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वाल्मीकि रामायण

अयोध्याकाण्ड - 3
तमसा के तट पर

जब राम ने देखा कि प्रजाजन रथ के पीछे दौड़ते ही आ रहे हैं तो उन्होंने रथ को रुकवाया और उन्हें सम्बोधित करते हुये बोले, “प्रिय अयोध्यावासियों! ज्ञात है कि आप लोगों का मेरे प्रति अटूट और निश्छल प्रेम है और इसीलिये आप लोग मुझे बार-बार अयोध्या लौट चलने का आग्रह कर रहे हो। यद्यपि आपके इस प्रेम को टालना मेरे लिये अत्यन्त कठिन है, किन्तु मैं आप लोगों से आग्रह करता हूँ कि आप लोग मेरी विवशता को समझने का प्रयास करें। क्या आप लोग चाहेंगे कि मैं पिता की आज्ञा भंग करके पाप का भागी बनूँ? मैं जानता हूँ कि आप लोग मुझसे वास्तविक स्नेह रखते हैं और ऐसा कदापि नहीं चाहेंगे। अतः आप लोगों के लिये यही उचित है कि मुझे प्रेमपूर्वक वन जाने के लिये विदा करें और भरत को राजा स्वीकार करके उनके निर्देशों का पालन करें।”

इस प्रकार से नगरवासियों को समझा-बुझा कर राम ने सुमन्त से पुनः रथ को आगे बढ़ाने का अनुरोध किया। कुछ क्षणों के लिये राम के कथन का प्रभाव प्रजाजनों पर पड़ा किन्तु रथ के चलते ही वे फिर से रोते-बिलखते रथ के पीछे चलने लगे। वे राम-लक्ष्मण के प्रेम की डोर में इतना अधिक बँधे थे कि चाहकर भी राम के द्वारा दिये गये उपदेशों और निर्देशों को क्रियान्वित नहीं कर पा रहे थे और विवश होकर बरबस रथ के पीछे चले जा रहे थे। उनकी बुद्धि उन्हें रोक रही थी, किन्तु हृदय उन्हें बलात् रथ के साथ घसीटे लिये जा रहा था। उनकी भावनाओं के आगे उनका विवेक कुछ भी काम नहीं कर पा रहा था। अपनी बातों का उन पर कुछ भी प्रभाव न पड़ते देख कर राम ने सुमन्त से रथ को और तेज चलाने की आज्ञा दी और रथ की गति तेज हो गई। किन्तु भावाभिभूत प्रजाजनों की भीड़ फिर भी रथ के पीछे दौड़ी ही जा रही थी।

तमसा नदी के तट पर पहुँचते पहुँचते रथ के अश्व भी क्लांत हो चुके थे तथा उन्हें विश्राम आवश्यकता थी। मन्त्री सुमन्त ने रथ वहीं रोक दिया। राम, सीता और लक्ष्मण तीनों रथ से उतर आये। वे तमसा के तट पर खड़े होकर उसकी लहरों का आनन्द लेने लगे। इतने में ही रोते बिलखते वे सहस्त्रों अयोध्यावासी भी वहाँ आ पहुँचे जो रथ की गति के साथ न चल पाने के कारण पीछे रह गये थे। उन्होंने चारों ओर से राम, लक्ष्मण तथा सीता को घेर लिया और अनेकों प्रकार के भावुकतापूर्ण तर्क देकर उनसे वापस अयोध्या चलने का अनुरोध करने लगे। रामचन्द्र ने उन्हें अनेकों प्रकार से धैर्य बँधाया। उनके कुछ शान्त होने पर रामचन्द्र ने प्रजाजनों से प्रेमपूर्वक आग्रह किया कि वे वापस लौट जावें। राम तथा प्रजाजनों के मध्य संवाद अबाध गति से चलता रहा और रात्रि हो गई। भूख-प्यास तथा लम्बी यात्रा की थकान से आक्रान्त अयोध्यावासी वहीं वन के वृक्षों के कन्द-मूल-फल खाकर भूमि पर सो गये।

