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महाभारत - 13

मार्कण्डेय-युधिष्ठिर संवाद

      जयद्रथ को जीतकर उसके हाथ से द्रौपदी को छुड़ा लेने के पश्चात् धर्मराज युधिष्ठिर मुनिमण्डली के साथ बैठे थे। महर्षि लोग भी पाण्डवोँ पर आये हुए संकट के कारण बारम्बार शोक प्रकट कर रहे थे। उनमेँ से मार्कण्डेय को लक्ष्य करके युधिष्ठिर ने कहा- “भगवन् ! आप भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ जानते हैँ। देवर्षियोँ मेँ भी आपका नाम विख्यात है। आपसे मैँ अपने ह्रदय का एक सन्देह पूछता हूँ , उसका निवारण कीजिये। यह सौभाग्यशालिनी द्रुपदकुमारी यज्ञ की वेदी से प्रकट हुई है , इसे गर्भवास का कष्ट नहीँ सहना पड़ा है। महात्मा पाण्डु की पुत्रवधू होने का भी गौरव इसे मिला है। इसने कभी भी पाप या निन्दित कर्म नहीँ किया है। यह धर्म का तत्त्व जानती और उसका पालन करती है। ऐसी स्त्री का भी पापी जयद्रथ ने अपहरण किया। यह अपमान हमेँ देखना पड़ा। सगे-सम्बन्धियोँ से दूर जंगल मेँ रहकर हम तरह-तरहके कष्ट भोग रहे हैँ। अत: पूछते हैँ - आपने हमारे समान मन्दभाग्य पुरुष इस जगत् मेँ कोई और भी देखा या सुना है ?”

      मार्कण्डेय जी बोले- “राजन् ! श्रीरामचन्द्रजी को भी वनवास और स्त्री वियोग का महान कष्ट भोगना पड़ा है। राक्षसराज दुरात्मा रावण मायाजाल बिछाकर आश्रम पर से उनकी पत्नी सीता को हर ले गया था। जटायु ने उसके कार्य मेँ विघ्न खड़ा किया तो उसने उसे मार डाला। फिर श्रीरामचन्द्रजी सुग्रीव की सहायता से समुद्र पर पुल बाँधकर लंका मेँ गये और अपने तीखे बाणोँ से लंका को भस्म कर सीता को वापस लाये।

      महाबाहु युधिष्ठिर ! इस प्रकार पूर्वकाल मेँ अतुलित पराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी वनवास के कारण बड़ा भयंकर कष्ट भोग चुके हैँ। पुरुषसिँह ! तुम क्षत्रिय हो, शोक मत करो; तुम अपने भुजबल के भरोसे प्रत्यक्ष फल देने वाले मार्ग पर चल रहे हो। तुम्हारा इसमेँ अणुमात्र भी अपराध नहीँ है। रामचन्द्रजी तो अकेले ही भयंकर पराक्रमी रावण को युद्ध मेँ मारकर जानकीजी को ले आये थे। उनके सहायक तो केवल वानर और रीछ ही थे। इन सब बातोँ पर तुम विचार करो।” इस प्रकार मतिमान् मार्कण्डेयजी ने राजा युधिष्ठिर को धैर्य बँधाया।

      युधिष्ठिर ने पूछा- “मुनिवर ! इस द्रौपदी के लिये मुझे जैसा शोक होता है, वैसा न तो अपने लिये होता है, न भाइयोँ के लिये और न राज्य छिन जाने के लिये ही। यह जैसी पतिव्रता है, वैसी क्या कोई दूसरी भाग्यवती नारी भी आपने पहले कभी देखी या सुनी है ?”

      मार्कण्डेयजी ने कहा- “राजन् ! राजकन्या सावित्री ने जिस प्रकार यह कुलकामिनियोँ का परम सौभाग्यरूप पातिव्रत्य का सुयश प्राप्त किया था, वह मैँ तुम्हेँ सुनाता हूँ; सुनो -


सावित्री-सत्यवान की कथा

       मद्र देश के राजा का नाम अश्वपति था। उनके कोई भी सन्तान न थी इसलिये उन्होंने सन्तान प्राप्ति के लिये सावित्री देवी की बड़ी उपासना की।

