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महाभारत - 14


अर्जुन का किरातवेषधारी शंकर से युद्ध व अर्जुन को दिव्यास्त्रों की प्राप्ति

      एक बार अर्जुन उत्तराखंड के पर्वतों को पार करते हुये एक अपूर्व सुन्दर वन में जा पहुँचे। वहाँ के शान्त वातावरण में इन्द्रकील पर्वत पर वे भगवान शंकर की तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या की परीक्षा लेने के लिये भगवान शंकर एक भील का वेष धारण कर उस वन में आये। वहाँ पर आने पर भील रूपी शिव जी ने देखा कि एक दैत्य शूकर का रूप धारण कर तपस्यारत अर्जुन की घात में है। शिव जी ने उस दैत्य पर अपना बाण छोड़ दिया।

      जिस समय शंकर भगवान ने दैत्य को देखकर बाण छोड़ा उसी समय अर्जुन की तपस्या टूटी और दैत्य पर उनकी दृष्टि पड़ी। उन्होंने भी अपना गाण्डीव धनुष उठा कर उस पर बाण छोड़ दिया। शूकर को दोनों बाण एक साथ लगे और उसके प्राण निकल गये। शूकर के मर जाने पर भीलरूपी शिव जी और अर्जुन दोनों ही शूकर को अपने बाण से मरा होने का दावा करने लगे। दोनों के मध्य विवाद बढ़ता गया और विवाद ने युद्ध का रूप धारण कर लिया। अर्जुन निरन्तर भील पर गाण्डीव से बाणों की वर्षा करते रहे किन्तु उनके बाण भील के शरीर से टकरा-टकरा कर टूटते रहे और भील शान्त खड़े हुये मुस्कुराता रहा। अन्त में उनकी तरकश के सारे बाण समाप्त हो गये। इस पर अर्जुन ने भील पर अपनी तलवार से आक्रमण कर दिया। अर्जुन की तलवार भी भील के शरीर से टकरा कर दो टुकड़े हो गई। अब अर्जुन क्रोधित होकर भील से मल्ल युद्ध करने लगे। मल्ल युद्ध में भी अर्जुन भील के प्रहार से मूर्छित हो गये।

       थोड़ी देर पश्चात् जब अर्जुन की मूर्छा टूटी तो उन्होंने देखा कि भील अब भी वहीं खड़े मुस्कुरा रहा है। भील की शक्ति देख कर अर्जुन को अत्यन्त आश्चर्य हुआ और उन्होंने भील को मारने की शक्ति प्राप्त करने के लिये शिव मूर्ति पर पुष्पमाला डाली, किन्तु अर्जुन ने देखा कि वह माला शिव मूर्ति पर पड़ने के स्थान पर भील के कण्ठ में चली गई। इससे अर्जुन समझ गये कि भगवान शंकर ही भील का रूप धारण करके वहाँ उपस्थित हुये हैं। अर्जुन शंकर जी के चरणों में गिर पड़े। भगवान शंकर ने अपना असली रूप धारण कर लिया और अर्जुन से कहा, “हे अर्जुन! मैं तुम्हारी तपस्या और पराक्रम से अति प्रसन्न हूँ और तुम्हें पशुपत्यास्त्र प्रदान करता हूँ।” भगवान शंकर अर्जुन को पशुपत्यास्त्र प्रदान कर अन्तर्धान हो गये।

       उसके पश्चात् वहाँ पर वरुण, यम, कुबेर, गन्धर्व और इन्द्र अपने-अपने वाहनों पर सवार हो कर आ गये। अर्जुन ने सभी देवताओं की विधिवत पूजा की। यह देख कर यमराज ने कहा, “अर्जुन! तुम नर के अवतार हो तथा श्री कृष्ण नारायण के अवतार हैं। तुम दोनों मिल कर अब पृथ्वी का भार हल्का करो।” इस प्रकार सभी देवताओं ने अर्जुन को आशीर्वाद और विभिन्न प्रकार के दिव्य एवं अलौकिक अस्त्र-शस्त्र प्रदान कर अपने-अपने लोकों को चले गये।

      अर्जुन के पास से अपने लोक को वापस जाते समय देवराज इन्द्र ने कहा, “हे अर्जुन! अभी तुम्हें देवताओं के अनेक कार्य सम्पन्न करने हैं, अतः तुमको लेने के लिये मेरा सारथि आयेगा।” इसलिये अर्जुन उसी वन में रह कर प्रतीक्षा करने लगे। कुछ काल पश्चात् उन्हें लेने के लिये इन्द्र के सारथि मातलि वहाँ पहुँचे और अर्जुन को विमान में बिठाकर देवराज की नगरी अमरावती ले गये। इन्द्र के पास पहुँच कर अर्जुन ने उन्हें प्रणाम किया। देवराज इन्द्र ने अर्जुन को आशीर्वाद देकर अपने निकट आसन प्रदान किया। अमरावती में रहकर अर्जुन ने देवताओं से प्राप्त हुये दिव्य और अलौकिक अस्त्र-शस्त्रों की प्रयोग विधि सीखा और उन अस्त्र-शस्त्रों को चलाने का अभ्यास करके उन पर महारत हासिल कर ली। फिर एक दिन इन्द्र अर्जुन से बोले, “वत्स! तुम चित्रसेन नामक गन्धर्व से संगीत और नृत्य की कला सीख लो।” चित्रसेन ने इन्द्र का आदेश पाकर अर्जुन को संगीत और नृत्य की कला में निपुण कर दिया।


अर्जुन को उर्वशी का शाप

      एक दिन जब चित्रसेन अर्जुन को संगीत और नृत्य की शिक्षा दे रहे थे, वहाँ पर इन्द्र की अप्सरा उर्वशी आई और अर्जुन पर मोहित हो गई। अवसर पाकर उर्वशी ने अर्जुन से कहा, “हे अर्जुन! आपको देखकर मेरी काम-वासना जागृत हो गई है, अतः आप कृपया मेरे साथ विहार करके मेरी काम-वासना को शांत करें।” उर्वशी के वचन सुनकर अर्जुन बोले, “हे देवि! हमारे पूर्वज ने आपसे विवाह करके हमारे वंश का गौरव बढ़ाया था अतः पुरु वंश की जननी होने के नाते आप हमारी माता के तुल्य हैं। देवि! मैं आपको प्रणाम करता हूँ।” अर्जुन की बातों से उर्वशी के मन में बड़ा क्षोभ उत्पन्न हुआ और उसने अर्जुन से कहा, “तुमने नपुंसकों जैसे वचन कहे हैं, अतः मैं तुम्हें शाप देती हूँ कि तुम एक वर्ष तक पुंसत्वहीन रहोगे।” इतना कहकर उर्वशी वहाँ से चली गई।

       जब इन्द्र को इस घटना के विषय में ज्ञात हुआ तो वे अर्जुन से बोले, “वत्स! तुमने जो व्यवहार किया है, वह तुम्हारे योग्य ही था। उर्वशी का यह शाप भी भगवान की इच्छा थी, यह शाप तुम्हारे अज्ञातवास के समय काम आयेगा। अपने एक वर्ष के अज्ञातवास के समय ही तुम पुंसत्वहीन रहोगे और अज्ञातवास पूर्ण होने पर तुम्हें पुनः पुंसत्व की प्राप्ति हो जायेगी।”


नल-दमयन्ती की कथा

      महात्मा अर्जुन जब अस्त्र प्राप्त के लिये इन्द्रलोक चले गये, तब पाण्डव काम्यक वन मेँ निवास कर रहे थे । वे राज्य के नाश और अर्जुन के वियोग से बङे ही दु:खी हो रहे थे । एक दिन की बात है, पाण्डव और द्रौपदी इसी सम्बन्ध मेँ कुछ चर्चा कर रहे थे । धर्मराज युधिष्ठिर भीमसेन को समझा ही रहे थे कि महर्षि बृहदश्व उनके आश्रम मेँ आते हुए दीख पड़े।

      महर्षि बृहदश्व को आते देखकर धर्मराज युधिष्ठिर ने आगे जाकर शास्त्र विधि के अनुसार उनकी पूजा की, आसन पर बैठाया। उनके विश्राम कर लेने पर युधिष्ठिर उनसे अपना वृतान्त कहने लगे । उन्होँने कहा, “महाराज ! कौरवोँ ने कपट-बुद्धि से मुझे बुलाकर छलके साथ जूआ खेला और मुझ अनजान को हराकर मेरा सर्वस्व छीन लिया । इतना ही नहीँ, उन्होँने मेरी प्राणप्रिया द्रौपदी को घसीटकर भरी सभा मेँ अपमानित किया । उन्होँने अन्त मेँ हमेँ काला मृगछाला ओढ़ाकर घोर वन मेँ भेज दिया । महर्षे ! आप ही बतलाइये कि इस पृथ्वी पर मुझ-सा भाग्यहीन राजा और कौन है ! क्या आपने मेरे जैसा दु:खी और कहीँ देखा या सुना है?”

