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महाभारत - 6

शस्त्र - संचालन का प्रदर्शन व कर्ण की चुनौति

      एक दिन पितामह भीष्म ने गुरु द्रोण से सलाह करके के शस्त्र-संचालन के प्रदर्शन की व्यवस्था की। निश्चित समय पर रंगस्थली दर्शकों से भर गई। भीष्म , धृतराष्ट्र , गांधारी , कुंती , विदुर आदि सभी उपस्थित थे। सभी ने अपना-अपना कौशल दिखाया तथा सभी का मन मोह लिया। विदुर ने धृतराष्ट्र को प्रदर्शन का वृत्तांत सुनाया। भीम और दुर्योधन ने गदा-युद्ध का कौशल दिखाया। दोनों एक-दूसरे से ईर्ष्या रखते थे, अतः एक दूसरे पर वार करने लगे लगे, पर गुरु द्रोण ने संकेत पर अश्वत्थामा ने उन्हें अलग-अलग कर दिया।

       अर्जुन की धनुर्विद्या की प्रशंसा सभी कर रहे थे कि इसी समय कर्ण आगे आया तथा अपनी कला दिखाने की इच्छा व्यक्त करते हुए बोला कि जो कुछ अर्जुन ने किया, वह मेरे लिए अत्यंत साधारण-सी बात है। कर्ण ने कहा कि मैं अर्जुन से द्वंद्व-युद्ध करना चाहता हूँ। पर कृपाचार्य ने उसे सूतपुत्र कहकर द्वंद्व-युद्ध की बात काट दी, क्योंकि राजकुमार से द्वंद्व-युद्ध करने का अधिकारी राजकुमार ही होता है। इस पर दुर्योधन ने कर्ण को अंग देश का राजा घोषित कर दिया तथा सभा भवन में ही उसका राजतिलक कर दिया।

      अर्जुन ने कर्ण से कहा कि कर्ण तुम वीर हो, पर तुम यह मत समझो कि वीरता का वरदान केवल तुम्हें ही मिला है। संध्या हो चली थी, इसीलिए पितामह भीष्म ने प्रदर्शन को बंद करने का आदेश दे दिया। अर्जुन की गर्वोक्ति कर्ण के मन में चोट बनकर रह गई।


द्रुपद से द्रोण का बदला लेना

      द्रुपद पांचाल के राजा और द्रौपदी , धृष्टद्युम्न , शिखंडी के पिता थे। जब पाण्डव तथा कौरव राजकुमारों की शिक्षा पूर्ण हो गई तो उन्होंने द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा देना चाहा। द्रोणाचार्य को द्रुपद के द्वारा किये गये अपने अपमान का स्मरण हो आया और उन्होंने राजकुमारों से कहा, “राजकुमारों! यदि तुम गुरुदक्षिणा देना ही चाहते हो तो पाञ्चाल नरेश द्रुपद को बन्दी बना कर मेरे समक्ष प्रस्तुत करो। यही तुम लोगों की गुरुदक्षिणा होगी।” गुरुदेव के इस प्रकार कहने पर समस्त राजकुमार अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र ले कर पाञ्चाल देश की ओर चले।

       पाञ्चाल पहुँचने पर अर्जुन ने द्रोणाचार्य से कहा, “गुरुदेव! आप पहले कौरवों को राजा द्रुपद से युद्ध करने की आज्ञा दीजिये। यदि वे द्रुपद को बन्दी बनाने में असफल रहे तो हम पाण्डव युद्ध करेंगे।”

      गुरु की आज्ञा मिलने पर दुर्योधन के नेतृत्व में कौरवों ने पाञ्चाल पर आक्रमण कर दिया। दोनों पक्षों के मध्य भयंकर युद्ध होने लगा किन्तु अन्त में कौरव परास्त होकर भाग निकले। कौरवों को पलायन करते देख पाण्डवों ने आक्रमण आरम्भ कर दिया। भीमसेन तथा अर्जुन के पराक्रम के समक्ष पाञ्चाल नरेश की सेना हार गई। अर्जुन ने आगे बढ़ कर द्रुपद को बन्दी बना लिया और गुरु द्रोणाचार्य के समक्ष ले आये।

      द्रुपद को बन्दी के रूप में देख कर द्रोणाचार्य ने कहा, “हे द्रुपद! अब तुम्हारे राज्य का स्वामी मैं हो गया हूँ। मैं तो तुम्हें अपना मित्र समझ कर तुम्हारे पास आया था किन्तु तुमने मुझे अपना मित्र स्वीकार नहीं किया था। अब बताओ क्या तुम मेरी मित्रता स्वीकार करते हो?”

