महाभारत - 17 भीम द्वारा जीमूत पहलवान का वध राजा विराट के पास रहते हुए तीन माह बीत गए। भीम रसोईघर मेँ खुद पेट भरकर खाता तथा और कोई खाने आता तो रोटियां जला देता, दाल मेँ अधिक नमक डाल कर उसे खारी कर देता, इस तरह से सब उससे तंग आ गये। एक दिन जीमूत नाम का एक पहलवान भोजन करने आया। भीम ने उसे वैसा ही खाना दिया, कच्ची मोटी रोटी, दाल मेँ नमक ज्यादा। जीमूत बोला - अरे रसोईया खाना बढिया बनाया कर। भीम ने कहा कि यहाँ तो ऐसा ही खाना बनेगा। तेरी मर्जी हो तो खा, नहीँ तो मत खा। जीमूत ने सोचा इसकी शिकायत राजा से करता हूँ और वह वहाँ से चल पड़ा। जीमूत ने अपने पैरोँ मेँ एक बेल डाल रखी थी। जो भी कोई इस बेल को दबा देता उसे उसके साथ कुश्ती करनी पड़ती। भीमसेन ने सोचा आज कुश्ती करने का अच्छा मौका है क्योँ न इसकी बेल दबादूँ , और भीम ने बेल पर पैर रख दिया। जीमूत बोला, “अरे रसोइया! बेल दबाने का मतलब जानता है तू? दुबारा ऐसा मत करना।” भीम ने कहा कि रसोई मेँ आये तो बेल निकाल के आया कर। इस तरह से दोनोँ झगड़ने लगे और राजा के पास आये। जीमूत कहने लगा, “हे राजन्! आपका रसोईया बदतमीज है। खाना खराब बनाता है। और तो और इसने मेरे पाँव की बेल भी दाब ली। इसलिए तू मुझे सवा रुपया भेँट दे दे क्योँकि इस बेचारे गरीब के साथ मैँ क्या कुश्ती करुँगा ?” यह सुनकर भीम को गुस्सा आ गया। वह कहने लगा कि मैँ अपने भाई के वचनोँ मेँ बंधा हुआ हूँ नहीँ तो तेरे को अभी मजा चखा देता। दोनोँ के बीच विवाद बढता देखकर विराट भूप ने कहा बल्लभ तू सवा रुपया ले और इसको देकर झगड़ा मिटा। क्योँकि पांडवोँ को पता लगेगा तो मेरे सर पर पाप चढेगा। युधिष्ठिर कहेगा कि मेरे रसोईये को विराट ने लड़वाकर मरा दिया। बल्लभ(भीम) बोले, “हे राजा, अगर मैँ इसके साथ कुश्ती नहीँ करूँगा तो पांडवोँ की बदनामी होगी क्योँकि मैँ भीम के साथ कुश्ती लड़ता था, परन्तु कंक ब्राह्मण कह देँगे तो इसे भेँट दे दूँगा तथा कुश्ती नहीँ करुँगा। युधिष्ठिर मन मेँ सोच रहे थे कि भीम को लड़े बिन चैन नहीँ पड़ेगा। आज नहीँ तो कल इसे मार डालेगा। अत: वे विराट से बोले, “हे महिपाल ! ये बल्लभ बहुत हठीला है। मैँ हस्तिनापुर मेँ सदा से इसको देखता आ रहा हूँ। अत: इन दोनोँ को कुश्ती लड़वा दीजिए।” राजा के स्वीकृति देने पर युधिष्ठिर ने कहा कि दोनोँ को खाने पीने के लिए एक महिने का समय दे दिया जाए। इतनी बात सुनकर जीमूत को पसीना आ गया क्योँकि वह भीम की ताकत जान गया था और अपनी इज्जत रखते हुए उससे कुश्ती करने से बचने की कोशिश कर रहा था। एक महिने मेँ भीम खा खाकर और मोटा तगड़ा हो गया जबकि जीमूत मरने के डर से दिन प्रतिदिन कमजोर होने लगा। एक माह बीत गया। कुश्ती देखने के लिए जनता की भीड़ लग गई। दोनोँ पहलवान(भीम व जीमूत) लंगोट कसकर अखाड़े मे आ गये और एक दूसरे भिड़ गये। भीम मुक्के तान तान कर जीमूत के मार रहे थे। घमासान मल्लयुद्ध होने लगा। भीम सोचने लगे अभी तक धर्मराज का इशारा नहीँ मिला और उसने युधिष्ठिर की तरफ देखा। युधिष्ठिर भीम की उलझन समझ गये और जीमूत को मारने का इशारा किया। युधिष्ठिर का इशारा मिलते ही भीम ने जीमूत को सिर पे उठा लिया तथा घुमाने लगा। सौ बार ऊपर घुमाने के बाद धड़ाम से भूमि पर पटक दिया। जीमूत के प्राण-पँखेरु उड़ गये। इसके बाद भीम ने अपना पैर जीमूत के एक पैर पर रखा और दूसरे को हाथोँ से पकड़ कर उसे दो भागोँ मेँ चीर डाला। बल्लभ की बहादुरी देखकर राजा विराट ने उसकी खूब प्रशंसा की तथा ढोल नगाड़े बजवा दिये। भीम द्वारा कीचक-वध पाण्डवों को मत्स्य नरेश विराट की राजधानी में निवास करते हुये दस माह व्यतीत हो गये। सहसा एक दिन राजा विराट का साला कीचक अपनी बहन सुदेष्णा से भेंट करने आया। जब उसकी दृष्टि सैरन्ध्री (द्रौपदी) पर पड़ी तो वह काम-पीड़ित हो उठा तथा सैरन्ध्री से एकान्त में मिलने के अवसर की ताक में रहने लगा। द्रौपदी भी उसकी कामुक दृष्टि को भाँप गई। द्रौपदी ने महाराज विराट एवं महारानी सुदेष्णा से कहा भी कि कीचक मुझ पर कुदृष्टि रखता है, मेरे पाँच गन्धर्व पति हैं, एक न एक दिन वे कीचक का वध कर देंगे। किन्तु उन दोनों ने द्रौपदी की बात की कोई परवाह न की। लाचार होकर एक दिन द्रौपदी ने भीमसेन को कीचक की कुदृष्टि तथा कुविचार के विषय में बता दिया। द्रौपदी के वचन सुनकर भीमसेन बोले, “हे द्रौपदी! तुम उस दुष्ट कीचक को अर्द्धरात्रि में नृत्यशाला मेँ मिलने का संदेश दे दो। नृत्यशाला में तुम्हारे स्थान पर मैं जाकर उसका वध कर दूँगा।” सैरन्ध्री ने बल्लभ (भीमसेन) की योजना के अनुसार कीचक को रात्रिमें नृत्यशाला में मिलने का संकेत दे दिया। द्रौपदी के इस संकेत से प्रसन्न कीचक जब रात्रि को नृत्यशाला में पहुँचातो वहाँ पर भीमसेन द्रौपदी की एक साड़ी से अपना शरीर और मुँह ढँक कर वहाँ लेटे हुये थे। उन्हें सैरन्ध्री समझकर कमोत्तेजित कीचक बोला, “हे प्रियतमे! मेरा सर्वस्व तुम पर न्यौछावर है। अब तुम उठो और मेरे साथ रमण करो।” कीचक के वचन सुनते ही भीमसेन उछल कर उठ खड़े हुये और बोले, “रे पापी! तू सैरन्ध्री नहीं अपनी मृत्यु के समक्ष खड़ा है। ले अब परस्त्री पर कुदृष्टि डालने का फल चख।” इतना कहकर भीमसेन ने कीचक को लात और घूँसों से मारना आरम्भ कर दिया। जिस प्रकार प्रचण्ड आँधी वृक्षों को झकझोर डालती है उसी प्रकार भीमसेन कीचक को धक्के मार-मार कर सारी नृत्यशाला में घुमाने लगे। अनेक बार उसे घुमा-घुमा कर पृथ्वी पर पटकने के बाद अपनी भुजाओं से उसके गरदन को मरोड़कर उसे पशु की