      महर्षि बृहदश्व ने कहा - “धर्मराज! आपका यह कहना ठीक नहीँ है, क्योँकि मैँ तुमसे भी अधिक दुःखी और मन्दभाग्य राजा का वृतान्त जानता हूँ । तुम्हारी इच्छा हो तो मैँ सुनाऊँ। धर्मराज युधिष्ठिर के आग्रह करने पर महर्षि बृहदश्व ने कहना प्रारम्भ किया।

      “धर्मराज! निषध देश मेँ वीरसेन के पुत्र नल नाम के एक राजा हो चुके हैँ। वे बड़े गुणवान् , परम सुन्दर, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, सबके प्रिय, वेदज्ञ एवं ब्राह्मणभक्त थे। उनकी सेना बहुत बड़ी थी। वे स्वयं अस्त्रविद्या में बहुत निपुण थे। वे वीर, योद्धा, उदार और प्रबल पराक्रमी भी थे। उन्हें जुआ खेलने का भी कुछ-कुछ शौक था। उन्हीं दिनों विदर्भ देश मेँ भीम नामक राजा राज्य करते थे । वे भी नल के समान सर्वगुण सम्पन्न व पराक्रमी थे। उन्होँने दमन नामक ब्रह्मर्षि को प्रसन्न कर वरदान प्राप्त किया जिसके फलस्वरूप उसे तीन पुत्र -दम, दान्त तथा दमन और एक कन्या दमयंती की प्राप्ति हुई। दमयन्ती लक्ष्मी के समान रूपवती थी । उसके नेत्र विशाल थे । देवताओँ और यक्षोँ मेँ भी वैसी सुन्दरी कन्या कहीँ देखने मेँ नहीँ आती थी। उन दिनोँ कितने ही लोग विदर्भ से निषध देश मेँ आकर राजा नल के सामने दमयन्ती के गुणोँ का बखान करते। निषध देश से विदर्भ में जाने वाले भी दमयन्ती के सामने राजा नल के रूप, गुण और पवित्र चरित्र का वर्णन करते। इससे दोनों के हृदय में पारस्परिक अनुराग अंकुरित हो गया।

      एक दिन राजा नल ने अपने महल के उद्यान में कुछ हंसों को देखा। उन्होंने एक हंस को पकड़ लिया। हंस ने कहा - ‘आप मुझे छोड़ दीजिये तो हम लोग दमयन्ती के पास जाकर आपके गुणों का ऐसा वर्णन करेंगे कि वह आपको अवश्य-अवश्य वर लेगी।’ नल ने हंस को छोड़ दिया। वे सब उड़कर विदर्भ देश में गये। हंसोँ ने दमयन्ती के पास जाकर राजा नल के गुणोँ का बखान किया तथा कहा कि यदि तुम राजा नल की पत्नी हो जाओ तो तुम्हारा जन्म और रूप दोनोँ सफल हो जायेँ। जैसे तुम स्त्रियोँ मेँ रत्न हो, वैसे ही राजा नल पुरुषोँ मेँ भूषण है। तुम दोनोँ की जोड़ी बहुत ही सुन्दर होगी। दमयन्ती ने कहा- 'हंस! तुम नल से भी ऐसी ही बात कहना।' हंस ने निषध देश मेँ लौटकर नल से दमयन्ती का संदेश कह दिया।

      दमयन्ती हंस के मुँह से राजा नल की कीर्ति सुनकर उनसे प्रेम करने लगी। उसकी आसक्ति इतनी बढ़ गयी कि वह रात-दिन उनका ही ध्यान करती रहती। शरीर धूमिल और दुबला हो गया। वह दीन-सी दीखने लगी। सखियों ने दमयन्ती के हृदय का भाव ताड़कर विदर्भराज से निवेदन किया कि ‘आपकी पुत्री अस्वस्थ हो गयी है।’ राजा भीम ने अपनी पुत्री के सम्बन्ध में बड़ा विचार किया। अन्त में वह इस निर्णय पर पहुँचा कि मेरी पुत्री विवाह योग्य हो गयी है, इसलिये इसका स्वयंवर कर देना चाहिये। उन्होंने सब राजाओं को स्वयंवर का निमन्त्रण-पत्र भेज दिया और सूचित कर दिया कि राजाओं को दमयन्ती के स्वयंवर में पधारकर लाभ उठाना चाहिये और मेरा मनोरथ पूर्ण करना चाहिये। देश-देश के नरपति हाथी, घोड़े और रथों की ध्वनि से पृथ्वी को मुखरित करते हुए सज-धज कर विदर्भ देश में पहुँचने लगे। भीम ने सबके स्वागत सत्कार की समुचित व्यवस्था की।

