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महाभारत - 7

हिडिँब का वध , हिडिँबा का विवाह व घटोत्कच का जन्म

      लाक्षागृह के दहन के पश्चात सुरंग के रास्ते लाक्षागृह से निकल कर पाण्डव अपनी माता के साथ वन के अन्दर चले गये। कई कोस चलने के कारण भीमसेन को छोड़ कर शेष लोग थकान से बेहाल हो गये और एक वट वृक्ष के नीचे लेट गये। माता कुन्ती प्यास से व्याकुल थीं इसलिये भीमसेन किसी जलाशय या सरोवर की खोज में चले गये। एक जलाशय दृष्टिगत होने पर उन्होंने पहले स्वयं जल पिया और माता तथा भाइयों को जल पिलाने के लिये लौट कर उनके पास आये। वे सभी थकान के कारण गहरी निद्रा में निमग्न हो चुके थे अतः भीम वहाँ पर पहरा देने लगे।

      उस वन में हिडिंब नाम का एक भयानक राक्षस था, जो अपनी बहन हिडिंबा के साथ रहता था। उसकी बहन हिडिंबा काली माता की भक्त थी । मानवों की गंध मिलने पर उसने पाण्डवों को पकड़ लाने के लिये अपनी बहन हिडिंबा को भेजा ताकि वह उन्हें अपना आहार बना कर अपनी क्षुधा पूर्ति कर सके। वहाँ पर पहुँचने पर हिडिंबा ने भीमसेन को पहरा देते हुये देखा और उनके सुन्दर मुखारविन्द तथा बलिष्ठ शरीर को देख कर उन पर आसक्त हो गई।

      उसने अपनी राक्षसी माया से एक अपूर्व लावण्मयी सुन्दरी का रूप बना लिया और भीमसेन के पास जा पहुँची। भीमसेन ने उससे पूछा, “हे सुन्दरी! तुम कौन हो और रात्रि में इस भयानक वन में अकेली क्यों घूम रही हो?”

      भीम के प्रश्न के उत्तर में हिडिम्बा ने कहा, “हे नरश्रेष्ठ! मैं हिडिम्बा नाम की राक्षसी हूँ। मेरे भाई ने मुझे आप लोगों को पकड़ कर लाने के लिये भेजा है किन्तु मेरा हृदय आप पर आसक्त हो गया है तथा मैं आपको अपने पति के रूप में प्राप्त करना चाहती हूँ। मेरा भाई हिडिम्ब बहुत दुष्ट और क्रूर है किन्तु मैं इतना सामर्थ्य रखती हूँ कि आपको उसके चंगुल से बचा कर सुरक्षित स्थान तक पहुँचा सकूँ।”

      इधर अपनी बहन को लौट कर आने में विलम्ब होता देख कर हिडिम्ब उस स्थान में जा पहुँचा जहाँ पर हिडिम्बा भीमसेन से वार्तालाप कर रही थी। हिडिम्बा को भीमसेन के साथ प्रेमालाप करते देखकर वह क्रोधित हो उठा और हिडिम्बा को दण्ड देने के लिये उसकी ओर झपटा। यह देख कर भीम ने उसे रोकते हुये कहा, “रे दुष्ट राक्षस! तुझे स्त्री पर हाथ उठाते लज्जा नहीं आती? यदि तू इतना ही वीर और पराक्रमी है तो मुझसे युद्ध कर।” इतना कह कर भीमसेन ताल ठोंक कर उसके साथ मल्ल युद्ध करने लगे। कुंती तथा अन्य पाण्डव की भी नींद खुल गई। वहाँ पर भीम को एक राक्षस के साथ युद्ध करते तथा एक रूपवती कन्या को खड़ी देख कर कुन्ती ने पूछा, “पुत्री! तुम कौन हो?” हिडिम्बा ने सारी बातें उन्हें बता दी।

       अर्जुन ने हिडिम्ब को मारने के लिये अपना धनुष उठा लिया किन्तु भीम ने उन्हें बाण छोड़ने से मना करते हुये कहा, “अनुज! तुम बाण मत छोङो, यह मेरा शिकार है और मेरे ही हाथों मरेगा।” इतना कह कर भीम ने हिडिम्ब को दोनों हाथों से पकड़ कर उठा लिया और उसे हवा में अनेक बार घुमा कर इतनी तीव्रता के साथ भूमि पर पटका कि उसके प्राण-पखेरू उड़ गये।

