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वाल्मीकि रामायण

बालकाण्ड - 1
भूमिका

एक दिन महर्षि वाल्मीकि अपने आश्रम में बैठे हुये परमपिता परमात्मा का चिन्तन कर रहे थे, तभी परम प्रभु भक्त महर्षि नारद भगवान के नाम का संकीर्तन करते हुये और वीणा की स्वर लहरी गुँजाते हुये वाल्मीकि जी के आश्रम में पहुँचे| अपने यहाँ नारद जी का पदार्पण होते देख ऋषिश्रेष्ठ वाल्मीकि अत्यंत प्रसन्न हुये और उनका सब प्रकार से आदर-सत्कार करके उन्हें बैठने के लिये उचित आसन प्रदान किया। फिर नारद जी ने कुशल-मंगल पूछकर मुनिराज भगवद् चर्चा करने लगे। सहसा उन्होंने प्रश्न किया, "हे मुनियों में श्रेष्ठ नारद जी! आप सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और देश-देशान्तरों में भ्रमण करते हैं, नाना प्रकारके प्राणियों के बीच विचरण करते हैं। इसलिये कृपा करके यह बताइये कि इस समय सारे भूमण्डल और नव द्वीपों में ऐसा कौन सा अपूर्व मेधावी, विद्वान, परोपकारी एवं ज्ञान विज्ञान में पारंगत, धर्मात्मा तथा समस्त सद्गुणों से परिपूर्ण व्यक्ति है जो मनुष्य मात्र का ही नहीं, चर-अचर और प्राणिमात्र का कल्याण करने के लिये सदैव तत्पर रहता हो? जिसने अपने पराक्रम और त्याग से सम्पूर्ण इन्द्रियों, विषय-वासनाओं एवं मन को वश में कर लिया हो, जो कभी क्रोध, अहंकारजैसी दुष्प्रवृतियों के वशीभूत न होता हो? यदि ऐसा कोई महापुरुष आपकी दृष्टि में आया हो तो कृपया सम्पूर्ण वृतान्त मुझे सांगोपांग सुनाइये। उसकी पुण्य कथा सुन कर मैं कृतार्थ होना चाहता हूँ।"

महर्षि वाल्मीकि का प्रश्न सुनकर तीनों लोकों का भ्रमण करने वाले नारद जी ने कहा, "हे मुनिराज! आपने जिन गुणों का वर्णन किया है ऐसे गुणों से युक्त व्यक्ति का इस पृथ्वी तल पर मिलना अत्यंत दुर्लभ है। फिर भी एक अद्भुत गरिमामय व्यक्ति के चरित्र का आपके सामने करता हूँ। उसमें आपके बताये हुये सभी गुण ही नहीं हैं, बल्कि वे गुण भी हैं जिनकी आपने चर्चा नहीं की है और जो जन-साधारण की कल्पना से परे हैं। ऐसी महान विभूति का नाम रामचन्द्र है। उन्होंने वैवस्वतमनु के वंश में महाराजा इक्ष्वाकु के कुल में जन्म लिया है। वे अत्यंत वीर्यवान, तेजस्वी, विद्वान, धैर्यशील, जितेन्द्रिय, बुद्धिमान, सुंदर, पराक्रमी, दुष्टों का दमन करने वाले, युद्ध एवं नीतिकुशल, धर्मात्मा, मर्यादा पुरुषोत्तम, प्रजावत्सल, शरणागत को शरण देने वाले, सर्वशास्त्रों के ज्ञाता एवं प्रतिभा सम्पन्न हैं। इस युग में तो उनके जैसा धीर, वीर, बली, विक्रमी, सत्य वक्ता, सदाचारी, गौ-ब्राह्मण-साधु प्रतिपालक, शत्रुओं और कुबुद्धि राक्षसों का विनाश करने वाला अभूतपूर्व त्यागी, कृपासिन्धु ढूंढने से भी नहीं मिलेगा। देखने में वे अत्यंत सुंदर, कामदेव को भी लज्जित करने वाले, किशलय से भी कोमल और समरभूमि में वज्र से भी कठोर हैं। कवि की सभी उपमायें उनके व्यक्तित्व के सामने हेय प्रतीत होती हैं। जैसा उनका हृदय निर्मल है, चरित्र उज्जवल है, वैसा ही उनका शरीर निर्मल एवं कांतिमय है। उनका हृदय समुद्र से भी अधिक उदार और विचार नगराज हिमालय से भी महान है।"

नारद जी द्वारा श्री रामचन्द्र जी का यह विशद् वर्णन सुनकर वाल्मीकि जी बहुत अधिक प्रभावित हुये। उन्होंने नारद जी से प्रार्थना की, "मुनिराज! कृपा करके मुझे ऐसे महान पुरुष का सम्पूर्ण चरित्र एवं क्रिया-कलाप विस्तारपूर्वक सुनाइये। उन्हें सुनकर मैं अपना जीवन धन्य कारना चाहता हूँ।"

उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर के नारद मुनि ने राम की सम्पूर्ण कथा महर्षि वाल्मीकि को संक्षेप में कह सुनाई। इस कथा को सुन कर ऋषि वाल्मीकि अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने अति आदर सत्कार और पूजा करके नारद जी को विदा किया।

महर्षि नारद के चले जाने के पश्चात् वाल्मीकि जी शिष्य मंडली के साथ भ्रमण करते हुये तमसा नदी के तट पर पहुँचे। वहाँ पर वे प्राकृतिक दृश्यों का आनंद ले रहे थे कि एक निर्दयी व्याघ्र ने कामरत क्रौंच पक्षी के एक जोड़ में से नर पक्षी को मार गिराया तथा नर पक्षी के वियोग में मादा पक्षी क्रन्दन करने लगी। इस दृश्य ने वाल्मीकि के हृदय को व्यथा और करुणा से परिपूर्ण कर दिया। अनायास ही उनके मुख से व्याघ्र के लिये ये शाप निकल गया - अरे बहेलिये, तू ने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है, जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पायेगी।

इस घटना के कारण वाल्मीकि का हृदय अशांत रहने लगा| इसी अशांत अवस्था के मध्य एक दिन उनके आश्रम में ब्रह्मा जी पधारे। महर्षि वाल्मीकि ने ब्रह्मा जी की अभ्यर्थना तथा समुचित आदर सत्कार करने के पश्चात् अपनी अशांति के विषय में उन्हें बताया। इस पर ब्रह्मा जी ने कहा,"हे मुनिराज! आप श्री राम के चरित्र का काव्यमय गुणगान करके ही इस अशांति को दूर कर सकते हैं। आपके इस काव्य से न केवल आपकी अशांति ही दूर होगी वरन् वह काव्य समस्त संसार के लिये भी हितकारी होगा| इस कार्य को पूर्ण करने के लिये मेरा आशीर्वाद सदैव आपके साथ रहेगा।"

ब्रह्मा जी के इस प्रस्ताव को गम्भीरता पूर्वक स्वीकार कर उनके चले जाने के पश्चात् दत्तचित्त होकर वाल्मीकि जी श्री राम का चरित्र लेखन में व्यस्त हो गये।


राम-कथा प्रारम्भ

कौशल प्रदेश, जिसकी स्थापना वैवस्वत मनु ने की थी, पवित्र सरयू नदी के तट पर स्थित है। सुन्दर एवं समृद्ध अयोध्या नगरी इस प्रदेश की राजधानी है। वैवस्वत मनु के वंश में अनेक शूरवीर, पराक्रमी, प्रतिभाशाली तथा यशस्वी राजा हुये जिनमें से राजा दशरथ भी एक थे। राजा दशरथ वेदों के मर्मज्ञ, धर्मप्राण, दयालु, रणकुशल, और प्रजापालक थे। उनके राज्य में प्रजा कष्टरहित, सत्यनिष्ठ एवं ईश्‍वरभक्‍त थी। उनके राज्य में किसी का किसी के भी प्रति द्वेषभाव का सर्वथा अभाव था।

एक दिन दर्पण में अपने कृष्णवर्ण केशों के मध्य एक श्‍वेत रंग के केश को देखकर महाराज दशरथ विचार करने लगे कि अब मेरे यौवन के दिनों का अंत निकट है और अब तक मैं निःसंतान हूँ। मेरा वंश आगे कैसे बढ़ेगा तथा किसी उत्तराधिकारी के अभाव में राज्य का क्या होगा? इस प्रकार विचार करके उन्होंने पुत्र प्राप्ति हेतु पुत्रयेष्ठि यज्ञ करने का संकल्प किया। अपने कुलगुरु वशिष्ठ जी को बुलाकर उन्होंने अपना मन्तव्य बताया तथा यज्ञ के लिये उचित विधान बताने की प्रार्थना की।

उनके विचारों को उचित तथा युक्‍तियुक्‍त जान कर गुरु वशिष्ठ जी बोले, “हे राजन्! पुत्रयेष्ठि यज्ञ करने से अवश्य ही आपकी मनोकामना पूर्ण होगी ऐसा मेरा विश्वास है। अतः आप शीघ्रातिशीघ्र अश्‍वमेध यज्ञ करने तथा इसके लिये एक सुन्दर श्यामकर्ण अश्‍व छोड़ने की व्यवस्था करें।” गुरु वशिष्ठ की मन्त्रणा के अनुसार शीघ्र ही महाराज दशरथ ने सरयू नदी के उत्तरी तट पर सुसज्जित एवं अत्यन्त मनोरम यज्ञशाला का निर्माण करवाया तथा मन्त्रियों और सेवकों को सारी व्यवस्था करने की आज्ञा दे कर महाराज दशरथ ने रनिवास में जा कर अपनी तीनों रानियों कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा को यह शुभ समाचार सुनाया। महाराज के वचनों को सुन कर सभी रानियाँ प्रसन्न हो गईं।