जब ब्रह्म-मुहूर्त में रामचन्द्र की निद्रा टूटी तो वे उन निद्रामग्न नगरवासियों की ओर देखकर लक्ष्मण से बोले, “भैया! मुझसे इन प्रजाजनों का यह त्यागपूर्ण कष्ट देखा नहीं जा रहा है इसलिए अब यही उचित है कि हम लोग चुपचाप यहाँ से निकल पड़ें। अतः हे लक्ष्मण! तुम शीघ्र जाकर तत्काल रथ तैयार करवा लो। किन्तु ध्यान रखना कि किसी प्रकार की आहट न हो वरना ये जाग कर फिर हमारे पीछे पीछे आने लगेंगे।”

राम के आदेशानुसार लक्ष्मण ने सुमन्त से आग्रह करके रथ को थोड़ी दूर पर एक निर्जन स्थान में खड़ा करवा दिया। पुरवासियों को आभास तक नहीं मिला कि कब वे रथ में सवार होकर तपोवन की ओर निकल गए।

पुरवासियों की निद्रा भंग होने पर वे सब उन्हें ढूँढने लगे और रथ की लीक के पीछे-पीछे बहुत दूर तक गये। आगे जाकर मार्ग कँकरीला-पथरीला हो गया था इसलिए रथ के लीक के चिह्न दिखाई देना बन्द हो गया। अनेक प्रयत्न करने पर भी जब वे रथ के मार्ग का अनुसरण न कर सके तो निराश होकर वे विलाप करते हुये लौट पड़े।


वन की यात्रा

तमसा नदी को पार करने के पश्चात् रथ तीव्र गति से बढ़ने लगा। द्रुत गति से दौड़ता हुआ रथ निर्मल जल से युक्त वेदश्रुति नामक नदी के तट पर जा पहुँचा। वेदश्रुति नदी को पार कर रथ दक्षिण दिशा की ओर बढ़ता गया। वे उस स्थान में पहुँच गए जहाँ समुद्रगामिनी गोमती नदी प्रवाहित हो रही थी। सरिता के दोनों तटों पर सहस्त्रों गौओं के झुंड हरी-हरी घास चर रही थीं। गोमती नदी को लांघ कर रथ ने मोरों और हंसों के कलरवों से व्याप्त स्यन्दिका नामक नदी को भी पार किया। यह क्षेत्र धन-धान्य से सम्पन्न और अनेक जनपदों से घिरा हुआ था।

राम ने सीता को बताया कि पूर्वकाल में इस क्षेत्र को राजा मनु ने इक्ष्वाकु को दिया था। शीघ्रगामी अश्वों ने रथ को विशाल और रमणीय कोसल देश की सीमा तक पहुचा दिया। सीमा के पार होते ही राम रथ से नीचे उतरे और अयोध्या की ओर मुख कर श्रद्धापूर्ण वचनों में कहने लगे, “सूर्यकुल के सत्यवादी नरेशों द्वारा स्नेहपूर्वक परिपालित हे अयोध्या नगरी! विवश होकर आज मुझे तुझसे दीर्घकाल के लिये विलग होना पड़ रहा है। हे जन्मभूमि! मेरी दृष्टि में तुम सदैव स्वर्ग से भी अधिक श्रद्धेय और पूजनीय रही हो। तुम्हारी सेवा मेरा गौरव है किन्तु परिस्थितिवश मुझे आज तुम्हारी सेवा से विमुख होना पड़ रहा है। हे जननी! तुम सदैव मेरे लिये प्रेरणामयी रही हो। तुम्हारी धूलि मुझे चन्दन की भाँति शान्ति देती है, तुम्हारा जल मेरे लिये अमृतमयी और जीवनदायी है। तुमसे विदा लेते हुये मेरा हृदय विदीर्ण हुआ जा रहा है। पिताजी की आज्ञा का पालन करके चौदह वर्ष पश्चात् मैं पुनः तुम्हारा दर्शन तथा तुम्हारी सेवा का सौभाग्य प्राप्त करूँगा। तब तक के लिये हे माता! मुझे विदा दो। हे माता! तुम्हें शतशत प्रणाम! कोटि कोटि प्रणाम!!” इतना कह कर राम ने अयोध्या प्रदेश की धूलि को मस्तक से लगा लिया। उनके नेत्र अश्रुपूरित हो गये किन्तु प्रयास करके उन्होंने अपनी भावनाओं को नियंत्रित किया और पुनः रथ पर बैठ गये।