      हिडिम्ब के मरने पर वे लोग वहाँ से प्रस्थान की तैयारी करने लगे, इस पर हिडिम्बा ने कुन्ती के चरणों में गिर कर प्रार्थना करने लगी, “हे माता! मैंने आपके पुत्र भीम को अपने पति के रूप में स्वीकार कर लिया है। आप लोग मुझे कृपा करके स्वीकार कर लीजिये। यदि आप लोगों ने मझे स्वीकार नहीं किया तो मैं इसी क्षण अपने प्राणों का त्याग कर दूँगी।” हिडिम्बा के हृदय में भीम के प्रति प्रबल प्रेम की भावना देख कर युधिष्ठिर बोले, “हिडिम्बे! मैं तुम्हें अपने भाई को सौंपता हूँ किन्तु यह केवल दिन में तुम्हारे साथ रहा करेगा और रात्रि को हम लोगों के साथ रहा करेगा।” हिडिंबा इसके लिये तैयार हो गई । जंगल में ही कुंती की आज्ञा से हिंडिबा एवं भीम दोनों का विवाह हुआ। हिडिँबा भीमसेन के साथ आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगी। एक वर्ष व्यतीत होने पर हिडिम्बा का पुत्र उत्पन्न हुआ। उत्पन्न होते समय उसके सिर पर केश (उत्कच) न होने के कारण उसका नाम घटोत्कच रखा गया। वह अत्यन्त मायावी निकला और जन्म लेते ही बड़ा हो गया।

      हिडिम्बा ने अपने पुत्र को पाण्डवों के पास ले जा कर कहा, “यह आपके भाई की सन्तान है अतः यह आप लोगों की सेवा में रहेगा।” इतना कह कर हिडिम्बा वहाँ से चली गई। घटोत्कच श्रद्धा से पाण्डवों तथा माता कुन्ती के चरणों में प्रणाम कर के बोला, “अब मुझे मेरे योग्य सेवा बतायें।” उसकी बात सुन कर कुन्ती बोली, “तू मेरे वंश का सबसे बड़ा पौत्र है। समय आने पर तुम्हारी सेवा अवश्य ली जायेगी।” इस पर घटोत्कच ने कहा, “आप लोग जब भी मुझे स्मरण करेंगे, मैं आप लोगों की सेवा में उपस्थित हो जाउँगा।” इतना कह कर घटोत्कच वर्तमान उत्तराखंड की ओर चला गया।


बकासुर का वध

      वन-मार्ग पर चलते-चलते एक दिन पांडवों की भेंट महर्षि व्यास से हुई। महर्षि व्यास ने पांडवों को ढाँढ़स बँधाया तथा उन्हीं की सलाह पर पांडव ब्रह्मचारियों का वेश धारण कर एकचक्रा नामक नगरी में एक ब्राह्मण के घर रहने लगे। पाँचों भाई भिक्षा माँगकर लाते तथा उसी को बाँटकर अपना पेट भरते।

      उस नगरी के पास बक नामक एक असुर रहता था। एकचक्रा नगरी का शासक दुर्बल था, अत: वहां बकासुर का आतंक छा गया था। बकासुर शत्रुओं तथा हिंसक प्राणियों से नगरी की सुरक्षा करता था। तथा फलस्वरूप नगरवासियों ने यह नियत कर दिया था कि वहां के निवासी गृहस्थ बारी-बारी से उसके एक दिन के भोजन का प्रबंध करेंगे। बकासुर नरभक्षी था। उसको प्रतिदिन बीस खारी अगहनी के चावल, दो भैंसे तथा एक मनुष्य को आवश्यकता होती थी।

      एक दिन भीम घर पर रह गए। उस दिन पांडवों के आश्रयदाता ब्राह्मण की बारी थी। उसके परिवार में पति-पत्नी, एक पुत्र तथा एक पुत्री थे। वे लोग निश्चय नहीं कर पा रहे थे कि किसको बकासुर के पास भेजा जाय। तभी कुंती ने अपने आश्रयदाता ब्राह्मण के घर रोने की आवाज सुनी। पूछने पर पता चला कि बक नाम का एक राक्षस नगर के पास ही गुफ़ा में रहता है, जो लोगों को जहाँ भी देखता, मारकर खा जाता था। नगरवासियों ने उससे तंग आकर एक समझौता कर लिया कि हर सप्ताह उसकी गुफ़ा में गाड़ी भरकर मांस, मदिरा, पकवान आदि भेज दिया जाएगा तथा गाड़ीवान भी उसी खुराक में शामिल होगा। उस दिन गाड़ीवान के रूप में उस ब्राह्मण को जाना था। वहाँ पहुँचकर वह कभी जिंदा वापस नहीं आ सकेगा, इसीलिए घर के सभी लोग रो रहे हैं। कुंती ने ब्राह्मण को धीरज बँधाया तथा कहा कि उसकी जगह मेरा पुत्र भीम चला जाएगा तथा बकासुर उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेगा।

