महाभारत - 12 यक्ष-प्रश्न व युधिष्ठिर पांडवोँ ने काम्यवन में बहुत दिनों तक वास किया था। यहाँ निवास करते समय एक दिन महारानी द्रोपदी तथा पाण्डवों को प्यास लगी। गर्मी के दिन थे, आस पास के सरोवर और जल–स्त्रोत सूख गये थे। दूर दूर तक कहीं भी जल उपलब्ध नहीं था। महाराज युधिष्ठर ने अपने परम पराक्रमी भ्राता भीमसेन को एक पात्र देकर निर्मल जल लाने के लिए भेजा। बुद्धिमान भीम पक्षियों के गमनागमन को लक्ष्य कर कुछ आगे बढ़े। कुछ दूर अग्रसर होने पर उन्होंने निर्मल और सुगन्धित जल से भरे हुए एक सुन्दर सरोवर को देखा। वे बड़े प्यासे थे। उन्होंने सोचा पहले स्वयं जलपान कर पीछे भाईयों के लिए जल भर कर ले जाऊँगा। ऐसा सोचकर ज्यों ही वे सरोवर में उतरे, त्यों ही एक यक्ष उनके सामने प्रकट हुआ और बोला– पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो तत्पश्चात जल पीने की धृष्टता करना, अन्यथा मारे जाओगे। महापराक्रमी भीमसेन ने यक्ष के आदेश की उपेक्षा कर जलपान करने के लिए ज्यों ही अञ्जलि में जल उठाया, तत्क्षणात वे वहीं पर मूर्छित होकर गिर पड़े। इधर भाईयों के साथ महाराज युधिष्ठर ने भीमसेन के आने में विलम्ब देखकर क्रमश: अर्जुन, नकुल और सहदेव को पानी लाने के लिए आदेश दिया किन्तु, उस सरोवर पर पहुँचकर सबकी वही गति हुई, जो भीम की हुई थी क्योंकि उन्होंने भी यक्ष के आदेश की परवाह किये बिना जलपान करना चाहा था। अन्त में महाराज युधिष्ठिर भी वहीं पहुँचे। वहाँ पहुँचकर अपने भाईयों को मूर्छित पड़े हुए देखा। वे बड़े चिन्तित हुए। उन्होंने सोचा पहले जलपान कर लूँ और फिर भाईयों को सचेत करने की चेष्टा करूँगा। ऐसा सोचकर वे ज्यों ही पानी पीने के लिए सरोवर में उतरे, त्यों ही उस यक्ष ने पहले की भाँति प्रकट होकर उसके प्रश्नों का सदुत्तर देकर जलपान करने के लिए कहा। महाराज युधिष्ठिर ने धैर्य धारण कर यक्ष से प्रश्न करने का अनुरोध किया।
यक्ष ने पूछा–सूर्य को कौन उदित करता है ? यह यक्ष और कोई नहीं स्वयं धर्मराज (श्रीनारायण) थे । वे अपने पुत्र युधिष्ठिर के धर्म की परीक्षा लेना चाहते थे, जिसमें महाराज युधिष्ठिर उत्तीर्ण हुए।
भीम द्वारा जयद्रथ की दुर्गति एक बार पाँचों पाण्डव आवश्यक कार्यवश बाहर गये हुये थे। आश्रम में केवल द्रौपदी, उसकी एक दासी और पुरोहित धौम्य ही थे। उसी समय सिन्धु देश का राजा जयद्रथ, जो विवाह की इच्छा से शाल्व देश जा रहा था, उधर से निकला। अचानक आश्रम के द्वार पर खड़ी द्रौपदी पर उसकी दृष्टि पड़ी और वह उस पर मुग्ध हो उठा। उसने अपनी सेना को वहीं रोक कर अपने मित्र कोटिकास्य से कहा, “कोटिक! तनिक जाकर पता लगाओ कि यह सर्वांग सुन्दरी कौन है? यदि यह स्त्री मुझे मिल जाय तो फिर मुझे विवाह के लिए शाल्व देश जाने की क्या आवश्यकता है?” मित्र की बात सुनकर कोटिकास्य द्रौपदी के पास पहुँचा और बोला, “हे कल्याणी! आप कौन हैं? कहीं आप कोई अप्सरा या देवकन्या तो नहीं हैं?” द्रौपदी ने उत्तर दिया, “मैं जग विख्यात पाँचों पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी हूँ। मेरे पति अभी आने ही वाले हैं अतः आप लोग उनका आतिथ्य सेवा स्वीकार करके यहाँ से प्रस्थान करें। आप लोगों से प्रार्थना है कि उनके आने तक आप लोग कुटी के बाहर विश्राम करें। मैं आप लोगों के भोजन का प्रबन्ध करती हूँ।” कोटिकास्य ने जयद्रथ के पास जाकर द्रौपदी का परिचय दिया। परिचय जानने पर जयद्रथ ने द्रौपदी के पास जाकर कहा, “हे द्रौपदी! तुम उन लोगों की पत्नी हो जो वन में मारे-मारे फिरते हैं और तुम्हें किसी भी प्रकार का सुख-वैभव प्रदान नहीं कर पाते। तुम पाण्डवों को त्याग कर मुझसे विवाह कर लो और सम्पूर्ण सिन्धु तथा सौबीर देश का राज्यसुख भोगो।” जयद्रथ के वचनों को सुन कर द्रौपदी ने उसे बहुत धिक्कारा किन्तु कामान्ध जयद्रध पर उसके धिक्कार का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उसने द्रौपदी को शक्तिपूर्वक खींचकर अपने रथ में बैठा लिया। गुरु धौम्य द्रौपदी की रक्षा के लिये आये तो उसे जयद्रथ ने उसे वहीं भूमि पर पटक दिया और अपना रथ वहाँ से भगाने लगा। द्रौपदी रथ में विलाप कर रही थी और गुरु धौम्य पाण्डवों को पुकारते हुये रथ के पीछे-पीछे दौड़ रहे थे। कुछ समय पश्चात् जब पाण्डवगण वापस लौटे तो रोते-कलपते दासी ने उन्हें सारा वृतान्त कह सुनाया। सब कुछ जानने पर पाण्डवों ने जयद्रथ का पीछा किया और शीघ्र ही उसकी सेना सहित उसे घेर लिया। दोनों पक्षों में घोर युद्ध होने लगा। पाण्डवों के पराक्रम से जयद्रथ के सब भाई और कोटिकास्य मारे गये तथा उसकी सेना रणभूमि छोड़ कर भाग निकली। सहदेव ने द्रौपदी सहित जयद्रथ के रथ पर अधिकार जमा लिया। जयद्रथ अपनी सेना को भागती देख कर स्वयं भी पैदल ही भागने लगा। सहदेव को छोड़कर शेष पाण्डव भागते हुये जयद्रथ का पीछा करने लगे। भीम तथा अर्जुन ने लपक कर जयद्रथ को आगे से घेर लिया और उसकी चोटी पकड़ ली। फिर क्रोध में आकर भीम ने उसे पृथ्वी पर पटक दिया और लात घूँसों से उसकी मरम्मत करने लगे। जब भीम की मार से जयद्रथ अधमरा हो गया तो अर्जुन ने कहा, “भैया भीम! इसे प्राणहीन मत करो, इसे इसके कर्मों का दण्ड हमारे बड़े भाई युधिष्ठिर देंगे।” तीनोँ युधिष्ठर के पास आये। भीम ने क्रोधित होकर कहा– इस आततायी को अभी तुरन्त मार डालना चाहिए। अर्जुन ने भी भीम के प्रस्ताव का समर्थन किया। किंन्तु धर्मराज युधिष्ठिर ने दोनों भाईयों को शान्त करते हुए कहा– इस नीच ने द्रौपदी के चरणों में अपराध किया किया है। इसलिए द्रौपदी से पूछकर ही इसे उचित दण्ड देना चाहिए। द्रौपदी ने गम्भीर होकर कहा, “जैसा भी हो इसने भयंकर अपराध तो किया है, किन्तु यह आप लोगों की बहन का पति है। मैं अपनी ननद को विधवा होकर सारा जीवन रोते हुए नहीं देखना चाहती। इसे छोड़ देना ही उचित है।” किन्तु भीम उसे मार ही डालना चाहते थे। अन्त में यह निश्चित हुआ कि किसी सम्माननीय व्यक्ति का अपमान करना भी मृत्यु के समानहै। इसलिए इसका सिर मुण्डन कर दिया जाये और पाँच चोटियाँ रख दीजाएँ, उसी प्रकार ही मूँछ मुड़कार दाढ़ी रख दी जाये और उसे छोड़ दिया जाये। अन्त में अर्जुन ने वैसे ही मुण्डनकर एवं मूँछ काटकर– अपमानित कर उसे छोड़ दिया। जयद्रथ घोर अपमानित होकर चला गया और पाण्डवों का वध करने के लिए घोर तपस्या करने लगा। