महाभारत - 15 पाण्डवों की तीर्थयात्रा जब अर्जुन इन्द्रपुरी से कई दिनोँ तक लौटकर नहीँ आये तो शेष पाण्डवगण दुःखी होकर उन्हीं के विषय में बातें कर रहे थे कि वहाँ पर लोमश ऋषि पधारे। धर्मराज युधिष्ठिर ने उनका यथोचित आदर-सत्कार करके उच्चासन प्रदान किया। लोमश ऋषि बोले, “हे पाण्डवगण! आप लोग अर्जुन की चिन्ता छोड़ दीजिये। मैं अभी देवराज इन्द्र की नगरी अमरावती से आ रहा हूँ। अर्जुन वहाँ पर सुखपूर्वक निवास कर रहे हैं। उन्होंने भगवान शिव एवं अन्य देवताओं की कृपा से दिव्य तथा अलौकिक अस्त्र-शस्त्र तथा चित्रसेन से नृत्य-संगीत कला की शिक्षा भी प्राप्त कर लिया है। वे अब निवात और कवच नामक असुरों का वध करके ही यहाँ आयेंगे। देवराज इन्द्र ने आपके लिये यह संदेश भेजा है कि आप पाण्डवगण अब तीर्थयात्रा करके अपने आत्मबल में वृद्धि करें।" देवराज इन्द्र के दिये गये संदेश के अनुसार युधिष्ठिर अपने भाइयों, पुरोहित धौम्य, लोमश ऋषि आदि को साथ ले कर तीर्थयात्रा के लिये चल पड़े। वे लोग नैमिषारण्य, कन्या-तीर्थ, अश्व-तीर्थ, गौ-तीर्थ आदि में दर्शन-स्नानादि करते हुये अगस्त्य ऋषि के आश्रम आ पहुँचे। लोमश ऋषि ने उस आश्रम की प्रशंसा करते हुये बताया, “हे धर्मराज! यह अगस्त्य मुनि एवं उनकी धर्मात्मा पत्नी लोपामुद्रा की पवित्र तपस्थली है। एक बार अगस्त्य मुनि यहाँ घूमते हुये पहुँचे तो उन्होंने एक गड्ढे में अपने पूर्वजों को उल्टे लटकते देखा। अगस्त्य मुनि के द्वारा उनके इस प्रकार से लटकने का कारण पूछने पर पूर्वजों ने बताया कि हे पुत्र! तुम्हारे निःसंतान होने के कारण हमें यह नरक कुण्ड मिला है। इसलिये शीघ्र अपना विवाह कर पुत्र उत्पन्न करो, जिससे हमारा उद्धार हो। पितृगणों की बात से दुःखी होकर अगस्त्य एक सुयोग्य पत्नी की खोज में निकले और विदर्भ देश की राजकुमारी लोपामुद्रा से विवाह कर लिया। जब अगस्त्य मुनि ने लोपामुद्रा के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर पुत्रोत्पत्ति की अभिलाषा से उसे अपने पास आने के लिये कहा तो लोपामुद्रा बोली कि हे स्वामी! मैं राजकुमारी हूँ इसलिये आपका मेरे साथ समागम भी राजोचित ढंग से होना चाहिये। पहले आप धन की व्यवस्था कर के मेरे और स्वयं के लिये सुन्दर वस्त्र तथा स्वर्णाभूषण ले कर आइये। अपनी पत्नी की वाणी से प्रभावित होकर अगस्त्य मुनि धन माँगने के लिये राजा श्रुतर्वा, व्रघ्नश्व तथा इक्ष्वाकु वंशी त्रसदृस्यु के पास गये किन्तु सभी राजाओं का कोष खाली होने के कारण उन राजाओं ने क्षमा प्रार्थना करते हुये अगस्त्य मुनि को धन देने में असमर्थता प्रकट कर दी। निराश होकर अगस्त्य मुनि इल्वल नामक दैत्य के पास पहुँचे। इल्वल दैत्य ने प्रसन्नता के सा उन्हें मुँहमाँगा धन प्रदान कर दिया। धन प्राप्त करके अगस्त्य मुनि ने अपनी पत्नी की इच्छापूर्ति की और दृढस्यु नामक पुत्र उत्पन्न किया। कालान्तर में यह तीर्थस्थान अगस्त्याश्रम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी तीर्थस्थान में स्नान करके परशुराम ने अपना तेज पुनः प्राप्त किया था। इसलिये हे युधिष्ठिर! यहाँ स्नान करके आप दुर्योधन के द्वारा छीने गये अपने तेज को पुनः प्राप्त कीजिये।” लोमश ऋषि के आदेशानुसार वहाँ स्नान-पूजा आदि करके युधिष्ठिर ने लोमश ऋषि से पूछा, “हे प्रभो! कृपा करके यह बताइये कि परशुराम निस्तेज कैसे हुये थे?” लोमश ऋषि ने उत्तर दिया, “धर्मराज! दशरथनन्दन श्री राम जब शिव जी के धनुष को तोड़कर सीता जी से विवाह कर अपने पिता, भाइयों, बारातीगण आदि के साथ अयोध्या लौट रहे थे तो एक बड़े जोरों की आँधी आई जिससे वृक्ष पृथ्वी पर गिरने लगे। तभी राजा दशरथ की दृष्टि भृगुकुल के परशुराम पर पड़ी। उनकी वेशभूषा बड़ी भयंकर थी। तेजस्वी मुख पर बड़ी बड़ी जटायें बिखरी हुई थीं नेत्रों में क्रोध की लालिमा थी। कन्धे पर कठोर फरसा और हाथों में धनुष बाण थे। ऋषियों ने आगे बढ़ कर उनका स्वागत किया और इस स्वागत को स्वीकार करके वे श्री रामचन्द्र से बोले, “दशरथनन्दन राम! हमें ज्ञात हुआ है कि तुम बड़े पराक्रमी हो और तुमने शिव जी के धनुष को तोड़ डाला है और उसे तोड़कर तुमने अपूर्व ख्याति प्राप्त की है। मैं तुम्हारे लिये एक अच्छा धनुष लाया हूँ। यह धनुष साधारण नहीं है, जमदग्निकुमार परशुराम का है। इस पर बाण चढ़ाकर तुम अपने शौर्य का परिचय दो। तुम्हारे बल और शौर्य को देखकर मैं तुमसे द्वन्द्व युद्ध करूँगा। परशुराम की बात सुनकर राजा दशरथ विनीत स्वर मे बोले, “भगवन्! आप वेदविद् स्वाध्यायी ब्राह्मण हैं। क्षत्रियों का विनाश करके आप बहुत पहले ही अपने क्रोध का शमन कर चुके हैं। इसलिये हे ऋषिराज! आप इन बालकों को अभय दान दीजिये।” किन्तु परशुराम जी ने दशरथ की अनुनय-विनय पर कोई ध्यान न देते हुये राम से कहा, “राम! सम्भवतः तुम्हें ज्ञात नहीं होगा कि संसार में केवल दो ही धनुष सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। सारा संसार उनका सम्मान करता हैं विश्वकर्मा ने उन्हें स्वयं अपने हाथों से बनाया था। उनमें से पिनाक नामक एक धनुष को देवताओं ने भगवान शिव को दिया था। इसी धनुष से भगवान शिव ने त्रिपुरासुर का वध किया था। तुमने उसी धनुष को तोड़ डाला है। दूसरा दिव्य धनुष मेरे हाथ में है। इसे देवताओं ने भगवान विष्णु को दिया था। यह भी पिनाक की भाँति ही शक्तिशाली है। विष्णु ने भृगुवंशी ऋचीक मुनि को धरोहर के रूप में वह धनुष दे दिया। वंशानुवंश रूप से यह धनुष मुझे प्राप्त हुआ है। अब तुम एक क्षत्रिय के नाते इस धनुष को लेकर इस पर बाण चढ़ाओ और सफल होने पर मेरे साथ द्वन्द्व युद्ध करो। परशुराम के द्वारा बार-बार ललकारे जाने पर रामचन्द्र बोले, “हे भार्गव! मैं ब्राह्मण समझकर आपके सामने विशेष बोल नहीं रहा हूँ। किन्तु आप मेरी इस विनशीलता को पराक्रमहीनता एवं कायरता समझकर मेरा तिरस्कार कर रहे हैं। लाइये, धनुष बाण मुझे दीजिये।” यह कह कर उन्होंने झपटते हुये परशुराम के हाथ से धनुष बाण ले लिये। फिर धनुष पर बाण