राम, लक्ष्मन, भरत व शत्रुघ्न का जन्म

मन्त्रीगणों तथा सेवकों ने महाराज की आज्ञानुसार श्यामकर्ण घोड़ा चतुरंगिनी सेना के साथ छुड़वा दिया। महाराज दशरथ ने देश देशान्तर के मनस्वी, तपस्वी, विद्वान ऋषि-मुनियों तथा वेदविज्ञ प्रकाण्ड पण्डितों को यज्ञ सम्पन्न कराने के लिये बुलावा भेज दिया। निश्‍चित समय आने पर समस्त अभ्यागतों के साथ महाराज दशरथ अपने गुरु वशिष्ठ जी तथा अपने परम मित्र अंग देश के अधिपति लोभपाद के जामाता ऋंग ऋषि को लेकर यज्ञ मण्डप में पधारे। इस प्रकार महान यज्ञ का विधिवत शुभारम्भ किया गया। सम्पूर्ण वातावरण वेदों की ऋचाओं के उच्च स्वर में पाठ से गूँजने तथा समिधा की सुगन्ध से महकने लगा। समस्त पण्डितों, ब्राह्मणों, ऋषियों आदि को यथोचित धन-धान्य,गौ आदि भेंट कर के सादर विदा करने के साथ यज्ञ की समाप्ति हुई। राजा दशरथ ने यज्ञ के प्रसाद चरा को अपने महल में ले जाकर अपनी तीनों रानियों में वितरित कर दिया। प्रसाद ग्रहण करने के परिणामस्वरूप परमपिता परमात्मा की कृपा से तीनों रानियों ने गर्भधारण किया।

जब चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्रमें सूर्य, मंगल शनि, वृहस्पति तथा शुक्र अपने-अपने उच्च स्थानों में विराजमान थे, कर्क लग्न का उदय होते ही महाराज दशरथ की बड़ी रानी कौशल्या के गर्भ से एक शिशु का जन्म हुआ जो कि श्यामवर्ण, अत्यन्त तेजोमय, परम कान्तिवान तथा अद्‍भुत सौन्दर्यशाली था। उस शिशु को देखने वाले ठगे से रह जाते थे। इसके पश्चात् शुभ नक्षत्रों औरशुभ घड़ी में महारानी कैकेयी के एक तथा तीसरी रानी सुमित्रा के दो तेजस्वी पुत्रों का जन्म हुआ। सम्पूर्ण राज्य में आनन्द मनाया जाने लगा।

महाराज के चार पुत्रों के जन्म के उल्लास में गन्धर्व गान करने लगे और अप्सरायें नृत्य करने लगीं। देवता अपने विमानों में बैठ कर पुष्प वर्षा करने लगे। महाराज ने उन्मुक्त हस्त से राजद्वार पर आये हुये भाट, चारण तथा आशीर्वाद देने वाले ब्राह्मणोंऔर याचकों को दान दक्षिणा दी। पुरस्कार में प्रजा-जनों को धन-धान्य तथा दरबारियों को रत्न, आभूषण तथा उपाधियाँ प्रदान किया गया। चारों पुत्रों का नामकरण संस्कार महर्षि वशिष्ठ के द्वारा कराया गया तथा उनके नाम रामचन्द्र, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न रखे गये।

आयु बढ़ने के साथ ही साथ रामचन्द्र गुणों में भी अपने भाइयों से आगे बढ़ने तथा प्रजा में अत्यंत लोकप्रिय होने लगे। उनमें अत्यन्त विलक्षण प्रतिभा थी जिसके परिणामस्वरू अल्प काल में ही वे समस्त विषयों में पारंगत हो गये। उन्हें सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने तथा हाथी, घोड़े एवं सभी प्रकार के वाहनों की सवारी में उन्हें असाधारण निपुणता प्राप्त हो गई। वे निरन्तर माता-पिता और गुरुजनों की सेवा में लगे रहते थे। उनका अनुसरण शेष तीन भाई भी करते थे। गुरुजनों के प्रति जितनी श्रद्धा भक्ति इन चारों भाइयोंमें थी उतना ही उनमें परस्पर प्रेम और सौहार्द भी था। महाराज दशरथ का हृदय अपने चारों पुत्रों को देख कर गर्व और आनन्द से भर उठता था।