      कुंती के कहने पर ब्राह्मण के स्थान पर खाद्य सामग्री लेकर भीम सेन बकासुर के पास गया। पहले तो वह बक को चिढ़ाकर उसके लिए आयी हुई खाद्य सामग्री खाता रहा, फिर उससे द्वंद्व युद्ध कर भीम ने उसे मार डाला। भीमसेन ने उसके परिवारजनों से कहा कि वे लोग नर-मांस का परित्याग कर देंगे तो भीम उनको नहीं मारेगा। उन्होंने स्वीकार कर लिया। पांडवों ने उस ब्राह्मण से प्रतिज्ञा ले ली कि वह किसी पर यह प्रकट नहीं होने देगा कि बकासुर को भीमसेन ने मारा है। बकासुर के मारे जाने की खबर सुनते ही नगरवासी खुशी से झूम उठे ।


द्रौपदी - स्वयंवर

      एकचक्रा नगरी में रहते हुए पांडवों ने पांचाल देश के राजा यज्ञसेन (इनका नाम द्रुपद भी था) की पुत्री द्रौपदी के स्वयंवर का समाचार सुना। तभी वहाँ वेदव्यास जी भी आ गए। वेदव्यास बोले , “मैं महाराज द्रुपद की नगरी पाञ्चाल से आ रहा हूँ। वहाँ पर द्रुपद की कन्या द्रौपदी के स्वयंवर के लिये अनेक देशों के राजा-महाराजा पधारे हुये हैं। तुम लोग पाञ्चाल चले जाओ। वहाँ द्रुपद कन्या पाञ्चाली का स्वयंवर होने जा रहा है। वह कन्या तुम लोगों के सर्वथा योग्य है शिव जी ने उसे अगले जन्म में पाँच उत्तम पति प्राप्त होने का वरदान दिया था। वह देविस्वरूपा बालिका सब भाँति से तुम लोगों के योग्य ही है। तुम लोग वहाँ जा कर उसे प्राप्त करो।”

      उनकी सलाह पर माता कुंती को साथ लेकर पांडव स्वयंवर देखने चल पड़े। पाञ्चाल देश की यात्रा करते-करते पाण्डव रात्रि के समय श्रायण तीर्थ में पहुँचे। वहाँ पर गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी स्त्रियों के साथ विहार कर रहे थे। पाण्डवों को आते देख चित्ररथ ने दूर ही से कहा, “सावधान! इस समय यहाँ पर किसी का भी प्रवेश वर्जित है क्योंकि रात्रि के समय जल पर पूर्ण रूप से गन्धर्वों का अधिकार होता है। तुम लोग प्रातःकाल होने के पश्चात् ही यहाँ प्रवेश कर सकते हो।”

      चित्ररथ के वचनों को सुन कर अर्जुन क्रोधित होकर बोले, “अरे मूर्ख! नदी, पहाड़, समुद्र पर किसी का भी कोई अधिकार नहीं होता। फिर गंगा तो सबकी माता है, इन पर तो किसी का अधिकार हो ही नहीं सकता।”

       अर्जुन के ऐसा कहने पर चित्ररथ ने अर्जुन पर विषैले बाणों की बौछार करना आरम्भ कर दिया। उन विषैले बाणों का जवाब अर्जुन ने आग्नेय बाणों से दिया और चित्ररथ उनके बाणों के लगने पर घायल होकर भूमि में गिर पड़े। तत्काल अर्जुन उसके बालों को पकड़ कर उसे घसीटते हुये युधिष्ठिर के पास ले गये। चित्ररथ की दुर्दशा देख कर कुम्भानसी नामक उसकी पत्नी विलाप करती हुई युधिष्ठिर के पास पहुँची और अपने पति के प्राणों की भिक्षा माँगने लगी। स्त्री की प्रार्थना से द्रवित हो कर युधिष्ठिर ने चित्ररथ को क्षमादान करते हुये मुक्त कर दिया।