चढ़ाकर बोले, “हे भृगुनन्दन! ब्राह्मण होने के कारण आप मेरे पूज्य हैं, इसलिये इस बाण को मैं आपके ऊपर नहीं छोड़ सकता। परन्तु धनुष पर चढ़ने के बाद यह बाण कभी निष्फल नहीं जाता। इसका कहीं न कहीं उपयोग करना ही पड़ता है। इसलिये इस बाण के द्वारा आपकी सर्वत्र शीघ्रतापूर्वक आने-जाने की शक्ति को नष्ट किये देता हूँ।” श्री राम की यह बात सुनकर शक्तिहीन से हुये परशुराम जी विनयपूर्वक कहने लगे, “बाण छोड़ने से पूर्व मेरी एक बात सुन लीजिये। क्षत्रियों को नष्ट करके जब मैंने यह भूमि कश्यप जी को दान में दी थी तो उन्होंने मुझसे कहा था कि अब तुम्हें पृथ्वी पर नहीं रहना चाहिये क्योंकि तुमने पृथ्वी का दान कर दिया है। तभी से गुरुवर कश्यप जी की आज्ञा का पालन करता हुआ मैं कभी रात्रि में पृथ्वी पर निवास नहीं करता। अतः हे राम! कृपा करके मेरी गमन शक्ति को नष्ट मत करो। मैं मन के समान गति से महेन्द्र पर्वत पर चला जाऊँगा। चूँकि इस बाण का प्रयोग निष्फल नहीं जाता, इसलिये आप उन अनुपम लोकों को नष्ट कर दें जिन पर मैँने अपनी तपस्या से विजय प्राप्त की है। आपने जिस सरलता से इस धनुष पर बाण चढ़ा दिया है, उससे मुझे विश्वास हो गया है कि आप मधु राक्षस का वध करने वाले साक्षात् विष्णु हैं।” परशुराम की प्रार्थना को स्वीकार करके राम ने बाण छोड़कर उनके द्वारा तपस्या के बल पर अर्जित किये गये समस्त पुण्यलोकों को नष्ट कर दिया और इससे परशुराम जी निस्तेज हो गये। फिर परशुराम जी तपस्या करने के लिये महेन्द्र पर्वत पर चले गये। वहाँ उपस्थित सभी ऋषि-मुनियों सहित राजा दशरथ ने रामचन्द्र की भूरि भूरि प्रशंसा की। पाण्डवगण उत्तराखंड के अनेक मनमोहक दृश्यों को देखते हुये ऋषि आर्ष्टिषेण के आश्रम में आ पहुँचे। उनका यथोचित स्वागत सत्कार करने के पश्चात् महर्षि आर्ष्टिषेण बोले, “हे धर्मराज! आप लोगों को अब गन्धमादन पर्वत से और आगे नहीं जाना चाहिये क्योंकि इसके आगे केवल सिद्ध तथा देवर्षिगण ही जा सकते हैं। अतः आप लोग अब यहीं रहकर अर्जुन के आने की प्रतीक्षा करें।” इस प्रकार पाण्डवों की मण्डली महर्षि आर्ष्टिषेण के आश्रम मेंही रह कर अर्जुन के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे। उस प्रतीक्षा-काल में भीम ने वहाँ निवास करने वाले समस्त दुष्टों और राक्षसों का अन्त कर दिया। उधर जब अर्जुन देवराज की पुरी अमरावती में रह रहे थे तो एक दिन इन्द्र ने उनसे कहा, “हे पार्थ! यहाँ रहकर तुम समस्त अस्त्र-शस्त्रादि विद्याओं में पारंगत हो चुके हो और तुम्हारे जैसा धनुर्धर इस जगत में कदाचित ही कोई दूसरा होगा। अब तुम मेरे शत्रु निवातकवच नामक दैत्य से युद्ध करके उसका वध करो। यही तुम्हारे लिये गुरुदक्षिणा होगी।” इतना कहने के बाद इन्द्रने अर्जुन को अमोघ कवच पहनाकर तथा अपने दिव्य रथ में बिठाकर अर्जुन को निवातकवच के साथ युद्ध के लिये भेज दिया। उस रथ में बैठकर अर्जुन निवातकवच की नगरी में पहुँचे जो कि समुद्र में बसा था। यह देखकर कि वह