि तुम बुद्धिमान हो तथापि कम अंक लाते हो।
• तुम पढ़ने मेँ होशियार हो परन्तु रोज नहीँ आते।
उक्त वाक्योँ मेँ ‘फिर भी’, ‘यद्यपि’, ‘तथापि’ और ‘परन्तु’ शब्द वाक्योँ मेँ भिन्नता का ज्ञान करा रहे हैँ।
भेदबोधक के भी चार निम्नलिखित उपभेद हैँ–
(1) विरोधदर्शक–
जब संयोजक द्वारा पहले वाक्य से मनचाहे अर्थ का विरोध प्रकट हो, तब वह विरोधदर्शक कहलाता है। जैसे– किन्तु, परन्तु आदि। इनके पहले अल्पविराम (,) अर्द्धविराम (;) लगते हैँ।
• रमेश ने बहुत प्रयत्न किया; परन्तु फिर भी असफल रहा।
• छात्राएँ आगे बढ़ती गई; किन्तु छात्र पिछड़ते रहे।
उक्त वाक्योँ मेँ मनचाहा अर्थ नहीँ मिल पाया क्योँकि प्रयत्न करना सफलता का प्रतीक है; पर असफलता मिली। छात्राओँ की तरह छात्र भी आगे बढ़ते पर ऐसा अर्थ नहीँ मिला। इसलिए यहाँ विरोधदर्शक अव्यय ही क्रियाशील रहे।
(2) परिणामदर्शक–
इसके द्वारा मिला हुआ वाक्य किसी परिणाम की ओर संकेत करता है। जैसे–
• चुप हो जाओ नहीँ तो दण्ड मिलेगा।
• नौकर ने चोरी की थी इसलिए उसे निकाल दिया।
• मेरा कहना मानो अन्यथा बाद मेँ पछताओगे।
उक्त वाक्योँ मेँ ‘नहीँ तो’, ‘इसलिए’, ‘अन्यथा’ शब्द परिणाम दर्शक का कार्य कर रहे हैँ।
(3)संकेतबोधक–
जहाँ दो वाक्योँ के आरम्भ मेँ संयोजक द्वारा अगले सम्बन्ध बोधक (योजक) का संकेत पाया जाए, वहाँ संकेत बोधक होता है। वाक्य मेँ अव्यय प्रायः जोड़े मेँ ही प्रयुक्त किए जाते हैँ। जैसे–
• यद्यपि वह बहुत पढ़ा लिखा है तथापि रिश्वती होने के कारण उसका सम्मान नहीँ है।
• यदि तुम गाँव जाओ तो वहाँ सबसे मेरा राम–राम कहना।
• चाहे कोई कितना धनी हो, तो भी चरित्र के बिना सम्मान नहीँ पाता।
उक्त वाक्योँ से स्पष्ट है कि यद्यपि के साथ तथापि, यदि के साथ तो, चाहे के साथ तो भी, जब के साथ जब तक, से के साथ तक, भले के साथ परन्तु आदि का वाक्योँ मेँ प्रयोग होता है तो उक्त संकेतबोधक अव्यय कहलाएंगे।
(4) स्वरूपबोधक–
जिस शब्द का प्रयोग पहले आए शब्द, वाक्यांश या वाक्य का भाव स्पष्ट करने के लिए प्रयुक्त किया जाए, तो वह समुच्चय बोधक का स्वरूप बोधक नामक अव्यय भेद कहलाता है। जैसे–
• तुम्हारे हाथ फूल जैसे हैँ अर्थात् कोमल हैँ।
• वह अहिँसावादी यानी गाँधीजी का पुजारी है।
• राम इतना अच्छा है मानो सचमुच राम है।
इन वाक्योँ मेँ यानी, अर्थात्, मानो स्वरूप बोधक अव्यय हैँ।
2. व्याधिकरण समुच्चय बोधक–