रथासीन हो जाने के पश्चात् वे लक्ष्मण एवं सीता को मातृभूमि की गरिमा एवं महत्व के विषय में बताने लगे। वे कलुषनाशिनी परम पावन भागीरथी गंगा के तट पर पहुँच गये। उस सुरम्य वातावरण में वे बहुत देर तक चकित से खड़े रहे। उन्होंने देखा दूर-दूर तक लहलहाते हुए खेत नेत्रों को सुख देने वाली हरीतिमा बिखेर रहे हैं। वातावरण अत्यंत सुरम्य है। स्वर्णकलशों से सुशोभित धवल मंदिर भक्ति की भावना को जागृत कर रहे हैं। वहाँ के समस्त आश्रम साम गान की ध्वनि गुंजायमान हो रहे है। वायुमण्डल हवन कुण्डों से निकलने वाले धुएँ से सुगन्धित हो रहा है। अनन्य काल से ऋषि-मुनियों द्वारा सेवित पवित्र भागीरथी कल-कल नाद के साथ द्रुत गति से प्रवाहित हो रही है। गंगा के जल में हंस, कारण्डव आदि पक्षी विहार करते हुये मधुर स्वर में गा रहे हैं मानों वे गंगा की स्तुति कर रहे हों। त्रिपथगा पुण्यसलिला गंगा के दोनों तटों पर खड़े वृक्ष रंग-बिरंगे पुष्पों से सुसज्जित हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे अपने फूलों का अर्ध्य चढ़ाकर गंगा का अभिषेक कर रहे हैं। वे इस मनोमुग्धकारी छवि निहारने में लीन हो गये।

कुछ काल के पश्चात् राम सुमन्त से बोले, “मन्त्रिवर! आज हम यहीं विश्राम करेंगे। हंगुदी के उस विशाल वृक्ष पर कितने सुन्दर तथा आकर्षक फल लगे हुये हैं! आज हम इन्हीं फलों का आहार करेंगे और रात्रि भी यहीं पर व्यतीत करेंगे।”

रामचन्द्र का आदेश पाते ही सुमन्त ने रथ को हंगुदी के वृक्ष के नीचे खड़ा कर दिया और अश्वों को निकट ही हरी-हरी घास चरने के लिये छोड़ दिया।


भीलराज गुह

गंगा के इस प्रदेश पर भीलों का अधिकार था और उनके राजा का नाम गुह था। एक लोकप्रिय एवं सशक्त शासक होने के साथ ही साथ गुह राम का भक्त भी था। यह ज्ञात होने पर कि राम अपने लघु भ्राता लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ उसके क्षेत्र में आये हुये हैं, वह अपने मन्त्रियों तथा परिजनों के साथ उनके स्वागत के लिये आ पहुँचा।

