सामान्य हिन्दी
5. वाक्य–विचार
♦ वाक्य–
सार्थक पदोँ (शब्दोँ) के उस समूह को वाक्य कहते हैँ, जिसके द्वारा एक अर्थ या एक पूर्ण भाव की अभिव्यक्ति होती है। वाक्य सार्थक शब्दोँ का व्यवस्थित रूप है। शिक्षितोँ की वाक्य–रचना व्याकरण के नियमोँ से अनुशासित होती है।
वाक्य एक या एक से अधिक शब्दोँ का भी हो सकता है। भाषा की इकाई वाक्य है। छोटा बालक चाहे वह एक शब्द ही बोलता हो, उसका अर्थ निकलता है, तो वह वाक्य है। वाक्य–रचना मेँ प्रयुक्त सार्थक पदोँ के समूह मेँ परस्पर योग्यता, आकांक्षा और आसक्ति या निकटता का होना जरूरी है, तभी वह सार्थक पद–समूह वाक्य कहलाता है।
♦ वाक्य की परिभाषाएँ–
• आचार्य विश्वनाथ—“वाक्य स्यात् योग्यताकांक्षासन्निधिः युक्तः पदोच्चयः।” अर्थात्—“जिस वाक्य मेँ योग्यता और आकांक्षा के तत्त्व विद्यमान हो वह पद समुच्चय वाक्य कहलाता है।”
• पतंजलि—“पूर्ण अर्थ की प्रतीति कराने वाले शब्द–समूह को वाक्य कहते हैँ।”
• प्रो॰ देवेन्द्रनाथ शर्मा—“भाषा की न्यूनतम पूर्ण सार्थक इकाई वाक्य है।”
• कार्ल एफ सुंडन—“वाक्य बोली का एक अंश है अर्थात् श्रोता के समक्ष अभिप्रेत को, जो सत्य है, प्रस्तुत किया जाता है।”
♦ वाक्य के तत्त्व–
विचारोँ की अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा है। वाक्य मेँ अभिव्यक्ति का तत्त्व होना आवश्यक है। वाक्य मेँ ध्वनि तथा लिपि उसके बाह्य रूप हैँ, शरीर हैँ। अर्थ उसके प्राण हैँ। शरीर व प्राण की तरह वाक्य मेँ अर्थ तत्त्व, ध्वनि तत्त्व होना चाहिए। वाक्य मेँ शब्दोँ का उचित क्रम होना चाहिए। इस प्रकार वाक्य–विन्यास मेँ निम्न तत्त्वोँ का समावेश आवश्यक है–
(1) सार्थकता–
वाक्य मेँ सदैव सार्थक शब्दोँ का ही प्रयोग होना चाहिए। निरर्थक शब्द तभी आते हैँ, जब वे वाक्य मेँ कुछ अर्थपूर्ण स्थिति मेँ होते हैँ, जैसे– बक–बक, अपने आप मेँ निरर्थक शब्द हैँ। जब ये शब्द किसी प्रश्नवाचक के साथ प्रयुक्त किए जाएँ, जैसे– ‘क्या बक–बक लगा रखी है?’ तो इन शब्दोँ मेँ सार्थकता आ जाती है।
(2) योग्यता–
वाक्य के शब्दोँ (पदोँ) का प्रसंग के अनुकूल भाव–बोध अर्थात् अर्थ ज्ञान कराने की क्षमता ही ‘योग्यता’ कहलाती है। वाक्य मेँ वाक् मर्यादा अथवा जीवन के अनुभव के विरुद्ध कोई बात नहीँ कही जानी चाहिए। यदि वाक्य मेँ व्यक्त अर्थ मेँ असंगति होगी, तो वाक्य अपूर्ण कहा जाएगा। जैसे–
1. माली आग से उद्यान सीँचता है।
2. हाथी को रस्सी से बाँधा है।
उक्त वाक्योँ मेँ पहले वाक्य मेँ योग्यता का अभाव है क्योँकि आग का कार्य जलाना है, उसमेँ सीँचने की योग्यता नहीँ होती। दूसरे वाक्य मेँ हाथी को रस्सी से बाँधने की बात भी अनुचित है क्योँकि वह लोहे की जंजीरोँ से बाँधा जाता है। अतः दोनोँ वाक्योँ मेँ भाव या अर्थ की असंगति है। अतः ये वाक्य नहीँ हैँ।
(3) आकांक्षा–
आकांक्षा का अर्थ है– श्रोता की जिज्ञासा। वाक्य के शब्द एक दूसरे पर आश्रित रहते हैँ। इसलिए वाक्य के किसी भाव को पूर्ण रूप से समझने के लिए एक शब्द को सुनकर अन्य शब्दोँ को सुनने की उत्कण्ठा सहज उत्पन्न होती है। इसे ही आकांक्षा कहा जाता है। जैसे– भूखे बच्चे से माता कुछ शब्द ‘हाँ बेटा’ कह दे, तो बच्चा अगला शब्द– ‘दूध लाती हूँ’ सुनने को लालायित रहेगा, जब तक माता से ‘दूध लाती हूँ’ वाक्य को पूरा न सुन ले। यही आकांक्षा है, इसके बिना वाक्य पूर्ण नहीँ होता।
(4) आसक्ति या निकटता–
आशक्ति का आशय है कि एक शब्द का जब उच्चारण किया जाए तो उसी समय अन्य शब्दोँ का भी उच्चारण किया जाए। वाक्य मेँ योग्यता और आकांक्षा के साथ शब्दोँ मेँ परस्पर सान्निध्य भी आवश्यक है अन्यथा अर्थ समझने मेँ कठिनाई होती है। जैसे– हम आज कहेँ– वायुयान और कल कहेँ– उड़ता है, तो निश्चित रूप से अर्थ स्पस्ट नहीँ होगा इसलिए दोनोँ पदोँ का समीप होना आवश्यक है तभी ‘वायुयान उड़ता है’, वाक्य पूर्ण होगा। रुक–रुककर बोले गए शब्द वाक्य की संज्ञा धारण नहीँ कर सकते।
(5) पदक्रम–
वाक्योँ मेँ प्रयोग करने के लिए शब्दोँ का सही व्याकरणानुसार यथाक्रम प्रयोग करना आवश्यक है। पदक्रम के अभाव मेँ कुछ का कुछ अर्थ निकल जाता है और इस प्रकार विचारोँ का सही सम्प्रेषण नहीँ हो पाता। जैसे– ‘खरगोश को काटकर गाजर खिलाओ।’ वाक्य मेँ पदक्रम का दोष होने से अर्थ का अनर्थ हो रहा है। अतः इसे– ‘खरगोश को गाजर काटकर खिलाओ’ लिखने से सही अर्थ बोध होगा।
(6) अन्वय–
अन्वय शब्द का अर्थ है– मेल। वाक्य मेँ क्रिया के साथ लिँग, वचन, कारक, पुरुष, काल आदि का अनुकरणात्मक व व्याकरणात्मक मेल होना आवश्यक है। जैसे– मछलियाँ पानी मेँ तैर रही हैँ। यहाँ ‘मछलियाँ’ (कर्त्ता पद) प्रथम क्रम पर है तथा ‘तैर रही हैँ’ अन्तिम क्रम पर और ‘पानी मेँ’ (स्थानवाचक क्रियाविशेषण) मध्यम क्रम पर है। अतः उचित अन्वय के कारण यह वाक्य पूर्ण सार्थक सिद्ध हुआ।
♦ वाक्य के साहित्य सम्बन्धी गुण–
(1) स्पष्टता
(2) समर्थता
(3) श्रुतिमधुरता
(4) लचीलापन
(5) विषय का ज्ञान।
♦ वाक्य के अंग–
वाक्य–विन्यास करते समय जिन शब्दोँ का प्रयोग किया जाता है, वे मुख्य रूप से दो भागोँ मेँ विभक्त रहते हैँ, इसलिए वाक्य के दो अंग या घटक माने जाते हैँ– (1) उद्देश्य और (2) विधेय।
(1) उद्देश्य–
वाक्य मेँ जिस व्यक्ति या वस्तु के सम्बन्ध मेँ कुछ कहा जाता है, उसे उद्देश्य कहते हैँ। अतः काम के करने वाले (कर्त्ता) को उद्देश्य कहते हैँ। उद्देश्य प्रायः संज्ञा, सर्वनाम या विशेषण शब्द होते हैँ, कहीँ पर क्रियार्थक शब्द भी उद्देश्य अंश बन जाता है। जैसे–
(1) रमेश गाँव जाएगा।
(2) अभिमानी का सर्वत्र आदर नहीँ होता।
(3) घूमना स्वास्थ्य के लिए अच्छा रहता है।
प्रथम वाक्य मेँ, गाँव जाने का कार्य ‘रमेश’ कर रहा है। अतः रमेश उद्देश्य है। द्वितीय वाक्य मेँ, अभिमानी का आदर न होना वर्णित है, इसमेँ ‘अभिमानी’ विशेषण–पद उद्देश्य है। तृतीय वाक्य मेँ, ‘घूमना’ क्रियार्थक शब्द है, जो कि वाक्य मेँ उद्देश्य अंश की तरह प्रयुक्त है।
उद्देश्य का विस्तारक–
वाक्य मेँ उद्देश्य अर्थात् कर्त्ता के साथ जो शब्द उसके विशेषण रूप मेँ प्रयुक्त होते हैँ, वे उद्देश्य के विस्तारक या पूरक कहलाते हैँ। जैसे– लोभी व्यक्ति दुःखी रहता है। इस वाक्य मेँ ‘लोभी’ शब्द ‘व्यक्ति’ का विशेषण है, इसलिए यह कर्त्ता अर्थात् ‘व्यक्ति’ का पूरक–पद है।
इस प्रकार उद्देश्य के अन्तर्गत कर्त्ता और कर्त्ता का विस्तार दोनोँ आते हैँ। उद्देश्य विस्तारक मेँ निम्न प्रकार के शब्द हो सकते हैँ–
(1) संज्ञा या सर्वनाम (सम्बन्ध कारक के रूप मेँ)। जैसे– रमेश की घड़ी चोरी चली गई, वाक्य मेँ ‘रमेश की’।