एक या अधिक आश्रित उपवाक्योँ को प्रधान वाक्य से जोड़ने वाले अव्यय व्याधिकरण समुच्चय बोधक अव्यय कहलाते हैँ। जैसे– यदि, तो, यद्यपि, तथापि, ताकि, इसलिए, यानि, अर्थात् आदि।
व्याधिकरण समुच्चय बोधक अव्यय चार प्रकार के होते हैँ–
(I) कारणबोधक–
(क्योँकि, चूँकि, इसलिए, कि, ताकि आदि।)
ये अव्यय वाक्योँ के आरंभ मेँ आते हैँ। जैसे–
• अजय को बुखार है इसलिए वह स्कूल नहीँ जाएगा।
• मुझे घर जाना चाहिए ताकि मैँ आराम कर सकूँ।
(II) संकेत बोधक–
(यदि, तो, यद्यपि... तथापि, यद्यपि... परंतु आदि।)
ये अव्यय दो उपवाक्योँ को जोड़ते हैँ। जैसे–
• यद्यपि वर्षा हुई परंतु गर्मी कम नहीँ हुई।
• यदि तुम अपनी खैर चाहते हो तो यहाँ से चले जाओ।
(III) स्वरूप बोधक–
(अर्थात्, यानि, मानो आदि।)
ये अव्यय पहले के उपवाक्य या वाक्यांश के अर्थ को अधिक स्पष्ट करने वाले होते हैँ। जैसे–
• मैँ अहिँसावादी यानि गाँधी का समर्थक हूँ।
• तुम्हारे हाथ फूल जैसे अर्थात् कोमल हैँ।
(IV) उद्देश्य बोधक–
(ताकि, जिससे, कि, इसलिए आदि।)
ये अव्यय आश्रित उपवाक्य से पूर्व आकर मुख्य वाक्य का उद्देश्य स्पष्ट करते हैँ। जैसे–
• मैँने सुबह पढ़ाई पूरी कर ली ताकि शाम को खेल सकूँ।
• मैँ भागा जिससे गाड़ी पकड़ सकूँ।
3. सम्बन्ध बोधक अव्यय–
जो अव्यय संज्ञा या सर्वनाम के बाद आते हैँ एवं उनका सम्बन्ध वाक्य के दूसरे शब्दोँ या पदोँ के साथ बताते हैँ, उन्हेँ सम्बन्ध बोधक अव्यय कहते हैँ। जैसे– ओर, अपेक्षा, तुल्य, वास्ते, विशेष, पलटे, ऐसा, जैसे, लिए, मारे, करके आदि सम्बन्धवाचक अव्यय हैँ।
उदाहरण–
• खुशी के मारे वह पागल हो गया।
• बालक चाँद की ओर देख रहा था।
• मेरे घर के सामने मन्दिर है।
• छत के ऊपर मोर नाच रहा है।
• मेरे कारण तुम्हेँ परेशानी हुई।
उक्त वाक्योँ मेँ मारे, ओर, सामने, ऊपर, कारण शब्द सम्बन्ध बोधक अव्यय का कार्य कर रहे हैँ। इनके अतिरिक्त निम्नलिखित सम्बन्ध बोधक शब्द और उनके प्रयोग द्रष्टव्य हैँ–
शब्द — प्रयोग
• नाईँ—पढ़े–लिखे की नाईँ (तरह)।
• रहे—दो घड़ी दिन रहे चल देना।
• नीचे—पेड़ के नीचे खाट पर सो जाना।
• तले—गरीब आकाश तले रात गुजारते हैँ।
• पास—गाँव के पास स्टेशन है।
• निकट—शहर के निकट के लोग प्रायः सम्पन्न होते हैँ।
• निमित्त—हम सब तो निमित्त मात्र हैँ।
• आगे—मेरे घर के आगे बस–स्टेण्ड है।
• पीछे—हमारे घर के पीछे बगीचा है।
• पहले—वर्षा से पहले छत ठीक कर लो।
• द्वारा—मेरे द्वारा कुछ गलत न हो जाए।