मौत मार डाला। इस प्रकार कीचक का वध कर देने के बाद भीमसेन ने उसके सभी अंगों को तोड़-मरोड़ कर उसे माँस का एक लोंदा बना दिया और द्रौपदी से बोले, “पांचाली! आकर देखो, मैंने इस काम के कीड़े की क्या दुर्गति कर दी है।” उसकी उस दुर्गति को देखकर द्रौपदी को अत्यन्त सन्तोष प्राप्त हुआ। फिर बल्लभ और सैरन्ध्री चुपचाप अपने-अपने स्थानों में जाकर सो गये। प्रातःकाल जब कीचक के वध का समाचार सबको मिला तो महारानी सुदेष्णा, राजा विराट, कीचक के अन्य भाई आदि विलाप करने लगे। जब कीचक के शव को अन्त्येष्टि के लिये ले जाया जाने लगा तो द्रौपदी ने राजा विराट से कहा, “इसे मुझ पर कुदृष्टि रखने का फल मिल गया, अवश्य ही मेरे गन्धर्व पतियों ने इसकी यह दुर्दशा की है।” द्रौपदी के वचन सुन कर कीचक के भाइयों ने क्रोधित होकर कहा, “हमारे अत्यन्त बलवान भाई की मृत्यु इसी सैरन्ध्री के कारण हुई है अतः इसे भी कीचक की चिता के साथ जला देना चाहिये।” इतना कहकर उन्होंने द्रौपदी को जबरदस्ती कीचक की अर्थी के साथ बाँध के और श्मशान की ओर ले जाने लगे। कंक, बल्लभ, वृहन्नला, तन्तिपाल तथा ग्रान्थिक के रूप में वहाँ उपस्थित पाण्डवों से द्रौपदी की यह दुर्दशा देखी नहीं जा रही थी किन्तु अज्ञातवास के कारण वे स्वयं को प्रकट भी नहीं कर सकते थे। इसलिये भीमसेन चुपके से परकोटे को लाँघकर श्मशान की ओर दौड़ पड़े और रास्ते में कीचड़ तथा मिट्टी का सारे अंगों पर लेप कर लिया। फिर एक विशाल वृक्ष को उखाड़कर कीचक के भाइयों पर टूट पड़े। उनमें से कितनों को ही भीमसेन ने मार डाला, जो शेष बचे वे अपना प्राण बचाकर भाग निकले। इसके बाद भीमसेन ने द्रौपदी को सान्त्वना देकर महल में भेज दिया और स्वयं नहा-धोकर दूसरे रास्ते से अपने स्थान में लौट आये। कीचक तथा उसके भाइयों का वध होते देखकर महाराज विराट सहित सभी लोग द्रौपदी से भयभीत रहने लगे। गौ-हरण व कौरवोँ की पराजय कीचक के वध की सूचना आँधी की तरह फैल गई। वास्तव में कीचक बड़ा पराक्रमी था और उससे त्रिगर्त के राजा सुशर्मा तथा हस्तिनापुर के कौरव आदि डरते थे। कीचक की मृत्यु हो जाने पर राजा सुशर्मा और कौरवगण ने विराट नगर पर आक्रमण करने के उद्देश्य से एक विशाल सेना गठित कर ली। कौरवों ने सुशर्मा को पहले चढ़ाई करने की सलाह दी। उनकी सलाह के अनुसार सुशर्मा ने उनकी सलाह मानकर विराट नगर पर धावा बोलकर उस राज्य की समस्त गौओं को हड़प लिया। इससे राज्य के सभी ग्वालों ने राज सभा में जाकर गुहार लगाई, “हे महाराज! त्रिगर्त के राजा सुशर्मा हमसे सब गौओं को छीनकर अपने राज्य में लिये जा रहे हैं। आप हमारी शीघ्र रक्षा करें।” उस समय सभा में विराट और कंक आदि सभी उपस्थित थे। राजा विराट ने निश्चय किया कि