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वाल्मीकि रामायण

उत्तरकाण्ड - 3
राजा ययाति की कथा

      इस आश्‍चर्यजनक कथा को सुनकर सुमित्रानन्दन बोले, “हे प्रभो! ऐसे ही शाप की कोई और कथा हो तो सुनाइये।”

       लक्ष्मण की जिज्ञासा देखकर कौशल्यानन्दन बोले, “नहुष के पुत्र राजा ययाति के दो पत्‍नियाँ थीं – एक शर्मिष्ठा और दूसरी देवयानी। शर्मिष्ठा दैत्यकुल के वृषपर्वा की कन्या थी और देवयानी शुक्राचार्य की। राजा को शर्मिष्ठा से विशेष स्नेह था। शर्मिष्ठा ने पुरु को और देवयानी ने यदु को जन्म दिया। दोनों ही बालक बड़े तेजस्वी थे। देवयानी को उचित सम्मान न पाते देख यदु ने उससे कहा कि माता! इस असम्मानजनक जीवन से क्या यह अधिक उचित न होगा कि हम अग्नि में प्रवेश करके यह जीवन समाप्त कर दें? यदि तुम मेरी बात नहीं मानोगी तो भी मैं यह जीवन धारण नहीं करूँगा।

       पुत्र की यह बात सुनकर देवयानी ने सारी बातें अपने पिता भृगुनन्दन शुक्राचार्य को बता दी और स्वयं भी जल मरने को तैयार हो गई। उसने कहा कि ययाति मेरा ही नहीं आपका भी अनादर करते हैं। इससे क्रोधित होकर शुक्राचार्य ने ययाति को लक्ष्य करके शाप दिया कि दुरात्मने! तुम्हारी अवस्था जराजीर्ण वृद्ध जैसी हो जाये। तुम बिल्कुल शिथिल हो जाओ। इस प्रकार शाप देकर वे मौन हो गये।

       “इस शाप के फलस्वरूप राजा ययाति को ऐसी वृद्धावस्था ने आ घेरा जो दूसरे की युवावस्था से बदली जा सकती थी। ययाति ने यदु से अनुरोध किया कि तुम मुझे अपना यौवन देकर मेरी वृद्धावस्था ले लो। कुछ समय पश्‍चात् मैं तुम्हारा यौवन तुम्हें लौटा दूँगा। यह सुनकर यदु ने कहा यह सौदा आप अपने लाडले पुरु से करें। जब उन्होंने पुरु से यह बात कही तो पुरु ने राजा का अनुरोध सुनकर तत्काल वृद्धावस्था के बदले में अपना यौवन दे दिया। सहस्त्रों वर्षों तक यज्ञ आदि का अनुष्ठान करके उन्होंने पुरु को फिर उनका यौवन लौटा दिया और यदु को शाप दिया कि तुमने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है, इसलिये तुम्हारी सन्तान राजा नहीं होगी। हे सौमित्र! यह सब प्राचीन आख्यान मैंने तुम्हें सुना दिया। अब हमें उसी प्रकार करना चाहिये जिससे हमें किसी प्रकार का कोई दोष न लगे।”

      ये कथाएँ सुनाते-सुनाते रात्रि व्यतीत हो चली और ब्राह्म-मुहूर्त का समय हो गया।


कुत्ते का न्याय

      श्रीराम के शासन में न तो किसी को शारीरिक रोग होता था, न किसी की अकाल मृत्यु होती थी, न कोई स्त्री विधवा होती थे और न माता–पिताओं को सन्तान का शोक सहना पड़ता था। सारा राज्य सब प्रकार से सुख-सम्पन्न था। इसलिये कोई व्यक्‍ति किसी प्रकार का विवाद लेकर राजदरबार में उपस्थित भी नहीं होता था। किन्तु एक दिन एक कुत्ता राजद्वार पर आकर बार-बार भौंकने लगा। उसे अभियोगी समझ राजदरबार में उपस्थित किया गया। पूछने पर कुत्ते ने बताया, “प्रभो! आपके राज्य में सर्वार्थसिद्ध नामक एक भिक्षुक है। उसने आज अकारण मुझ पर प्रहार करके मेरा मस्तक फाड़ दिया है। इसलिये मैं इसका न्याय चाहता हूँ।”

       कुत्ते की बात सुनकर उस भिक्षुक ब्राह्मण को बुलवाया गया। ब्राह्मण के आने पर राजा रामचन्द्र ने पूछा, “विप्रवर! क्या आपने इस कुत्ते के सिर पर घातक प्रहार किया था? यदि किया था तो इसका क्या कारण है? वैसे ब्राह्मण को अकारण क्रोध आना तो नहीं चाहिये।”