      भगवान् नारायण कहते हैं- “नारद ! जब राजा अश्वपति ने विधि पूर्वक भगवती सावित्री की पूजा करके इस स्तोत्र से उनका स्तवन किया, तब देवी उनके सामने प्रकट हो गयीं। उनका श्रीविग्रह ऐसा प्रकाशमान था, मानो हज़ारों सूर्य एक साथ उदित हो गये हों। साध्वी सावित्री अत्यन्त प्रसन्न होकर हँसती हुई राजा अश्वपति से इस प्रकार बोलीं, मानो माता अपने पुत्र से बात कर रही हो। उस समय देवी सावित्री की प्रभा से चारों दिशाएँ उद्भासित हो रही थीं। देवी सावित्री ने कहा- “महाराज! तुम्हारे मन की जो अभिलाषा है, उसे मैं जानती हूँ। तुम्हारी पत्नी के सम्पूर्ण मनोरथ भी मुझसे छिपे नहीं हैं। अत: सब कुछ देने के लिये मैं निश्चित रूप से प्रस्तुत हूँ। राजन्! तुम्हारी परम साध्वी रानी कन्या की अभिलाषा करती है और तुम पुत्र चाहते हो; क्रम से दोनों ही प्राप्त होंगे।”

      इस प्रकार कहकर भगवती सावित्री ब्रह्मलोक में चली गयीं और राजा भी अपने घर लौट आये। यहाँ समयानुसार पहले कन्या का जन्म हुआ। भगवती सावित्री की आराधना से उत्पन्न हुई लक्ष्मी की कलास्वरूपा उस कन्या का नाम राजा अश्वपति ने सावित्री रखा। सावित्री की उम्र, रूप, गुण और लावण्य शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगे और वह युवावस्था को प्राप्त हो गई। अब उसके पिता राजा अश्वेपति को उसके विवाह की चिन्ता होने लगी।

      एक दिन उन्होंने सावित्री को बुला कर कहा कि पुत्री! तुम अत्यन्त विदुषी हो अतः अपने अनुरूप पति की खोज तुम स्वयं ही कर लो। पिता की आज्ञा पाकर सावित्री एक वृद्ध तथा अत्यन्त बुद्धिमान मन्त्री को साथ लेकर पति की खोज हेतु देश-विदेश के पर्यटन के लिये निकल पड़ी। जब वह अपना पर्यटन कर वापस अपने घर लौटी तो उस समय सावित्री के पिता देवर्षि नारद के साथ भगवत्चर्चाकर रहे थे। सावित्री ने दोनों को प्रणाम किया और कहा कि हे पिता! आपकी आज्ञानुसार मैं पति का चुनाव करने के लिये अनेक देशों का पर्यटन कर वापस लौटी हूँ। शाल्व देश में द्युमत्सेन नाम से विख्यात एक बड़े ही धर्मात्मा राजा थे। किन्तु बाद में दैववश वे अन्धे हो गये। जब वे अन्धे हुये उस समय उनके पुत्रकी बाल्यावस्था थी। द्युमत्सेन के अनधत्व तथा उनके पुत्र के बाल्यपन का लाभ उठा कर उसके पड़ोसी राजा ने उनका राज्य छीन लिया। तब से वे अपनी पत्नी एवं पुत्र सत्यवान के साथ वन में चले आये और कठोर व्रतों का पालन करने लगे। उनके पुत्र सत्यवान अब युवा हो गये हैं, वे सर्वथा मेरे योग्य हैं इसलिये उन्हीं को मैंने पतिरूप में चुना है।

      सावित्री की बातें सुनकर देवर्षि नारद बोले- “हे राजन्! पति के रूप में सत्यवान का चुनाव करके सावित्री ने बड़ी भूल की है।” नारद जी के वचनों को सुनकर अश्ववपति चिन्तित होकर बोले- “हे देवर्षि! सत्यवान में ऐसे कौन से अवगुण हैं जो आप ऐसा कह रहे हैं?” इस पर नारद जी ने कहा कि राजन्! सत्यवान तो वास्तव में सत्य का ही रूप है और समस्त गुणों का स्वामी है। किन्तु वह अल्पायु है और उसकी आयु केवल एक वर्ष ही शेष रह गई है। उसके बाद वह मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा।

      देवर्षि की बातें सुनकर राजा अश्वपति ने सावित्री से कहा कि पुत्री! तुम नारद जी के वचनों को सत्य मान कर किसी दूसरे उत्तम गुणों वाले पुरुष को अपना पति के रूप में चुन लो। इस पर सावित्री बोली कि हे तात्! भारतीय नारी अपने जीवनकाल में केवल एक ही बार पति का वरण करती है। अब चाहे जो भी हो, मैं किसी दूसरे को अपने पति के रूप में स्वीकार नहीं कर सकती।

      सावित्री दृढ़ता को देखकर देवर्षि नारद अत्यन्त प्रसन्न हुये और उनकी सलाह के अनुसार राजा अश्व्पति ने सावित्री का विवाह सत्यवान के साथ कर दिया।