(2) सार्वनामिक विशेषण। जैसे– वह बालक चला गया, वाक्य मेँ ‘वह’।
(3) विशेष! जैसे– अच्छा लड़का प्यारा लगता है, वाक्य मेँ ‘अच्छा’।
(4) कृदन्त (सम्बन्ध कारक के रूप मेँ)। जैसे– मेरा लिखा हुआ पत्र कहाँ है?, वाक्य मेँ ‘लिखा हुआ’।
(5) कृदन्त का विशेषण। जैसे– अधिक खेलना अच्छा नहीँ होता, वाक्य मेँ ‘अधिक’।
(6) समानाधिकरण शब्द (समानार्थी) का अर्थ स्पष्ट करने वाला शब्द। जैसे– गोपाल का भाई सत्यपाल पास हो गया, वाक्य मेँ ‘गोपाल का भाई’।
(2) विधेय–
वाक्य मेँ उद्देश्य के सम्बन्ध मेँ जो कुछ कहा जाता है, उसे विधेय कहते हैँ। वाक्य मेँ क्रिया और उसका पूरक विधेय होता है। जैसे–
(1) आदमी जा रहा था।
(2) वह पढ़ते–पढ़ते सो गया।
(3) गीता लिखती है।
इन वाक्योँ मेँ ‘जा रहा था’, ‘सो गया’ और ‘लिखती है’ विधेय अंश हैँ, इनसे उद्देश्य के कार्य का ज्ञान होता है।
विधेय का विस्तारक–
वाक्य मेँ क्रिया की विशेषता बताने वाले पदोँ को विधेय का विस्तारक कहते हैँ। कभी–कभी क्रिया के विस्तारक के साथ कुछ पूरक–पद भी आते हैँ, जो कि कर्त्ता कारक को छोड़कर अन्य विभक्तियोँ के होते हैँ। उनको भी विधेय के पूरक एवं विस्तारक भाग मेँ रखा जाता है। जैसे–
• ‘पुस्तक मेज के ऊपर रखी है।’
इस वाक्य मेँ ‘रखी है’ विधेय है तथा ‘मेज के ऊपर’ विधेय का पूरक या विस्तारक है।
विधेय–विस्तारक मेँ निम्न प्रकार के शब्द हो सकते हैँ–
(1) क्रिया विशेषण। जैसे– मुरली कल चला गया, वाक्य मेँ ‘कल’।
(2) संज्ञा अथवा सर्वनाम (करण, अपादाना या अधिकरण कारक के रूप मेँ)। जैसे– मैँ कलम से लिख रहा हूँ, वाक्य मेँ ‘कलम से’।
(3) कृदन्त। जैसे– दौड़ता हुआ गया, वाक्य मेँ ‘दौड़ता हुआ’।
(4) अकर्मक क्रिया का पूरक शब्द। जैसे– वह फल खराब हो गया, वाक्य मेँ ‘खराब’।
(5) सकर्मक क्रिया का कर्म। जैसे– साधना ने पुस्तक पढ़ ली, वाक्य मेँ ‘पुस्तक’।
(6) सकर्मक क्रिया के कर्म का पूरक। जैसे– राम ने सुग्रीव को मित्र बनाया, वाक्य मेँ ‘मित्र’।
(7) सम्प्रदान कारक। जैसे– मैँ सरोज के लिए मिठाई लाया, वाक्य मेँ ‘सरोज के लिए’।
♦ वाक्य और उपवाक्य–
वाक्य उस शब्द–समूह को कहते हैँ जिसमेँ कर्त्ता और क्रिया दोनोँ होते हैँ। जैसे– मोहन खेलता है। इसमेँ मोहन कर्त्ता और खेलता है– क्रिया है। इस वाक्य से पूरा अर्थ–बोध होता है। अतः यह एक वाक्य है।
कभी–कभी एक वाक्य मेँ अनेक वाक्य होते हैँ। इसमेँ एक वाक्य तो प्रधान वाक्य होता है और शेष उपवाक्य। जैसे–
मोहन ने कहा कि मैँ खेलूँगा।
इसमेँ ‘मोहन ने कहा’ प्रधान वाक्य है और ‘कि मैँ खेलूँगा’ उपवाक्य। उपवाक्य, वाक्य का भाग होता है, जिसका अपना अर्थ होता है और जिसमेँ उद्देश्य और विधेय भी होते हैँ।
उपवाक्योँ के आरम्भ मेँ अधिकतर कि, जिससे, ताकि, जो, जितना, ज्योँ–ज्योँ, चूँकि, क्योँकि, यदि, यद्यपि, जब, जहाँ, इत्यादि होते हैँ।
• उपवाक्य तीन प्रकार के होते हैँ–
(1) संज्ञा उपवाक्य–
जो आश्रित उपवाक्य संज्ञा की तरह व्यवहृत हो, उसे संज्ञा उपवाक्य कहते हैँ। इस उपवाक्य के पूर्व प्रायः ‘कि’ होता है। जैसे– राम ने कहा कि मैँ खेलूँगा। यहाँ ‘मैँ खेलूँगा’ संज्ञा उपवाक्य है।
(2) विशेषण उपवाक्य–
जो आश्रित उपवाक्य विशेषण की तरह व्यवहार मेँ आये, उसे विशेषण उपवाक्य कहते हैँ। जैसे– जो आदमी कल आया था, आज भी आया है। यहाँ ‘जो कल आया था’ विशेषण उपवाक्य है। इसमेँ जो, जैसा, जितना इत्यादि शब्दोँ का प्रयोग होता है।
(3) क्रियाविशेषण उपवाक्य–
जो उपवाक्य क्रिया विशेषण की तरह व्यवहार मेँ आये, उसे क्रिया विशेषण उपवाक्य कहते हैँ। जैसे– जब पानी बरसता है, तब मेँढक बोलते हैँ। यहाँ ‘जब पानी बरसता है’ क्रिया विशेषण उपवाक्य है। इसमेँ प्रायः जब, जहाँ, जिधर, ज्योँ, यद्यपि इत्यादि शब्दोँ का प्रयोग होता है।
♦ वाक्य के भेद :
वाक्य के भेद निम्नांकित तीन आधार पर किए जाते हैँ–
1. रचना के आधार, पर
2. अर्थ के आधार पर,
3. क्रिया के आधार पर।
• रचना के आधार पर वाक्य के भेद–
1. सरल वाक्य–
जिस वाक्य मेँ एक उद्देश्य, एक विधेय और एक ही मुख्य क्रिया हो, उसे सरल या साधारण वाक्य कहते हैँ। जैसे–
• बिजली चमक ती है।
• पानी बरस रहा है।
• सूर्य निकल रहा है।
• वह पुस्तक पढ़ता है।
• छात्र मैदान मेँ खेल रहे हैँ।
इन वाक्योँ मेँ एक ही उद्देश्य और एक ही विधेय है अतः ये सरल या साधारण वाक्य हैँ।
2. मिश्र वाक्य–
जिस वाक्य मेँ मुख्य उद्देश्य और मुख्य विधेय के अलाव एक या अधिक समापिका क्रियाएँ होँ, उसे मिश्र वाक्य कहते हैँ। मिश्र वाक्योँ की रचना एक से अधिक ऐसे साधारण वाक्योँ से होती है, जिनमेँ एक प्रधान तथा अन्य वाक्य गौण (आश्रित) होँ। इस तरह मिश्रित वाक्य मेँ एक मुख्य उपवाक्य और उस मुख्य उपवाक्य के आश्रित एक अथवा एक से अधिक उपवाक्य हैँ। जैसे–
• वह कौन–सा मनुष्य है जिसने महाप्रतापी राजा भोज का नाम न सुना हो।
इस वाक्य मेँ ‘वह कौन–सा मनुष्य है’ मुख्य वाक्य है और शेष सहायक वाक्य क्योँकि वह मुख्य वाक्य पर आश्रित है। अन्य उदाहरण–
• मालिक ने कहा कि कल छुट्टी रहेगी।
• मोहन लाल, जो श्याम गली मेँ रहता है, मेरा मित्र है।
• ऊँट ही एक ऐसा पशु है जो कई दिनोँ तक प्यासा रह सकता है।
• यह वही भारत देश है जिसे पहले सोने की चिड़िया कहा जाता था।
♦ आश्रित उपवाक्य (गौण उपवाक्य)–
मिश्र वाक्य मेँ आने वाले आश्रित (गौण) उपवाक्य तीन प्रकार के होते हैँ–
(1) संज्ञा उपवाक्य–
जो अपने प्रधान उपवाक्य मेँ प्रयुक्त उद्देश्य का, क्रिया का, कर्म या पूरक का समानाधिकरण होता है, उसे संज्ञा उपवाक्य कहते हैँ। प्रायः संज्ञा उपवाक्य समुच्चय बोधक अव्यय ‘कि’ से जुड़ा रहता है। जैसे–
• हमारा विश्वास था कि भारत मैच जीत लेगा।
• मैँ नहीँ जानता कि वह कहाँ है।
• वकील ने फटकारते हुए कहा कि वह झूठा है।
विशेष—उद्धरण चिह्नोँ मेँ बंद उपवाक्य भी संज्ञा उपवाक्य होते हैँ। जैसे–
• सुषमा ने कहा, “आज मेरा जन्म दिन है।”
• विद्यार्थी ने कहा, “मैँ विद्यालय जाऊँगा।”
(2) विशेषण उपवाक्य–
जो अपने प्रधान उपवाक्य के किसी संज्ञा या सर्वनाम शब्द की विशेषता बताता है, उसे विशेषण उपवाक्य कहते हैँ। जैसे–
• जो बात सुनो उसे समझो।
• यह वही छात्र है, जो मेरे स्कूल मेँ पढ़ता था।
इनमेँ ‘जो’, ‘उसे’ तथा ‘यह’ शब्द दोनोँ उपवाक्योँ को जोड़ रहे हैँ तथा सर्वनाम की विशेषता बता रहे हैँ।
(3) क्रियाविशेषण उपवाक्य–
जो अपने प्रधान उपवाक्य के क्रिया शब्द की विशेषता बताता है या क्रियाविशेषण का समानाधिकरण होता है, उसे क्रियाविशेषण उपवाक्य कहते हैँ। जैसे–
• जब–जब वर्षा होगी, तब–तब हरियाली फैलेगी।
• यदि वह पढ़ेगा नहीँ, तो उत्तीर्ण कैसे होगा?