महर्षि विश्वामित्र का आगमन

एक दिन अयोध्यापति महाराज दशरथ के दरबार में यथोचित आसन पर गुरु वशिष्ठ, मन्त्रीगण और दरबारीगण बैठे थे। अयोध्यानरेश ने गुरु वशिष्ठ से कहा, “हे गुरुदेव! जीवन तो क्षणभंगुर है और मैं वृद्धावस्था की ओर अग्रसर होते जा रहा हूँ। राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न चारों ही राजकुमार अब वयस्क भी हो चुके हैं। मेरी इच्छा है कि इस शरीर को त्यागने के पहले राजकुमारों का विवाह देख लूँ। अतः आपसे निवेदन है कि इन राजकुमारों के लिये योग्य कन्याओं की खोज करवायें।”

महाराज दशरथ की बात पूरी होते ही द्वारपाल ने ऋषि विश्वामित्र के आगमन की सूचना दी। स्वयं राजा दशरथ ने द्वार तक जाकर विश्वामित्र की अभ्यर्थना की और आदरपूर्वक उन्हें दरबार के अन्दर ले आये तथा गुरु वशिष्ठ के पास ही आसन देकर उनका यथोचित सत्कार किया। कुशलक्षेम पूछने के पश्चात् राजा दशरथ ने विनम्र वाणी में ऋषि विश्वामित्र से कहा, “हे मुनिश्रेष्ठ! आपके दर्शन से मैं कृतार्थ हुआ तथा आपके चरणों की पवित्र धूलि से यह राजदरबार और सम्पूर्ण अयोध्यापुरी धन्य हो गई। अब कृपा करके आप अपने आने का प्रयोजन बताइए। किसी भी प्रकारकी आपकी सेवा करके मैं स्वयं कोअत्यंत भाग्यशाली समझूँगा।”

राजा के विनयपूर्ण वचनों को सुनकर मुनि विश्वामित्र बोले, “हे राजन्! आपने अपने कुल की मर्यादा के अनुरूप ही वचन कहे हैं। इक्ष्वाकु वंश के राजाओं की श्रद्धा भक्ति गौ, ब्राह्मण और ऋषि-मुनियों के प्रति सदैव ही रही है। मैं आपके पास एक विशेष प्रयोजन से आया हूँ, समझिये कि कुछ माँगने के लिये आया हूँ। यदि आप मुझे वांछित वस्तु देने का वचन दें तो मैं अपनी माँग आपके सामने प्रस्तुत करूँ। आप के वचन न देने की दशा में मैं बिना कुछ माँगे ही वापस लौट जाऊँगा।”

महाराज दशरथ ने कहा, “हे ब्रह्मर्षि! आप निःसंकोच अपनी माँग रखें। सम्पूर्ण विश्व जानता है कि रघुकुल के राजाओं का वचन ही उनकी प्रतिज्ञा होती है। आप माँग तो मैं अपना शीश काट कर भी आपके चरणों में रख सकता हूँ।”

उनके इन वचनों से आश्वस्त ऋषि विश्वामित्र बोले, “राजन्! मैं अपने आश्रम में एक यज्ञ कर रहा हूँ। इस यज्ञ के पूर्णाहुति के समय मारीच और सुबाहु नाम के दो राक्षस आकर रक्त, माँस आदि अपवित्र वस्तुएँ यज्ञ वेदी में फेंक देते हैं। इस प्रकार यज्ञ पूर्ण नहीं हो पाता। ऐसा वे अनेक बार कर चुके हैं। मैं उन्हें अपने तेज से श्राप देकर नष्ट भी नहीं कर सकता क्योंकि यज्ञ करते समय क्रोध करना वर्जित है। मैं जानता हूँ कि आप मर्यादा का पालन करने वाले, ऋषि मुनियों के हितैषी एवं प्रजावत्सल राजा हैं। मैं आपसे आपके ज्येष्ठ पुत्र राम को माँगने के लिये आया हूँ ताकि वह मेरे साथ जाकर राक्षसों से मेरे यज्ञ की रक्षा कर सके और मेरा यज्ञानुष्ठान निर्विघ्न पूरा हो सके। मुझे पता है कि राम आसानी के साथ उन दोनों का संहार कर सकते हैं। अतः केवल दस दिनों के लिये राम को मुझे दे दीजिये। कार्य पूर्ण होते ही मैं उन्हें सकुशल आप के पास वापस पहुँचा दूँगा।”

विश्वामित्र की बात सुनकर राजा दशरथ को अत्यन्त विषाद हुआ। ऐसा लगने लगा कि अभी वे मूर्छित हो जायेंगे। फिर स्वयं को संभाल कर उन्होंने कहा, “मुनिवर! राम अभी बालक है। राक्षसों का सामना करना उसके लिये सम्भव नहीं होगा। आपके यज्ञ की रक्षा करने के लिये मैं स्वयं ही जाने को तैयार हूँ।”