      विवाह के पश्चात् सावित्री अपने राजसी वस्त्राभूषणों को त्यागकर तथा वल्कल धारण कर अपने पति एवं सास श्वसुर के साथ वन में रहने लगी। पति तथा सास श्वसुर की सेवा ही उसका धर्म बन गया। किन्तु ज्यों-ज्यों समय व्यतीत होता जाता था, सावित्री के मन का भय बढ़ता जाता था।

      अन्त्ततः वह दिन भी आ गया जिस दिन सत्यवान की मृत्यु निश्चित थी। उस दिन सावित्री ने दृढ़ निश्चनय कर लिया कि वह आज अपने पति को एक भी पल अकेला नहीं छोड़ेगी। जब सत्यवान लकड़ी काटने हेतु कंधे पर कुल्हाड़ी रखकर वन में जाने के लिये तैयार हुये तो सावित्री भी उसके साथ जाने के लिये तैयार हो गई। सत्यवान ने उसे बहुत समझाया कि वन का मार्ग अत्यन्त दुर्गम है और वहाँ जाने में तुम्हें बहुत कष्ट होगा किन्तु सावित्री अपने निश्चय पर अडिग रही और अपने सास श्वसुर से आज्ञा लेकर सत्यवान के साथ गहन वन में चली गई।

      लकड़ी काटने के लिये सत्यवान एक वृक्ष पर जा चढ़े किन्तु थोड़ी ही देर में वे अस्वस्थ होकर वृक्ष से उतर आये। उनकी अस्वस्थता और पीड़ा को ध्यान में रखकर सावित्री ने उन्हें वहीं वृक्ष के नीचे उनके सिर को अपनी जंघा पर रख कर लिटा लिया। लेटने के बाद सत्यवान अचेत हो गये। सावित्री समझ गई कि अब सत्यवान का अन्तिम समय आ गया है इसलिये वह चुपचाप अश्रु बहाते हुये ईश्वर से प्रार्थना करने लगी। अकस्मात् सावित्री ने देखा कि एक कान्तिमय, कृष्णवर्ण, हृष्ट-पुष्ट, मुकुटधारी व्यक्तिय उसके सामने खड़ा है। सावित्री ने उनसे पूछा कि हे देव! आप कौन हैं? उन्होंने उत्तर दिया कि सावित्री! मैं यमराज हूँ। और तुम्हारे पति को लेने आया हूँ।

      सावत्री बोली, “हे प्रभो! सांसारिक प्राणियों को लेने के लिये तो आपके दूत आते हैं किन्तु क्या कारण है कि आज आपको स्वयं आना पड़ा?” यमराज ने उत्तर दिया, “देवि! सत्यवान धर्मात्मा तथा गुणों का समुद्र है, मेरे दूत उन्हें ले जाने के योग्य नहीं हैं। इसीलिये मुझे स्वयं आना पड़ा है।”

      इतना कह कर यमराज ने बलपूर्वक सत्यवान के शरीर में से पाश में बँधा अंगुष्ठ मात्र परिमाण वाला जीव निकाला और दक्षिण दिशा की ओर चल पड़ा। सावित्री अपने पति को ले जाते हुये देखकर स्वयं भी यमराज के पीछे-पीछे चल पड़ी। कुछ दूर जाने के बाद जब यमराज ने सावित्री को अपने पीछे आते देखा तो कहा कि हे सवित्री! तू मेरे पीछे मत आ क्योंकि तेरे पति की आयु पूर्ण हो चुकी है और वह अब तुझे वापस नहीं मिल सकता। अच्छा हो कि तू लौट कर अपने पति के मृत शरीर के अन्त्येष्टि की व्यवस्था कर। अब इस स्थान से आगे तू नहीं जा सकती। सावित्री बोली कि हे प्रभो! भारतीय नारी होने के नाते पति का अनुगमन ही तो मेरा धर्म है और मैं इस स्थान से आगे तो क्या आपके पीछे आपके लोक तक भी जा सकती हूँ क्योंकि मेरे पतिव्रत धर्म के बल से मेरी गति कहीं भी रुकने वाली नहीं है।