      निषध देश के राजा नल ने भी इस स्वयंवर के लिये प्रस्थान किया। उधर देवलोक से राजा इन्द्र, वरुण, अग्नि तथा यम - देवता भी ‘दमयन्ती’ को प्राप्त करने के लिये चल दिये। देवताओं को भली-भाँति विदित था कि दमयन्ती, राजा ‘नल’ को चाहती है। स्वयंवर के लिए आते समय मार्ग में सूर्य के समान कीर्तिवान अति-सुन्दर राजा ‘नल’ के तेज को देखकर देवतागण आश्चर्यचकित रह गये। मध्य-मार्ग में ही वे राजा नल के पास गये और बोले कि राजन! सुना है आपकी सत्यवृत्ति की पताका आकाश में लहराती है। क्या इस स्वयंवर में आप हमारी सहायता के लिये हमारा दूत बनना स्वीकार करेंगे? राजा नल ने देवताओं का आग्रह स्वीकार कर लिया।

       देवताओं ने राजा की परीक्षा लेते हुए कहा कि हे राजन्! आप हमारे दूत के रूप में दमयन्ती से जाकर कहिए कि हम लोग उससे विवाह करना चाहते हैं। अतः हम में से वह किसी को भी अपना पति चुन ले। राजा नल ने नम्रता - पूर्वक कहा कि हे देवलोक वासियो! आप लोग जिस उद्देश्य से दमयन्ती के पास जा रहे हैं, उसी उद्देश्य से मैं भी उसके पास जा रहा हूँ अतः वहाँ मेरा, आपका दूत बनकर जाना उचित नहीं है। देवतागण कहने लगे कि हे राजन्! आप पहले ही हमारा दूत बनना स्वीकार कर चुके हैं। अतः अब आप अपनी मर्यादा को तजकर अपना वचन असत्य ना करें। राजा नल को देवताओं का आग्रह स्वीकार करना पड़ा। साथ ही साथ इन्द्र ने राजा नल को वरदान दिया कि दमयन्ती-स्वयंवर में प्रविष्ट होते समय आपको द्वारपाल आदि भी न देख सकेंगे, इससे आप सहज ही राजमहल में प्रवेश कर जायेंगे।

      तत्पश्चात् राजा नल, दमयन्ती के भवन में पहुँच गये। दमयन्ती तथा उसकी सखियाँ परम-सुन्दर युवा-पुरुष को अपने समीप आया देखकर आश्चर्य-चकित रह गयीं। वो अपनी सुध-बुध ही खो बैठीं। राजा नल ने दमयन्ती से अपना परिचय देकर कहा कि हे देवी! मैं इन्द्र, वरुण, यम और अग्नि-देवता का दूत बनकर आपके पास आया हूँ। ये देवतागण आपसे विवाह करना चाहते हैं, अतः आप इनमें से किसी को भी अपना ‘वर’ चुन सकती हैं। दमयन्ती ने राजा नल का परिचय पाकर कहा कि हे नरेन्द्र! मैं तो पहले ही अपने मन में आपको अपना ‘वर’ मान चुकी हूँ। मैंने आपके चरणों में अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है। अतः कृपया अब आप अपनी इस तुच्छ दासी को, अपने चरणों में स्थान दीजिये। यदि आप मुझे स्वीकार नहीं करेंगे तो मैं विष खाकर या आग में जलकर अथवा जल में डूबकर या फिर फांसी लगाकर अपने प्राण त्याग दूंगी। राजा नल ने बड़ी सच्चाई से ‘दूत’ के कर्तव्य का पालन किया। वो अपने कर्तव्य पर अडिग रहे। यद्यपि वे स्वयं दमयन्ती को चाहते थे, फिर भी उन्होंने देवगणों के ऐश्वर्य, प्रभाव आदि का वर्णन करके दमयन्ती को समझाने का पूर्ण प्रयत्न किया। लेकिन दमयन्ती स्वर्ग के ऐश्वर्य तथा मरीचिका से तनिक भी प्रभावित नहीं हुई। राजा नल ने कहा, “हे देवी! देवताओं को छोड़कर आपका मुझ मनुष्य को चाहना, कदापि उचित व तर्क-संगत नहीं है। अतः आप अपना मन उन्हीं में लगाओ। देवताओं को क्रोधित करने से मनुष्य की मृत्यु भी हो जाती है। अतः आपको मेरी बात मान लेनी चाहिए।” यह सुनकर दमयन्ती डर गयी और उसके नेत्रों से अश्रुधरा प्रवाहित होने लगी। दमयन्ती कहने लगी कि हे राजन्! मैं देवताओं को नतमस्तक होकर, मन में आपको ही अपना पति मानती हूँ। अब कोई दूसरा उपाय सोचने योग्य नहीं रहा। फिर भी राजा नल ने दमयन्ती को स्वयंवर में देवताओं को ही अपना वर चुनने का परामर्श दिया तथा वहाँ से विदा ली। लौटकर देवताओं को राजा नल ने समस्त वृतान्त कह सुनाया।