विश्वामित्र बोले, “राजन्! आप तनिक भी सन्देह न करें कि राम उनका सामना नहीं कर सकते। मैंने अपने योगबल से उनकी शक्तियों का अनुमान लगा लिया है। आप निःशंक होकर राम को मेरे साथ भेज दीजिये।”

इस पर राजा दशरथ ने उत्तर दिया, “हे मुनिश्रेष्ठ! राम ने अभी तक किसी राक्षस के माया प्रपंचों को नहीं देखा है और उसे इस प्रकार के युद्ध का अनुभव भी नहीं है। जब से उसने जन्म लिया है, मैंने उसे अपनी आँखों के सामने से कभी ओझल भी होने नहीं दिया है। उसके वियोग से मेरे प्राण निकल जावेंगे। आपसे विनय है कि कृपा करके मुझे ससैन्य चलने की आज्ञा दें।”

पुत्रमोह से ग्रसित होकर राजा दशरथ को अपनी प्रतिज्ञा से विचलित होते देख ऋषि विश्वामित्र आवेश में आ गये। उन्होंने कहा, “राजन्! मैं नहीं जानता था कि रघुकुल में अब प्रतिज्ञा पालन करने की परम्परा समाप्त हो गई है। यदि जानता होता तो मैं कदापि नहीं आता। लो मैं अब चला जाता हूँ।” बात समाप्त होते होते उनका मुख क्रोध से लाल हो गया।

विश्वामित्र को इस प्रकार क्रुद्ध होते देख कर दरबारी एवं मन्त्रीगण भयभीत हो गये और किसी प्रकार के अनिष्ट की कल्पना से वे काँप उठे। गुरु वशिष्ठ ने राजा को समझाया, “हे राजन्! पुत्र के मोह में ग्रसित होकर रघुकुल की मर्यादा, प्रतिज्ञा पालन और सत्यनिष्ठा को कलंकित मत कीजिये। मैं आपको परामर्श देता हूँ कि आप राम के बालक होने की बात को भूल कर एवं निःशंक होकर राम को मुनिराज के साथ भेज दीजिये। महामुनि अत्यन्त विद्वान, नीतिनिपुण और अस्त्र-शस्त्र के ज्ञाता हैं। मुनिवर के साथ जाने से राम का किसी प्रकार से भी अहित नहीं हो सकता उल्टे वे इनके साथ रह कर शस्त्र और शास्त्र विद्याओं में अत्यधिक निपुण हो जायेंगे तथा उनका कल्याण ही होगा।”

गुरु वशिष्ठ के वचनों से आश्वस्त होकर राजा दशरथ ने राम को बुला भेजा। राम के साथ साथ लक्ष्मण भी वहाँ चले आये। राजा दशरथ ने राम को ऋषि विश्वामित्र के साथ जाने की आज्ञा दी। पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके राम के मुनिवर के साथ जाने के लिये तैयार हो जाने पर लक्ष्मण ने भी ऋषि विश्वामित्र से साथ चलने के लिये प्रार्थना की और अपने पिता से भी राम के साथ जाने के लिये अनुमति माँगी। अनुमति मिल जाने पर राम और लक्ष्मण सभी गुरुजनों से आशीर्वाद ले कर ऋषि विश्वामित्र के साथ चल पड़े।

समस्त अयोध्यावासियों ने देख कि मन्द धीर गति से जाते हुये मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र के पीछे पीछे कंधों पर धनुष और तरकस में बाण रखे दोनों भाई राम और लक्ष्मण ऐसे लग रहे थे मानों ब्रह्मा जी के पीछे दोनों अश्विनी कुमार चले जा रहें हों। अद्भुत् कांति से युक्त दोनों भाई गोह की त्वचा से बने दस्ताने पहने हुये थे, हाथों में धनुष और कटि में तीक्ष्ण धार वाली कृपाणें शोभायमान हो रहीं थीं। ऐसा प्रतीत होता था मानो स्वयं शौर्य ही शरीर धारण करके चले जा रहे हों।