इन वाक्योँ मेँ जब–जब, तब–तब, यदि, तो—क्रियाविशेषण की तरह प्रयुक्त होकर प्रधान उपवाक्य की क्रिया की विशेषता बता रहे हैँ।
समानाधिकरण उपवाक्य–
जो उपवाक्य प्रधान उपवाक्य या आश्रित उपवाक्य के समान अधिकरण वाला हो, अर्थात् एक पूर्ण वाक्य मेँ दो उपवाक्य होँ और दोनोँ ही प्रधान होँ, उसे समानाधिकरण उपवाक्य कहते हैँ। इन उपवाक्योँ मेँ संयोजक अव्यय शब्दोँ का प्रयोग होता है। जैसे–
• रामदीन निर्धन है, किन्तु है परिश्रमी।
• बुरी संगति मत करो, वरना बाद मेँ पछताओगे।
3. संयुक्त वाक्य–
जिस वाक्य मेँ एक से अधिक साधारण या मिश्र वाक्य होँ और वे किसी संयोजक अव्यय (किन्तु, परन्तु, बल्कि, और, अथवा, तथा, आदि) द्वारा जुड़े होँ, तो ऐसे वाक्य को संयुक्त वाक्य कहते हैँ। जैसे–
• राम पढ़ रहा था परन्तु रमेश सो रहा था।
• शीला खेलने गई और रीता नहीँ गई।
• समय बहुत खराब है इसलिए सावधान रहना चाहिए।
इन वाक्योँ मेँ ‘परन्तु’, ‘और’ व ‘इसलिए’ अव्यय पदोँ के द्वारा दोनोँ साधारण वाक्योँ को जोड़ा गया है। यदि ऐसे वाक्योँ मेँ से इन योजक अव्यय शब्दोँ को हटा दिया जाए तो प्रत्येक वाक्य मेँ दो–दो स्वतंत्र वाक्य बनते हैँ। इसी कारण इन्हेँ संयुक्त या जुड़े हुए वाक्य कहते हैँ।
• अर्थ के आधार पर वाक्य के भेद–
अर्थ के आधार पर वाक्य के निम्नलिखित आठ भेद होते हैँ–
1. विधिवाचक–
जिन वाक्योँ मेँ क्रिया के करने या होने का सामान्य कथन हो और ऐसे वाक्योँ मेँ किसी काम के होने या किसी के अस्तित्व का बोध होता हो, उन्हेँ विधिवाचक या विधानवाचक वाक्य कहते हैँ। जैसे–
• सूर्य गर्मी देता है।
• हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है।
• भारत हमारा देश है।
• वह बालक है।
• हिमालय भारत के उत्तर दिशा मेँ स्थित है।
उक्त वाक्योँ मेँ सूर्य का गर्मी देना, हिन्दी का राष्ट्र भाषा होना आदि कार्य हो रहे हैँ और किसी के (देश तथा बालक) होने का बोध हो रहा है। अतः ये विधिवाचक वाक्य हैँ।
2. निषेधवाचक–
जिन वाक्योँ मेँ कार्य के निषेध (न होने) का बोध होता हो, उन्हेँ निषेधवाचक वाक्य अथवा नकारात्मक वाक्य कहते हैँ। जैसे–
• मैँ वहाँ नहीँ जाऊँगा।
• वे यह कार्य नहीँ जानते हैँ।
• बसन्ती नहीँ नाचेगी।
• आज हिन्दी अध्यापक ने कक्षा नहीँ ली।
उक्त सभी वाक्योँ मेँ क्रिया सम्पन्न नहीँ होने के कारण ये निषेधवाचक वाक्य हैँ।
3. आज्ञावाचक–
जिन वाक्योँ से आदेश या आज्ञा या अनुमति का बोध हो, उन्हेँ आज्ञावाचक वाक्य कहते हैँ। जैसे–
• तुम वहाँ जाओ।
• यह पाठ तुम पढ़ो।
• अपना–अपना काम करो।
• आप चुप रहिए।
• मैँ घर जाऊँ।
• तुम पानी लाओ।
4. प्रश्नवाचक–
जिन वाक्योँ मेँ कोई प्रश्न किया जाये या किसी से कोई बात पूछी जाये, उन्हेँ प्रश्नवाचक वाक्य कहते हैँ। जैसे–
• तुम्हारा क्या नाम है?
• तुम पढ़ने कब जाओगे?
• वे कहाँ गए हैँ?
• क्या तुम मेरे साथ गाओगे?
5. विस्मयबोधक–
जिन वाक्योँ मेँ आश्चर्य, हर्ष, शोक, घृणा आदि के भाव व्यक्त होँ, उन्हेँ विस्मयबोधक वाक्य कहते हैँ। जैसे–
• अरे! इतनी लम्बी रेलगाड़ी!
• ओह! बड़ा जुल्म हुआ!
• छिः! कितना गन्दा दृश्य!
• शाबाश! बहुत अच्छे!
उक्त वाक्योँ मेँ आश्चर्य (अरे), दुःख (ओह), घृणा (छिः), हर्ष (शाबाश) आदि भाव व्यक्त किए गए हैँ अतः ये विस्मयबोधक वाक्य हैँ।
6. संदेह बोधक–
जिन वाक्योँ मेँ कार्य के होने मेँ सन्देह अथवा सम्भावना का बोध हो, उन्हेँ संदेह वाचक वाक्य कहते हैँ। जैसे–
• सम्भवतः वह सुधर जाय।
• शायद मैँ कल बाहर जाऊँ।
• आज वर्षा हो सकती है।
• शायद वह मान जाए।
उक्त वाक्योँ मेँ कार्य के होने मेँ अनिश्चितता व्यक्त हो रही है अतः ये संदेह वाचक वाक्य हैँ।
7. इच्छावाचक–
जिन वाक्योँ मेँ वक्ता की किसी इच्छा, आशा या आशीर्वाद का बोध होता है, उन्हेँ इच्छावाचक वाक्य कहते हैँ। जैसे–
• भगवान तुम्हेँ दीर्घायु करे।
• नववर्ष मंगलमय हो।
• ईश्वर करे, सब कुशल लौटेँ।
• दूधोँ नहाओ, पूतोँ फलो।
• कल्याण हो।
इन वाक्योँ मेँ वक्ता ईश्वर से दीर्घायु, नववर्ष के मंगलमय, सबकी सकुशल वापसी और पशुधन व पुत्र धन की कामना व आशीष दे रहा है अतः ये इच्छावाचक वाक्य हैँ।
8. संकेत वाचक–
जिन वाक्योँ से एक क्रिया के दूसरी क्रिया पर निर्भर होने का बोध हो, उन्हेँ संकेत वाचक या हेतुवाचक वाक्य कहते हैँ। जैसे–
• वर्षा होती तो फसल अच्छी होती।
• आप आते तो इतनी परेशानी नहीँ होती।
• जो पढ़ेगा वह उत्तीर्ण होगा।
• यदि छुट्टियाँ हुईँ तो हम कश्मीर अवश्य जाएँगे।
इन वाक्योँ मेँ कारण व शर्त का बोध हुआ है इसलिए ऐसे सभी वाक्य संकेत वाचक वाक्य कहलाते हैँ।
• क्रिया के आधार पर वाक्य के भेद–
क्रिया के आधार पर वाक्य तीन प्रकार के होते हैँ–
(1) कर्तृप्रधान वाक्य (कर्तृवाच्य)–
ऐसे वाक्योँ मेँ क्रिया कर्त्ता के लिँग, वचन और पुरुष के अनुसार होती है। जैसे–
• बालक पुस्तक पढ़ता है।
• बच्चे खेल रहे हैँ।
(2)कर्मप्रधान वाक्य (कर्मवाच्य)–
इन वाक्योँ मेँ क्रिया कर्म के अनुसार होती है तथा क्रिया के लिँग, वचन कर्म के अनुसार होते हैँ। क्रिया सकर्मक होती है। जैसे–
• बालकोँ द्वारा पुस्तक पढ़ी जाती है।
• यह पुस्तक मेरे द्वारा लिखी गई।
(3) भावप्रधान वाक्य (भाववाच्य)–
ऐसे वाक्योँ मेँ कर्म नहीँ होता तथा क्रिया सदा अकर्मक, एकवचन, पुल्लिँग तथा अन्यपुरुष मेँ प्रयोग की जाती है। इनमेँ भाव (क्रिया) की प्रधानता रहती है। जैसे–
• मुझसे अब नहीँ चला जाता।
• यहाँ कैसे बैठा जाएगा।
वाक्य–विश्लेषण
♦ वाक्य–विश्लेषण–
रचना या संगठन की दृष्टि से जो तीन प्रकार (सरल, मिश्र व संयुक्त) के वाक्य माने जाते हैँ, उनका विश्लेषण या भेद आदि का निर्देश करना वाक्य–विश्लेषण कहलाता है।
वाक्य–विश्लेषण मेँ वाक्य के अंगोँ को अलग–अलग किया जाता है। वाक्य–विश्लेषण को वाक्य–विग्रह, वाक्य–पृथक्करण या वाक्य–विच्छेद भी कहते हैँ।
♦ सरल (साधारण) वाक्य का विश्लेषण–
सरल वाक्य के विश्लेषण मेँ निम्नांकित बातेँ लिखी जाती हैँ–
(1) उद्देश्य–
(क) साधारण उद्देश्य (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण या कृदन्त)।
(ख) उद्देश्य विस्तारक।
(2) विधेय–
(क) साधारण विधेय (क्रिया)।
(ख) विधेय–विस्तारक या पूरक।
उदाहरण–
• रमेश गाँव जाएगा।
(क) रमेश—उद्देश्य।
(ख) गाँव—उद्देश्य विस्तारक।
(ग) जाएगा—विधेय।
♦ मिश्र वाक्य का विश्लेषण–
मिश्र वाक्य के विश्लेषण मेँ निम्नांकित बातेँ दी जाती हैँ–
(1) उपवाक्य।
(2) उपवाक्य के भेद।
(3) जोड़ने वाला शब्द (संयोजक अव्यय)।
(4) प्रत्येक उपवाक्य का साधारण वाक्य की भाँति विश्लेषण।
उदाहरण–
• तुम इस पुस्तक को जहाँ चाहो वहाँ रखो।
(क) तुम इस पुस्तक को वहाँ रखो—प्रधान वाक्य।
(ख) जहाँ (तुम) चाहो—क्रिया विशेषण उपवाक्य।
(ग) प्रधान उपवाक्य ‘(क)’ के स्थानवाचक क्रिया विशेषण ‘वहाँ’ का समानाधिकरण।
(घ) पूरा वाक्य मिश्र वाक्य है।
• जो परिश्रम करेगा वह अवश्य पास होगा।
(क) वह अवश्य पास होगा—प्रधान उपवाक्य।
(ख) जो परिश्रम करेगा—विशेषण उपवाक्य।