      स्वयंवर की सभा प्रारम्भ होने पर चारों देवता राजा नल के समान अपना ‘रूप’ धारण करके, राजा नल के पास बैठ गए। जब दमयन्ती वरमाला लेकर स्वयंवर-सभा में आयी तथा उसने राजा नल के समान पाँच पुरुषों को पदासीन देखा तो वह ‘नल’ को न पहचान सकी और अत्यन्त सोच में पड़ गई। उसे बड़ा दुःख हुआ। अन्त में उसने इस समस्या के समाधान के लिये देवताओं की शरण में जाने का निश्चय किया। दमयन्ती कहने लगी, “हे परम-पूज्य देवगणों! आपको विदित ही है कि मैं पहले ही मन तथा वाणी से राजा नल को अपना पति-परमेश्वर स्वीकार कर चुकी हूँ। राजा नल की प्राप्ति के लिये मैं चिरकाल से तप तथा व्रत भी कर रही हूँ। अतः हे भगवन्! यदि मैं पतिव्रता हूँ तो मेरे सत्य के प्रताप से देवलोक के देवतागण मुझे मेरे राजा नल के दर्शन करा दें तथा ऐश्वर्यशाली देवतागण भी अपने आपको प्रकट करें, जिससे मैं नरपति नल को पहचान सकूं।” पतिव्रता का तिरस्कार करने का साहस तो देवताओं को भी नहीं होता। दमयन्ती की इस प्रार्थना से प्रसन्न होकर देवताओं ने उसे ‘देवता’ तथा ‘मनुष्य’ में भेद करने की शक्ति प्रदान कर दी। उसने देखा कि पाँच में से चार पुरुषों के शरीर पर न तो पसीना है, न धूल है तथा उनके शरीर की ‘छाया’ पृथ्वी पर नहीं पड़ रही है और वे पृथ्वी को स्पर्श भी नहीं कर रहे हैं व उनकी माला के ‘पुष्प’ तनिक भी नहीं कुंभला रहे हैं। दमयन्ती ने सभी देवताओं को पहचान कर उन्हें प्रणाम किया। पाँचवे ‘पुरुष’ को जिसके शरीर पर कुछ धूल पड़ी थी, कुछ पसीना आ गया था व उसके शरीर की छाया भी पृथ्वी पर पड़ रही थी तथा वह भूमि को स्पर्श भी कर रहा था और उसकी माला के पुष्प कुछ कुंभला गये थे, दमयन्ती ने पहचान लिया कि ये ही राजा नल हैं। उसने तुरन्त उनके कंठ में जयमाला डाल दी। इस प्रकार अपनी दृढ़-निष्ठा तथा पतिव्रता के प्रभाव से, दमयन्ती ने पति रूप में राजा नल को ही प्राप्त किया।

      देवताओँ ने प्रसन्न होकर नल को आठ वरदान दिये–
1. इन्द्र ने वर दिया कि नल को यज्ञ में प्रत्यक्ष दर्शन देंगे, तथा
2. सर्वोत्तम गति प्रदान करेंगे।
3.अग्नि ने वर दिये कि वे नल को अपने समान तेजस्वी लोक प्रदान करेंगे तथा
4. नल जहां चाहे, वे प्रकट हो जायेंगे।
5. यमराज ने पाकशास्त्र में निपुणता तथा
6. धर्म में निष्ठा के वर दिये।
7. वरुण ने नल की इच्छानुसार जल के प्रकट होने तथा
8. उसकी मालाओं में उत्तम गंध-संपन्नता के वर दिये।