• समान—ज्ञान के समान और कोई पवित्र वस्तु नहीँ है।
• समीप—तालाब के समीप मत जाना।
• तक—हम दो दिन तक भटकते रहे।
• प्रतिकूल—प्रकृति प्रतिकूल चले तो विनाश हो जाएगा।
• विरुद्ध—मेरे विरुद्ध वह आवाज नहीँ उठा सकता।
• मध्य—आतंकवाद को लेकर भारत और पाकिस्तान के मध्य मन मुटाव चल रहा है।
• विषय—मुझे उसके विषय मेँ कुछ नहीँ मालूम।
• बाहर—घर के बाहर बहुत बड़ा चौक है।
• परे—शक्ति से परे व्यक्ति को कुछ नहीँ करना चाहिए।
• समेत—भाइयोँ के समेत मैँ भी वहीँ था।
• तुल्य—वह मानव नहीँ देवता–तुल्य है।
• सदृश—वह खुशी के मारे कमल के सदृश खिल उठा।
♦ सम्बन्ध बोधक अव्यय के भेद–
सम्बन्धबोधक अव्ययोँ के भण्डार को भाषा की सुविधा हेतु चौदह भेदोँ मेँ इस प्रकार स्पष्ट करेँगे–
1. कालवाचक – आगे, पीछे, पहले, बाद, पूर्व, पश्चात्, उपरान्त आदि।
2. स्थानवाचक – पास, दूर, तरफ, प्रति, ऊपर, नीचे, तले, मध्य, बाहर ही, भीतर, अन्दर, सामने, निकट, यहाँ, वहाँ, नजदीक आदि।
3. साधनवाचक – हाथ, द्वारा, हस्ते, विरुद्ध, जरिये, मारफत, सहारे आदि।
4. दिशावाचक – सामने, ओर, पार, तरफ, आर–पार, प्रति, आस–पास आदि।
5. विरोधसूचक – प्रतिकूल, उलटे, विपरीत, खिलाफ आदि।
6. हेतु (कारण) वाचक – कारण, हेतु, लिए, निमित्त, वास्ते, खातिर आदि।
7. व्यतिरेकवाचक – अतिरिक्त, अलावा, सहित, सिवाय आदि।
8. सहसूचक – साथ, संग, समेत, पूर्वक, अधीन, वश आदि।
9. पार्थक्य सूचक – दूर, पृथक्क, परे, हटकर आदि।
10. तुलनावाचक – की अपेक्षा, की बजाय, वनिस्पत आदि।
11. संग्रहवाचक – मात्र, भर, पर्याप्त, तक आदि।
12. साम्यवाचक – सदृश, बराबर, ऐसा, जैसा, अनुसार, समान, तुल्य, नाईँ, अनुरूप, तरह आदि।
13. विनिमयवाचक – एवज, पलटे, के बदले, की जगह आदि।
14. विषयकवाचक – भरोसे, लेखे, नाम, विषय, बाबत आदि।
4. विस्मयादिबोधक अव्यय–
वे अव्यय शब्द जो बोलने वाले या लिखने वाले के विस्मय, हर्ष, शोक, लज्जा, ग्लानि, खेद आदि मनोभावोँ को प्रकट करते हैँ, विस्मयादिबोधक अव्यय कहलाते हैँ। जैसे– अहो, हे, छी, वाह, धिक्कार आदि।
♦ विस्मय बोधक अव्यय के सात भेद हैँ –
1. हर्षबोधक—वाह–वाह!, धन्य–धन्य!, आहा!, शाबाश!
2. शोकबोधक—हाय!, आह!, हा–हा!, त्राहि–त्राहि!
3. आश्चर्यबोधक—अहो!, ओह!, ओहो!, हैँ!, क्या!
4. अनुमोदनबोधक—अच्छा!, हाँ–हाँ!, वाह!, शाबाश!
5. तिरस्कारबोधक—छिः!, हट!, अरे!, धिक्!
6. स्वीकृतिबोधक—अच्छा!, ठीक!, बहुत अच्छा!, हाँ!, जी हाँ!