भीलराज गुह को देखकर राम स्वयं आगे बढ़े और उनसे गले मिले। वक्कल धारण किये हुये राम, सीता और लक्ष्मण को देख कर गुह को अत्यन्त क्षोभ हुआ। उसने विनयपूर्ण तथा आर्त स्वर में कहा, “हे रामचन्द्र! इस प्रदेश को आप अपना ही प्रदेश समझें। आप यहाँ का अधिपति बनकर यहाँ का शासन सँभाल लें। आपके समान समदर्शी एवं न्यायवेत्ता शासक पाकर यह प्रदेश धन्य हो जायेगा। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि यह सम्पूर्ण भूमि आपकी ही है और हम सब आपके अनन्य सेवक हैं।” इतना कहकर गुहराज ने अपने साथ लाई हुई सामग्री को राम के समक्ष रख दिया और बोला, “हे, स्वामी! ये भक्ष्य, पेय, लेह्य तथा स्वादिष्ट फल आपकी सेवा में प्रस्तुत है। आप कृपा करके इन्हें स्वीकार करें। आप लोगों के विश्राम के लिये व्यवस्था कर दी गई है। अश्वों के लिये दाना-चारा भी तैयार है।”

गुह की प्रेममय वचनों को सुनकर राम बोले, “हे निषादराज! आप इस प्रदेश के राजा हैं फिर भी आप मेरे स्वागत के लिये पैदल चलकर आये हैं। मैं आपकी जितनी प्रशंसा करूँ, कम है। आपने दर्शन देकर हम लोगों को कृतार्थ कर दिया है।”

इस प्रकार निषादराज की प्रशंसा करते हुये राम उन्हें प्रेमपूर्वक अपने पास बिठा लिया और मधुर वाणी में कहने लगे, “भीलराज! आपको सानन्द और सकुशल देखकर मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हो रही है। आपके द्वारा लाये गये इन उत्तमोत्तम पदार्थ के लिये मैं आपका अत्यंन्त आभारी हूँ। किन्तु बन्धु! मुझे खेद है कि मैं इन्हें स्वीकार नहीं कर सकता। ये सारे पदार्थ राजा-महाराजाओं के खाने योग्य हैं किन्तु अब हम तपस्वी हो गये हैं और हमारा भोजन तो केवल कन्द-मूल-फल है। अतः हम इसे ग्रहण नहीं कर सकते। हाँ, अश्वों के लिये आप जो दाना-चारा लाये हैं उन्हें स्वीकार करके मुझे बहुत प्रसन्नता होगी क्योंकि ये मेरे पिताजी के प्रिय अश्व हैं, जिनकी सदैव विशेष देख-भाल की जाती है।”

गुह ने भीलों को अश्वों के विशेष प्रबन्ध करने के लिये आदेश दे दिया। सन्ध्या होने पर राम, सीता और लक्ष्मण ने गंगा में स्नान किया तथा ईश्वरोपासना के पश्चात् उन्होंने कन्द-मूल-फल का आहार किया। गुहराज उन्हें उस कुटी तक ले गये जहाँ पर उन्होंने उनके विश्राम के लिये अपने हाथों से प्रेमपूर्वक तृण शैयाएँ बनाई थीं। कुटी में पहुँच कर गुह ने कहा, “हे दशरथनन्दन! आप इन शैयाओं पर विश्राम कीजिये। मैं आपका दास हूँ अतः मैं पूर्ण रात्रि जाग कर हिंसक पशुओं से आप लोगों की रक्षा करूँगा आप हमें सर्वाधिक प्रिय हैं। इसलिये आप लोगों की सुरक्षा के लिये रात भर मेरे ये सभी साथी धनुष बाण लेकर तत्पर रहेंगे।”

उनकी बातें सुनकर लक्ष्मण ने कहा, “हे गुहराज! मुझे आपकी शक्ति, निष्ठा और भैया राम के प्रति आपके अनन्य प्रेम पर पूर्ण विश्वास है। निःसन्देह आपके राज्य में हमें किसी प्रकार की विपत्ति की आशंका नहीं हो सकती। किन्तु मैं भैया राम का दास हूँ अतः मैं इनके बराबर में सो नहीं सकता। मैं भी रात भर आपके साथ पहरा देकर अपना कर्तव्य पूरा करूँगा।