नगरी इन्द्र की पुरी अमरावती से भी अधिक मनोरम थी, अर्जुन आश्चर्यचकित रह गये। उनके आश्चर्य का निवारण करने के लिये इन्द्र के सारथी मातलि बोले, “हे अर्जुन! पहले देवराज इन्द्र समस्त देवताओं सहित इसी नगरी में निवास करते थे। किन्तु ब्रह्मा जी से वर प्राप्त कर निवातकवच अत्यन्त प्रबल हो गया और इन्द्र पर विजय प्राप्त कर लिया फलस्वरूप देवराज को इस नगरी को छोड़कर अमरावती में जाना पड़ा।” मातलि की बात सुनकर अर्जुन ने अपने शंख की ध्वनि से उस नगरी को गुँजा दिया। शंख की ध्वनि सुनकर निवातकवच अपने अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर अर्जुन से युद्ध करने आ गया। दोनों महारथियों में घोर युद्ध होने लगा और अन्त में अर्जुन के हाथों निवातकवच मारा गया। निवातकवच के वध करके वापस आने पर देवराज इन्द्र ने उनके पराक्रम की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुये कहा, “हे पार्थ! अब यहाँ पर आपका कार्य समाप्त हुआ। आपके भाई गन्धमादन पर्वत पर आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। चलिये मैं आपको अब उनके पास पहुँचा दूँ।” इस प्रकार अर्जुन देवराज इन्द्र के साथ उनके रथ में बैठकर गन्धमादन पर्वत में अपने भाइयों के पास आ पहुँचे। धर्मराज युधिष्ठिर ने देवराज इन्द्र का विधिवत् पूजन किया। अर्जुन भी ऋषिगणों, ब्राह्मणों, युधिष्ठिर तथा भीमसेन के चरण स्पर्श करने के पश्चात् नकुल, सहदेव तथा मण्डली के अन्य सदस्यों से गले मिले। इसके पश्चात देवराज इन्द्र उस मण्डली की गन्धमादन पर्वत पर स्थित कुबेर के महल में रहने की व्यवस्था कर वापस अपने लोक चले गये। पांडवोँ का द्वैतवन मेँ जाना तथा युधिष्ठिर द्वारा दुर्योधन की रक्षा गन्धमादन पर्वत स्थित कुबेर के महल में चार वर्ष व्यतीत करने के पश्चात् पाण्डवगण ने वहाँ से प्रस्थान किया और मार्ग में अनेक वनों में रुकते-रुकाते, स्थान-स्थान पर अपने शौर्य और पराक्रम से दुष्टों का दमन करते,ऋषियों और ब्राह्मणों के सत्संग का लाभ उठाते वे द्वैतवन पहुँचे और वहीं रहकर वनवास का शेष समय व्यतीत करने लगे। अब तक वनवास के ग्यारह वर्ष पूर्ण हो चुके थे। पाण्डवों के द्वैतवन में होने की सूचना दुर्योधन तथा उसकी दुष्ट मण्डली (दुःशासन, शकुनि, कर्ण आदि) को मिली । वे एक बार फिर वहाँ जाकर पाण्डवों को मार डालने की योजना बनाने लगे। संयोगवश उन दिनों कौरवों की गौ-सम्पत्ति द्वैतवन में ही थी। अपनी गौ-सम्पत्ति अंकेक्षण, निरीक्षण आदि करने के बहाने दुर्योधन ने धृतराष्ट्र से द्वैतवन जाने की अनुमति प्राप्त कर लिया। इस प्रकार दुर्योधन और उसकी दुष्ट मण्डली ने अपनी एक विशाल सेना के साथ द्वैतवन में पहुँचकर वहाँ अपना डेरा डाल दिया। वे अपना राजसी ठाट-बाट का प्रदर्शन कर पाण्डवों को जलाना भी चाहते थे, इसलिये बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित राजमहिलाओं को भी उन्होंने अपने साथ रख लिया था। एक दिन वे जल विहार करने के उद्देश्य से दुर्योधन