लता विटपों के मध्य से होते हुये छः कोस लम्बा मार्ग पार करके वे पवित्र सरयू नदी के तट पर पहुँचे। मुनि विश्वामित्र ने स्नेहयुक्त मधुर वाणी में कहा, “हे वत्स! अब तुम लोग सरयू के पवित्र जल से आचमन स्नानादि करके अपनी थकान दूर कर लो, फिर मैं तुम्हें प्रशिक्षण दूँगा। सर्वप्रथम मैं तुम्हें बला और अतिबला नामक विद्याएँ सिखाऊँगा।” इन विद्याओं के विषय में राम के द्वारा जिज्ञासा प्रकट करने पर ऋषि विश्वामित्र ने बताया, “ये दोनों ही विद्याएँ असाधारण हैं। इन विद्याओं में पारंगत व्यक्तियों की गिनती संसार के श्रेष्ठ पुरुषों में होती है। विद्वानों ने इन्हें समस्त विद्याओं की जननी बताया है। इन विद्याओं को प्राप्त करके तुम भूख और प्यास पर विजय पा जाओगे। इन तेजोमय विद्याओं की सृष्टि स्वयं ब्रह्मा जी ने की है। इन विद्याओं को पाने का अधिकारी समझ कर मैं तुम्हें इन्हें प्रदान कर रहा हूँ।”

राम और लक्ष्मण के स्नानादि से निवृत होने के पश्चात् विश्वामित्र जी ने उन्हें इन विद्याओं की दीक्षा दी। इन विद्याओं के प्राप्त हो जाने पर उनके मुख मण्डल पर अद्भुत् कान्ति आ गई। तीनों ने सरयू तट पर ही विश्राम किया। गुरु की सेवा करने के पश्चात् दोनों भाई तृण शैयाओं पर सो गये।


कामदेव का आश्रम

दूसरे दिन ब्रह्म-मुहूर्त्त में निद्रा त्याग कर मुनि विश्वामित्र तृण शैयाओं पर विश्राम करते हुये राम और लक्ष्मण के पास जा कर बोले, “हे राम और लक्ष्मण! जागो। रात्रि समाप्त हो गई है। कुछ ही काल में प्राची में भगवान भुवन-भास्कर उदित होने वाले हैं। जिस प्रकार वे अन्धकार का नाश कर समस्त दिशाओं में प्रकाश फैलाते हैं उसी प्रकार तुम्हें भी अपने पराक्रम से राक्षसों का विनाश करना है। नित्य कर्म से निवृत होओ, सन्ध्या-उपासना करो। अग्निहोत्रादि से देवताओं को प्रसन्न करो। आलस्य को त्यागो और शीघ्र उठ जाओ क्योंकि अब सोने का समय नहीं है।” गुरु की आज्ञा प्राप्त होते ही दोनों भाइयों ने शैया त्याग दिया और नित्यकर्म एवं स्नान-ध्यान आदि से निवृत होकर मुनिवर के साथ गंगा तट की ओर चल दिये।

वे गंगा और सरयू के संगम, जहाँ पर ऋषि-मुनियों तथा तपस्वियों के शान्त व सुन्दर आश्रम बने हुये थे, पर पहुँचे । एक अत्यधिक सुन्दर आश्रम को देखकर रामचन्द्र ने गुरु विश्वामित्र से पूछा, “हे गुरुवर! यह परम रमणीक आश्रम किन महर्षि का निवास स्थान हैं?”

राम के प्रश्न के उत्तर में ऋषि विश्वामित्र ने बताया, ”हे राम! यह एक विशेष आश्रम है। पूर्व काल में कैलाशपति महादेव ने यहाँ घोर तपस्या की थी। सम्पूर्ण विश्व उनकी तपस्या को देखकर विचलित हो उठा था। उनकी तपस्या से देवराज इन्द्र भयभीत हो गए और उन्होंने शंकर जी के तप को भंग करने का निश्चय किया। इस कार्य के लिये उन्होंने कामदेव को नियुक्त कर दिया। भगवान शिव पर कामदेव ने एक के बाद एक कई बाण छोड़े जिससे उनकी तपस्या में बाधा पड़ी। क्रुद्ध होकर महादेव ने अपना तीसरा नेत्र खोल दिया। उस तीसरे नेत्र की तेजोमयी ज्वाला से जल कर कामदेव भस्म हो गए। देवता होने के कारण कामदेव की मृत्यु नहीं हुई केवल शरीर ही नष्ट हुआ। इस प्रकार अंग नष्ट हो जाने के कारण उसका नाम अनंग हो गया और इस स्थान का नाम अंगदेश पड़ गया। यह भगवान शिव का आश्रम है किन्तु भगवान शिव के द्वारा यहाँ पर कामदेव को भस्म कर देने के कारण इसे कामदेव का आश्रम भी कहते हैं।”

गुरु विश्वामित्र की आदेशानुसार सभी ने वहीं रात्रि विश्राम करने का निश्चय किया। राम और लक्ष्मण दोनों भाइयों ने वन से कंद-मूल-फल लाकर मुनिवर को समर्पित किये और गुरु के साथ दोनों भाइयों ने प्रसाद ग्रहण किया।