भीलराज गुह और लक्ष्मण कुटी के बाहर एक शिला पर बैठकर पहरा देते हुये बातें करने लगे। लक्ष्मण ने गुह को अयोध्या में घटित समस्त घटनाओं के विषय में बताया। इस प्रकार वह रात्रि व्यतीत हो गई।


गंगा पार करना

ब्रह्म-बेला में राम ने शैया का परित्याग कर दिया और लक्ष्मण से कहा, “तात! भगवती रात्रि व्यतीत हो गई। अब सूर्योदय का समय आ पहुँचा है। कोकिल की कूक सुनाई दे रही है। मोरों की बोली सुनाई दे रही है। यही वह अवसर है जब कि हमें तीव्र गति से बहने वाली समुद्रगामिनी परम पावन गंगा को पार कर लेना चाहिये।”

सुमत्राकुमार लक्ष्मण ने श्री रामचन्द्र जी के कथन का अभिप्राय समझकर गुह और सुमन्त को बुलाकर पार उतरने की व्यवस्था करने के लिए कहा। निषादराज ने अपने मन्त्रियों को आदेश दिया कि एक सुन्दर द्रुतगामी नौका ले आओ। आज्ञा पाते ही निषादराज के अनुचर तत्काल जाकर उनके लिये एक श्रेष्ठ नौका ले आये। नौका के घाट पर लग जाने पर राम, सीता और लक्ष्मण घाट की ओर चले। उन्हें घाट की ओर जाते देखकर मन्त्री सुमन्त ने हाथ जोड़ कर कहा, “हे रघुकुलशिरोमणि! अब मेरे लिये क्या आज्ञा है?”

रामचन्द्र ने उनकी कर्तव्यनिष्ठा की प्रशंसा की और धन्यवाद देते हुये कहा, “सुमन्त! अब आप शीघ्र अयोध्या के लिये प्रस्थान करें। गंगा पार करने पश्चात् हम उसके आगे की यात्रा पैदल ही करेंगे। आप अयोध्या जाकर मेरी, सीता और लक्ष्मण की ओर से पिताजी, माताओं एवं अन्य गुरुजनों की चरण वन्दना करें। उन्हें धैर्य दिलाते हुये हमारी ओर से सन्देश दें कि हम तीनों में से किसी को भी अपने वनवास का किन्चितमात्र भी दुःख नहीं है। उन्हें यह भी कहें कि चौदह वर्ष की अवधि समाप्त होने पर मैं, सीता और लक्ष्मण आपके दर्शन करेंगे। आप भाई भरत को कैकेय से शीघ्र बुला लें तथा राज्य सिंहासन सौंप दें ताकि प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट व असुविधा न हो। हे मन्त्रिवर! भरत से भी मेरा यह संदेश देना कि वे सभी माताओं का समान रूप से आदर करें और प्रजाजनों के हितों का सदैव ध्यान रखें।”

सुमन्त अत्यंत विह्वल हो गये और उनके नेत्रों से अश्रुधारा बह चली। अवरुद्ध कण्ठ से वे बोले, “हे तात! आपके वियोग में संतप्त अयोध्या की प्रजाजनों के सम्मुख मैं कैसे जा सकूँगा? जब वे पूछेंगे कि आप लोगों को छोड़ कर कैसे लौट आये तो मैं क्या उत्तर दूँगा? मैं जानता हूँ कि आपको न पाकर सहस्त्रों अयोध्यावासी शोक से मूर्छित हो जायेंगे। उनकी दशा सेनापति रहित सेना जैसी हो जायेगी। हे स्वामी! यह तो आप देख ही चुके हैं कि अयोध्या से वन के लिये चलते समय अयोध्यावासियों की क्या दशा हुई थी। इस खाली रथ को देख कर सम्पूर्ण अयोध्या नगरी का हृदय विदीर्ण हो जायेगा। हे प्रभु! मैं माता कौशल्या को कैसे अपना मुख दिखा सकूँगा? आप लोगों के बिना लौटना मेरे लिये बड़ा कठिन है। इसलिये हे नाथ! आप कृपा करके मुझे भी अपने साथ ले चलें।”