       देवतागण जब देवलोक की ओर जा रहे थे तब मार्ग में उन्हें कलि और द्वापर साथ-साथ जाते हुए मिले। वे लोग भी दमयंती के स्वयंवर में सम्मिलित होना चाहते थे। इन्द्र से स्वयंवर में नल के वरण की बात सुनकर कलि युग क्रुद्ध हो उठा, उसने नल को दंड देने के विचार से उसमें प्रवेश करने का निश्चय किया। उसने द्वापर युग से कहा कि वह जुए के पासे में निवास करके उसकी सहायता करे।

      कालांतर में नल दमयंती की दो संतानें हुईं। पुत्र का नाम इन्द्रसेन था तथा पुत्री का इन्द्रसेनीं। कलि ने सुअवसर देखकर नल के शरीर में प्रवेश किया तथा दूसरा रूप धारण करके वह पुष्कर के पास गया। पुष्कर नल का भाई लगता था। उसे कलि ने उकसाया कि वह जुए में नल को हराकर समस्त राज्य प्राप्त कर ले। पुष्कर नल के महल में उससे जुआ खेलने लगा। नल ने अपना समस्त वैभव, राज्य इत्यादि जुए पर लगाकर हार दिया। हारने के लिए अपनी पत्नी दमयंती के अलावा कुछ भी शेष नहीं बचा। अपनी पत्नी दमयंती को भी दांव पर लगाने ही वाले थे कि अच्छे विचारों ने उन्हें ऐसा करने से रोक लिया। उन्हें याद आ गया कि यह वहीं दमयंती है जो उनकी धर्मपत्नी हैं। जब उसके साथ विवाह हुआ था तो आशीर्वाद देने के लिए इन्द्र आदि देवताओं को भी आना पडा था। लेकिन जब तक उनके मन में अच्छे विचार आते, तब तक तो वे अपना सर्वस्व खो चुके थें। जुए में सब हारने के बाद अपना भरा-पूरा राजपाट छोड कर दमयंती के साथ महल से बाहर निकल गए। दमयंती ने अपने सारथी को बुलाकर दोनों बच्चों को अपने भाई-बंधुओं के पास कुण्डिनपुर (विदर्भ देश में) भेज दिया। इधर राजा पुष्कर ने अपने नगर में घोषणा करदी थी कि ’जो कोई राजा नल या उनकी पत्नी दमयंती की किसी भी प्रकार मदद करेगा तो उसे फांसी की सजा दे दी जाएगी।‘ इसलिए राजा नल की चाह कर भी उनकी प्रजा ने कोई मदद नहीं की। तीन दिनों तक अपने नगर में भूखे-प्यासें भटकने के बाद वे जंगल की ओर चल पडे। नल और दमयंती एक-एक वस्त्र में राज्य की सीमा से बाहर चले गये।

       वे एक जंगल में पहुंचे। वहां बहुत-सी सुंदर चिड़ियां बैठी थीं, जिनकी आंखें सोने की थीं। नल ने अपना वस्त्र उतारकर उन चिड़ियों पर डाल दिया ताकि उन्हें पकड़कर उदराग्नि को तृप्त कर सके और उनकी आंखों के स्वर्ण से धनराशि का संचय करे, किंतु चिड़िया उस धोती को ले उड़ीं तथा यह भी कहती गयीं कि वे जुए के पासे थे जिन्होंने चिड़ियों का रूप धारण कर रखा था तथा वे धोती लेने की इच्छा से ही वहां पहुंची थीं।

      नग्न नल अत्यंत व्याकुल हो उठा। बहुत थक जाने के कारण जब दमयंती को नींद आ गयी तब नल ने उसकी साड़ी का आधा भाग काटकर धारण कर लिया और उसे जंगल में छोड़कर चला गया।