       महाराज की बात सुनकर सर्वार्थसिद्ध बोले, “प्रभो! यह सही है कि मैंने इस कुत्ते को डंडे से मारा था। उस समय मेरा मन क्रोध से भर गया था। बात यह थी कि कल मेरे भिक्षाटन का समय बीत चुका था, तो भी भूख के कारण मैं भिक्षा के लिये द्वार-द्वार पर भटक रहा था। उस समय यह कुत्ता बीच में आ खड़ा हुआ। मैं भूखा तो था ही, अतएव मुझे क्रोध आ गया और मैंने इसके सिर पर डंडा मार दिया। मैँ अपराधी हूँ, मुझे दण्ड दीजिये। आपसे दण्ड पाकर मुझे नरक यातना नहीं भोगनी पड़ेगी।”

       जब राजा राम ने सभसदों से उसे दण्ड देने के विषय में परामर्श किया तो उन्होंने कहा, “राजन्! ब्राह्मण दण्ड द्वारा अवध्य है। इसे शारीरिक दण्ड नहीं दिया जा सकता और यह इतना निर्धन है कि आर्थिक दण्ड का भार भी नहीं उठा सकेगा।”

       यह सुनकर कुत्ते ने कहा, “महाराज! यदि आप आज्ञा दें तो मैं इसके दण्ड के बारे में एक सुझाव दूँ। मेरे विचार से इसे महन्त बना दिया जाय। यदि आप इसे कालंजर के किसी मठ का मठाधीश बना दें तो यह दण्ड इसके लिये सबसे उचित होगा।”

       कुत्ते का सुझाव मानकर श्रीराम ने उसे मठाधीश बना दिया और वह हाथी पर बैठकर वहाँ से प्रसन्नतापूर्वक चला गया। उसके जाने के पश्‍चात् एक मन्त्री ने कहा, “प्रभो! यह तो उसके लिये उपहार हुआ, दण्ड नहीं।”

      मन्त्री की बात सुनकर श्रीराम ने कहा, “मन्त्रिवर! यह उपहार नहीं, दण्ड ही है। इसका रहस्य तुम नहीं समझ सके हो।” फिर कुत्ते से बोले, “श्‍वानराज! तुम इन्हें इस दण्ड का रहस्य बताओ।”

       राघव की बात सुनकर कुत्ता बोला,“रघुनन्दन! पिछले जन्म में मैं कालंजर के एक मठ का अधिपति था। वहाँ मैं सदैव शुभ कर्म किया करता था। फिर भी मुझे कुत्ते की योनि मिली। यह तो अत्यन्त क्रोधी है। इसका अन्त मुझसे भी अधिक खराब होगा। मठाधीश ब्राह्मणों और देवताओं के निमित्त दिये गये द्रव्य का उपभोग करता है, इसलिये वह पाप का भागी बनता है।” यह रहस्य बताकर कुत्ता वहाँ से चला गया।


च्यवन ऋषि का आगमन

      एक दिन जब श्रीराम अपने दरबार में बैठे थे तो यमुना तट निवासी कुछ ऋषि - महर्षि च्यवन ऋषि जी के साथ दरबार में पधारे। कुशल क्षेम के पश्‍चात् उन्होंने बताया, “महाराज! इस समय हम बड़े दुःखी हैं। लवण नामक एक भयंकर राक्षस ने यमुना तट पर भयंकर उत्पात मचा रखा है। उसके अत्याचारों से त्राण पाने के लिये हम बड़े-बड़े राजाओं के पास गये परन्तु कोई भी हमारी रक्षा न कर सका। आपकी यशोगाथा सुनकर अब हम आपकी शरण आये हैं। हमें आशा है आप निश्‍चय ही हमारा भय दूर करेंगे।”

       ऋषियों के यह वचन सुनकर सत्यप्रतिज्ञ श्री राम बोले, “हे महर्षियों! यह समस्त राज्य और मेरे प्राण भी आपके लिये ही हैं। मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं उस दुष्ट के वध का उपाय शीघ्र ही करूँगा। आप मुझे उसके विषय में विस्तार से बतायें।”

       च्यवन ऋषि बोले, “हे राजन्! सतयुग में लीला नामक दैत्य का पुत्र मधु बड़ा शक्‍तिशाली और बुद्धिमान राक्षस था। उसने भगवान शंकर की तपस्या करके उनसे अपने तथा अपने वंश के लिये एक ऐसा शूल प्राप्त किया था जो शत्रु का विनाश करके वापस उसके पास आ जाता था। उन्होंने यह भी वर दिया कि जिसके हाथ में जब तक यह शूल रहेगा, तब तक वह अवध्य रहेगा। उसी मधु का पुत्र लवण है जो अत्यन्त दुष्टात्मा है और उस शूल के बल पर निरन्तर हमें कष्ट देता है। वह प्रायः किसी न किसी ऋषि, मुनि, तपस्वी को अपना आहार बनाता है। वन के प्राणियों, मनुष्यादि किसी को भी वह नहीं छोड़ता।”

       यह सुनकर राम ने सब भाइयों को बुलाकर पूछा, “इस राक्षस को मारने का भार कौन अपने ऊपर लेना चाहता है?”