इस प्रकार से दीन वचन कहकर बारम्बार याचना करने वाले सुमन्त से सेवकों पर कृपा करने वाले श्री राम ने प्रेमपूर्वक कहा, “भाई सुमन्त! मेरे प्रति आपकी जो उत्कृष्ट भक्ति है उसे मै अच्छी तरह से समझता हूँ। किन्तु तुम्हारे न लौटने से माता कैकेयी के मन में शंका उत्पन्न हो जायेगी। वे समझेंगी कि हम लोग षड़यंत्र करके राज्य में ही कहीं छुप गये हैं। इसलिये मेरा तुमसे अनुरोध है कि तुम नगर को लौट जाओं। तुम्हारे लौटने से जहाँ माता कैकेयी की शंका भी समाप्त हो जायेगी और महाराज तथा मुझ पर किसी प्रकार का कलंक भी नहीं लगेगा। कलंक चाहे झूठा ही क्यों न हो, उसकी प्रतिक्रिया बड़ी व्यापक होती है।”

इस तरह अनेक प्रकार से समझा बुझाकर रामचन्द्र ने सुमन्त को विदा किया। सुमन्त अश्रुपूरित नेत्रों से रथ में बैठ कर अयोध्या के लिये चल पड़े।

सुमन्त के जाने के पश्चात् राम गुह से बोले, “निषादराज! तुम कृपा करके हमारे लिये बड़ का दूध मँगा दो क्योंकि अब हम वनवासी और तपस्वी हो गये हैं और हमें जटाएँ धारण करके तापस धर्म की मर्यादाओं का पालन करते हुये निर्जन वनों में निवास करना चाहिये।”

राम की बात सुन कर गुह स्वयं जाकर बड़ का दूध ले आये जिससे राम, सीता और लक्ष्मण ने जटाएँ बनाईं और नियमपूर्वक तपस्वी धर्म को स्वीकार करते हुये गंगा पार करने को उद्यत हुये। नौका पर सवार होकर तीनों ने कलुषहारिणी गंगा को पार किया। गंगा के पार पहुँच जाने पर राम ने गुह को हृदय से लगा लिया। फिर उनके स्नेहपूर्ण आतिथ्य के लिये उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुये उन्होंने निषादराज को विदा किया।


ऋषि भरद्वाज के आश्रम में

जब निषादराज गुह के वापस गंगा के उस पार चले गए तब राम ने लक्ष्मण से कहा, “हे सौमित्र! अब हम सामने के फैले हुये इस निर्जन वन में प्रवेश करेंगे। यह भी हो सकता है कि हमें इस वन में हमें अनेक प्रकार की भयंकर स्थितियों और उपद्रवों का सामना करना पड़े। कोई भी भयंकर प्राणी किसी भी समय, किसी भी ओर से आकर, हम पर आक्रमण कर सकता है। अतः तुम सबसे आगे चलो। तुम्हारे पीछे सीता चलेंगी और सबसे पीछे तुम दोनों की रक्षा करते हुये मैं रहूँगा। अच्छी तरह से समझ लो कि यहाँ हम लोगों को आत्मनिर्भर होकर स्वयं ही एक दूसरे का बचाव करना पड़ेगा।”

राम की आज्ञा के अनुसार लक्ष्मण धनुष बाण सँभाले हुये आगे-आगे चलने लगे तथा उनके पीछे सीता और राम उनका अनुसरण करने लगे। वन के भीतर चलते-चलते ये तीनों वत्स देश में पहुँचे। यह विचार करके कि कोमलांगी सीता इस कठोर यात्रा से अत्यधिक क्लांत हो गई होंगीं, वे विश्राम करने के लिये एक वृक्ष के नीचे रुक गये। सन्ध्या हो जाने पर उन्होंने संध्योपासना आदि कर्मों से निवृति पाकर वहाँ उपलब्ध वन्य पदार्थों से अपनी क्षुधा मिटाई।