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर शंकर जी ने उसे वर माँगने के लिये कहा। इस पर जयद्रथ बोला, “भगवन्! मैं युद्ध में पाँचों पाण्डवों पर विजय प्राप्त करने का वर माँगता हूँ।” इस पर भगवान शंकर ने अपनी असमर्थता प्रकट करते हुये जयद्रथ से कहा, “हे जयद्रथ! पाण्डव अजेय हैं और ऐसा होना असम्भव है। श्री कृष्ण नारायण के और अर्जुन नर के अवतार हैं। मैं अर्जुन को त्रिलोक विजय प्राप्त करने का वर एवं पाशुपात्यस्त्र पहले ही प्रदान कर चुका हूँ। हाँ, तुम अर्जुन की अनुपस्थिति में एक बार शेष पाण्डवों को अवश्य पीछे हटा सकते हो।” इतना कहकर भगवान शंकर वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गये और मन्दबुद्धि जयद्रथ भी अपने राज्य में वापस लौट आया। दुर्वासा को भोजन कराना पाण्डव लोग द्रौपदी के साथ वनवास के समय यहीं निवास कर रहे थे। उधर दुष्ट दुर्योधन पाण्डवों को समूल नष्ट कर देने के लिए सदा चिन्तित रहता था। उसने महर्षि दुर्वासा जी को निमन्त्रित कर बड़े ही सम्मान और आदर के साथ परम स्वादिष्ट षडरस भोजन कराकर उन्हें तृप्त किया। उसकी सेवा से सन्तुष्ट होकर दुर्वासा जी ने उसे कोई भी वर माँगने के लिए कहा। उसने हाथ जोड़कर महर्षि से यह वरदान माँगा कि महाराज युधिष्ठिर मेरे बड़े भईया हैं। आप कृपाकर अपने साठ हज़ार शिष्यों के साथ उनके निवास स्थान पर आतिथ्य ग्रहण करें। किन्तु आप लोग दोपहर के पश्चात तृतीय प्रहर में ही उनका आतिथ्य ग्रहण करें। आजकल पाण्डव लोग काम्यवन में निवास कर रहे हैं। दुर्योधन यह भली भाँति जानता था कि पाण्डव लोग आतिथियों की भलीभाँति सेवा करते हैं। द्रौपदी के पास सूर्यदेव की दी हुई एक ऐसी बटलोई है, जिसमें अन्न पाक करने पर अगणित व्यक्तियों को तृप्ति पूर्वक भोजन कराया जा सकता है, किन्तु द्रौपदी के भोजन कर लेने पर उसे माँजकर रख देने के पश्चात उससे कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है। द्रौपदी अतिथियों और पाँचों पाण्डवों को खिला पिलाकर तृतीय प्रहर से पूर्व अवश्य ही उस बटलोई को माँजकर रख देती है। अत: तृतीय प्रहर के बाद दुर्वासाजी के पहुँचने पर उस समय पाण्डव लोग साठ हज़ार शिष्यों सहित दुर्वासाजी को भोजन नहीं करा सकेंगे। फलत: महाक्रोधी दुर्वासा ऋषि पाण्डवों को अपने अभिशाप से भस्म कर देंगे। महर्षि दुर्वासा तो कृष्णभक्त पाण्डवों की महिमा को भलीभाँति जानते हैं। परन्तु उनकी अटपटी चेष्टाओं को समझ पाना देवताओं के लिए भी बड़ा ही कठिन है । कब, किसलिए वे क्या करते हैं, यह वे ही जानते हैं । अत: वे साठ हज़ार ऋषियों को साथ लेकर तृतीय प्रहर में पाण्डवों के निवास स्थल काम्यवन में पहुँचे। उन्हें देखकर पाण्डवगण बड़े प्रसन्न हुए। महाराज युधिष्ठिर ने उनकी पूजा कर उनसे आतिथ्य ग्रहण करने के लिए