अपनी मण्डली तथा राज महिलाओं के साथ द्वैतवन में स्थित मनोरम सरोवर में पहुँचे। किन्तु उस सरोवर में गन्धर्वराज चित्ररथ पहले से ही आकर अपनी पत्नियों के साथ जलक्रीड़ा कर रहे थे। चित्ररथ के सेवकों ने दुर्योधन को सरोवर में उतरने से रोकते हुये कहा, “इस समय गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी पत्नियों के साथ इस सरोवर में जलक्रीड़ा कर रहे हैं, अतः उनके बाहर आने से पहले अन्य कोई भी सरोवर में नहीं उतर सकता।” सेवकों के इन वचनों को सुन कर दुर्योधन ने क्रोधित होकर कहा, “तू शायद जानता नहीं कि तू किससे बात कर रहा है। मैं हस्तिनापुर नरेश धृतराष्ट्र का महाबली पुत्र दुर्योधन हूँ। यह सरोवर हमारे राज्य की सीमा के अन्तर्गत आता है। तू जाकर चित्ररथ से कह दे कि इस राज्य का युवराज यहाँ जल विहार करने आया है और तुम्हें इस सरोवर से बाहर निकलने की आज्ञा दी है।” दुर्योधन के दर्पयुक्त सन्देश को सुन कर गन्धर्वराज चित्ररथ के क्रोध की सीमा न रही और उसने दुर्योधन तथा उसकी मण्डली के साथ युद्ध आरम्भ कर दिया। दुर्योधन के साथी और सेना कुछ समय तक तो युद्ध करते रहे किन्तु चित्ररथ को अधिक बलवान पाकर वे सभी दुर्योधन एवं राजमहिलाओं को वहीं छोड़कर भाग खड़े हुये। चित्ररथ ने दुर्योधन और उन राजमहिलाओं को कैद कर लिया। दुर्योधन के भगोड़ी सेना जब कुछ न सूझा तो वे वहाँ निवास करते हुये पाण्डवों के पास जाकरउनसे दुर्योधन और राजमहिलाओं की मुक्ति के लिये याचना करने लगे। उनकी याचना सुनकर भीमसेन ने प्रसन्न होकर युधिष्ठिर से कहा, “बड़े भैया! दुर्योधन अपने राजसी वैभव का हमारे सामने प्रदर्शन करने यहाँ आया था। गन्धर्वों ने दुर्योधन की दुर्दशा करके हमारे हित का काम किया है। आप कदापि उसे मत छुड़ाना।” इस पर युधिष्ठिर बोले, “भैया भीम! ये लोग हमारी शरण में आये हैं और शरण में आये लोगों की रक्षा करना क्षत्रियोंका धर्म होता है। फिर दुष्ट स्वभाव का होने के बाद भी दुर्योधन आखिर हमारा भाई ही है। उसके साथ की राज महिलाएँ हमारे ही कुल की महिलाएँ हैं और उनका निरादर होने से हमारे ही कुल को कलंक लगेगा। इसलिये उचित यही है कि तुम और अर्जुन जाकर उनकी रक्षा करो।” अपने बड़े भाई की आज्ञा मानकर भीम और अर्जुन ने सरोवर के पास जाकर चित्ररथ को युद्ध के लिये ललकारा। उनकी ललकार सुनकर चित्ररथ क्रोधित होने के बजाय मुस्कुराते हुये अर्जुन के पास आये और बोले, “हे पार्थ! मैं तो तुम्हारा सखा ही हूँ। वास्तव में दुष्ट दुर्योधन अपनी सेना के साथ तुम लोगों का वध करने के लिये यहाँ आया था। देवराज इन्द्र को इस बात की सूचना मिल चुकी थी इसलिये उन्होंने मुझे यहाँ भेजा था। हे सखा! नीति कहती है कि ऐसे दुष्टों को कभी क्षमा नहीं करना चाहिये, किन्तु अपने बड़े भ्राता की आज्ञा मानकर यदि तुम दुर्योधन को छुड़ाना ही चाहते हो, तो लो मैं इसे तथा इसके साथ की राजमहिलाओं को अभी छोड़ देता हूँ।” इतना कहकर चित्ररथ ने दुर्योधन सहित समस्त कैदियों