(ग) प्रधान उपवाक्य (क) के वह सर्वनाम का विशेषण।
(घ) स्थानवाचक क्रिया विशेषण ‘वह’ का समानाधिकरण।
(ङ) पूरा वाक्य मिश्र वाक्य है।
♦ संयुक्त वाक्य का विश्लेषण–
संयुक्त वाक्य के विश्लेषण मेँ निम्नलिखित बातेँ आती हैँ–
(1) प्रधान उपवाक्य।
(2) समानाधिकरण उपवाक्य।
(3) जोड़ने वाला शब्द (संयोजक अव्यय)।
(4) प्रत्येक वाक्य का साधारण वाक्य की भाँति विश्लेषण।
उदाहरण–
• मुरारी चतुर है और गोपाल मूर्ख है।
(क) मुरारी चतुर है—प्रधान उपवाक्य।
(ख) गोपाल मूर्ख है—समानाधिकरण उपवाक्य जोड़ने वाला शब्द। और पूरा वाक्य संयुक्त वाक्य है।
• रमेश घर चला गया अथवा बाजार।
(क) रमेश घर चला गया—प्रधान उपवाक्य।
(ख) (रमेश) बाजार (चला गया)—समानाधिकरण उपवाक्य, जोड़ने वाला शब्द ‘अथवा’।
(ग) पूरा वाक्य संयुक्त वाक्य है।
पदबन्ध
♦ पदबन्ध-
वाक्य मेँ जब एक से अधिक पद मिलकर एक व्याकरणिक इकाई का काम करते हैँ तब उस बंधी हुई इकाई को पदबन्ध कहते हैँ। जैसे–
• पाँचवीँ कक्षा मेँ पढ़ने वाला छात्र राकेश बहुत बुद्धिमान है।
• हिन्दी पढ़ाने वाले गुरुजी ने मुझे एक अति सुन्दर और उपयोगी पुस्तक दी।
• किसी व्यक्ति या समाज का उत्थान अनुशासन पर निर्भर है।
उक्त वाक्योँ मेँ नेवी रंग के अंश पदबन्ध का कार्य कर रहे हैँ। पदबन्ध मेँ विकारी और अविकारी दोनोँ प्रकार के शब्द हो सकते हैँ और वे मिलकर व्याकरणिक इकाई पदबन्ध का कार्य करते हैँ।
♦ पदबन्ध के भेद–
पदबन्ध के आठ भेद हैँ–
1. संज्ञा पदबन्ध–
जब कोई पद समूह वाक्य मेँ संज्ञा का काम देता है तो उसे संज्ञा पदबन्ध कहते हैँ। जैसे–
• (पास के मकान मेँ रहने वाला आदमी) मेरा परिचित है।
• (यह पेड़ तो किसी बड़े और तेज धार वाले कुल्हाड़े से) कट सकता है।
• (देश के लिए मर मिटने वाला व्यक्ति सच्चा देशभक्त) होता है।
उक्त वाक्योँ मेँ कोष्ठक मेँ बंद वाक्यांश संज्ञा पदबन्द हैँ।
2. सर्वनाम पदबन्ध–
वाक्य मेँ सर्वनाम का कार्य करने वाले पदबन्ध को सर्वनाम पदबन्ध कहते हैँ। जैसे–
• (भाग्य का मारा मैँ) कहाँ आ पहुँचा।
• (चोट खाए हुए तुम) भला क्या खेलोगे।
• (है यहाँ ऐसा कोई!) जो साँप को पकड़ ले।
• (हम सबको धोखा देने वाला तू ,) आज स्वयं धोखा खा गया।
उक्त वाक्योँ मेँ कोष्ठक वाले वाक्यांश सर्वनाम पदबन्ध हैँ।
3. क्रिया पदबन्ध–
एक से अधिक क्रिया पदोँ से बनने वाले क्रिया रूपोँ को क्रिया पदबन्ध कहते हैँ। जैसे–
• कहा जा सकता है।
• जाता रहता था।
• निकलता जा रहा है।
• लौटकर कहने लगा।
ये सभी वाक्य क्रिया पदबन्ध हैँ।
4. विशेषण पदबन्ध–
जब कोई पद समूह किसी संज्ञा, सर्वनाम की विशेषता बताए तो उसे विशेषण पदबन्ध कहते हैँ। जैसे–
• शेर के समान बलवान (आदमी)।
• जोर–जोर से चिल्लाने वाले (तुम)।
• सुन्दर और स्वच्छ लेख लिखने वाला (छात्र)।
• सस्ता खरीदा हुआ (सामान)।
• इस गली मेँ सबसे बड़ा (घर)।
ये पद समूह संज्ञा व सर्वनाम की विशेषता प्रकट कर रहे हैँ अतः विशेषण पदबन्ध हैँ।
5. क्रिया–विशेषण पदबन्ध–
वह वाक्यांश या पद समूह जो क्रिया–विशेषण का कार्य करे उसे क्रिया–विशेषण पदबन्ध कहते हैँ। जैसे–
• घर से लौटकर (जाऊँगा)।
• पहले से बहुत धीरे (चलने लगा)।
• जमीन पर लोटते हुए (बोला)।
• खुले आँगन मेँ (बैठो)।
• बड़ी सावधानी से (उठाओ)।
इन वाक्योँ मेँ सभी पदबन्ध क्रिया–विशेषण का कार्य कर रहे हैँ। ये कोष्ठक मेँ प्रदर्शित क्रिया की विशेषता बता रहे हैँ।
6. सम्बन्ध बोधक पदबन्ध–
जो शब्द वाक्य मेँ दो पदबन्धोँ के बीच सम्बन्ध स्थापित करावेँ, उन शब्दोँ को सम्बन्ध बोधक पदबन्ध कहते हैँ। जैसे– बदले, बजाय, पलटे, समान, योग्य, सरीखा, ऊपर, भीतर, पीछे से, बाहर की ओर आदि शब्द वाक्य मेँ सम्बन्ध बोधक पदबन्द कहे जाते हैँ। यथा–
• राम की ओर।
• छत के ऊपर।
• कृष्ण के समान आदि।
7. समुच्चय बोधक पदबन्द–
जो शब्द या वाक्यांश एक पदबन्ध को दूसरे शब्द या वाक्यांश से मिलाते हैँ उन्हेँ समुच्चय बोधक पदबन्ध कहते हैँ। जैसे–
• राम और श्याम विद्यालय जाते हैँ।
• तुम आओगे अथवा राजू आएगा।
• यद्यपि यह काम कठिन है तथापि तुम उसे कर सकते हो।
• यदि तुम पर्वत पर जाओ तो साधुओँ के दर्शन हो सकते हैँ।
• राकेश ने बहुत प्रयत्न किया परन्तु फिर भी वह हार गया।
उक्त वाक्योँ मेँ ‘और’, ‘अथवा’, ‘यद्यपि’, ‘तथापि’, ‘यदि’, ‘तो’, ‘परन्तु’ शब्द समुच्चय बोधक पदबन्ध हैँ।
8. विस्मयादिबोधक पदबन्ध–
किसी वाक्य मेँ ‘हर्ष’, ‘शोक’, ‘आश्चर्य’, ‘लज्जा’, ‘ग्लानि’ आदि मनोभावोँ को व्यक्त करने वाले शब्द विस्मयादिबोधक पदबन्ध कहलाते हैँ। जैसे–
• अहा! आज तो मिठाईयाँ बन रही हैँ।
• हाँ! मैँ भी तो सही कहता हूँ।
• ऐ! तुम फर्स्ट आ गए।
• छिः छिः! फिर पकड़ा गया।
उक्त वाक्योँ मेँ ‘अहा’, ‘हाँ’, ‘ऐ’ तथा ‘छिः छिः’ विस्मयादिबोधक पदबन्ध हैँ।
पदक्रम
♦ पदक्रम–
सरल वाक्य मेँ वाक्य के विभिन्न अंग यथा– कर्त्ता, कर्म, पूरक, क्रिया विशेषण आदि सामान्य रूप से जिस क्रम मेँ आते हैँ, उस क्रम को ‘पदक्रम’ कहते हैँ।
पदक्रम सभी भाषाओँ मेँ एक–सा नहीँ होता। हिन्दी मेँ कर्त्ता–कर्म–क्रिया का क्रम है तो अंग्रेजी मेँ कर्त्ता–क्रिया–कर्म का क्रम है। वास्तव मेँ वाक्य मेँ पदोँ के उचित स्थान पर होने से ही सही अर्थ की प्राप्ति होती है। पदक्रम मेँ थोड़ा–सा परिवर्तन हो जाने पर अर्थ का अनर्थ होने की संभावना बनी रहती है।
♦ पदक्रम के नियम–
वाक्य मेँ पदक्रम का सबसे साधारण नियम है कि पहले कर्त्ता या उद्देश्य, फिर कर्म या पूरक और अंत मेँ क्रिया आती है, जैसे– बालक पुस्तक पढ़ता है।
हिन्दी मेँ पदक्रम के कुछ प्रमुख नियम इस प्रकार हैँ–
• कर्ता के बाद क्रिया आती है।
जैसे–
- राम सोता है।
- मैँ खेलता हूँ।
• कर्ता और क्रिया के बीच कर्म आता है।
जैसे–
- अनिल आम खाता है।
- सीमा स्कूल जाती है।
• द्विकर्मक क्रियाओँ मेँ गौण कर्म पहले और मुख्य कर्म बाद मेँ आता है।
जैसे–
- सोहन ने श्याम को किताब दी।
- मैँने अपने मित्र को पत्र लिखा।
- पिताजी मेरे लिए साइकिल लाए।
• कर्ता और क्रिया के बीच पूरक आता है।
जैसे–
- कुशाल विद्यार्थी है।
- राजवीर डॉक्टर है।
• विशेषण संज्ञा के पूर्व आता है।
जैसे–
- गीता ने नीली साड़ी पहनी है।
- गोविन्द होशियार लड़का है।
• क्रिया–विशेषण क्रिया से पहले आता है।
जैसे–
- घोड़ा तेज दौड़ता है।
- हाथी धीरे–धीरे चलता है।
• निषेधात्मक क्रिया–विशेषण क्रिया से पहले आता है।
जैसे–
- मैँ आज स्कूल नहीँ जाऊँगा।
- तुम्हेँ धूम्रपान नहीँ करना चाहिए।
• प्रश्नवाचक सर्वनाम जब विशेषण के रूप मेँ प्रयुक्त होता है तो पहले आता है।
जैसे–
- यहाँ कितने लोग हैँ?
- यह कैसी किताब है?
• प्रश्नवाचक सर्वनाम या क्रिया–विशेषण क्रिया से पहले आते हैँ।
जैसे–
- वह कौन है?
- वह कहाँ जा रहा है?
- तुम्हारा ऑफिस कहाँ है?
• यदि उत्तर ‘हाँ’ या ‘नहीँ’ मेँ अपेक्षित हो तो ‘क्या’ मुख्यतः प्रारम्भ मेँ और कभी–कभी अंत मेँ लगता है।
जैसे–
- क्या मनोहर कॉलेज गया था?
- मनोहर कॉलेज गया था क्या?