      द्रुपद ने लज्जा से सिर झुका लिया और अपनी भूल के लिये क्षमा याचना करते हुये बोले, “हे द्रोण! आपको अपना मित्र न मानना मेरी भूल थी और उसके लिये अब मेरे हृदय में पश्चाताप है। मैं तथा मेरा राज्य दोनों ही अब आपके अधीन हैं, अब आपकी जो इच्छा हो करें।”

      द्रोणाचार्य ने कहा, “तुमने कहा था कि मित्रता समान वर्ग के लोगों में होती है। अतः मैं तुमसे बराबरी का मित्र भाव रखने के लिये तुम्हें तुम्हारा आधा राज्य लौटा रहा हूँ।” इतना कह कर द्रोणाचार्य ने गंगा नदी के दक्षिणी तट का राज्य द्रुपद को सौंप दिया और शेष को स्वयं रख लिया।

द्रौपदी व धृष्टद्युम्न का जन्म

      गुरु द्रोण से पराजित होने के उपरान्त महाराज द्रुपद अत्यन्त लज्जित हुये और उन्हें किसी प्रकार से नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे। इसी चिन्ता में एक बार वे घूमते हुये कल्याणी नगरी के ब्राह्मणों की बस्ती में जा पहुँचे। वहाँ उनकी भेंट याज तथा उपयाज नामक महान कर्मकाण्डी ब्राह्मण भाइयों से हुई। राजा द्रुपद ने उनकी सेवा करके उन्हें प्रसन्न कर लिया एवं उनसे द्रोणाचार्य के मारने का उपाय पूछा। उनके पूछने पर बड़े भाई याज ने कहा, “इसके लिये आप एक विशाल यज्ञ का आयोजन करके अग्निदेव को प्रसन्न कीजिये जिससे कि वे आपको वे महान बलशाली पुत्र का वरदान दे देंगे।”

       महाराज ने याज और उपयाज से उनके कहे अनुसार यज्ञ करवाया। उनके यज्ञ से प्रसन्न हो कर अग्निदेव ने उन्हें एक ऐसा पुत्र दिया जो सम्पूर्ण आयुध एवं कवच कुण्डल से युक्त था। उसके पश्चात् उस यज्ञ कुण्ड से एक कन्या उत्पन्न हुई जिसके नेत्र खिले हुये कमल के समान देदीप्यमान थे, भौहें चन्द्रमा के समान वक्र थीं तथा उसका वर्ण श्यामल था। उसके उत्पन्न होते ही एक आकाशवाणी हुई कि इस बालिका का जन्म क्षत्रियों के सँहार और कौरवों के विनाश के हेतु हुआ है। बालक का नाम धृष्टद्युम्न एवं बालिका का नाम कृष्णा रखा गया।


शिखण्डी

      भीष्म द्वारा अपहृता काशीराज की ज्येष्ठ पुत्री अम्बा का ही दूसरा अवतार शिखंडी के रूप में हुआ था। भीष्म से प्रतिशोध की भावना से उसने शंकर की घोर तपस्या की और उनसे वरदान पाकर महाराज द्रुपद के यहाँ जन्म लिया उसने महाभारत के युद्ध में अपने पिता द्रुपद और भाई धृष्टद्युम्न के साथ पाण्डवों की ओर से युद्ध किया।

      शिखंडी के रूप में अंबा का पुनर्जन्म हुआ था। अम्बा काशीराज की पुत्री थी। उसकी दो और बहनेँ थी जिनका नाम अम्बिका और अम्बालिका था। विवाह योग्य होने पर उसके पिता ने अपनी तीनो पुत्रियों का स्वयंवर रचाया। हस्तिनापुर के संरक्षक भीष्म ने अपने भाइ विचित्रवीर्य के लिए जो हस्तिनापुर का राजा भी था, काशीराज की तीनों पुत्रियों का स्वयंवर से हरण कर लिया। उन तीनों को वे हस्तिनापुर ले गए। वहाँ उन्हें अंबा के किसी और के प्रति आसक्त होने का पता चला। भीष्म ने अम्बा को उसके प्रेमी के पास पहुँचाने का प्रबंध कर दिया किंतु वहां से अंबा तिरस्कृत होकर लौट आयी। अम्बा ने इसका उत्तरदायित्व भीष्म पर डाला और उनसे विवाह करने पर जोर दिया। भीष्म द्वारा आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने की प्रतिज्ञा से बंधे होने का तर्क दिए जाने पर भी वह अपने निश्चय से विचलित नहीं हुई। अंततः अंबा ने प्रतिज्ञा की कि वह एक दिन भीष्म की मृत्यु का कारण बनेगी। इसके लिए उसने घोर तपस्या की। उसका जन्म पुनः एक राजा की पुत्री के रूप में हुआ। पूर्वजन्म की स्मृतियों के कारण अंबा ने पुनः अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए तपस्या आरंभ कर दी। भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर उसकी मनोकामना पूर्ण होने का वरदान दिया तब अंबा ने शिखंडी के रुप में महाराज द्रुपद की पुत्री के रुप में जन्म लिया।