को मुक्त कर दिया। वे सभी वहाँ से धर्मराज युधिष्ठिर के पास आये। ग्लानि से भरे दुर्योधन ने युधिष्ठिर को प्रणाम किया और लज्जा से सिर झुकाये अपने नगर की ओर चल दिया। दुर्योधन ने हस्तिनापुर लौटने की अपेक्षा आमरण अनशन करके शरीर त्यागने का निश्चय किया। कर्ण आदि ने उससे कहा- 'पांडवों का युद्ध करना स्वाभाविक कार्य था- तुम पर आभार नहीं था, क्योंकि शासक की रक्षा के निमित्त युद्ध करना प्रत्येक देशवासी का कर्तव्य है।' दुर्योधन किसी भी प्रकार नहीं माना। वह आचमन करके कुशासन पर आमरण अनशन के लिए बैठ गया। दानवों को मालूम पड़ा तो उन्होंने एक कृत्या से उसे उठवाकर रसातल में मंगवा लिया। दानवों ने सामूहिक रूप से उसे समझाया कि दुर्योधन का जन्म उन्हीं लोगों की शिव की आराधना में की गयी तपस्या के फलस्वरूप हुआ था। उसका नाभि से ऊपर का प्रदेश वज्र से बना होने के कारण विदीर्ण नहीं हो सकता था, नाभि से नीचे का प्रदेश पार्वती ने पुष्पमय बनाया था, अत: वह स्त्रियों को मोहित करने वाला है । भविष्य में अनेक दानव भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य आदि के शरीर में प्रवेश करेंगे, अत: वे मोहित होकर बंधु-बांधवों को मारने में संकोच नहीं करेंगे। नरकासुर का वध श्री कृष्ण ने किया था, वह कर्ण में प्रवेश करेगा। इन्द्र यह जानकर कर्ण के कुण्डल और कवच छल से ले लेगा- पर कौरवों की विजय ध्रुव है। इस प्रकार दुर्योधन को समझाकर दानवों ने कृत्या द्वारा उसे पुन: उसके आसन पर आसीन करवा दिया। दुर्योधन ने इसे स्वप्न समझा किंतु किसी पर प्रकट नहीं किया। प्रात:काल कर्ण के पुन: समझाने-बुझाने तथा अर्जुन को मार डालने की प्रतिज्ञा करने पर दुर्योधन ने आमरण अनशन छोड़कर उनके साथ हस्तिनापुर में प्रवेश किया। कालांतर में कर्ण ने पृथ्वी पर दिग्विजय प्राप्त की तथा दुर्योधन ने वैष्णव यज्ञ किया। अधीनस्थ राजाओं के कर से सोने का हल बनवाकर उससे यज्ञ-मंडप की भूमि जोती गयी। दुर्योधन यद्यपि राजसूय यज्ञ करना चाहता था, किंतु उसी के कुल के युधिष्ठिर ने यह यज्ञ कर रखा था, अत: इसके जीवित रहते राजसूय यज्ञ करना संभव नहीं था, ऐसी ब्राह्मणों की व्यवस्था थी। यज्ञ के उपरांत कर्ण ने अर्जुन को मार डालने की शपथ ली और कहा कि वह जब तक अर्जुन को नहीं मारेगा, तब तक किसी से पैर नहीं धुलवायेगा, केवल जल से उत्पन्न पदार्थ नहीं खायेगा, किसी पर क्रूरता नहीं करेगा तथा कुछ भी मांगने पर मना नहीं करेगा। गुप्तचरों के माध्यम से यह समाचार पांडवों तक भी पहुंचा। उधर स्वप्न में द्वैतवन के हिंसक पशुओं ने युधिष्ठिर से जाकर प्रार्थना की कि पांडवगण अपना आवास स्थान बदल लें, क्योंकि द्वैतवन में पशुओं की संख्या अत्यंत न्यून हो गयी है। युधिष्ठिर ने द्वैतवन का त्याग कर पांडवों, द्रौपदी तथा शेष साथियों सहित काम्यक वन में स्थित तृणबिंदु नामक सरोवर के लिए प्रस्थान किया। « पीछे जायेँ | आगे पढेँ » |
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