शनैः शनैः रात्रि गहराने लगी। राम लक्ष्मण से बोले, “भैया लक्ष्मण! इस निर्जन वन में आज हमारी यह प्रथम रात्रि है। जानकी की रक्षा का दायित्व हम दोनों भाइयों पर ही है इसलिये तुम सिंह की भाँति निर्भय एवं सतर्क रहना। ध्यान से सुनो, कुछ दूरी पर अनेक प्रकार के हिंसक प्राणियों के स्वर सुनाई दे रहे हैं। किसी भी क्षण वे इधर आकर तनिक भी अवसर पाकर हम पर आक्रमण कर सकते हैं। इसलिये हे वीर शिरोमणि! किसी भी अवस्था किंचित भी असावधान मत होना।”

फिर विषय को परिवर्तित करते हुये वे बोले, “आज पिताजी अयोध्या में बहुत दुःखी हो रहे होंगे और माता कैकेयी उतनी ही आनन्दित हो रही होंगीं। अपने पुत्र को सिंहासनारूढ़ करने के लिये कैकेयी कुछ भी कर सकती हैं। रह-रह कर मेरे मन में एक आशंका उठती है कि कहीं वे पिताजी के भी प्राण छल से न ले लें। धर्म से पतित और लोभ के वशीभूत हुआ मनुष्य भला क्या कुछ नहीं कर सकता? ईश्वर न करे कि ऐसा हो। अन्यथा वृद्धा माता कौशल्या भी पिताजी के और हमारे वियोग में अपने प्राण त्याग देंगीं। इस अन्याय को देखकर मेरे हृदय में अवर्णनीय वेदना होती है। जी चाहता है कि इन निरीह वृद्ध प्राणियों के जीवन की रक्षा के लिये सम्पूर्ण अयोध्यापुरी को बाणों से बींध दूँ, किन्तु मेरा धर्म मुझे ऐसा करने से रोकता है। सत्य जानो कि मैं आज बड़ा दुःखी हूँ।” ऐसा कहते-कहते राम का कण्ठ अवरुद्ध हो गया और वे चुप होकर अश्रुपूरित नेत्रों से पृथ्वी की ओर देखने लगे।

जब लक्ष्मण ने राम को इस प्रकार दुःख से संतप्त होते देखा तो उन्होंने धैर्य बँधाते हुये कहा, “हे आर्य! इस प्रकार शोक विह्वल होना आपको शोभा नहीं देता। आपको दुःखी देखकर भाभी को भी दुःख होगा। अतः आप धैर्य धारण करें। बड़े से बड़े संकट में भी आपने धैर्य का सम्बल कभी नहीं छोड़ा, फिर आज इस प्रकार अधीर क्यों हो रहे हैं? उचित तो यही है कि हम काल की गति को देखें, परखें और उसके अनुसार ही कार्य करें। मुझे विश्वास है कि वनवास की यह अवधि निष्कंटक समाप्त हो जायेगी और उसके पश्चात् हम कुशलतापूर्वक वापस अयोध्या लौटकर सुख शान्ति का जीवन व्यतीत करेंगे।”

तृणों की शैया पर लेटे हुये राम के निद्रामग्न हो जाने पर लक्ष्मण सम्पूर्ण रात्रि निर्भय होकर धनुष बाण सँभाले राम और सीता के रक्षार्थ पहरा देते रहे। रात्रि व्यतीत होने पर सूर्योदय से पूर्व ही राम, लक्ष्मण और सीता ने सन्धयावन्दनादि से निवृत होकर त्रिवेणी संगम की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में लक्ष्मण ने कुछ वृक्षों के स्वादिष्ट फलों को तोड़ कर राम और सीता को दिया तथा स्वयं भी उनसे अपनी क्षुधा शान्त की। सन्ध्या होत-होते वे गंगा और यमुना के संगम पर पहुँच गये।