      शिखण्डी का जन्म पंचाल नरेश द्रुपद के घर मूल रुप से एक कन्या के रुप में हुआ था। उसके जन्म के समय एक आकशवाणी हुई कि उसका लालन एक पुत्री नहीं वरन एक पुत्र के रुप मे किया जाए। इसलिए शिखंडी का लालन-पालन पुरुष के समान किया गया। उसे युद्धकला का प्रक्षिक्षण दिया गया और कालंतर में उसका विवाह भी कर दिया गया। उसकी विवाह रात्री के दिन उसकी पत्नी ने सत्य का ज्ञान होने पर उसका अपमान किया। आहत शिखंडी आत्महत्या का विचार लेकर पांचाल से भाग गई। तब एक यक्ष ने उसे बचाया, और अपना लिंग परिवर्तन कर अपना पुरुषत्व उसे दे दिया। इस प्रकार शिखंडी एक पुरुष बनकर पंचाल वापस लौट गया और अपनी पत्नी और बच्चों के साथ सुखी वैवाहिक जीवन बिताया। उसकी मृत्यु के पश्चात उसका पुरुषत्व यक्ष को वापस मिल गया।

लाक्षागृह

      दुर्योधन दिन-रात इसी चिंता में रहता कि किसी प्रकार पांडवों का नाश करके हस्तिनापुर पर राज्य कर सके। कौरवों-पांडवों में युधिष्ठिर सबसे बड़े थे तथा इसीलिए सिंहासन के उत्तराधिकारी समझे जाते थे। पर दुर्योधन सोचता था कि उसके पिता ज्येष्ठ होने पर भी जन्मांध होने के कारण गद्दी न पा सके, तो इससे उत्तराधिकारी का नियम तो नहीं बदल जाता। धृतराष्ट्र का बड़ा पुत्र होने के कारण मैं ही गद्दी का अधिकारी हूँ। शकुनि , कर्ण , दु:शासन , आदि दुर्योधन के साथ थे। दुर्योधन ने पांडवों की बुराई करके धृतराष्ट्र को भी अपने पक्ष में कर लिया तथा पिता से पांडवों को वरणावर्त के मेले में भेजने को कहा। दुर्योधन एक योजना बनाकर पांडवों का नाश करना चाहता था। धृतराष्ट्र की आज्ञा से पांडव वरणावर्त चले गए। उनके जाते समय विदुर ने युधिष्ठिर को सावधान कर दिया तथा अगले संदेश की प्रतीक्षा करने को कहा। दुर्योधन ने पुरोचन नाम के एक मंत्री से मिलकर वरणावर्त में लाख के एक महल में पांडवों को जलाकर मार डालने की योजना बना ली थी। लाख का वह महल ऐसा बनवाया गया था जो आग के स्पर्श से ही पूरी तरह जल उठे तथा पांडव जल मरें।

      जैसे ही पांडव वरणावर्त में बने लाख महल में जाने को तैयार हुए विदुर ने उन्हें एक संदेश भेजकर दुर्योधन की सारी योजना से सावधान करा दिया। एक कारीगर ने महल से बाहर निकलने के लिए सुरंग बना दी। पांडव महल के भीतर नहीं, इसी सुरंग में सोया करते थे, जिससे कि महल में आग लगने पर जल्दी ही बाहर निकल सकें। कृष्ण चतुर्दशी के दिन युधिष्ठिर को पुरोचन के रंग-ढंग से अहसास हो गया कि महल में आज रात को ही आग लगाई जाएगी।

      युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को सचेत कर दिया। पांडवों ने उस दिन यज्ञ किया था, जिसमें नगरवासियों के साथ एक भीलनी ने भी अपने पाँच पुत्रों के साथ भोजन किया था। भोजन के बाद वह भीलनी महल में ही सो गई। पुरोचन महल के बाहरी कमरे में सो रहा था। भीम ने रात को महल में आग लगा लगा दी तथा माता कुंती को लेकर सुरंग से बाहर आ गए। पुरोचन तथा अपने पुत्रों के साथ भीलनी जल मरी । हस्तिनापुर में शोक छा गया, पर विदुर को विश्वास था कि पांडव अवश्य ही बच निकले होंगे। लाक्षागृह से निकलकर पांडव दुर्गम वन पार करते हुए गंगा तट पहुँचे, जहाँ उन्हें विदुर का भेजा एक आदमी नाव के साथ मिला , पांडव उसी नाव में गंगा पार हो गए।


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