       कान्तिहीन चित्ररथ ने पाण्डवों से क्षमा याचना करते हुये कहा, “मैं आप लोगों के बल-पौरुष से अत्यन्त प्रभावित हुआ हूँ तथा अपनी भूल स्वीकार करता हूँ। यदि आप लोगों को स्वीकार हो तो मैं आपके साथ मित्रता करना चाहता हूँ।” पाण्डवों ने उसकी मित्रता स्वीकार कर ली। मित्रता हो जाने पर चित्ररथ ने पाण्डवों को चाक्षुसी विद्या का प्रयोग सिखाया जिससे वे सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु को देख सकते थे किन्तु वे किसी को दृष्टिगोचर नहीं हो सकते थे। इसके बदले में अर्जुन ने गन्धर्वराज चित्ररथ को आग्नेयास्त्र का प्रयोग सिखाया। इसके पश्चात् चित्ररथ गन्धर्वलोक चले गये और पाण्डवों ने पाञ्चाल के लिये प्रस्थान किया।

      रास्ते में पांडवों को धौम्य ऋषि मिले। पांडवों ने उन्हें अपना पुरोहित बना लिया। पांचाल राज्य पहुँचकर माता की सलाह से राजधानी के निकट एक कुम्हार के घर में ठहर गए। स्वयंवर के दिन राजधानी को सजाया गया था। देश-देश के राजा उसमें भाग लेने आए थे। हस्तिनापुर से कर्ण , दुर्योधन , दुशासन भी आए थे। स्वयंवर-भूमि के मध्य भाग में आकाश में एक मछली स्थिर थी। उसके नीचे एक चक्र बराबर घूम रहा था। नीचे पानी में मछली की परछाई को देखकर, जो उसकी आँख बेध सके, वही द्रौपदी से विवाह कर सकता था।

      एक-एक करके अनेक राजाओं ने प्रयास किया, पर कोई भी मछली की आँख को नहीं वेध सका। कर्ण निशाना साध ने चला, पर सूतपुत्र कहे जाने के कारण उसे बैठ जाना पड़ा। अंत में ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन ने एक तीर से मछली की आँखवेध दी। उपस्थित राजाओं की शंका पर अर्जुन ने दूसरी बार निशाना लगाकर मछली को ही नीचे गिरा दिया। द्रौपदी ने अर्जुन के गले में वरमाला पहना दी। कुछ राजाओं ने ब्राह्मण वेशधारी से द्रौपदी को छीनने का प्रयास किया, पर जब भीम एक विशाल पेड़ उखाड़कर ले आए तो उनका साहस टूट गया। जब द्रौपदी तथा धृष्टद्युम्न को पता चला उसने अर्जुन का वरण किया, तो उसकी प्रसन्नता की सीमा न रही। घर पहुँचकर अर्जुन ने बाहर से ही माँ को बताया कि देखो कितनी अच्छी चीज़ लाया हूँ, तो भीतर से ही माता कुंती ने उत्तर दिया कि जो लाए हो, पाँचों भाई बाँट लो। माता कुंती ने जैसे ही बाहर आकर देखा तो उसे बहुत पश्चाताप हुआ, किन्तु माता के वचनों को सत्य सिद्ध करने के लिये द्रौपदी ने पाँचों पाण्डवों को पति के रूप में स्वीकार कर लिया। पाण्डवों के द्रौपदी को साथ ले कर अपने निवास पर पहुँचने के कुछ काल पश्चात् उनके पीछे-पीछे कृष्ण भी वहाँ पर आ पहुँचे। सभी से भेंट मुलाकात करके कृष्ण वहाँ से अपनी नगरी द्वारिका चले गये।

      फिर पाँचों भाइयों ने भिक्षावृति से भोजन सामग्री एकत्रित किया और उसे लाकर माता कुन्ती के सामने रख दिया। कुन्ती ने द्रौपदी से कहा, “देवि! इस भिक्षा से पहले देवताओं के अंश निकालो। फिर ब्राह्मणों को भिक्षा दो। तत्पश्चात् आश्रितों का अंश अलग करो। उसके बाद जो शेष बचे उसका आधा भाग भीम को और शेष आधा भाग हम सभी को भोजन के लिये परोसो।” पतिव्रता द्रौपदी ने कुन्ती के आदेश का पालन किया। भोजन के पश्चात् कुशासन पर मृगचर्म बिछाकर वे सो गये। द्रौपदी माता के पैरों की ओर सोई।

      द्रौपदी के स्वयंवर के समय दुर्योधन के साथ ही साथ द्रुपद, धृष्तद्युम्न एवं अनेक अन्य लोगों को संदेह हो गया था कि वे ब्राह्मण पाण्डव ही हैं। उनकी परीक्षा करने के लिये द्रुपद ने धृष्टद्युम्न को भेज कर उन्हें अपने राजप्रासाद में बुलवा लिया। राजप्रासाद में द्रुपद एवं धृष्टद्युम्न ने पहले राजकोष को दिखाया किन्तु पाण्डवों ने वहाँ रखे रत्नाभूषणों तथा रत्न-माणिक्य आदि में किसी प्रकार की रुचि नहीं दिखाई। किन्तु जब वे शस्त्रागार में गये तो वहाँ रखे अस्त्र-शस्त्रों उन सभी ने बहुत अधिक रुचि प्रदर्शित किया और अपनी पसंद के शस्त्रों को अपने पास रख लिया। उनके क्रिया-कलाप से द्रुपद को विश्वास हो गया कि ये ब्राह्मण के रूप में योद्धा ही हैं।