प्रार्थना की। महर्षि ने कहा– “हम लोग अभी विमलकुण्ड में स्नान करने के लिए जा रहे हैं । स्नानादि से निवृत्त होकर तुरन्त आ रहे हैं। भोजन की व्यवस्था ठीक रखना। हम यहीं पर भोजन करेंगे।” ऐसा कहकर वे सारे ऋषि–शिष्यों को लेकर स्नान करने चले गये। इधर पाण्डव लोग बड़े चिन्तित हुए। भोजन की क्या व्यवस्था हो ? उन्होंने द्रौपदी को बुलाया और उससे साठ हज़ार ऋषियों के भोजन की व्यवस्था करने के लिए कहा। परन्तु उसकी बटलोई माँजी हुई औंधी पड़ी हुई थी। वह सोच रही थी कि क्या करूँ ? उसे पाण्डवों को बचाने के लिए कोई भी उपाय सूझ नहीं रहा था। अन्त में अपने प्रियसखा श्रीकृष्ण को बड़े आर्त स्वर से पुकारने लगी। उसकी पुकार सुनकर द्वारकानाथ भला कैसे रूक सकते थे ? तुरन्त द्रौपदी के सामने प्रकट हो गये और बोले– “सखि ! मुझे बड़ी भूख लगी है। मुझे कुछ खिलाओ।” द्रौपदी ने उत्तर दिया– “तुम्हें भूख लगी हुई है, इधर घर में कुछ भी नहीं है। मेरी बटलोई भी मँजी हुई औंधी पड़ी हुई है । परमक्रोधी महर्षि दुर्वासा अपने साठ हज़ार शिष्यों के साथ अभी तुरन्त भोजन करने के लिए पधारने वाले हैं। भोजन नहीं मिलने पर पाण्डवों का सर्वनाश अनिवार्य है। अत: पहले इसकी व्यवस्था कीजिये।” श्रीकृष्ण ने कहा– “बिना कुछ खाये–पीये मैं कुछ भी नहीं कर सकता। जरा अपनी बटलोई लाना तो।” द्रौपदी ने करुणस्वर से कहा– “बटलोई में कुछ भी नहीं है। मैंने उसे भलीभाँति माँजकर रख दिया है।” श्रीकृष्ण ने कहा– “फिर भी लाओ तो देखूँ।” द्रौपदी ने बटलोई को लाकर कृष्ण के हाथों में दे दिया। श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए। उस बटलोई के भीतर कहीं एक छोटा सा साग का टुकड़ा चिपका हुआ था। श्रीकृष्ण ने उसे अपने नाख़ून से कुरेदकर अपने मुख में डाल लिया। फिर द्रौपदी के हाथों से पेट भरकर पानी पीया। तत्पश्चात् “तृप्तो ऽस्मि ! तृप्तोऽस्मि !” कहकर अपने पेट पर हाथ फेरने लगे। श्रीकृष्ण को तृप्ति की डकार भी आने लगी। उन्होंने भीमसेन को ऋषियों को शीघ्र ही बुला लाने के लिए भेजा। महापराक्रमी भीम अपने हाथ में गदा लेकर ऋषियों को बुलाने विमलकुण्ड की ओर गये। महर्षि दुर्वासा और उनके शिष्य विमलकुण्ड में स्नान कर रहे थे। अचानक इनका पेट पूर्णरूप से भर गया। सबको भोजन करने के पश्चात वाली डकारें भी आने लगीं। उसी समय भीम को अपनी ओर आते देखा तो दुर्वासाजी को अम्बरीष महाराज जी की घटना का स्मरण हो आया। वे बहुत डरे और सारे शिष्यों को लेकर जल्दी–से जल्दी आकाश मार्ग से भागकर महर्षि लोक में चले गये। भीम वहाँ पहुँचकर ऋषियों को न पाकर लौट आये तथा महाराज युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण को बतलाया कि– चारों ओर खोजकर भी मैं उनको नहीं पा सका। द्रौपदी और पाण्डव श्रीकृष्ण से सब कुछ जानकर निश्चन्त हो गये। श्रीकृष्ण के परितृप्त होने पर विश्व परितृप्त हो जाता है। इस उपाख्यान का विश्व के लिए यही सन्देश है। « पीछे जायेँ | आगे पढेँ » |
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