• संबोधन वाक्य के प्रारम्भ मेँ आता है।
जैसे–
- अरे कमल! इधर आओ।
- हे प्रभु! मेरी रक्षा करो।
• पूर्वकालिक रूप ‘कर’ क्रिया के बाद जुड़ता है।
जैसे–
- हाथ धोकर भोजन करो।
- खाना खाकर जाना।
• समानाधिकरण शब्द मुख्य शब्द के बाद आता है और बाद के शब्द मेँ विभक्ति का प्रयोग होता है।
जैसे–
- श्याम, तेरा भाई बाहर खड़ा है।
- भवानी, लुहार को बुलाओ।
• प्रश्नवाचक अव्यय ‘न’ बहुधा वाक्य के अंत मेँ आता है।
जैसे–
- आप वहाँ चलेँगे न?।
- तुम मेरे जन्मदिन की पार्टी मेँ आओगे न?
• संबंधवाचक विशेषण जैसे– जहाँ, तहाँ, जब तक, जैसे, तैसे आदि सामान्यतः वाक्य के अंत मेँ आते हैँ।
जैसे–
- जब मैँ कहूँ तब तुम चले जाना।
- जहाँ तेरी इच्छा हो वहाँ जा।
• निषेधात्मक अव्यय– न, नहीँ, मत आदि बहुधा क्रिया के पहले आते हैँ।
जैसे–
- मैँ नहीँ जाऊँगा।
- तुम मत डरो।
• कर्ता का विस्तार कर्त्ता से पहले तथा क्रिया का विस्तार कर्त्ता के बाद आता है।
जैसे–
- वृद्धा स्त्री को देखते–देखते होश आ गया।
• यदि एक वाक्य मेँ अनेक विशेषण प्रयोग किए गये होँ तो सबसे पहले संकेत वाचक विशेषण, फिर संख्या वाचक या परिमाण वाचक और अंत मेँ गुणवाचक विशेषण आता है।
जैसे–
- मैँने ये दो पुराने पलंग बेचे हैँ।
• कर्त्ता और कर्म के मध्य मेँ करण कारक आता है।
जैसे–
- माता प्यार से अपने पुत्रोँ को भोजन कराती है।
• अधिकरण कारक प्रायः वाक्य के बीच मेँ आता है।
जैसे–
- खाने की मेज पर रेडियो रखा है।
• आग्रह व्यक्त करने वाला ‘न’ वाक्य के अंत मेँ आता है।
जैसे–
- कृपया मेरी बात मान लो न।
•तो, भी, भर, ही आदि शब्द उन पदोँ के पूर्व प्रयुक्त होते हैँ, जिन पर अधिक बल देना होता है।
जैसे–
- मुख्यमंत्री भी आयेँगे।
- तुम भी हमारे साथ चलो न।
• समुच्चय बोधक अव्यय जिन शब्दोँ को जोड़ते हैँ, उनके बीच मेँ आते हैँ।
जैसे–
- ग्रह एवं उपग्रह सूर्य के चारोँ ओर घूमते हैँ।
- हम उन्हेँ सुख देँगे, क्योँकि उन्होँने हमारे लिए बड़ा तप किया है।
• विस्मयादिबोधक प्रायः वाक्य के प्रारंभ मेँ आते हैँ।
जैसे–
- अरे! यह क्या हुआ?
- हे ईश्वर! यह क्या हो गया?
- मित्र! तुम इतने समय कहाँ थे?
विराम–चिह्न
विराम शब्द का अर्थ है ठहराव या रुक जाना। एक व्यक्ति अपनी बात कहने के लिए, उसे समझाने के लिए, किसी कथन पर बल देने के लिए, आश्चर्य आदि भावोँ की अभिव्यक्ति के लिए कहीँ कम, कहीँ अधिक समय के लिए ठहरता है। भाषा के लिखित रूप मेँ उक्त ठहरने के स्थान पर जो निश्चित संकेत चिह्न लगाये जाते हैँ, उन्हेँ विराम–चिह्न कहते हैँ।
वाक्य मेँ विराम–चिह्नोँ के प्रयोग से भाषा मेँ स्पष्टता और सुन्दरता आती है तथा भाव समझने मेँ सुविधा होती है। यदि विराम–चिह्नोँ का यथा स्थान उचित प्रयोग न किया जाये तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है। जैसे–
• रोको, मत जाने दो।
• रोको मत, जाने दो।
इस प्रकार विराम–चिह्नोँ से अर्थ एवं भाव मेँ परिवर्तन होता है। लिखित भाषा की तरह कथित भाषा मेँ भी विराम–चिह्न महत्त्वपूर्ण होते हैँ।
♦ महत्त्वपूर्ण विराम–चिह्न–
1. अल्प विराम — ( , )
2. अर्द्ध विराम — ( ; )
3. पूर्ण विराम — ( । )
4. प्रश्नवाचक चिह्न — ( ? )
5. विस्मयसूचक चिह्न — ( ! )
6. अवतरण या उद्धरण चिह्न :
(i) इकहरा — ( ‘ ’ )
(ii) दुहरा — ( “ ” )
7. योजक चिह्न — ( - )
8. कोष्ठक चिह्न — ( ) { } [ ]
9. विवरण चिह्न — ( :– )
10. लोप चिह्न — ( ...... )
11. विस्मरण चिह्न — ( ^ )
12. संक्षेप चिह्न — ( . )
13. निर्देश चिह्न — ( – )
14. तुल्यतासूचक चिह्न — ( = )
15. संकेत चिह्न — ( * )
16. समाप्ति सूचक चिह्न — ( – : –)
♦ विराम–चिह्नोँ का प्रयोग–
1. अल्प विराम ( , ) :
अल्प विराम का अर्थ है, थोड़ी देर रुकना ठहरना। अंग्रेजी मेँ इसे ‘कोमा’ कहते हैँ। इसके प्रयोग की निम्न स्थितियाँ हैँ–
(1) वाक्य मेँ जब दो या दो से अधिक समान पदोँ पदांशोँ अथवा वाक्योँ मेँ संयोजक अव्यय ‘और’ की संभावना हो, वहाँ अल्प विराम का प्रयोग होता है। जैसे–
• पदोँ मेँ—अर्जुन, भीम, सहदेव और कृष्ण ने भवन मेँ प्रवेश किया।
• वाक्योँ मेँ—राम रोज स्कूल जाता है, पढ़ता है और वापस घर चला जाता है।
• उठकर, स्नानकर और खाना खाकर मोहन शहर गया।
यहाँ अल्प विराम द्वारा पार्थक्य को दर्शाया गया है।
(2) जहाँ शब्दोँ की पुनरावृत्ति की जाए और भावातिरेक के कारण उन पर अधिक बल दिया जाए। जैसे–
• वह दूर से, बहुत दूर से आ रहा है।
• सुनो, सुनो, वह गा रही है।
(3) समानाधिकरण शब्दोँ के बीच मेँ। जैसे–
• विदेहराज की पुत्री वैदेही, राम की पत्नी थी।
(4) जब कई शब्द जोड़े से आते हैँ, तब प्रत्येक जोड़े के बाद अल्प विराम लगता है। जैसे–
• संसार मेँ सुख और दुःख, रोना और हँसना, आना और जाना लगा ही रहता है।
(5) क्रिया विशेषण वाक्यांशोँ के साथ, जैसे–
• उसने गंभीर चिंतन के बाद, यह काम किया।
• यह बात, यदि सच पूछो तो, मैँ भूल ही गया था।
(6) ‘हाँ’, ‘अस्तु’ के बाद, जैसे–
• हाँ, आप जा सकते हैँ।
(7) ‘कि’ के अभाव मेँ, जैसे–
• मैँ जानता हूँ , कल तुम यहाँ नहीँ थे।
(8) संज्ञा वाक्य के अलावा, मिश्र वाक्य के शेष बड़े उपवाक्योँ के बीच मेँ। जैसे–
• यह वही पुस्तक है, जिसकी मुझे आवश्यकता है।
• क्रोध चाहे जैसा भी हो, मनुष्य को दुर्बल बनाता है।
(9) वाक्य के भीतर एक ही प्रकार के शब्दोँ को अलग करने मेँ। जैसे–
• राम ने आम, अमरूद, केले आदि खरीदे।
(10) उद्धरण चिह्नोँ के पहले, जैसे–
• उसने कहा, “मैँ तुम्हेँ नहीँ जानता।”
(11) समय सूचक शब्दोँ को अलग करने मेँ। जैसे–
• कल गुरुवार, दिनांक 20 मार्च से परीक्षाएँ प्रारम्भ होँगी।
(12) कभी–कभी सम्बोधन के बाद भी अल्प विराम का प्रयोग किया जाता है। जैसे–
• सीता, तुम आज भी स्कूल नहीँ गईँ।
(13) पत्र मेँ अभिवादन, समापन के साथ। जैसे–
• पूज्य पिताजी,
• भवदीय,।
2. अर्द्ध विराम ( ; )–
अंग्रेजी मेँ इसे ‘सेमी कॉलन’ कहते हैँ। अर्द्ध विराम का प्रयोग प्रायः विकल्पात्मक रूप मेँ ही होता है।
(1) जब अल्प विराम से अधिक तथा पूर्ण विराम से कम ठहरना पड़े तो अर्द्ध विराम का प्रयोग होता है। जैसे–
• अब खूब परिश्रम करो; परीक्षा सन्निकट है।
• शिक्षक ने मुझसे कहा; तुम पढ़ते नहीँ हो।
• शिक्षा के क्षेत्र मेँ छात्राएँ बढ़ती गईँ; छात्र पिछड़ते गए।
(2) जब संयुक्त वाक्योँ के प्रधान वाक्योँ मेँ परस्पर संबंध नहीँ रहता। जैसे–
• सोना बहुमूल्य धातु है; पर लोहे का भी कम महत्त्व नहीँ है।
(3) उन पूरे वाक्योँ के बीच मेँ जो विकल्प के अन्तिम समुच्चय बोधक द्वारा जोड़े जाते हैँ। जैसे–
• राम आया; उसने उसका स्वागत किया; उसके ठहरने की व्यवस्था की और उसे खिलाकर चला गया।
(4) एक प्रधान पर आश्रित अनेक उपवाक्योँ के बीच मेँ। जैसे–
• जब तक हम गरीब हैँ; बलहीन हैँ; दूसरे पर आश्रित हैँ; तब तक हमारा कल्याण नहीँ हो सकता।
• सूर्योदय हुआ; अन्धकार दूर हुआ; पक्षी चहचहाने लगे और मैँ प्रातः भ्रमण को चल पड़ा।
(5) विभिन्न उपवाक्योँ पर अधिक जोर देने के लिए। जैसे–
• मेहनत ही जीवन है; आलस्य ही मृत्यु है।
(6) मिश्र तथा संयुक्त वाक्योँ मेँ विपरीत अर्थ प्रकट करने या विरोधपूर्ण कथन प्रकट करने वाले उपवाक्योँ के बीच मेँ।
3. पूर्ण विराम ( । )–
पूर्ण विराम का अर्थ है पूरी तरह से विराम लेना, अर्थात् जब वाक्य पूर्णतः अपना अर्थ स्पष्ट कर देता है तो पूर्ण विराम का प्रयोग होता है या जिस चिह्न के प्रयोग करने से वाक्य के पूर्ण हो जाने का ज्ञान होता है, उसे पूर्ण विराम कहते हैँ। अंग्रेजी मेँ इसे ‘फुल स्टॉप’ कहते हैँ। हिन्दी मेँ इसका प्रयोग सबसे अधिक होता है। पूर्ण विराम का प्रयोग निम्न दशाओँ मेँ होता है–
(1) साधारण, मिश्र या संयुक्त वाक्य की समाप्ति पर। जैसे–
• उसने कहा था।
• राम स्कूल जाता है।
• प्रयाग मेँ गंगा–यमुना का संगम है।
• यदि राहुल पढ़ता, तो अवश्य उत्तीर्ण होता।
(2) प्रायः शीर्षक के अन्त मेँ भी पूर्ण विराम का प्रयोग होता है। जैसे–
• विद्यार्थी जीवन मेँ अनुशासन का महत्त्व।
• नारी और भारतीय समाज।
(3) अप्रत्यक्ष प्रश्नवाचक वाक्य के अन्त मेँ पूर्ण विराम लगाया जाता है। जैसे–
• उसने बताया नहीँ कि वह कहाँ जा रहा है।
(4) काव्य मेँ दोहा, सोरठा, चौपाई के चरणोँ के अन्त मेँ। जैसे–
• रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्राण जाय पर वचन न जाई।
4. प्रश्नवाचक चिह्न ( ? )–
प्रश्नवाचक चिह्न का प्रयोग प्रश्न सूचक वाक्योँ के अन्त मेँ पूर्ण विराम के स्थान पर किया जाता है। इसका प्रयोग निम्न स्थितियोँ मेँ किया जाता है–
(1) जहाँ लिखित या मौखिक प्रश्न पूछे जाएँ।
(2) जहाँ स्थिति निश्चित न हो।
(3) व्यंग्योक्तियोँ के लिए। जैसे–
• आप क्या कर रहे हो?