      जंगल मेँ भटकती हुई दमयंती को एक अजगर ने पकड़ लिया। उसका विलाप सुनकर किसी व्याध ने अजगर से तो उसकी प्राण रक्षा कर दी किंतु कामुकता से उसकी ओर बढ़ा। दमयंती ने देवताओं का स्मरण कर कहा कि यदि वह पतिव्रता है तो उसकी सुरक्षा हो जाय। वह व्याध तत्काल भस्म होकर निष्प्राण हो गया। थोड़ी दूर चलने पर दमयंती को एक आश्रम दिखलायी पड़ा। दमयंती ने वहां के तपस्वियों से अपनी दुःख गाथा कह सुनायी और उनसे पूछा कि उन्होंने नल को कहीं देखा तो नहीं है। वे तपस्वी ज्ञानवृद्ध थे। उन्होंने उसके भावी सुनहरे भविष्य के विषय में बताते हुए कहा कि नल अवश्य ही अपना राज्य फिर से प्राप्त कर लेगा और दमयंती भी उससे शीघ्र ही मिल जायेगी। भविष्यवाणी के उपरांत दमयंती देखती ही रह गयी कि वह आश्रम, तपस्वी, नदी, पेड़, सभी अंतर्धान हो गये। तदनंतर उसे शुचि नामक व्यापारी के नेतृत्व में जाती हुई एक व्यापार मंडली मिली। वे लोग चेदि राज सुबाहु के जनपद की ओर जा रहे थे। कृपाकांक्षिणी दमयंती को भी वे लोग अपने साथ ले चले। मार्ग में जंगली हाथियों ने उन पर आक्रमण कर दिया। धन, वैभव, जन आदि सभी प्रकार का नाश हुआ। कई लोगों का मत था कि दमयंती नारी के रूप में कोई मायावी राक्षसी अथवा यक्षिणी रही होगी, उसी की माया से यह सब हुआ। उनके मन्तव्य को जानकर दमयंती का दुःख द्विगुणित हो गया। सुबाहु की राजधानी में भी लोगों ने उसे अन्मत्त समझा क्योंकि वह कितने ही दिनों से बिखरे बाल, धूल से मंडित तन तथा आधी साड़ी में लिपटी देह लिए घूम रही थीं अपने पति की खोज में उसकी दयनीय स्थिति जानकर राजमाता ने उसे आश्रय दिया।

      दमयंती ने राजमाता से कहा कि वह उनके आश्रय में किन्हीं शर्तों पर रह सकेगी; वह जूठन नहीं खायेंगी, किसी के पैर नहीं धोयेगी, ब्राह्मण से इतर पुरुषों से बात नहीं करेगी, कोई उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करे तो वह दंडनीय होगा। दमयंती ने अपना तथा नल का नामोल्लेख नहीं किया। वहां की राजकुमारी सुनंदा की सखी के रूप में वह वहां रहने लगी। दमयंती के माता-पिता तथा बंधु-बांधव उसे तथा नल को ढूंढ़ निकालने के लिए आतुर थे। उन्होंने अनेक ब्राह्मणों को यह कार्य सौंपा हुआ था। दमयंती के भाई के मित्र सुदैव नामक ब्राह्मण ने उसे खोज निकाला। सुदैव ने उसके पिता आदि के विषय में बताकर राजमाता उसकी मौसी थी किंतु वे परस्पर पहचान नहीं पायी थीं। दमयंती मौसी की आज्ञा लेकर विदर्भ निवासी बंधु-बांधवों, माता-पिता तथा अपने बच्चों के पास चली गयी। उसके पिता नल की खोज के लिए आकुल हो उठे।

      दमयंती को छोड़कर जाते हुए नल ने दावालन में घिरे हुए किसी प्राणी का आर्तनाद सुना वह निर्भीकतापूर्वक अग्नि में घुस गया। अग्नि के मध्य कर्कोटक नामक नाग बैठा था, जिसे नारद ने तब तक जड़वत निश्चेष्ट पड़े रहने का शाप दिया था जब तक राजा नल उसका उद्धार न करे। नाग ने एक अंगूठे के बराबर रूप धारण कर लिया और अग्नि से बाहर निकालने का अनुरोध किया। नल ने उसकी रक्षा की, तदुपरांत कर्कोटक ने नल को डंस लिया, जिससे उसका रंग काला पड़ गया। उसने राजा को बताया कि उसके शरीर में कलि निवास कर रहा है, उसके दुःख का अंत कर्कोटक के विष से ही संभव है। दुःख के दिनों में श्यामवर्ण प्राप्त राजा को लोग पहचान नहीं पायेंगे। अतः उसने आदेश दिया कि नल बाहुक नाम धर कर इक्ष्वाकु कुल के ऋतुपर्ण नामक अयोध्या के राजा के पास जाये। राजा को अश्वविद्या का रहस्य सिखाकर उससे द्यूतक्रीड़ा का रहस्य सीखले। राजा नल को सर्प ने यह वर दिया कि उसे कोई भी दाढ़ी वाला जंतु तथा वेदवेत्ताओं का शाप त्रस्त नहीं कर पायेगा। सर्प ने उसे दो दिव्य वस्त्र भी दिये जिन्हें ओढ़कर वह पूर्व रूप धारण कर सकता था। तदनंतर कर्कोंटक अंतर्धान हो गया। नल ऋतुपर्ण के यहाँ गया तथा उसने राजा से निवेदन किया कि उसका नाम बाहुक है और वह पाकशास्त्र, अश्वविद्या तथा विभिन्न शिल्पों का ज्ञाता हे। राजा ने उसे अश्वाध्यक्ष के पद पर नियुक्त कर लिया।