      द्रुपद ने युधिष्ठिर से पूछा, “हे आर्य! आपके पराक्रम कोदेख कर मुझे विश्वास हो गया है कि आप लोग ब्राह्मण नहीं हैं। कृपा करके आप अपना सही परिचय दीजिये।”

      उनके वचनों को सुन कर युधिष्ठिर ने कहा, “राजन्! आपका कथन अक्षरशः सत्य है। हम पाण्डु-पुत्र पाण्डव हैं। मैं युधिष्ठिर हूँ और ये मेरे भाई भीमसेन, अर्जुन, नकुल एवं सहदेव हैं। हमारी माता कुन्ती आपकी पुत्री द्रौपदी के साथ आपके महल में हैं।”

      युधिष्ठिर की बात सुन कर द्रुपद अत्यन्त प्रसन्न हुये और बोले, “आज भगवान ने मेरी सुन ली। मैं चाहता था कि मेरी पुत्री का विवाह पाण्डु के पराक्रमी पुत्र अर्जुन के साथ ही हो। मैं आज ही अर्जुन और द्रौपदी के विधिवत विवाह का प्रबन्ध करता हूँ।”

      इस पर युधिष्ठिर ने कहा, “राजन्! द्रौपदी का विवाह तो हम पाँचों भाइयों के साथ होना है।”

      यह सुन कर द्रुपद आश्चर्यचकित हो गये और बोले, “यह कैसे सम्भव है? एक पुरुष की अनेक पत्नियाँ अवश्य हो सकती हैं, किन्तु एक स्त्री के पाँच पति हों ऐसा तो न कभी देखा गया है और न सुना ही गया है।”

      युधिष्ठिर ने कहा, “राजन्! न तो मैं कभी मिथ्या भाषण करता हूँ और न ही कोई कार्य धर्म या शास्त्र के विरुद्ध करता हूँ। हमारी माता ने हम सभी भाइयों को द्रौपदी का उपभोग करने का आदेश दिया है और मैं माता की आज्ञा की अवहेलना कदापि नहीं कर सकता ।”

      इसी समय वहाँ पर वेदव्यास जी पधारे और उन्होंने द्रुपद को द्रौपदी के पूर्व जन्म की एक कथा सुनाई तथा बताया कि द्रौपदी को पाँच पति प्राप्त होना का वरदान मिला था -

      एक बार रुद्र ने पांच इन्द्रों को उनके दुरभिमान स्वरूप यह शाप दिया था कि वे मानव-रूप धारण करेंगे। उनके पिता क्रमश: धर्म , वायु , इन्द्र तथा अश्विनीकुमार (द्वय) होंगे। भूलोक पर उनका विवाह स्वर्गलोक की लक्ष्मी के मानवी रूप से होगा। वह मानवी द्रौपदी है तथा वे पांचों इन्द्र पांडव हैं। द्रौपदी पूर्वजन्म में किसी ऋषि की कन्या थी। उसने पति पाने की कामना से तपस्या की। शंकर ने प्रसन्न होकर उसे वर देने की इच्छा की। उसने शंकर से पांच बार कहा कि वह सर्वगुण संपन्न पति चाहती है। शंकर ने कहा कि अगले जन्म में उसके पांच भारतवंशी पति होंगे, क्योंकि उसने पति पाने की कामना पांच बार दोहरायी थी।

      व्यास मुनि ने उनके पूर्व रूप देखने के लिए द्रुपद को दिव्य दृष्टि भी प्रदान की थी। वेदव्यास जी के वचनों को सुन कर द्रुपद का सन्देह समाप्त हो गया और उन्होंने अपनी पुत्री द्रौपदी का विवाह पाँचों पाण्डवों के साथ बङी धूमधाम के साथ कर दिया। इस विवाह में देवर्षि नारद ने स्वयं पधार कर द्रौपदी को प्रतिदिन कन्यारूप हो जाने का आशीर्वाद दिया। द्रुपद के दिये तथा कृष्ण के भेजे विभिन्न उपहारों को ग्रहण कर वे लोग द्रुपद की नगरी में ही रहने लगे।


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