• कल आप कहाँ थे?
• आप शायद यू. पी. के रहने वाले हो?
• जहाँ भ्रष्टाचार है, वहाँ ईमानदारी कैसे रहेगी?
• इतने छात्र कैसे आ पाएँगे?
• विवाह मेँ अनिल, शानू एवं विनोद आए; पर तुम क्योँ नहीँ आये?
5. विस्मयादिबोधक चिह्न ( ! )–
जब वाक्य मेँ हर्ष, विषाद, विस्मय, घृणा, आश्चर्य, करुणा, भय आदि भाव व्यक्त किए जायेँ तो वहाँ इस चिह्न (!) का प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा आदर सूचक शब्दोँ, पदोँ और वाक्योँ के अन्त मेँ भी इसका प्रयोग किया जाता है। जैसे–
(1) हर्ष सूचक–
• वाह! खूब खेले।
• शाबाश! तुमने गाँव का नाम रोशन कर दिया।
(2) करुणा सूचक–
• हे ईश्वर! सबका भला करो।
• हे प्रभु! मेरी रक्षा करो
(3) घृणा सूचक–
• छिः! कितनी गंदी बात कर रहा है।
• दुष्ट को धिक्कार है!
(4) विषाद सूचक–
• हाय राम! यह क्या हो गया।
(5) विस्मय सूचक–
• सुनो! रमेश पास हो गया।
• हैँ! क्या कह रहे हो?
6. उद्धरण या अवतरण चिह्न–
जब किसी कथन को ज्योँ का त्योँ उद्धृत किया जाता है तो उस कथन के दोनोँ ओर इसका प्रयोग किया जाता है, इसलिए इसे अवतरण चिह्न या उद्धरण चिह्न कहते हैँ। इस चिह्न के दो रूप होते हैँ–
(i) इकहरा उद्धरण ( ‘ ’ )–
जब किसी कवि का उपनाम, पुस्तक का नाम, पत्र–पत्रिका का नाम, लेख या कविता का शीर्षक आदि का उल्लेख करना हो तो इकहरे उद्धरण चिह्न का प्रयोग होता है। जैसे–
• रामधारीसिँह ‘दिनकर’ ओज के कवि हैँ।
• ‘निराला’ हिन्दी के प्रसिद्ध महाकवि हैँ।
• ‘भारत–भारती’ एक प्रसिद्ध काव्य रचना है।
• ‘रामचरित मानस’ के रचयिता तुलसीदास हैँ।
• ‘राजस्थान पत्रिका’ एक प्रमुख समाचार–पत्र है।
• ‘विजडन’ पत्रिका को क्रिकेट का बाइबिल कहा जाता है।
• ठीक ही कहा है, ‘उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे’।
(ii) दुहरा उद्धरण ( “ ” )–
जब किसी व्यक्ति या विद्वान तथा पुस्तक के अवतरण या वाक्य को ज्योँ का त्योँ उद्धृत किया जाए, तो वहाँ दुहरे उद्धरण चिह्न का प्रयोग किया जाता है। जैसे–
• महावीर जी ने कहा, “अहिँसा परमोधर्म।”
• “स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।”—तिलक।
• “तुम मुझे खून दो, मैँ तुम्हेँ आजादी दूँगा।”—सुभाषचन्द्र बोस।
7. योजक चिह्न (-)–
अंग्रेजी मेँ प्रयुक्त हाइफन (-) को हिन्दी मेँ योजक चिह्न कहते हैँ। इसे समास चिह्न भी कहते हैँ। हिन्दी मेँ अधिकतर इस चिह्न (-) के स्थान पर डेश (–) का प्रयोग प्रचलित है। यह चिह्न सामान्यतः दो पदोँ को जोड़ता है और दोनोँ को मिलाकर एक समस्त पद बनाता है लेकिन दोनोँ का स्वतंत्र अस्तित्व बना रहता है। इसका प्रयोग निम्न स्थितियोँ मेँ होता है–
(1) दो शब्दोँ को जोड़ने के लिए तथा द्वन्द्व एवं तत्पुरुष समास मेँ। जैसे–
• सुख-दुःख, माता-पिता, प्रेम-सागर।
(2) पुनरुक्त शब्दोँ के बीच मेँ। जैसे–
• धीरे-धीरे, डाल-डाल, पात-पात।
(3) तुलना वाचक सा, सी, से के पहले लगता है। जैसे–
• तुम-सा, भरत-सा भाई, यशोदा-सी माता।
(4) शब्दोँ मेँ लिखी जाने वाली संख्याओँ के बीच। जैसे–
• एक-तिहाई, एक-चौथाई आदि।
8. कोष्ठक चिह्न ( )–
किसी की बात को और स्पष्ट करने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है। कोष्ठक मेँ लिखा गया शब्द प्रायः विशेषण होता है। इस चिह्न का प्रयोग–
(1) वाक्य मेँ प्रयुक्त किसी पद का अर्थ स्पष्ट करने हेतु। जैसे–
• धर्मराज (युधिष्ठिर) पांडवोँ के अग्रज थे।
• डॉ. राजेन्द्र प्रसाद (भारत के प्रथम राष्ट्रपति) बेहद सादगी पसन्द थे।
(2) नाटक या एकांकी मेँ पात्र के अभिनय के भावोँ को प्रकट करने के लिए। जैसे–
• राम – (हँसते हुए) अच्छा जाइए।
• नल – (खिन्न होकर) और मेरे दुर्भाग्य ! तूने दमयंती को मेरे साथ बाँधकर उसे भी जीवन-भर कष्ट दिया।
9. विवरण चिह्न (:–)–
इसे अंग्रेजी मेँ ‘कॉलन एंड डेश’ कहते हैँ। किसी कही हुई बात को स्पष्ट करने के लिए या उसका विवरण प्रस्तुत करने के लिए वाक्य के अंत मेँ इसका प्रयोग होता है। जैसे–
• पुरुषार्थ चार हैँ:– धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
• क्रिया के दो भेद हैँ:– सकर्मक और अकर्मक।
10. लोप सूचक चिह्न (....)–
जहाँ किसी वाक्य या कथन का कुछ अंश छोड़ दिया जाता है, वहाँ इस चिह्न का प्रयोग किया जाता है। जैसे–
• मैँ तो परिणाम भोग रहा हूँ, कहीँ आप......।
• तुम्हारा सब काम करूँगा....। ..... बोलो, बड़ी माँ.....।
11. विस्मरण चिह्न (^)–
इसे हंस पद या त्रुटिपूरक चिह्न भी कहते हैँ। जब किसी वाक्य या वाक्यांश मेँ कोई शब्द लिखने से छूट जाये तो छूटे हुए शब्द के स्थान के नीचे इस चिह्न का प्रयोग कर छूटे हुए शब्द या अक्षर को ऊपर लिख देते हैँ। जैसे–
मेरा
•भारत ^ देश है।
12. संक्षेप चिह्न या लाघव चिह्न (०)–
किसी बड़े शब्द को संक्षेप मेँ लिखने हेतु उस शब्द का प्रथम अक्षर लिखकर उसके आगे यह चिह्न लगा देते हैँ। प्रसिद्धि के कारण लाघव चिह्न होते हुए भी वह पूर्ण शब्द पढ़ लिया जाता है। जैसे–
• राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय – रा०उ०मा०वि०।
• प्राध्यापक – प्रा०।
• डॉक्टर – डॉ०।
• पंडित – पं०।
• मास्टर ऑफ आर्टस – एम०ए०।
13. निर्देशक चिह्न (–)–
अंग्रेजी मेँ इसे ‘डैश’ कहते हैँ। यह चिह्न योजक चिह्न (-) से बड़ा होता है। इस चिह्न के दो रूप हैँ–1. (–) 2. (—)। इसका प्रयोग निम्न अवसरोँ पर होता है–
(1) उद्धृत वाक्य के पहले। जैसे–
• उसने कहा–“मैँ नहीँ जाऊँगा।”
(2) किसी विषय के साथ तत्संबंधी अन्य बातोँ की सूचना देने मेँ। जैसे–
• साहित्य के दो भाग हैँ—गद्य और पद्य।
(3) समानाधिकरण शब्दोँ, वाक्यांशोँ अथवा वाक्योँ के बीच मेँ। जैसे–
• आँगन मेँ ज्योत्सना–चाँदनी–छिटकी हुई थी।
(4) लेख के नीचे लेखक या पुस्तक के नाम के पहले। जैसे–
• रघुकुल रीति सदा चलि आई –तुलसी।
(5) जहाँ विचारधारा मेँ व्यतिक्रम पैदा हो। जैसे–
• कौन–कौन उत्तीर्ण हो जायेँगे–समझ मेँ नहीँ आता।
14. तुल्यतासूचक चिह्न (=)–
समानता या बराबरी बताने के लिए या मूल्य अथवा अर्थ का ज्ञान कराने के लिए इष चिह्न का प्रयोग किया जाता है। जैसे–
• अनल = अग्नि।
• एक किलो = 1000 ग्राम।
15. संकेत चिह्न (*)–
जब कोई नियम या मुख्य बातेँ बतानी होँ तो उसके पहले संकेत चिह्न लगा देते हैँ। जैसे–
• स्वास्थ्य सम्बन्धी निम्न बातोँ का ध्यान रखना चाहिए–
* प्रातःकाल उठना चाहिए।
* भ्रमण के लिए जाना चाहिए।
16. समाप्ति सूचक चिह्न या इतिश्री चिह्न (–०–)–
किसी अध्याय या ग्रन्थ की समाप्ति पर इस चिह्न का प्रयोग किया जाता है। यह चिह्न कई रूपोँ मेँ प्रयोग किया जाता है। जैसे– (– :: –), (—x—x—), (* * *), (♦♦♦), (–:०:–), (◊◊◊) आदि।
कारक चिह्न
♦ कारक–चिह्न–
संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से उसका वाक्य के अन्य शब्दोँ, विशेषकर क्रिया से सम्बन्ध ज्ञात हो, उसे कारक कहते हैँ। कारक को सूचित करने के लिए संज्ञा या सर्वनाम के साथ जो चिह्न लगाये जाते हैँ, उन्हेँ विभक्तियाँ कहते हैँ और विभक्ति के चिह्न ही कारक–चिह्न या परसर्ग हैँ।
कारक चिह्न ‘न’, ‘को’, ‘मेँ’, ‘पर’, ‘के लिए’ आदि को परसर्ग कहते हैँ। परसर्ग अंग्रेजी शब्द Postposition का हिन्दी समतुल्य है। सामान्यः एकवचन और बहुवचन दोनोँ मेँ एक ही परसर्ग का उपयोग होता है। वचन का प्रभाव परसर्ग पर नहीँ पड़ता है किन्तु सम्बन्ध कारक परसर्ग इसका अपवाद है।
♦ हिन्दी मेँ आठ कारक होते हैँ। उनके नाम और कारक–चिह्न इस प्रकार हैँ–
कारक — कारक–चिह्न
1. कर्ता – ने (या कोई चिह्न नहीँ)
2. कर्म – को (या कोई चिह्न नहीँ)
3. करण – से, के साथ, के द्वारा
4. सम्प्रदान – के लिए, को
5. अपादान – से (अलग भाव मेँ)
6. सम्बन्ध – का, के, की, रा, रे, री
7. अधिकरण – में, पर
8. संबोधन – हे ! अरे ! ओ!
विशेष– कर्ता से अधिकरण तक विभक्ति चिह्न (परसर्ग) शब्दों के अंत में लगाए जाते हैं, किन्तु संबोधन कारक के चिह्न– हे, अरे, आदि प्रायः शब्द से पूर्व लगाए जाते हैं।
♦ कारक चिह्न स्मरण करने के लिए इस पद की रचना की गई है–
कर्ता ने अरु कर्म को, करण रीति से जान।
संप्रदान को, के लिए, अपादान से मान॥
का, के, की, संबंध हैं, अधिकरणादिक में मान।
रे ! हे ! हो ! संबोधन, मित्र धरहु यह ध्यान॥
♦ कारकोँ के प्रयोग :
1. कर्त्ता कारक–
कर्त्ता का अर्थ है, करने वाला। अतः वे शब्द जो क्रिया के करने वाले या होने वाले का बोध कराते हैँ, उन्हेँ कर्त्ता कारक कहते हैँ। सामान्यतः इसका चिह्न ‘ने’ होता है। इस ‘ने’ चिह्न का वर्तमानकाल और भविष्यकाल में प्रयोग नहीं होता है। इसका सकर्मक धातुओं के साथ भूतकाल में प्रयोग होता है।
(1) कार्य करने वाले के लिए कर्ता कारक का प्रयोग होता है। जैसे–
• राम ने पाठ पढ़ा।
• श्याम ने खाना खाया।
• राजू ने साइकिल खरीदी।
• अनिल ने दरवाजा खोला।
(2) कभी–कभी विभक्ति चिह्न ‘ने’ का प्रयोग नहीँ होता। जैसे–
• रमा गीत गाती है।
• राम आता है।
• लड़की स्कूल जाती है।
सकर्मक क्रिया के सामान्यतः आसन्न, पूर्ण और संदिग्ध भूतकाल के कर्तृवाच्य मेँ ‘ने’ परसर्ग का प्रयोग होता है।
भूतकाल में अकर्मक क्रिया के कर्ता के साथ ‘ने’ परसर्ग (विभक्ति चिह्न) नहीं लगता है। जैसे– वह हँसा।
वर्तमानकाल व भविष्यतकाल की सकर्मक क्रिया के कर्ता के साथ ‘ने’ परसर्ग का प्रयोग नहीं होता है। जैसे– वह फल खाता है। वह फल खाएगा।
(3) होना, पड़ता, चाहिए क्रियाओँ के साथ ‘को’ का प्रयोग होता है। जैसे–
• राम को पढ़ना चाहिए।
• सबको सहना पड़ता है।
(4) लाना, भूलना, बोलना के भूतकालिक रूपोँ के साथ और जिन क्रियाओँ के साथ जाना, चुकना, लगना, सकना लगते हैँ, वहाँ ‘ने’ का लोप हो जाता है। जैसे–
• राम फल लाया।
• मोहन जा सका।
(5) कर्मवाच्य और भाववाच्य मेँ ‘ने’ के स्थान पर ‘से’ का प्रयोग होता है। जैसे–
• रावण राम से मारा गया।
• रोगी से चला नहीँ जाता।
• सीता से पुस्तक पढ़ी गई।
2. कर्म कारक–
संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप पर कर्त्ता द्वारा की गई क्रिया का फल पड़ता है अर्थात् जिस शब्द रूप पर क्रिया का प्रभाव पड़ता है, उसे कर्ता कारक कहते हैँ। इसका कारक–चिह्न ‘को’ है। जैसे– मोहन ने साँप को मारा। इस वाक्य में ‘मारने’ की क्रिया का फल साँप पर पड़ा है। अतः साँप कर्म कारक है। इसके साथ परसर्ग ‘को’ लगा है।
• अब श्याम को बुलालो।
• विजेता बालकोँ को ही पुरस्कार मिलेगा।
• कुसुम ने सीमा को नृत्य सिखाया।
• गुरु बालक को पुस्तक देता है।
कभी–कभी प्रधान कर्म के साथ परसर्ग ‘को’ का लोप हो जाता है। जैसे–
• कवि कविता लिखता है।
• गीता फल खाती है।
• अध्यापक व्याकरण पढ़ाता है।
• लड़की ने पत्र लिखा।
3. करण कारक–
संज्ञा के जिस रूप से क्रिया के साधन का बोध हो अर्थात् जिस साधन से क्रिया की जाये उसे करण कारक कहते हैँ। इसके विभक्ति चिह्न ‘से’, ‘के द्वारा’ हैँ। जैसे–
1. अर्जुन ने जयद्रथ को बाण से मारा।
2.बालक गेंद से खेल रहे है।
पहले वाक्य में कर्ता अर्जुन ने मारने का कार्य ‘बाण’ से किया। अतः ‘बाण से’ करण कारक है। दूसरे वाक्य में कर्ता बालक खेलने का कार्य ‘गेंद से’ कर रहे हैं। अतः ‘गेंद से’ करण कारक है।
अन्य उदाहरण–
• राम ने बाण से बाली को मारा।
• मैँ सदा ट्रेन द्वारा यात्रा करता हूँ।
• प्राचार्य ने यह आदेश चपरासी के द्वारा भिजवाया है।
• मैँ रोजाना कार से कार्यालय जाता हूँ।
4. सम्प्रदान कारक–
संप्रदान का अर्थ है, देना। कर्ता द्वारा जिसके लिए कुछ कार्य किया जाए अथवा जिसे कुछ दिया जाए उसका बोध कराने वाले संज्ञा के रूप को संप्रदान कारक कहते हैं। इसके विभक्ति चिह्न ‘के लिए’ ‘को’ हैं। जैसे–
• स्वास्थ्य के लिए सूर्य को नमस्कार करो।
• गुरुजी को फल दो।
• बालक के लिए दूध चाहिए।
• गौरव को पुस्तक दो।
5. अपादान कारक–
संज्ञा के जिस रूप से एक वस्तु का दूसरी वस्तु से अलग या पृथक् अथवा उत्पन्न होने का भाव व्यक्त हो, उसे अपादान कारक कहते हैँ। इसका विभक्ति–चिह्न ‘से’ है।
अपादान कारक का प्रयोग निम्नलिखित स्थितियोँ मेँ होता है–
(1) वियोग, पृथक्कता व भिन्नता प्रकट करने के लिए। जैसे–
• पेड़ से पत्ते गिरते हैँ।
• पुत्र, माता–पिता से बिछुड़ गया।
• चोर चलती गाड़ी से कूद गया।
(2) उत्पत्ति या निकास बताने के लिए। जैसे–
• मच्छर का जन्म लार्वा से होता है।
• गंगा हिमालय से निकलती है।
(3) दूरी का बोध कराने के लिए। जैसे–
• पुष्कर, अजमेर से 7 मील दूर है।
• मेरा गाँव झुन्झुनूं से 15 किमी. दूर है।
(4) तुलना प्रकट करने के लिए। जैसे–
• राम श्याम से अधिक समझदार है।
• मोहन सोहन से बड़ा है।
(5) कार्यारम्भ का समय प्रकट करने के लिए। जैसे–
• कल से कक्षाएँ आरम्भ होँगी।
• खेल सात बजे से आरम्भ होगा।
(6) घृणा, लज्जा, उदासीनता के भाव मेँ। जैसे–
• मुझे श्याम से घृणा है।
• बालक आगंतुक से लजाता है।
(7) मृत्यु का कारण बतलाने के लिए। जैसे–
• वह जहर खाने से मरा।
(8) रक्षा के अर्थ मेँ। जैसे–
• उसे गिरने से बचाओ।
(9) जिससे डर लगता है। जैसे–
• सभी बदनामी से डरते हैँ।
• राजू छिपकली से डरता है।
(10) वैर–विरोध या पराजय के अर्थ मेँ। जैसे–
• किशोर सोहन से हार गया।
(11) जिससे विद्या प्राप्त की जाये। जैसे–
• मैँ गुरुजी से पढ़ता हूँ।
(12) गत्यर्थक क्रियाओँ मेँ। जैसे–
• राष्ट्रपति आज ही जापान से आये हैँ।
• वह साँप से डर गया।
6. सम्बन्ध कारक–