तत्पश्चात्स्नान, सन्ध्या-उपासना आदि से निवृत होकर राम और लक्ष्मण गुरु विश्वामित्र से अनेक प्रकार की कथाएँ तथा धार्मिक प्रवचन सुनते रहे। अन्त में गुरु की यथोचित सेवा करने के पश्चात् आज्ञा पाकर वे परम पवित्र गायत्री मन्त्र का जाप करते हुये तृण शैयाओं पर जा विश्राम करने लगे।


ताङका वध

प्रातःकाल स्नान, सन्ध्योपासनादि कार्यों से निवृत होकर राम और लक्ष्मण गुरु विश्वामित्र के साथ सरितातट पर पहुँचे। एक वनवासी मुनि ने विश्वामित्र के साथ दो सुकुमार बालकों को देखा तथा उनका परिचय प्राप्त कर वे एक छोटी सी सुन्दर नौका ले आये और विश्वामित्र से बोले, “हे मुनिराज! आप इन राजकुमारों के साथ इस नौका पर बैठ कर सरिता पार कर लीजिए।” विश्वामित्र जी ने उस मुनि को धन्यवाद दिया और राम तथा लक्ष्मण के साथ नौका पर सवार हो गए। इस प्रकार वे, सागर से मिलन की आतुरता में कलकल नाद के साथ दौड़ती जा रही, उस नदी को पार कर गये।

नदी के उस पार एक भयानक वन था। उस वन को देखकर राम बोले, “गुरुदेव! यह वन तो बड़ा भयंकर है। सभी ओर से सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक पशुओं के दहाड़ने और हाथियों के चिंघाड़ने की ध्वनि आ रही हैं। जंगली सूअर, भालू, वन भैंसें आदि वन्य प्राणी भ्रमण करते दृष्टिगत हो रहे हैं। वृक्षों की सघनता के कारण सूर्य का प्रकाश इस वन के भीतर घुसने का साहस नहीं कर पा रहा है और इसी कारणवश चारों ओर अन्धकार हो रहा है। इस अति दुर्गम वन का क्या नाम है?”

राम के इस प्रश्न का उत्तर विश्वामित्र ने इस प्रकार दिया,“हे राघव! पूर्व काल में इस स्थान में वन न होकर मलदा और करुप नाम के दो बड़े समृद्ध राज्य हुआ करते थे। दोनों ही राज्य ऊँची ऊँची अट्टालिकाओं, वीथिकाओं तथा सुन्दर पथों से सुशोभित थे तथा धन-धान्य और समृद्धि से परिपूर्ण थे। दूर दूर के व्यापारी यहाँ पर व्यापार करने आया करते थे। किन्तु ताड़का नामक एक यक्ष कन्या ने उन दोनों राज्यों का विनाश कर दिया।”

ऋषि विश्वामित्र ने आगे बताया, “ताड़का कोई साधारण स्त्री न होकर सुन्द नाम के राक्षस की पत्नी और मारीच नामक राक्षस की माता है। उसके शरीर में हजार हाथियों के बराबर बल है और वह अत्यन्त पराक्रमी और शक्तिशाली है। इस प्रदेश को नष्ट करने के पश्चात् ताड़का ने अपने पुत्र मारीच के साथ मिलकर यहाँ के समस्त निवासियों को मार कर खा डाला। अब उनके भय से यहाँ दो दो कोस दूर तक किसी मनुष्य की परछाईं भी दिखाई नहीं देती। भूलवश यदि कोई यहाँ आ भी जाये तो जीवित नहीं लौट पाता। उसी ताड़का का संहार करने के लिये ही मैं तुम्हें यहाँ लाया हूँ।”

राम ने आश्चर्य से पूछा, “गुरुदेव! स्त्रियाँ तो कोमल और दुर्बल होती हैं, फिर ताड़का में हजार हाथियों का बल कैसे आ गया? ऐसा प्रतीत होता है कि अवश्य कुछ न कुछ रहस्य है।”