7. सम्बन्धबोधक—अरे!, रे!, अजी!, अहो! आदि।
कभी–कभी संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण आदि शब्द भी विस्मयादिबोधक का काम करते हैँ। जैसे–
• संज्ञा—राम–राम!, शिव–शिव!, जय गंगे!, श्री कृष्ण! आदि।
• सर्वनाम—यही!, कौन!, क्या!, तूने! आदि।
• विशेषण—सुन्दर!, अच्छा!, खूब!, बहुत अच्छे!, जंगली! आदि।
• क्रिया—चला जाऊँ!, चुप!, आ गये! आदि।
• वाक्यांश—शान्तम् पापम्! आदि।
♦ निपात :
वे सहायक पद जो वाक्यार्थ मेँ नवीन अर्थ या चमत्कार उत्पन्न कर देते हैँ, निपात कहलाते हैँ। जैसे– ही, तक, तो, भी, सा, जी, मत, यह, क्या आदि निपात हैँ।
निपात सहायक शब्द होते हुए भी वाक्य का अंग नहीँ हैँ। इनका कोई भी लिँग या वचन नहीँ होता। निपात का कार्य शब्द–समूह को बल प्रदान करना है।
♦ निपात के भेद–
1. स्वीकारात्मक—हाँ, जी, जी हाँ।
2. नकारात्मक—जी नहीँ, नहीँ।
3. निषेधात्मक—मत।
4. प्रश्नबोधक—क्या।
5. विस्मयात्मक—काश।
6. तुलनात्मक—सा।
7. अवधारणात्मक—ठीक, लगभग, करीब, तकरीबन।
8. आदरात्मक—जी।
पद–परिचय
♦ पद–परिचय :
वाक्य मेँ प्रयुक्त सार्थक शब्द को ‘पद’ कहते हैँ। वाक्य मेँ प्रयुक्त प्रत्येक पद के स्वरूप, प्रकार या भेद का विश्लेषण करना अथवा परिचय देना ही ‘पद–परिचय’ कहलाता है।
अंग्रेजी मेँ इसे (Parsing) कहते हैँ। पद–परिचय को पदान्वय, पद–व्याख्या, पद–निर्देश, पदच्छेद, शब्द निरूपण या शब्दबोध आदि भी कहा जाता है।
वाक्य मेँ संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया तथा अव्यय शब्द प्रयुक्त होते हैँ। पद–परिचय मेँ यह बताया जाता है कि वाक्य मेँ शब्द विशेष का प्रयोग के अनुसार क्या स्थान है? यदि यह विकारी (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया) है तो उसके लिँग, पुरुष, कारक, वचन आदि क्या हैँ और उसके साथ वाक्य मेँ आये अन्य शब्दोँ का क्या सम्बन्ध है? यदि वह शब्द अविकारी (क्रिया–विशेषण, सम्बन्धबोधक, समुच्चय बोधक, विस्मयादिबोधक) है तो किस अर्थ मेँ उसका प्रयोग हुआ है और वह अव्यय के किस भेद के अन्तर्गत आता है और वाक्य मेँ अन्य शब्दोँ से उसका क्या सम्बन्ध है? इस प्रकार पद–परिचय मेँ वाक्योँ मेँ प्रयुक्ति के अनुसार शब्दोँ की भेदोपभेद सहित व्याख्या करनी पड़ती है।
उदाहरण–
1. संज्ञा का पद परिचय–
इसमेँ संज्ञा का प्रकार (व्यक्तिवाचक, जातिवाचक एवं भाववाचक), लिंग, वचन, कारक (कर्त्ता, कर्म आदि) तथा वाक्य के क्रिया आदि शब्दोँ से सम्बन्ध बताया जाता है। जैसे–
• बचपन मेँ बालकोँ मेँ चंचलता होती है।
पद–परिचय–
(1) बचपन—भाववाचक संज्ञा, पुल्लिँग, एकवचन, अधिकरण कारक, ‘होती है’ क्रिया का आधार।