       यह सुनकर शत्रुघ्न बोले, “प्रभो! लक्ष्मण ने आपके साथ रहते हुये बहुत से राक्षसों का संहार किया है। भैया भरत ने भी आपकी अनुपस्थिति में नन्दीग्राम में रहते हुये अनेक दैत्यों को मौत के घाट उतारा है। इसलिये लवणासुर के वध का कार्य मुझे सौंपने की कृपा करें।”

       श्री राम बोले, “ठीक है, तुम ही लवणासुर का संहार करो और उसे मार के मधुपुर में अपना राज्य स्थापित करो। मैं तुम्हें वहाँ का राजसिंहासन सौंपता हूँ।”

       फिर उन्होंने शत्रुघ्न को एक अद्‍भुत अमोघ बाण देकर कहा, “इस अद्‍भुत बाण से ही मधु और कैटभ नामक राक्षसों का विष्णु ने वध किया था। इससे लवणासुर अवश्य मारा जायेगा। एक बात का ध्यान रखना कि वह अपने शूल को महल के अन्दर एक प्रकोष्ठ में रखकर नित्य उसका पूजन करता है। जब वह तुम्हें अपने महल के बाहर दिखाई दे तभी तुम उसे युद्ध के लिये ललकारना। अभिमान के कारण वह तुमसे युद्ध करने लगेगा और शूल के लिये महल के अन्दर जाना भूल जायेगा। इस प्रकार वह रणभूमि में तुम्हारे हाथ से मारा जायेगा।”

       बड़े भाई की आज्ञा पाकर शत्रुघ्न ने विशाल सेना लेकर श्रीराम द्वारा दिय गये निर्देशों के अनुसार लवणासुर को मारने की योजना बराई। उन्होंने सेना को ऋषियों के साथ आगे भेज दिया। एक माह पश्‍चात् उन्होंने अपनी माताओं, गुरुओं और भाइयों की परिक्रमा एवं प्रणाम कर अकेले ही प्रस्थान किया।


पूर्व राजाओं के यज्ञ-स्थल एवं लव–कुश का जन्म

अयोध्या से प्रस्थान करने के तीसरे दिन शत्रुघ्न ने महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में विश्राम किया। रात्रि में उन्होंने मुनि से पूछा, “हे महर्षि! आपके आश्रम के निकट पूर्व में यह किसका यज्ञ-स्थल दिखाइ पड़ रहा है?”

       महर्षि बोले, हे सौमित्र! यह यज्ञ-स्थल तुम्हारे कुल के महान राजाओं ने बनवाया था। मैं उनके विषय में बताता हूँ। तुम्हारे कुल में सौदास नाम बड़े धार्मिक राजा हुए हैं। एक दिन आखेट करते हुये उन्होंने वन में दो भयंकर दुर्धुर्ष राक्षसों को देखा। राजा ने बाण चलाकर उनमें से एक को मार गिराया। यह देखकर दूसरा राक्षस यह कहता हुआ अदृश्य हो गया कि हे पापी! तूने मेरे इस मित्र को निरपराध मारा है, अतः मैं इसका प्रतिशोध अवश्य लूँगा।