      यमराज बोले कि सावित्री! मैं तेरे पातिव्रत धर्म से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। इसलिये तू सत्यवान के जीवन को छोड़कर जो चाहे वह वरदान मुझसे माँग ले। इस पर सावित्री ने कहा कि प्रभु! मेरे श्वसुर नेत्रहीन हैं। आप कृपा करके उनके नेत्रों की ज्योति पुनः प्रदान कर दें। यमराज बोले कि ऐसा ही होगा, लेकिन अब तू वापस लौट जा। सावित्री ने कहा कि भगवन्! जहाँ मेरे प्राणनाथ होंगे वहीं मेरा निश्चल आश्रम होगा। इसके सिवा मेरी एक बात और सुनिये। मुझे आज आप जैसे देवता के दर्शन हुये हैं और देव-दर्शन तथा संत-समागम कभी निष्फल नहीं जाते। इस पर यमराज ने कहा कि देवि! तुमने जो कहा है वह मुझे अत्यन्त प्रिय लगा है। अतः तू फिर सत्यवान के जीवन को छोड़कर एक वर माँग ले। सावित्री बोली, हे देव! मेरे श्वेसुर राज्य-च्युत होकर वनवासी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। मुझे यह वर दें कि उनका राज्य उन्हें वापस मिल जाये। यमराज बोले 'तथास्तु'। अब तू लौट जा। सावित्री ने फिर कहा कि हे प्रभो! सनातन धर्म के अनुसार मनुष्यों का धर्म है कि वह सब पर दया करे। सत्पुरुष तो अपने पास आये हुये शत्रुओं पर भी दया करते हैं।

      यमराज बोले कि हे कल्याणी! तू नीति में अत्यन्त निपुण है और जैसे प्यासे मनुष्य को जल पीकर जो आनन्द प्राप्त होता है तू वैसा ही आनन्द प्रदान करने वाले वचन कहती है। तेरी इस बात से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें पुनः एक वर देना चाहता हूँ किन्तु तू सत्यवान का जीवन वर के रूप में नहीं माँग सकती। तब सावित्री ने कहा कि मेरे पिता राजा अश्वपति के कोई पुत्र नहीं है। अतः प्रभु! कृपा करके उन्हें पुत्र प्रदान करें। यमराज बोले कि मैंने तुझे यह वर भी दिया, अब तू यहाँ से चली जा। सावित्री ने फिर कहा कि हे यमदेव! मैं अपने पति को छोड़ कर एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकूँगी। आप तो संत-हृदय हैं और सत्संग से सहृदयता में वृद्धि ही होती है। इसीलिये संतों से सब प्रेम करते हैं।

      यमराज बोले कि कल्याणी तेरे वचनों को सुनकर मैं तुझे सत्यवान के जीवन को छोड़कर एक और अन्तिम वर देना चाहता हूँ किन्तु इस वर के पश्चात् तुम्हें वापस जाना होगा। सावित्री ने कहा कि प्रभु यदि आप मुझसे इतने ही प्रसन्न हैं तो मेरे श्वासुर द्युमत्सेन के कुल की वृद्धि करने के लिये मुझे सौ पुत्र प्रदान करने की कृपा करें। यमराज बोले कि ठीक है, यह वर भी मैंने तुझे दिया, अब तू यहाँ से चली जा। किन्तु सावित्री यमराज के पीछे ही चलती रही। उसे अपने पीछे आता देख यमराज ने कहा कि सावित्री तू मेरा कहना मान कर वापस चली जा और सत्यवान के मृत शरीर के अन्तिम संस्कार की व्यवस्था कर।

      इस पर सावित्री बोली कि हे प्रभु! आपने अभी ही मुझे सौ पुत्रों का वरदान दिया है, यदि मेरे पति का अन्तिम संस्कार हो गया तो मेरे पुत्र कैसे होंगे? और मेरे श्वसुर के कुल की वृद्धि कैसे हो पायेगी?

      सावित्री के वचनों को सुनकर यमराज आश्चर्य में पड़ गये और अन्त में उन्होंने कहा कि सावित्री तू अत्यन्त विदुषी और चतुर है। तूने अपने वचनों से मुझे चक्कर में डाल दिया है। तू पतिव्रता है इसलिये जा, मैं सत्यवान को जीवनदान देता हूँ। इतना कह कर यमराज वहाँ से अन्तर्धान हो गये और सावित्री वापस सत्यवान के शरीर के पास लौट आई। सावित्री के निकट आते ही सत्यवान की चेतना लौट आई।”

      इतनी कथा सुनाकर मार्कण्डेय मुनि बोले, “हे युधिष्ठिर! इस प्रकार उस पतिव्रता नारी ने अपने श्वयसुर कुल के साथ ही साथ अपने पिता के कुल का भी उद्धार किया। इसी प्रकार यह पतिव्रता द्रौपदी भी आप सब का उद्धार करेगी। इसलिये आप समस्त चिन्ताओं को भूल कर अच्छे दिन आने की प्रतीक्षा करें।”


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