(2) बालकोँ—जातिवाचक संज्ञा, पुल्लिँग, एकवचन, अधिकरण कारक, ‘होती है’ क्रिया का आधार।
(3) चंचलता—भाववाचक संज्ञा, स्त्रीलिँग, एकवचन, कर्त्ताकारक, ‘होती है’ क्रिया का कर्त्ता।
2. सर्वनाम का पद–परिचय–
इसमेँ सर्वनाम का भेद, वचन, लिँग, कारक, पुरुष और अन्य शब्दोँ से सम्बन्ध बताया जाता है। जैसे–
• वह कौन थी, जिससे तुम अभी–अभी बात कर रहे थे।
पद–परिचय–
(1) वह—पुरुषवाचक सर्वनाम, अन्यपुरुष, स्त्रीलिँग, एकवचन, कर्त्ताकारक, ‘बात कर रहे थे’ क्रिया का कर्त्ता।
(2) कौन—प्रश्नवाचक सर्वनाम, स्त्रीलिँग, एकवचन, अधिकरण कारक, ‘वह’ का अधिकरण।
(3) जिससे—सम्बन्ध वाचक सर्वनाम, स्त्रीलिँग, एकवचन, कर्मकारक, क्रिया ‘बात कर रहे थे’ का कर्म।
(4) तुम—पुरुषवाचक सर्वनाम, मध्यमपुरुष, पुल्लिँग, एकवचन, कर्त्ताकारक, ‘बात कर रहे थे’ क्रिया का कर्त्ता।
3. विशेषण का पद–परिचय–
इसमेँ विशेषण के भेद, लिँग, वचन, विशेषण की अवस्था, विशेष्य का निरूपण ये बातेँ बताई जाती हैँ। जैसे–
• जोधपुरी साड़ी खरीदनी चाहिए।
पद–परिचय–
(1) जोधपुरी—व्यक्तिवाचक विशेषण, स्त्रीलिँग, एकवचन, साड़ी का विशेषण।
4. क्रिया का पद–परिचय–
क्रिया के पदान्वय मेँ क्रिया के भेद (सकर्मक और अकर्मक), काल (वर्तमान काल, भूतकाल, भविष्यत्काल), पुरुष, लिँग, वाच्य (कर्त्तृवाच्य, कर्मवाच्य, भाववाच्य), क्रिया का कर्त्ता आदि से सम्बन्ध बताया जाता है। जैसे–
• सुरेन्द्र ने कहा– “मैँ पुस्तक पढ़ूँगा। तुम भी अपना पाठ पढ़कर सुनाओ।”
पद–परिचय–
(1) कहा—सकर्मक क्रिया, सामान्य भूतकाल, अन्यपुरुष, पुल्लिँग, एकवचन, कर्त्तृवाच्य, ‘पढ़ूँगा’ क्रिया का कर्त्ता सुरेन्द्र है और कर्म है– मैँ पुस्तक पढ़ूँगा।
(2) पढ़ूँगा—सकर्मक क्रिया, सामान्य भविष्यत काल, उत्तम पुरुष, पुल्लिँग, एकवचन, कर्त्तृवाच्य, ‘पढ़ूँगा’ क्रिया का कर्त्ता ‘मैँ’ और कर्म है– ‘पुस्तक’ ।
(3) पढ़कर—सकर्मक पूर्वकालिक क्रिया, कर्म है– ‘पाठ’।
(4) सुनाओ—सकर्मक प्रेरणार्थक क्रिया, मध्यम पुरुष, बहुवचन, कर्त्तृवाच्य, इसका कर्त्ता है– ‘तुम’।
5. अव्यय का पद–परिचय–
इसमेँ अव्यय (क्रिया–विशेषण) का प्रकार और क्रिया से सम्बन्ध बताया जाता है। जैसे–
• तुम यहाँ कब आये।
पद–परिचय–
(1) यहाँ—स्थानवाचक क्रियाविशेषण अव्यय ‘आये’ क्रिया की विशेषता बताता है।
(2) कब—कालबोधक क्रियाविशेषण अव्यय ‘आये’ क्रिया की विशेषता बतलाता है।
• मैँ आज काम नहीँ करूँगा।
पद–परिचय–
(1) आज—कालवाचक क्रिया विशेषण, विशेष्य क्रिया ‘करूँगा’।
(2) नहीँ—रीतिवाचक क्रियाविशेषण, विशेष्य क्रिया ‘करूँगा’।
—:०:—
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प्रस्तुति:–
प्रमोद खेदड़