      विदर्भ राज का पर्णाद नामक ब्राह्मण नल को खोजता हुआ अयोध्या में पहुंचा। विदर्भ देश में लौटकर उसने बताया कि वाहुक नामक सारथी का क्रिया कलाप संदेहास्पद है। वह नल से बहुत मिलता है। दमयंती ने पिता से गोपन रखते हुए मां की अनुमति से सुदेव नामक ब्राह्मण के द्वारा ऋतुपर्ण को कहलाया कि अगले दिन दमयंती का दूसरा स्वयंवर है। अत: वह पहुंचे। ऋतुपर्ण ने बाहुक से सलाह करके विदर्भ देश के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में राजा ने बाहुक से कहा कि अमुक पेड़ पर अमुक संख्यक फल हैं। बाहुक वचन की शुद्धता जानने के लिए पेड़ के पास रूक गया तथा उसके समस्त फल गिनकर उसने देखा कि वस्तुत: उतने ही फल हैं। राजा ने बताया कि वह गणित और द्यूत-विद्या के रहस्य को जानता है। ऋतुपर्ण ने बाहुक को द्यूत विद्या सिखा दी तथा उसके बदले में अश्व-विद्या उसी के पास धरोहर रूप में रहने दी। बाहुक के द्यूत विद्या सीखते ही उसके शरीर से कलि युग निकलकर बहेड़े के पेड़ में छिप गया, फिर क्षमा मांगता हुआ अपने घर चला गया। विदर्भ देश में स्वयंवर के कोई चिह्न नहीं थे। ऋतुपर्ण तो विश्राम करने चला गया किंतु दमयंती ने केशिनी के माध्यम से बाहुक की परीक्षा ली। वह स्वेच्छा से जल तथा अग्नि को प्रकट कर सकता था। उसके चलाये रथकी गति वैसी ही थी जैसे राजा नल की हुआ करती थी। बाहुक अपने बच्चों से मिलकर ख़ूब रोया भी था। दमयंती को रूप के अतिरिक्त किसी भी वस्तु में बाहुक तथा नल में विषमता नहीं दीख पड़ रही थी।उसने गुरुजनों की आज्ञा लेकर उसे अपने कक्ष में बुलाया। नल को भली भांति पहचानकर दमयंती ने उसे बताया कि नल को ढूंढ़ने के लिए ही दूसरे स्वयंवर की चर्चा की गयी थी। ऋतुपर्ण को अश्व-विद्या देकर नल ने पुष्कर से पुन: जुआ खेला। उसने दमयंती तथा धन की बाजी लगा दीं पुष्कर संपूर्ण धन धान्य और राज्य हारकर अपने नगर चला गया। नल ने पुन: अपना राज्य प्राप्त किया।

      बृहदश्वजी कहते हैँ - युधिष्ठिर! तुम्हेँ भी थोड़े ही दिनोँ मेँ तुम्हारा राज्य और सगे-सम्बन्धी मिल जायेँगे। राजा नल ने जूआ खेलकर बड़ा भारी दुःख मोल ले लिया था। उसे अकेले ही सब दुःख भोगना पड़ा, परन्तु तुम्हारे साथ तो भाई हैँ, द्रौपदी है और बड़े बड़े विद्वान तथा सदाचारी ब्राह्मण हैँ। ऐसी दशा मेँ शोक करने का तो कोई कारण ही नही है। संसार की स्थितियाँ सर्वदा एक-सी नहीँ रहती। यह विचार करके भी उनकी अभिवृद्धि और ह्रास से चिन्ता नहीँ करनी चाहिये। नागराज कर्कोटक, दमयन्ती, नल और ऋतुपर्ण की यह कथा कहने-सुनने से कलियुग के पापोँ का नाश होता है और दुःखी मनुष्योँ को धैर्य मिलता है।”



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