संज्ञा के जिस रूप से किसी वस्तु का दूसरी वस्तु से सम्बन्ध प्रकट हो उसे सम्बन्ध कारक कहते हैँ। इसका प्रयोग स्वत्व, अपादान, करण, सम्बन्ध, आधार आदि अर्थोँ को प्रकट करने के लिए होता है। सम्बन्ध कारक के विभक्ति–चिह्न (परसर्ग) का, के, की, रा, रे, री तथा ना, ने, नी हैँ। जैसे–
• राम का भाई मेरे घर है।
• अपनी बात पर भरोसा रखो।
• लक्ष्मण राम का भाई है।
• यही मेरा घर है।
• इन कपड़ोँ का रंग अत्यंत चटकीला है।
• शानू की पेन्सिल मेरे पास है।
• गीतिका के कागजात कहीँ गिर गए हैँ।
सम्बन्ध कारक के परसर्ग संज्ञा शब्द के लिँग और वचन के अनुसार बदल जाते हैँ। जैसे–
• रामू का भाई।
• रामू की बहन।
• रामू के पापा।
7. अधिकरण कारक–
संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से क्रिया के आधार या काल का बोध होता है उसे अधिकरण कारक कहते हैं। इसका प्रयोग समय, स्थान, दूरी, कारण, तुलना, मूल्य आदि आधार सूचक भावोँ के लिए भी होता है। इसके विभक्ति–चिह्न ‘में’, ‘पर’ हैं। जैसे–
• थैले मेँ फल हैँ।
• बच्चोँ छत पर मत खेलो।
• मेज पर फूलदान है।
• मेरा भाई कार्यालय मेँ है।
• पुस्तक पर उसका पता लिखा है।
• मैँ दिन मेँ सोता हूँ।
• पाँच मील की दूरी।
8. सम्बोधन कारक–
संज्ञा के जिस रूप से किसी को पुकारने, बुलाने या सचेत करने का बोध हो, उसे सम्बोधन कारक कहते हैँ। सम्बोधन कारक का कोई विभक्ति–चिह्न (परसर्ग) नहीँ होता है, किन्तु उसे प्रकट करने के लिए संज्ञा से पूर्व प्रायः विस्मयादिबोधक अव्यय जोड़ देते हैँ। जैसे–
• अरे भाई! इधर आना।
• अजी! सुनते हो।
• बच्चो! यहाँ शोर मत करो।
• हे भगवान! हमारी रक्षा करो।
• हे परमात्मा! मुझे शक्ति दो।
इस कारक मेँ ‘हे’, ‘ओ’, ‘अरे’ आदि शब्दोँ का प्रयोग संज्ञा के पूर्व किया जाता है अतः इन्हेँ परसर्गोँ की श्रेणी मेँ नहीँ रखा जा सकता।
काल–विचार
♦ काल–
क्रिया के जिस रूप से कार्य सम्पन्न होने का समय (काल) जाना जाये, उसे काल कहते हैँ। जैसे–
1. सुमित्रा ने पत्र लिखा।
2. सुमित्रा पत्र लिखती है।
3. सुमित्रा पत्र लिखेगी।
ऊपर लिखे तीनोँ वाक्योँ मेँ ‘लिखना’ क्रिया आई है। पहले वाक्य मेँ ‘लिखा’ क्रिया बीते हुए समय का ज्ञान कराती है। दूसरे वाक्य मेँ ‘लिखती है’ क्रिया वर्तमान समय का बोध कराती है और तीसरे वाक्य मेँ ‘लिखेगी’ क्रिया आगे आने वाले समय का ज्ञान करा रही है।
♦ काल के भेद–
काल के तीन भेद होते हैँ–
1. भूतकाल
2. वर्तमान काल
3. भविष्यत् काल।
1. भूतकाल–
क्रिया के जिस रूप से बीते हुए समय (अतीत) मेँ कार्य संपन्न होने का बोध हो उसे भूतकाल कहते हैँ।
जैसे–
• राम ने पुस्तक पढ़ी।
• राम पुस्तक पढ़ रहा था।
• राम पुस्तक पढ़ चुका था।
• राम ने पुस्तक पढ़ ली होगी।
ऊपर लिखे चारोँ वाक्योँ मेँ ‘पढ़ना’ क्रिया आई है और चारोँ वाक्योँ मेँ इस क्रिया के अलग–अलग रूप हैँ। चारोँ वाक्योँ को पढ़ने से मालूम होता है कि ‘पढ़ना’ क्रिया का समय भूतकाल मेँ समाप्त हो गया।
♦ भूतकाल के निम्नलिखित छः भेद हैं–
1. सामान्य भूत।
2. आसन्न भूत।
3. अपूर्ण भूत।
4. पूर्ण भूत।
5. संदिग्ध भूत।
6. हेतुहेतुमद भूत।
1. सामान्य भूत–
क्रिया के जिस रूप से बीते हुए समय में कार्य के होने का बोध हो किन्तु ठीक समय का ज्ञान न हो, वहाँ सामान्यभूत होता है। जैसे–
(1) बच्चा गया।
(2) श्याम ने पत्र लिखा।
(3) कमल आया।
2. आसन्न भूत–
क्रिया के जिस रूप से अभी–अभी निकट भूतकाल में क्रिया का होना प्रकट हो, वहाँ आसन्न भूत होता है। जैसे–
(1) बच्चा आया है।
(2) श्याम ने पत्र लिखा है।
(3) कमल गया है।
3. अपूर्ण भूत–
क्रिया के जिस रूप से कार्य का होना बीते समय में प्रकट हो, पर पूरा होना प्रकट न हो वहाँ अपूर्ण भूत होता है। जैसे–
(1) बच्चा आ रहा था।
(2) श्याम पत्र लिख रहा था।
(3) कमल जा रहा था।
4. पूर्ण भूत–
क्रिया के जिस रूप से यह ज्ञात हो कि कार्य समाप्त हुए बहुत समय बीत चुका है उसे पूर्ण भूत कहते हैं। जैसे–
(1) श्याम ने पत्र लिखा था।
(2) बच्चा आया था।
(3) कमल गया था।
5. संदिग्ध भूत–
क्रिया के जिस रूप से भूतकाल का बोध तो हो किन्तु कार्य के होने में संदेह हो वहाँ संदिग्ध भूत होता है। जैसे–
(1) बच्चा आया होगा।
(2) श्याम ने पत्र लिखा होगा।
(3) कमल गया होगा।
6. हेतुहेतुमद भूत–
क्रिया के जिस रूप से बीते समय में एक क्रिया के होने पर दूसरी क्रिया का होना आश्रित हो अथवा एक क्रिया के न होने पर दूसरी क्रिया का न होना आश्रित हो वहाँ हेतुहेतुमद भूत होता है। जैसे–
(1) यदि श्याम ने पत्र लिखा होता तो मैं अवश्य आता।
(2) यदि वर्षा होती तो फसल अच्छी होती।
2. वर्तमान काल–
क्रिया के जिस रूप से कार्य के वर्तमान समय मेँ होने का ज्ञान हो, उसे वर्तमान काल कहते हैँ।
जैसे–
• करुणा गीत गाती है।
• करुणा गीत गा रही है।
• करुणा गीत गाती होगी।
• करुणा गीत गा चुकी होगी।
ऊपर लिखे सभी वाक्योँ मेँ ‘गाना’ क्रिया वर्तमान समय मेँ हो रही है।
♦ वर्तमान काल के निम्नलिखित तीन भेद हैं–
(1) सामान्य वर्तमान।
(2) अपूर्ण वर्तमान।
(3) संदिग्ध वर्तमान।
1. सामान्य वर्तमान–
क्रिया के जिस रूप से यह बोध हो कि कार्य वर्तमान काल में सामान्य रूप से होता है वहाँ सामान्य वर्तमान होता है। जैसे–
(1) बच्चा रोता है।
(2) श्याम पत्र लिखता है।
(3) कमल आता है।
2. अपूर्ण वर्तमान–
क्रिया के जिस रूप से यह बोध हो कि कार्य अभी चल ही रहा है, समाप्त नहीं हुआ है वहाँ अपूर्ण वर्तमान होता है। जैसे–
(1) बच्चा रो रहा है।
(2) श्याम पत्र लिख रहा है।
(3) कमल आ रहा है।
3. संदिग्ध वर्तमान–
क्रिया के जिस रूप से वर्तमान में कार्य के होने में संदेह का बोध हो वहाँ संदिग्ध वर्तमान होता है। जैसे–
(1) अब बच्चा रोता होगा।
(2) श्याम इस समय पत्र लिखता होगा।
3. भविष्यत् काल–
क्रिया के जिस रूप से यह ज्ञात हो कि कार्य भविष्य में होगा वह भविष्यत् काल कहलाता है। जैसे–
• श्याम पत्र लिखेगा।
• शायद आज संध्या को वह आए।
इन दोनों में भविष्यत काल की क्रियाएँ हैं, क्योंकि ‘लिखेगा’ और ‘आए’ क्रियाएँ भविष्यत काल का बोध कराती हैं।
♦ भविष्यत् काल के निम्नलिखित दो भेद हैं–
1. सामान्य भविष्यत।
2. संभाव्य भविष्यत।
1. सामान्य भविष्यत–
क्रिया के जिस रूप से कार्य के भविष्य में होने का बोध हो उसे सामान्य भविष्यत कहते हैं। जैसे–
(1) श्याम पत्र लिखेगा।
(2) हम घूमने जाएँगे।
2. संभाव्य भविष्यत–
क्रिया के जिस रूप से कार्य के भविष्य में होने की संभावना का बोध हो वहाँ संभाव्य भविष्यत होता है जैसे–
(1) शायद आज वह आए।
(2) संभव है श्याम पत्र लिखे।
(3) कदाचित संध्या तक पानी पड़े।
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प्रस्तुति:–
प्रमोद खेदड़