कंक, बल्लभ, तन्तिपाल, ग्रान्थिक तथा उनके स्वयं के नेतृत्व में सेना को युद्ध में उतारा जाये। उनकी इस योजना के अनुसार सबने मिलकर राजा सुशर्मा के ऊपर धावा बोल दिया। छद्मवेशधारी पाण्डवों के पराक्रम को देखकर सुशर्मा के सैनिक अपने-अपने प्राण लेकर भागने लगे। सुशर्मा के बहुत उत्साह दिलाने पर भी वे सैनिक वापस आकर युद्ध करने के लिये तैयार नहीं थे। अपनी सेना के पैर उखड़ते देखकर राजा सुशर्मा भी भागने लगा किन्तु पाण्डवों ने उसे घेर लिया। बल्लभ (भीमसेन)ने लात घूँसों से मार-मार कर उसकी हड्डी पसली तोड़ डाला। सुशर्मा की खूब मरम्मत करने के बाद बल्लभ ने उसे उठाकर पृथ्वी पर पटक दिया। भूमि पर गिर कर वह जोर-जोर चिल्लाने लगा। भीमसेन ने उसकी एक न सुनी और उसे बाँधकर युधिष्ठिर के समक्ष प्रस्तुत करदिया। सुशर्मा के द्वारा दासत्व स्वीकार करने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने उसे छोड़ दिया। इधर दूसरी ओर से कौरवों ने विराट नगर पर हमला बोल दिया। प्रजा राज सभा में आकर रक्षा के लिये गुहार लगाने लगी किन्तु उस समय तो महाराज चारों पाण्डवों के साथ सुशर्मा से युद्ध करने चले गये थे। अर्जुन के देवदत्त शंख की ध्वनि रणभूमि में गूँज उठी। उस विशिष्ट ध्वनि को सुनकर दुर्योधन भीष्म से बोला, “पितामह! यह तो अर्जुन के देवदत्त शंख की ध्वनि है, अभी तोपाण्डवों का अज्ञातवास समाप्त नहीं हुआ है। अर्जुन ने स्वयं को प्रकट कर दिया इसलिये अब पाण्डवों को पुनः बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास भोगना होगा।” दुर्योधन के वचन सुनकर भीष्म पितामह ने कहा, “दुर्योधन! कदाचित तुम्हें ज्ञात नहीं है कि पाण्डव काल की गति जानने वाले हैं, बिना अवधि पूरी किये अर्जुन कभी सामने नहीं आ सकता। मैंने भी गणना कर लिया है कि पाण्डवों के अज्ञातवास की अवधि पूर्ण हो चुकी है।” दुर्योधन एक दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुये बोला, “अब जब अर्जुन का आना निश्चित हो चुका है तो पितामह! हमें शीघ्र ही व्यूह रचना कर लेना चाहिये।” इस पर भीष्म ने कहा, “वत्स! तुम एक तिहाई सेना लेकर गौओं के साथ विदा हो जाओ। शेष सेना को साथ लेकर हम लोग यहाँ पर अर्जुन से युद्ध करेंगे।” भीष्म पितामह के परामर्श के अनुसार दुर्योधन गौओं को लेकर एक तिहाई सेना के साथ हस्तिनापुर की ओर चल पड़ा। यह देखकर कि दुर्योधन रणभूमि से लौटकर जा रहा है अर्जुन ने अपना रथ दुर्योधन के पीछे दौड़ा दिया और भागते हुये दुर्योधन को मार्ग में ही घेरकर अपने असंख्य बाणों से उसे व्याकुल कर दिया। अर्जुन के बाणों से दुर्योधन के सैनिकों के पैर उखड़ गये और वे पीठ दिखा कर भाग गये। सारी गौएँ भी रम्भाती हुईं विराट नगर की और भाग निकलीं। दुर्योधन को