कुछ देर तक संगम के रमणीक दृश्य को देखने के बाद राम बोले, “लक्ष्मण! आज की इस यात्रा ने हमें महातीर्थ प्रयागराज के निकट पहुँचा दिया है। हवन-कुण्ड से उठती हुई यह धूम्र-रेखाएँ ऐसी प्रतीत हो रही हैं मानो अग्निदेव की पताका फहरा रही हों। हवन के इस धुएँ की स्वास्थ्यवर्द्धक सुगन्धि से सम्पूर्ण वायु-मण्डल आपूरित हो रहा है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हम महर्षि भरद्वाज के आश्रम के आसपास पहुँच चुके हैं।”

संगम की उस पवित्र स्थली में गंगा और यमुना दोनों ही नदियाँ कल-कल नाद करती हुई प्रवाहित हो रहीं थीं। निकट ही महर्षि भरद्वाज का आश्रम था। आश्रम के भीतर पहुँच कर राम ने भरद्वाज मुनि का अभिवादन किया और कहा, “हे महामुने! अयोध्यापति महाराज दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण आपको सादर प्रणाम करते हैं। भगवन्! पिता की आज्ञा से मैं चौदह वर्ष-पर्यन्त वन में निवास करने आया हूँ। ये मेरे अनुज लक्ष्मण तथा मेरी पत्नी मिथिलापति जनक की पुत्री सीता हैं।”

उनका हार्दिक सत्कार करने तथा बैठने के लिये आसन दिने के पश्चात् मुनि भरद्वाज ने उनके स्नान आदि की व्यवस्था किया और उनके भोजन के लिये अनेक प्रकार के फल दिये। फिर ऋषि भरद्वाज बोले, “मुझे ज्ञात हो चुका है कि महाराज दशरथ ने निरपराध तुम्हें वनवास दिया है और तुमने मर्यादा की रक्षा के लिये उसे सहर्ष स्वीकार किया है। तुम लोग चौदह वर्ष तक मेरे इसी आश्रम में निश्चिन्त होकर रह सकते हो। यह स्थान अत्यन्त रमणीक भी है।”

राम ने कहा, “निःसन्देह आपका स्थान अत्यन्त मनोरम एवं सुखद है, परन्तु मैं यहाँ निवास नहीं करना चाहता क्योंकि आपका आश्रम अपनी गरिमा के कारण दूर-दूर तक विख्यात है। मेरे यहाँ निवास करने की सूचना अवश्य ही अयोध्यावासियों को मिल जायेगी और उनका यहाँ ताँता लग जायेगा। इस प्रकार हमारे तपस्वी धर्म में बाधा पड़ेगी। आपको भी इससे असुविधा होगी। अतएव आप कृपा करके हमें कोई अन्य स्थान के विषय में बताइये जो एकान्त में हो और जहाँ सीता का मन भी लगा रहे।”

राम के तर्कयुक्त वचनों को सुन कर ऋषि भरद्वाज ने कहा, “यदि तुम्हारा ऐसा ही विचार है तो तुम चित्रकूट में जाकर निवास कर सकते हो जो कि यहाँ से दस कोस की दूरी पर है और उस पर्वत पर अनेक ऋषि-मुनि तथा तपस्वी अपनी कुटिया बना कर तपस्या करते हैं। वह स्थान रमणीक तो है ही और फिर वानर, लंगूर आदि ने उसकी शोभा को द्विगुणित कर दिया है। चित्रकूट की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि अनेक ऋषि-मुनियों की तपस्यास्थली रही है जिन्होंने मोक्ष प्राप्त की है।”

महर्षि भरद्वाज ने उन्हें उस प्रदेश के विषय में और भी अनेकों ज्ञातव्य बातें बताईं। रात्रि हो जाने पर तीनों ने वहीं विश्राम किया।



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