विश्वामित्र बोले, “वत्स! तुम्हारा कथन सत्य है और वास्तव में इसके पीछे एक रहस्य है। सुकेतु नाम का एक अत्यंत बलवान यक्ष था। वह सन्तानहीन था। अतः सन्तान प्राप्ति के उद्देश्य से उसने ब्रह्मा जी की कठोर तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उसे सन्तान होने का वरदान दे दिया परिणामस्वरूप ताड़का का जन्म हुआ। सुकेतु के द्वारा ताड़का के अत्यंत बली होने का वर माँगने पर ब्रह्मा जी ने उसके शरीर में हजार हाथियों का बल दे दिया। विवाह योग्य आयु होने पर सुकेतु ने ताड़का का विवाह सुन्द नामक राक्षस से कर दिया और उससे मारीच का जन्म हुआ। मारीच भी अपनी माता के समान बलवान और पराक्रमी था। वह सुन्द राक्षस का पुत्र होकर भी स्वयं राक्षस नहीं था किन्तु बाल्यकाल में वह बहुत उपद्रवी था। ऋषि मुनियों को अकारण कष्ट दिया करता था। उसके उपद्रवों से त्रस्त होकर एक दिन अगस्त्य मुनि ने उसे राक्षस हो जाने का शाप दे दिया। अपने पुत्र के राक्षस गति प्राप्त हो जाने से सुन्द अत्यन्त क्रोधित हो गया और अगस्त्य ऋषि को मारने दौड़ा। इस पर अगस्त्य ऋषि ने शाप देकर सुन्द को तत्काल भस्म कर दिया। अपने पति की मृत्यु का बदला लेने के लिये ताड़का भी अगस्त्य ऋषि पर झपटी। इस पर अगस्त्य ऋषिने शाप दे कर ताड़का के सौन्दर्यको नष्ट कर दिया और वह अत्यंत कुरूप हो गई। अपनी कुरूपता को देखकर और अपने पति की मृत्यु का बदला लेने के लिये ताड़का ने अगस्त्य मुनि के आश्रम को नष्ट करने का संकल्प किया है। अतः हे राम! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि तुम ताड़का का वध करो। तुम्हारे अतिरिक्त इसका वध कोईभी नहीं कर सकता। अपने मन से यह विचार निकाल दो कि यह स्त्री है और स्त्री का वध मैं कैसे करूँ। स्त्री के रूप में यह एक घोर पाप है और पाप को नष्ट करने में कोई पाप नहीं होता। समस्त संशय को त्याग कर मेरी आज्ञा से तुम इस पापिनी का संहार कर दो।”

राम ने कहा, “गुरुदेव! आपकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है। समस्त मानवों के कल्याण के लिये मैं अवश्य ही ताड़का का वध करूँगा।” इतना कह कर राम ने अपने धनुष पर बाण रख कर उसकी प्रत्यंचा को कान तक खींच कर भयंकर टंकार किया। टंकार से उत्पन्न ध्वनि से समस्त वन प्रान्त गुंजायमान हो उठा। वन्य प्राणी भयभीत होकर इधर उधर भागने लगे। इस प्रकार की अप्रत्याशित खलबली मची देखकर ताड़का क्रोध से भर उठी। धनुष ताने राम को देखते ही इस विचार से कि कोई अपरिचित कुमार उसके साम्राज्य पर आधिपत्य करना चाहता है वह क्रोध से पागल हो गई। राम पर आक्रमण करने के लिये वह तीव्र गति से उन पर झपटी। ताड़का को अपनी ओर आते देख कर राम ने लक्ष्मण से कहा, “हे सौमित्र! ताड़ के वृक्ष जैसी विशाल और विकराल मुख वाली इस राक्षसी का शरीर कितना कुरूप है। इसकी मुख मुद्रा देख कर ही प्रतीत होता है कि यह बड़ी हिंसक है और निरीह प्राणियों की हत्या करके उनका रक्तपान करने में इसे बहुत आनन्द आता होगा। तुम एक तरफ सावधान होकर खड़े हो जाओ और देखो कि कैसे इसे मैं अभी यमलोक भेजता हूँ।”

विकराल देहधारिणी ताड़का अपने बड़े बड़े दाँत चमकाती, भुजाओं को फैलाये हुये द्रुतगामी बिजली की तरह राम और लक्ष्मण पर अत्यन्त तीव्रता के साथ झपटी। राम इस भयंकर आक्रमण के लिये पहले से ही तत्पर थे, उन्होंने तीक्ष्ण बाण चला कर उसके हृदय को छलनी कर दिया। उसके वक्षस्थल से गर्म गर्म रक्त की धारा प्रवाहित हो उठी। वह आक्रमण करने के लिये पुनः टूट पड़े इससे पूर्व ही राम ने एक और बाण चला दिया जो सीधे उसके वक्षमें जाकर लगा। वह पीड़ा से चीखती हुई चक्कर खाकर भूमि पर गिर पड़ी और अगले ही क्षण उसके प्राण पखेरू उड़ गये। राम के इस रण कौशल और ताड़का की मृत्यु से ऋषि विश्वामित्र अत्यंत प्रसन्न हुये। उनके मुख से रामचन्द्र के लिये आशीर्वचन निकलने लगे।

गुरु की आज्ञा से वहीं पर सभी ने रात्रि व्यतीत किया। प्रातःकाल उन्होंने देखा कि ताड़का के आतंक से मुक्ति पा जाने के कारण उस वन की भयंकरता और विकरालता समाप्त हो चुकी है। कुछ समय तक उस वन की शोभा निहारने के उपरान्त स्नान-पूजनसे निवृत हो कर वे महर्षि विश्वामित्र के आश्रम की ओर चल पड़े।



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