अर्जुन के बाणों से घिरा देखकर कर्ण, द्रोण, भीष्म आदि सभी वीर उसकी रक्षा के लिय दौड़ पड़े। कर्ण को सामने देख कर अर्जुन के क्रोध का पारावार न रहा। उन्होंने कर्ण पर इतने बाण बरसाये कि उसके रथ, घोड़े, सारथी सभी नष्ट भ्रष्ट हो गये और कर्ण भी मैदान छोड़ कर भाग गया। कर्ण के चले जाने पर भीष्म और द्रोण एक साथ अर्जुन पर बाण छोड़ने लगे किन्तु अर्जुन अपने बाणों से बीच में ही उनके बाणों के टुकड़े-टुकड़े कर देते थे। अन्ततः अर्जुन के बाणों से व्याकुल होकर सारे कौरव मैदान छोड़ कर भाग गये। कौरवों के इस प्रकार भाग जाने पर अर्जुन भी विजयशंख बजाते हुये विराट नगर लौट आये। जब महाराज विराट ने यह सुना कि उनके पुत्र उत्तर ने समस्त कौरव-पक्ष के योद्धाओं को पराजित करके अपनी गायों को लौटा लिया है, तब वे आनन्दातिरेक में अपने पुत्र की प्रशंसा करने लगे। इस पर कंक ( युधिष्ठिर ) ने कहा कि जिसका सारथि ब्रहन्नला (अर्जुन) हो, उसकी विजय तो निश्चित ही है- महाराज विराट को यह असह्य हो गया कि राज्यसभा में पासा बिछाने के लिये नियुक्त, ब्राह्मण कंक उनके पुत्र के बदले नपुंसक बृहन्नला की प्रशंसा करे। उन्होंने पासा खींचकर मार दिया और कंक की नासिका से रक्त निकलने लगा। सैरन्ध्री बनी हुई द्रौपदी दौड़ी और सामने कटोरी रखकर कंक की नासिका से निकलते हुए रक्त को भूमि पर गिरने से बचाया था। जब उन्हें तीसरे दिन पता लगा कि उन्होंने कंक के वेश में अपने यहाँ निवास कर रहे महाराज युधिष्ठिर का ही अपमान किया है, तब उन्हें अपने-आप पर अत्यन्त खेद हुआ। उन्होंने अनजान में हुए अपराधों के परिमार्जन और पाण्डवों से स्थायी मैत्री-स्थापना के उद्देश्य से अपनी पुत्री उत्तरा और अर्जुन के विवाह का प्रस्ताव किया। इस पर अर्जुन ने कहा- 'राजन्! मैंने कुमारी उत्तरा को बृहन्नला के रूप में वर्ष भर नृत्य और संगीत की शिक्षा दी है। यदि मैं राजकुमारी को पत्नी रूप में स्वीकार करता हूँ तो लोग मुझ पर और आपकी पुत्री के चरित्र पर संदेह करेंगे और गुरू-शिष्य की परम्परा का अपमान होगा। राजकुमारी मेरे लिये पुत्री के समान है। इसलिये अपने पुत्र अभिमन्यु की पत्नी के रूप में मैं उन्हें स्वीकार करता हूँ। भगवान् श्रीकृष्ण के भानजे को जामाता के रूप में स्वीकार करना आपके लिये भी गौरव की बात होगी। 'सभी ने अर्जुन की धर्मनिष्ठा की प्रशंसा की और उत्तरा का विवाह अभिमन्यु से सम्पन्न हो गया। इस विवाह में श्री कृष्ण तथा बलराम के साथ ही साथ अनेक बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी सम्मिलित हुये। इसके बाद पाण्डवों ने स्वयं को सार्वजनिक रूप से प्रकट कर दिया। « पीछे जायेँ | आगे पढेँ » |
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