       कुछ समय पश्‍चात् सौदास ने अपने पुत्र वीर्यसह को राज्य देकर और वशिष्ठ जी को पुरोहित बनाकर इस स्थान पर अश्‍वमेघ यज्ञ किया। उस समय वही राक्षस अपने प्रतिशोध लेने के लिये वहाँ आया और वशिष्ठ जी का रूप बनाकर राजा से बोले कि आज मुझे माँसयुक्‍त भोजन कराओ, इसमें सोच-विचार की आवश्यकता नहीं है। राजा ने अपने रसोइये को ऐसा ही आदेश दिया। इस आदेश को सुनकर वह आश्‍चर्य में पड़ गया। तभी वह राक्षस रसोइये के वेश में वहाँ उपस्थित हुआ और भोजन में मनुष्य का माँस मिलाकर राजा को दिया। राजा ने अपनी पत्‍नी सहित वह भोजन वशिष्ठ जी को परोसा। जब वशिष्ठ जी को ज्ञात हुआ कि भोजन में मनुष्य का माँस है तो उन्होंने क्रोधित होकर राजा को शाप दिया कि राजन्! जैसा भोजन तूने मुझे प्रस्तुत किया है, वैसा ही भोजन तुझे प्राप्त होगा। तब तो राजा वीर्यसह ने भी क्रोधित हो हाथ में जल लेकर वशिष्ठ जी को शाप देना चाहा। परन्तु रानी के समझाने पर वह जल अपने पैरों पर डाल दिया। इससे उनके दोनों पैर काले हो गये। तभी से उनका नाम कल्माषपाद पड़ गया। तत्पश्‍चात् राजा और रानी ने महर्षि वशिष्ठ के पैर पकड़ कर क्षमा माँगी और पूरा वृतान्त उन्हें कह सुनाया। तब वशिष्ठ जी ने कहा कि राजन्! बारह वर्ष पश्‍चात् आप इस शाप से मुक्‍त हो जाओगे और तुम्हें इसका स्मरण भी नहीं रहेगा। हे शत्रुघ्न! इस प्रकार राजा कल्माषपाद उस शाप को भोगकर पुनः राज्य प्राप्त कर धैर्यपूर्वक प्रजा का पालन करने लगे। उन्हीं राजा सौदास और राजा कल्माषपाद का यह सुन्दर यज्ञ-स्थल है।” यह कथा सुनकर शत्रुघ्न अपनी पर्णशाला में विश्राम करने चले गये।

      जिस दिन शत्रुघ्न वाल्मीकि के आश्रम में पहुँचे उसी रात को सीताजी ने एक साथ दो पुत्रों को जन्म दिया। तपस्विनी बालाओं से उनके जन्म का समाचार सुनकर महर्षि ने एक कुशाओं का मुट्ठा और उनके लव लेकर मन्त्रोच्चार द्वारा उनकी भावी बाधाओं से रक्षा करने की व्यवस्था की। फिर एक का कुश और दूसरे का लव से मार्जन कराया। इस प्रकार बड़े बालक का नाम कुश और दूसरे का लव रखा गया। शत्रुघ्न को भी यह समाचार पाकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई।

       अगले दिन प्रातःकाल सब कृत्यों से निवृत हो शत्रुघ्न मधुपुरी की ओर चल दिये। मार्ग में सात रात्रियाँ व्यतीत कर वे महर्षि च्यवन के आश्रम में पहुँचे।


मान्धाता की कथा

      रात्रि होने पर शत्रुघ्न ने महर्षि च्यवन से लवणासुर के विषय में अन्य जानकारी प्राप्‍त की तथा पूछा कि उस शूलसे कौन-कौन शूरवीर मारे गये हैं। च्यवन ऋषि बोले, “हे रघुनन्दन! शिवजी के इस त्रिशूल से अब तक असंख्य योद्धा मारे जाचुके हैं। तुम्हारे कुल में तुम्हारे पूर्वज राजा मान्धाता भी इसी के द्वारा मारे गये थे।”

       शत्रुघ्न द्वारा पूरा विवरण पूछे जाने पर महर्षि ने बताया, “हे राजन्! पूर्वकाल में महाराजा युवनाश्‍व के पुत्र महाबली मान्धाता ने स्वर्ग विजय की इच्छा से देवराज इन्द्र को युदध के लिये ललकारा। तब इन्द्र ने उनसे से कहा कि राजा! अभी तो तुम समस्त पृथ्वी को ही वश में नहीं कर सके हो, फिर देवलोक पर आक्रमण की इच्छा क्यों करते हो? तुम पहले मधुवन निवासी लवणासुर पर विजय प्राप्त करो। यह सुनकर राजा पृथ्वी पर लौट आये और लवणासुर से युद्ध करने के लिये उसके पास अपना दूत भेजा। परन्तु उस नरभक्षी लवण ने उस दूत का ही भक्षण कर लिया। जब राजा को इसका पता चला तो उन्होंने क्रोधित होकर उस पर बाणों की प्रचण्ड वर्षा प्रारम्भ कर दी। उन बाणों की असह्य पीड़ा से पीड़ित हो उस राक्षस ने शंकर से प्राप्त उस शूल को उठाकर राजा का वध कर डाला। इस प्रकार उस शूल में बड़ा बल है। हे रघुकुलश्रेष्ठ! मान्धाता को इस शूल के विषय में कोई जानकारी नहीं थी अतः वे धोखे में मारे गये। परन्तु तुम निःसन्देह ही उस राक्षस को मारने में सफल होगे।



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